तथाकथित हिन्दू धर्म की रक्षा के ठेकेदारों के मुंह पर तमाचा हैं
देव दासी प्रथा ?
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तथाकथित हिन्दू धर्म की रक्षा के ठेकेदारों के मुंह पर तमाचा हैं देव दासी प्रथा ?
देवदासी प्रथा हमारे इतिहास का और संस्कृति का एक पुराना और काला अध्याय है, जिसका आज के समय में कोई औचित्य नहीं है. इस प्रथा के खात्मे से कहीं ज्यादा उन बच्चियों के भविष्य की नींव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है……….
देवदासी प्रथा कहते ही आपके मन में ये बात आती होगी कि वो महिलाएं जो धर्म के नाम पर दान कर दी जातीं हैं और फिर उनका जीवन धर्म और शारीरिक शोषण के बीच जूझता रहा. लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये घिनौनी प्रथा आज भी जारी है. आज भी आंध्र प्रदेश में, विशेषकर तेलंगाना क्षेत्र में दलित महिलाओं को देवदासी बनाने या देवी देवताओं के नाम पर मंदिरों में छोड़े जाने की रस्म चल रही है. "देवदासी बनी महिलाओं को इस बात का भी अधिकार नहीं रह जाता कि वो किसी की हवस का शिकार होने से इनकार कर सकें". जिस शारीरिक शोषण के शिकार होने के सिर्फ जिक्र भर से रुह कांप जाती हैं, उस दिल दहला देने वाले शोषण को सामना ये देवदासियां हर दिन करती हैं. देवदासी प्रथा भारत के दक्षिणी पश्चिम हिस्से में सदियों से चले आ रहे धार्मिक उन्माद की उपज है. जिन बालिकाओं को देवी-देवता को समर्पित किया जाता है, वह देवदासी कहलाती हैं। देवदासी का विवाह देवी-देवता से हुआ माना जाता है, वह किसी अन्य व्यक्ति सेविवाह नहीं कर सकती। सभी पुरुषों में देवी-देवता का अक्श मान उसकी इच्छा पूर्ति करती हैं।
देवदासी प्रथा भारत में आज भी महाराष्ट्र और कर्नाटक के कोल्हापुर, शोलापुर, सांगली, उस्मानाबाद, बेलगाम, बीजापुर, गुलबर्ग आदि में बेरोकटोक जारी है। कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती स्थित येल्लमा देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ पुर्णिमा जिसे 'रण्डीपूर्णिमा' भी कहते है, के दिन किशोरियों को देवदासियां बनाया जाता है. उस दिन लाखों की संख्या में भक्तजन पहुँच कर आदिवासी लड़कियों के शरीर के साथ सरेआम छेड़छाड़ करते हैं. शराब के नशे में धुत हो अपनी काम पिपास बुझाते हैं. "केवल महबूब नगर जिले में ऐसे रिश्तों से पैदा हुए पांच से दस हज़ार बच्चे हैं. पहले उनका सर्वे होना चाहिए. इन बच्चों के लिए विशेष स्कूल और हॉस्टल होने चाहिए और उन्हें नौकरी मिलनी चाहिए ताकि वो भी सम्मान के साथ जीवन बिता सकें." भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा करने के नाम पर पुजारियों और मठाधिशों की सेवा के लिए शुरू की गई 'देवदासी प्रथा' घोषित रूप से भले ही समाप्त हो गई हो, लेकिन देवदासियां आज भी हैं।
ज्ञात हो कि इतिहास के अनुसार भारत के मंदिरों की देवदासियां संभवतयाः पहली वेश्याएं थी, इसी प्रकार कोस्थि में एफ्रोडाइट के मंदिर तथा आर्मीनिया में एनाइतिस के मंदिर की हायरोड्यूल (मंदिर में रहने वाली दासियां) भी इसी काल की वेश्याएं थी, जो धन के बदले देह परोस पुरुष की काम तृप्ति करती, मिलने वाले धन को मंदिर के कोष में जमा करवा देती थी। यह देव दासियां, मंदिर में पुजारिओं सहित नगरसेठों आदि की कामतृप्ति करती थी। धर्म के नाम पर चलने वाला काम वासना का यह खेल मंदिरों से निकल नगर में वेश्यावृति के रूप में फैलने लगा है.
सुनीता दोहरे जी के ब्लॉग से
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देवदासी प्रथा हमारे इतिहास का और संस्कृति का एक पुराना और काला अध्याय है, जिसका आज के समय में कोई औचित्य नहीं है. इस प्रथा के खात्मे से कहीं ज्यादा उन बच्चियों के भविष्य की नींव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है……….
देवदासी प्रथा कहते ही आपके मन में ये बात आती होगी कि वो महिलाएं जो धर्म के नाम पर दान कर दी जातीं हैं और फिर उनका जीवन धर्म और शारीरिक शोषण के बीच जूझता रहा. लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये घिनौनी प्रथा आज भी जारी है. आज भी आंध्र प्रदेश में, विशेषकर तेलंगाना क्षेत्र में दलित महिलाओं को देवदासी बनाने या देवी देवताओं के नाम पर मंदिरों में छोड़े जाने की रस्म चल रही है. "देवदासी बनी महिलाओं को इस बात का भी अधिकार नहीं रह जाता कि वो किसी की हवस का शिकार होने से इनकार कर सकें". जिस शारीरिक शोषण के शिकार होने के सिर्फ जिक्र भर से रुह कांप जाती हैं, उस दिल दहला देने वाले शोषण को सामना ये देवदासियां हर दिन करती हैं. देवदासी प्रथा भारत के दक्षिणी पश्चिम हिस्से में सदियों से चले आ रहे धार्मिक उन्माद की उपज है. जिन बालिकाओं को देवी-देवता को समर्पित किया जाता है, वह देवदासी कहलाती हैं। देवदासी का विवाह देवी-देवता से हुआ माना जाता है, वह किसी अन्य व्यक्ति सेविवाह नहीं कर सकती। सभी पुरुषों में देवी-देवता का अक्श मान उसकी इच्छा पूर्ति करती हैं।
देवदासी प्रथा भारत में आज भी महाराष्ट्र और कर्नाटक के कोल्हापुर, शोलापुर, सांगली, उस्मानाबाद, बेलगाम, बीजापुर, गुलबर्ग आदि में बेरोकटोक जारी है। कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती स्थित येल्लमा देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ पुर्णिमा जिसे 'रण्डीपूर्णिमा' भी कहते है, के दिन किशोरियों को देवदासियां बनाया जाता है. उस दिन लाखों की संख्या में भक्तजन पहुँच कर आदिवासी लड़कियों के शरीर के साथ सरेआम छेड़छाड़ करते हैं. शराब के नशे में धुत हो अपनी काम पिपास बुझाते हैं. "केवल महबूब नगर जिले में ऐसे रिश्तों से पैदा हुए पांच से दस हज़ार बच्चे हैं. पहले उनका सर्वे होना चाहिए. इन बच्चों के लिए विशेष स्कूल और हॉस्टल होने चाहिए और उन्हें नौकरी मिलनी चाहिए ताकि वो भी सम्मान के साथ जीवन बिता सकें." भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा करने के नाम पर पुजारियों और मठाधिशों की सेवा के लिए शुरू की गई 'देवदासी प्रथा' घोषित रूप से भले ही समाप्त हो गई हो, लेकिन देवदासियां आज भी हैं।
ज्ञात हो कि इतिहास के अनुसार भारत के मंदिरों की देवदासियां संभवतयाः पहली वेश्याएं थी, इसी प्रकार कोस्थि में एफ्रोडाइट के मंदिर तथा आर्मीनिया में एनाइतिस के मंदिर की हायरोड्यूल (मंदिर में रहने वाली दासियां) भी इसी काल की वेश्याएं थी, जो धन के बदले देह परोस पुरुष की काम तृप्ति करती, मिलने वाले धन को मंदिर के कोष में जमा करवा देती थी। यह देव दासियां, मंदिर में पुजारिओं सहित नगरसेठों आदि की कामतृप्ति करती थी। धर्म के नाम पर चलने वाला काम वासना का यह खेल मंदिरों से निकल नगर में वेश्यावृति के रूप में फैलने लगा है.
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