पसमांदा-अतिपिछड़ा समाज और अपनी अलग राजनीतिक पार्टी का प्रश्न
यह लेख 'पसमांदा क्रांति अभियान' से जुड़े कुछ युवा कार्यकर्ताओं ने लिखा है. लेख अभी फ़ाइनल नहीं है और सिर्फ बहस के लिए जारी किया जा रहा है.
हम अक्सर बात करते हैं कि पहले सामाजिक क्रांति, फिर राजनीतिक क्रांति. बामसेफ जैसे गैर-राजनीतिक संगठन अनवरत प्रचार करते हैं कि सामाजिक क्रांति के बिना राजनीतिक क्रांति असंभव है. वे अपनी इस अवधारणा की पुष्टि में बहुजन समाज पार्टी का उदाहरण सामने रखते हैं. बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशी राम बामसेफ के गैर-राजनीतिक आंदोलन को छोड़कर बाहर निकले थे. बसपा का भटकाव और राजनीतिक अवसरवाद, जो मान्यवर कांशी राम के जीवनकाल में ही दिखने लगा था, बामसेफ के लिए अपनी भ्रामक अवधारणा को एक सही अवधारणा के रूप में प्रस्तुत करने के लिए एक अच्छे उदाहरण का काम करता है.
वे कौन से कारण रहे होंगे जिसके चलते कांशी राम बामसेफ के गैर-राजनीतिक आंदोलन से अलग हुए और एक राजनीतिक पार्टी बनाने की ओर अग्रसर हुए? गैर-राजनीतिक आंदोलन चलाने वालों के लिए यह समझना जरूरी है?
बामसेफ और डीएस-४ के आंदोलन के दौरान उनसे लोगों ने विधान सभा/लोक सभा चुनावों के समय बार-बार प्रश्न किया होगा कि वे किस पार्टी को वोट दें? आज जब बसपा बन चुका है तो बामसेफ के सामने यह प्रश्न उठता भी नहीं होगा. किन्तु उस समय जब मान्यवर कांशी राम ने बसपा नहीं बनाया था तो उनके लिए यह एक ऐसा प्रश्न था जिसका जवाब देना कठिन रहा होगा. विकल्प के अभाव में अपने लोगों द्वारा ऐसी पार्टियों को वोट करना जिनको वे अपने जनसंपर्क अभियानों में बहुजन विरोधी ठहरा चुके थे उनके लिए शर्मसार करने वाला अनुभव रहा होगा. बहुजन जनता के लिए भी जो अपने तजुर्बे और बामसेफ और डीएस-४ के वैचारिक आंदोलनों से अपने दोस्त और दुश्मन की पहचान कर चुके थे ऐसी पार्टियों को वोट करना जो उनके वर्ग-शत्रु थे एक बलात्कारी को बेटी देने जैसा हतोत्साहित करने वाला वाकया रहा होगा. मनोविज्ञान के स्तर पर देखा जाए तो ऐसी घटनाओं की बार-बार पुनरावृति जब वर्गीय-सामाजिक चेतना से लैस हो चुकी जनता विकल्प के अभाव में अपने वर्ग-शत्रुओं को वोट करने के लिए अभिशप्त होती है उनमें दोहरे व्यक्तित्व (Split Personality) का निर्माण करती है जो समाज और राजनीति के भविष्य के लिए खतरनाक स्थिति होती है. कांशी राम साहेब की ऐतिहासिक भूमिका इस बात में निहित है कि उन्होंने बसपा बनाकर अपने लोगों को उस स्थिति से उबारा जब वे अपने ही विरोधियों को वोट दिया करते थे.
जब हम कहते हैं कि सामाजिक क्रान्ति पहले और राजनीतिक क्रान्ति इसके उपरान्त तो ऐसा प्रतीत होता है कि समाज और राजनीति आपस में असम्बद्ध परिघटनाएं हैं, कि समाज के एजेंडे पर राजनीति और राजनीति के एजेंडे पर समाज नहीं लाया जा सकता है. भारतीय समाज एक कठिन समाज है. कठिन इस मायने में कि यहाँ सामाजिक परिवर्तन की रफ़्तार बेहद कम है. समाज सुधारकों की कई पीढियों का संघर्ष भी इस समाज में कुछेक मामूली सुधार ही ला पाने में सक्षम हो सका है. हमारे देश में लक्षणीय परिवर्तन राजनीतिक संघर्षों और राजनीतिक सत्ता के जोर से होना संभव हो पाया है. देश में पहली बार आरक्षण कोल्हापुर रियासत के राजा साहू जी महाराज ने अपने सूबे में लागू किया जिससे प्रेरणा लेकर बहुजनों ने आरक्षण लागू करने के लिए अपने-अपने सूबे में संघर्ष करना शुरू कर दिया. पेरियार के नेतृत्व में हुए संघर्षों की बदौलत मद्रास प्रेसीडेंसी में जस्टिस पार्टी की सरकार ने इसे लागू किया. अखिल भारतीय स्तर पर दलितों को आरक्षण दिलाने के लिए डॉ. भीम राव अम्बेदकर को राजनीतिक संघर्ष करने पड़े. डॉ राम मनोहर लोहिया का नारा "पिछड़ा पावे सौ में साठ" ने उत्तर भारत में पिछड़ों को संगठित किया और कई राज्यों में उनको सत्ता में पहुंचाया जो अंततः केन्द्रीय स्तर पर मंडल आयोग को लागू करने का कारक बना. भारतीय समाज में बदलाव की प्रक्रिया को तेज करने में मंडल आयोग को लागू करने का महत्व अब सर्वस्वीकृत है. बिहार और उत्तर प्रदेश में सामाजिक परिवर्तन की जो लहर चल रही है उसका मुख्य कारण वहाँ दलित-पिछड़ों की राजनीतिक सत्ता का होना है. यहाँ यह जोड़ना अप्रासंगिक नहीं होगा कि बुद्ध का सामाजिक परिवर्तन का आंदोलन भी राजनीतिक संरक्षण में होना संभव हो पाया था. राजा राम मोहन राय भी अंग्रेज़ी राज के संरक्षण में सती प्रथा को समाप्त कर पाए थे.
बहुजनों ने अब तक जो हासिल किया है वह राजनीतिक संघर्षों के बिना प्राप्त कर पाना असंभव था. बहुजन राजनीति में आज जो समस्याएं दिखायी पड़ रही है उसका समाधान गैर-राजनीतिक आंदोलनों में नहीं बल्कि नए एजेंडे के साथ राजनीति की नयी जमीन बनाने में है.
जिन प्रश्नों का सामना मान्यवर कांशी राम ने किया था वैसे प्रश्न हम जो पसमांदा बेदारी अभियान चला रहे हैं के सामने भी समय आने पर खड़े होंगे. पसमांदा क्रांति अभियान के बुकलेट में हमने आंकड़े के माध्यम से साबित कर दिया है कि देश की सभी मुख्य राजनीतिक पार्टियां पसमांदा के लिए मुनासिब नहीं है. ऐसे में सहजता से सवाल उठता है कि पसमांदा क्या करें, आगामी चुनावों में वे किसको वोट करें? आज हमारे पास इसका विश्वसनीय जवाब नहीं है क्यों कि हम अभी तक कोई राजनीतिक विकल्प खड़ा नहीँ कर पाए हैं. राजनीतिक विकल्प के अभाव में हमारे सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ऐसी राजनीतिक पार्टियों का दामन थाम लेते हैं जो वोट के लालच में उनको कुछ पद वगैरह तो दे देते हैं किन्तु बदले में उनकी बोली ले लेते हैं जिसके चलते वे पसमांदा के ऊपर जुल्म होने पर भी कुछ बोल नहीं पाते हैं. जब ऐसा होता है तो पसमांदा जमात का अपने नेताओं पर से विश्वास उठ जाता है जो अंततः पसमांदा आंदोलन को नुकसान पहुंचाता है. ऐसे छोटे-बड़े ढेरों उदाहरण हमारे सामने बिखरे पड़े हैं. हमारे पास एक राजनीतिक पार्टी बनाकर काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीँ बचता है.
पसमांदा ने अपनी कोई पार्टी नहीं बनाई है, ऐसा भी नहीं है. 'पीस पार्टी' का उदाहरण हमारे सामने है. 'पीस पार्टी' पसमांदा की पार्टी जरूर थी या है क्योंकि इसको बनाने वाला एक पसमांदा है किन्तु यह विचार करने का मुद्दा है कि क्या यह पसमांदा के लिए थी या है. "पसमांदा की पार्टी" और "पसमांदा के लिए पार्टी" के फर्क को समझना आज अत्यंत आवश्यक है. पसमांदा की कोई पार्टी पसमांदा के लिए तभी मानी जायेगी जब उसके एजेंडे पर पसमांदा के लिए सामाजिक न्याय का मुद्दा साफ़-साफ़ रेकॉर्ड किया हुआ हो. इसी तर्ज पर आज यह भी फैसला करने का वक्त आ गया है कि दलितों-पिछड़ों की पार्टियाँ सपा, बसपा, राजद और जद (यू) क्या उनके लिए भी है? आज वक्त आ पहुँचा है कि पसमांदा जमात अपने हिंदू अति पिछड़े भाईयों-बहनों के साथ मिलकर एक ऐसी पार्टी बनाएं जो न केवल उनकी हो बल्कि उनके लिए भी हो. यह तो प्राथमिक शर्त है कि पसमांदा-अति पिछड़ों की जो भी पार्टी बने वह न केवल उनकी हो बल्कि उनके लिए भी हो. किन्तु ऐसी पार्टी को विफलता से बचाने के लिए यह भी आवश्यक होगा कि यह पार्टी प्राथमिक शर्त को पूरा करते हुए उससे ऊपर उठे. बसपा ने अपनी स्थापना के समय पूरे बहुजन जमात की सामाजिक शोषण से मुक्ति को अपना लक्ष्य घोषित किया था. कालान्तर में यह पार्टी दलितों, आगे चलकर जाति विशेष और और आगे जाकर व्यक्ति विशेष की पार्टी बनकर रह गई. यही बात बाक़ी सब पार्टियों, जैसे सपा, आरजेडी, डीएमके औरजद (यू) पर भी लागू होती है. शोषित समाज कई हिस्सों में विभक्त होकर भी एक पूरा समाज है. ऐसा नहीं हो सकता है कि कोई एक जमात तो सामाजिक शोषण और उत्पीड़न से मुक्त हो जाए और बाकी जमात सामाजिक शोषण और उत्पीड़न की चक्की में पिसता रहे. इसलिए कोई पार्टी शोषित समाज की मुक्ति के घोषित लक्ष्य से जब पीछे हटती है तो वह पीछे हटती चली जाती है तब तक जब तक कि वह जाति और अंततः व्यक्ति विशेष की पार्टी बनकर नहीं रह जाती है. पसमांदा-अति पिछड़ों की प्रस्तावित पार्टी को पूरे बहुजन समाज की मुक्ति के रास्ते पर चलना होगा तभी यह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है. उत्तर भारत में पसमांदा-अति पिछड़ों ने अपनी सामाजिक-राजनीतिक दावेदारी सबके बाद प्रस्तुत किया है. इसलिए हम अभी तक के इतिहास का विश्लेषण कर सही निर्णय ले सकते हैं.
अपने लिए पार्टी बनाने का विचार हम एक ऐसे समय में कर रहे हैं जब सामाजिक न्याय का सामाजिक इंजिनियरिंग में पतन हो चुका है और बहुजन अवाम महसूस करने लगी है कि अपनी पार्टी अपने लिए भी होनी चाहिए. इसी का प्रभाव है कि बिहार में लालू-राबड़ी की पन्द्रह साल और उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार का पतन हो चुका है. जनता अपने होनेवाले जनप्रतिनिधियों की जाति के साथ उसकी योग्यता भी परख रही है. जनता पार्टियों के मुद्दे देख रही है. ऐसा लगता है कि केवल सामाजिक पहचान (जाति) के आधार पर राजनीति करने का ज़माना लद चुका है. आज के दौर में राजनीति में Identity (पहचान) और Ideology(विचारधारा) दोनों जरूरी हो गया है. पसमांदा-अति पिछड़ों की इस प्रस्तावित पार्टी को अपने नाम सेIdentity और Ideology की घोषणा करनी चाहिए.
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