Saturday, 04 May 2013 11:46 |
सुभाष गाताडे यों तो बांग्लादेश इस समूची आपाधापी में थोड़ा अलग जान पड़ता है, जहां के युवा सेक्युलर संविधान को लागू कराने के लिए कटिबद्ध दिखते हैं और उन्होंने बिना किसी लागलपेट के युद्ध-अपराधियों को सजा देने की मांग की है। मजहब की सियासत करने वाले संगठनों से लोहा ले पाने की स्थिति में वे हैं। पिछले दशक में उसी बांग्लादेश में कट्टरपंथी संगठनों का इस कदर बोलबाला था कि उन्होंने एक साथ चौंसठ जिलों में लगभग तीन सौ पचास स्थानों पर बम विस्फोट करके अपनी ताकत का इजहार किया था। अगर भारत की बात करें तो ऐसे कई बहुसंख्यकवादी संगठनों, तंजीमों से हमारा साबका पड़ सकता है, जिन्होंने अगले आम चुनाव पर अपनी आंखें आज से ही गड़ा ली हैं। दक्षिण एशिया के बाकी मुल्कों की तरह इसका प्रतिबिंबन सांप्रदायिक गोलबंदी से लेकर बहुसंख्यकवादी संगठनों से जुड़े आतंकी समूहों द्वारा की जाने वाली आतंकी कार्रवाई तक में देखा जा सकता है। यह कहना अधिक मुनासिब होगा कि 2002 के गुजरात जनसंहार के बाद- जिसमें इनकी संलिप्तता जगजाहिर थी- इन्होंने अपनी नीति में सूक्ष्म बदलाव किया जान पड़ता है। याद रहे कि गुजरात-2002 को लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानवाधिकार संगठनों द्वारा पैंसठ से अधिक रिपोर्टें प्रकाशित की गर्इं, जिन्होंने उन दुखद घटनाओं की समीक्षा करते हुए पाया कि किस तरह दंगाइयों को राज्यतंत्र की शह हासिल थी। यह अकारण नहीं कि आधिकारिक तौर पर एक हजार से अधिक निरपराधों की मौत के लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकने वाले सूबे के मुखिया को कई देशों में वीजा नहीं मिल रहा है। रणनीति में यह सूक्ष्म बदलाव ऐसे प्रगट हो रहा है। विश्लेषकों के मुताबिक यह सिलसिला है दंगे के आतंक से बम के आतंक की दिशा में बढ़ना। लगभग डेढ़ साल पहले खुफिया ब्यूरो के एक विशेष निदेशक ने राज्यों के पुलिस प्रमुखों को बताया था कि किस तरह 'हिंदुत्व आतंक' अपनी कल्पना से अधिक बड़ी परिघटना है जिसमें जांच एजेंसियों को कम से कम सोलह बड़े आतंकी कांडों में इनकी संलिप्तता स्पष्ट दिखी है। अपनी प्रस्तुति में विशेष निदेशक ने बताया था कि ये दक्षिणपंथी हिंदू संगठन भावनात्मक मुद््दों को उछालते हैं जिसके चलते बहुसंख्यक समुदाय के एक हिस्से का अतिवादीकरण होता है और 'हिंदुत्व आतंक' अधिक फलता-फूलता है। विडंबना यह है कि एक अजीब किस्म का मौन इस बारे में पसरा हुआ है। बात तभी होती है, जब कोई नई गिरफ्तारी होती है, कुछ नए खुलासे होते हैं। मगर बाकी समय खामोशी रहती है, गोया सभी ने मिल कर तय किया हो कि इसबारे में बोलना नहीं है। एक वजह यह भी जान पड़ती है कि मसले को लेकर विभ्रम है, लोगों को लगता है कि इस आतंक की चर्चा करने का मतलब है कि बहुमत के धर्म को ही प्रश्नांकित करना। लेकिन जिस तरह यहूदी धर्म और यहूदीवाद को समकक्ष नहीं रखा जा सकता, जिस तरह इस्लाम और राजनीतिक इस्लाम को समकक्ष नहीं रखा जा सकता, इस्लाम और उसकी दुहाई देते हुए हिंसाचार में लिप्त लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद को समकक्ष नहीं रखा जा सकता, वही बात हम हिंदू धर्म और हिंदुत्व के संदर्भ में भी कर सकते हैं। इस फर्क को खुद सावरकर ने अपनी चर्चित रचना में स्पष्ट किया है, जिसका शीर्षक है 'हिंदुत्व'। वे स्पष्ट लिखते हैं कि 'यह रेखांकित करना काफी है कि हिंदुत्व को जिसे हिंदू धर्म कहा जाता है उसके समकक्ष नहीं रखा जा सकता।' दक्षिण एशिया के विशाल हिस्से में विभिन्न रूपों में प्रगट होता बहुसंख्यकवाद उन सभी के सामने एक चुनौती के रूप में उपस्थित है, जो अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण दक्षिण एशिया के निर्माण का सपना देख रहे हैं, जहां मुल्कों के बीच आपसी संबंध समानता के आधार पर कायम हों। यह तभी मुमकिन है, जब इन मुल्कों में रहने वाले सभी समुदाय आपस में बराबरी का रिश्ता रखें और समान रूप से अवसरों का लाभ उठा सकें। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Saturday, May 4, 2013
दक्षिण एशिया में बहुसंख्यकवाद
दक्षिण एशिया में बहुसंख्यकवाद
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment