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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, May 4, 2013

‘‘सर हाईकोर्ट में हमारे साथ गाली-गलौज हो रही है।’’

 ''सर हाईकोर्ट में हमारे साथ गाली-गलौज हो रही है।''
डोमिनिक लापियरे की किताब 'अ थाउजंड संस' पढ़ रहा हूँ। 'आर्गोसी' पत्रिका के खोजी संवाददाता विलियम वुडफील्ड और मिल्ट माल्चिन दिन-ब-दिन फाँसी के फन्दे की ओर बढ़ते कैरिल चैसमैन को निरपराध सिद्ध करने के लिये घड़ी के काँटों से होड़ कर रहे हैं और मेरे दिमाग में रह-रह कर कल की घटना घूम रही है....
नैनीताल से हल्द्वानी के रास्ते पर था कि हमारे व्यावसायिक प्रतिनिधि धीरज पांडे का एसएमएस मिला, ''सर हाईकोर्ट में हमारे साथ गाली-गलौज हो रही है।'' चिन्तित होकर फोन लगाया तो कनेक्टिविटी ही नहीं। रास्ते भर उधेड़बुन में रहा। न्यायपालिका पर टिप्पणी हम करते ही रहे हैं। हाईकोर्ट ने मुजफ्फरनगर कांड के आरोपी अनन्त कुमार सिंह को बरी किया तो हमने न सिर्फ 'न्यायपालिका अंक' निकाला, बल्कि एक सितम्बर 2003 को सड़क पर भी मोर्चा खोल दिया। लोग बताते हैं कि आजाद भारत के इतिहास में ऐसी घटना दुर्लभ है। उससे आगे, हमने दो जजों के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाही भी आगे बढ़ाई। मगर ऐसा तो कभी नहीं हुआ....
हल्द्वानी पहुँच कर धीरज को फोन किया तो वह बहुत घबराया लगा। उसने बतलाया कि 15 से 30 अप्रेल के अंक में 'उद्योग शुक्ला को सजा' वाली खबर से कुछ वकील बड़े बौखलाये थे। अंट-शंट गालियाँ बकने लगे। ''मारपीट तो नहीं की ?'' मैंने पूछा तो उसने इन्कार किया। मैंने राहत की साँस ली। वे पिटते और मैं बचा रहता तो यह शर्मनाक बात होती। एक बात से अवश्य ताज्जुब हुआ। जिन तीन-चार वकीलों के नाम उसने बतलाये, उनमें से एक तो 'नैनीताल समाचार' के बड़े भक्त थे। रास्ते में रोक कर प्रशंसा करते, कभी किसी विषय विशेष पर लिखने का आग्रह भी करते।
मैंने उसे समझाया, देखो कल ही तुम कह रहे थे कि उसी अंक में छपी 'ये लंगड़ी नगरपालिकायें' वाले लेख से लोग कितने प्रभावित थे। कलक्ट्रेट में किसी दाढ़ीवाले पाठक ने तुम्हें अपनी प्रति दिखाते हुए कहा था, देखिये इतने लोगों के हाथ गुजरा है कि चिन्दी-चिन्दी हो गया है! तब तुमने उसे दूसरी प्रति दी थी। तो कभी फूलमालायें मिलेंगी तो कभी जूते भी पड़ेंगे ही। अब 'मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू' तो हो नहीं सकता। हाँ, अगर अखबार के छपे पर तुम पिट जाते तो अफसोस होता। मेरी बातों से धीरज को कुछ ढाँढस बँधा।
तो ऐसी 'कुत्ती चीज' है साहब यह कमबख्त पत्रकारिता.....
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