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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, May 4, 2013

दक्षिण एशिया में बहुसंख्यकवाद

दक्षिण एशिया में बहुसंख्यकवाद

Saturday, 04 May 2013 11:46

सुभाष गाताडे 
जनसत्ता 4 मई, 2013: अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन 'ह्यूमन राइट्स वॉच' द्वारा पिछले दिनों म्यांमा के रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर जारी रिपोर्ट के अंश अखबारों में प्रकाशित हुए हैं। वे बताते हैं कि किस तरह रोहिंग्या मुसलमानों को राज्यविहीन घोषित कर उन्हें म्यांमा से निकालने और किस तरह उनके नस्ली शुद्धीकरण की कोशिशें चल रही हैं, उनके प्रार्थनास्थलों को जलाया जा रहा है, मकानों पर कब्जा किया जा रहा है। 
इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के एक रोज पहले लंदन से निकलने वाले अखबार 'गार्डियन' ने 'बर्मा (म्यांमा) का बिन लादेन' कहलाने वाले एक बौद्ध भिक्खु विराथू को लेकर खबर छापी थी, जिस पर इल्जाम है कि वह म्यांमा में सांप्रदायिक घृणा फैलाने की मुहिम का सूत्रधार है। कइयों का मानना है कि उसके नफरत भरे भाषणों के कारण ही बौद्धों और वहां के रोहिंग्या मुसलिम समुदाय के बीच बीते जून में हिंसक झड़पें हुई थीं जिनमें दो सौ लोग मारे गए थे और एक लाख से अधिक विस्थापित हुए थे। 
डीवीडी और सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी जहर भरी बातें लोगों तक पहुंचाने वाले विराथू के प्रवचनों को अगर कोई सुने तो उसे लग सकता है कि शांत स्वरों में मोक्षप्राप्ति की बात चल रही है। पर अगर आप बर्मी भाषा से परिचित हों तो आप देख सकते हैं कि किस तरह बेबुनियाद अफवाहों और नस्ली पूर्वग्रहों को परोसते हुए बौद्धों को हिंसा के लिए उकसाया जा रहा है। मंडाले के अपने मासोयिन मठ से लगभग दो हजार पांच सौ भिक्खुओं की अगुआई करने वाले विराथु के फेसबुक पर हजारों फालोअर्स हैं और यूट्यूब पर वीडियो को लाखों बार देखा जा चुका है। सैनिक तानाशाही के जबर्दस्त अंकुश में रहे म्यांमा के बढ़ते खुलेपन के साथ छह करोड़ की बौद्ध आबादी वाले इस मुल्क में मुसलिम विरोधी भावना तेजी से गति पकड़ रही है और इसके पीछे विराथू का हाथ बताया जाता है।
कहां बौद्ध धर्म का अहिंसा और सद्भाव का संदेश और कहां उसके इक्कीसवीं सदी के इन अनुयायियों का नस्ली शुद्धीकरण की मुहिम में साथ देना! वैसे म्यांमा कोई अकेला स्थान नहीं है जहां बौद्ध समुदाय के अतिवादी, अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे हैं। 
पड़ोसी मुल्क श्रीलंका को देखें जहां बौद्ध भिक्खुओं का एक हिस्सा विराथू से टक्कर ले सकता है। इन्हीं के एक समूह द्वारा बनाए 'बोडु बाला सेना' का नाम पिछले कुछ समय से सुर्खियों में है, जो एक अतिवादी सिंहल-बौद्ध संगठन है- जिसकी अगुआई विराथू की ही तरह बौद्ध भिक्खु कर रहे हैं। इसकी स्थापना भिक्खु वेन किरामा विमलाजोति और वेन गालागोडा अथथे ज्ञानसारा ने की है, जब वे एक अन्य बौद्ध अतिवादी संगठन जाथिका हेला उरूमाया से इस आधार पर अलग हुए कि वह संगठन बौद्धों के हितों की रक्षा करने में विफल रहा है। इस संगठन का मुख्यालय कोलंबो के बुद्धिस्ट कल्चरल सेंटर में है, जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने दो साल पहले किया था।
इस नवफासीवादी संगठन के हजारों समर्थक हैं, जो मानते हैं कि श्रीलंका को अल्पसंख्यकों से खतरा है। हजारों लोग उनकी रैलियों में शामिल होते हैं तो सोशल मीडिया पर भी उनकी अच्छी-खासी पकड़ बनी है। बोडु बाला सेना का दावा है कि 'सिंहल बौद्ध राष्ट्र' श्रीलंका में 'मुसलमानों, ईसाइयों और तमिलों के लिए कोई जगह नहीं है।' बोडु बाला सेना के मुताबिक अगर वे चाहें तो वहीं रह सकते हैं, मगर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनना होगा। वे अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक विश्वासों, पूजा-पाठ के तरीकों और प्रार्थना स्थलों को निशाना बनाते हैं। पिछले साल अप्रैल में बौद्ध भिक्खुओं की अगुआई में श्रीलंका के मध्य में स्थित एक शहर की मस्जिद पर इन आततायियों ने हमला किया, जबकि उस वक्त वहां नमाज अता की जा रही थी। 
एक माह बाद कोलंबो के उपनगर में दूसरे समूह ने मस्जिद पर हमला किया। बीते साल में ऐसे आततायियों द्वारा मस्जिद आदि स्थानों पर पाबंदी लगाने की मांग करते हुए पांच बड़ी घटनाएं हुर्इं। दूसरी तरफ, कई अन्य मस्जिदों का बने रहना किस तरह समाज के लिए घातक है, यह कहते हुए वे तमाम नेताओं को लिख भी चुके हैं और कुछ मस्जिदों पर ताला लगवाने में भी कामयाब हुएहैं। इसमें दो राय नहीं कि बोडु बाला सेना की गतिविधियां कानून का उल्लंघन करती हैं। इसके बावजूद न आधिकारिक तौर पर कोई उनके कामों की भर्त्सना करता है न उन पर कोई कार्रवाई होती है। इसके अतिरिक्त, श्रीलंकाई समाज में बौद्ध भिक्खुओं की जैसी पैठ है और उन्हें जैसा सम्मान प्राप्त है, उससे बाडु बाला सेना की गतिविधियों पर अंकुश लगना फिलवक्त नामुमकिन दिखता है।
गौरतलब है कि म्यांमा और श्रीलंका में बौद्धों का एक हिस्सा अल्पसंख्यकों के खिलाफ अतिवादी कार्रवाइयों में मुब्तिला है और उसके निशाने पर मुसलिम हैं, हिंदू और ईसाई भी। 
उधर हम देखते हैं कि दक्षिण एशिया के अन्य मुल्क पाकिस्तान में उत्पीड़क के तौर पर मुसलिम नजर आते हैं, जहांहिंदू, ईसाई और अहमदिया जैसे अल्पसंख्यक समुदाय बराबर खौफ में जीने को अभिशप्त हैं। ईशनिंदा का आरोप लगा कर उनकी बस्तियों पर हमले होते हैं, उन्हें जेल में ठूंसा जाता है। मगर ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान के इस्लामी अतिवादी सिर्फ इन गैर-मुसलिमों के खिलाफ हैं। 
वे सूफी मजारों के सामने मानव बम बन कर अपने ही धर्म के अनुयायियों को भी उड़ा दे रहे हैं, या शियाओं के नस्ली शुद्धीकरण में मुब्तिला हैं। क्योंकि उनका मानना है कि मजार पर जाना इस्लाम की तौहीन   करना है। पाकिस्तान के ऐसे ही अतिवादी समूहों में शीर्ष पर है सिपाह-ए-साहिबा, जिसका गठन अस्सी के दशक के पूर्वार्द्ध में झंग नामक स्थान पर हुआ। इसका घोषित मकसद है पाकिस्तान में शियाओं के प्रभाव को कम करना। वर्ष 2002 में तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने इस संगठन को 'आतंकी' करार देते हुए इस पर पाबंदी लगा दी थी। इन दिनों इसे 'अहले सुन्नत वल जमात' नाम से जाना जाता है। इस संगठन पर भी पिछले साल मार्च में पाबंदी लगा दी गई, यह अलग बात है कि उसकी कारगुजारियों में कोई कमी नहीं आई है। 

ऐसे कई संगठन हैं जिन्होंने पाकिस्तान की राजनीति में समावेशी आवाजों को लगातार कुचलने की कोशिश की है। इनके प्रभाव का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान की संसद के लिए हो रहे चुनावों में उन्होंने कई स्थानों पर पीपीपी यानी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, एमक्यूएम यानी मोहाजिर कौमी मूवमेंट और अवामी नेशनल पार्टी की आम सभाएं न होने देने का एलान किया है और यह चेतावनी भी दी है कि अगर जनसभा हुई तो वे आतंकी हमला करेंगे, जबकि उन्हीं इलाकों में इस्लामवादी पार्टियों के जलसों को उन्होंने बदस्तूर होने दिया। 
यों तो बांग्लादेश इस समूची आपाधापी में थोड़ा अलग जान पड़ता है, जहां के युवा सेक्युलर संविधान को लागू कराने के लिए कटिबद्ध दिखते हैं और उन्होंने बिना किसी लागलपेट के युद्ध-अपराधियों को सजा देने की मांग की है। मजहब की सियासत करने वाले संगठनों से लोहा ले पाने की स्थिति में वे हैं। पिछले दशक में उसी बांग्लादेश में कट्टरपंथी संगठनों का इस कदर बोलबाला था कि उन्होंने एक साथ चौंसठ जिलों में लगभग तीन सौ पचास स्थानों पर बम विस्फोट करके अपनी ताकत का इजहार किया था।
अगर भारत की बात करें तो ऐसे कई बहुसंख्यकवादी संगठनों, तंजीमों से हमारा साबका पड़ सकता है, जिन्होंने अगले आम चुनाव पर अपनी आंखें आज से ही गड़ा ली हैं। दक्षिण एशिया के बाकी मुल्कों की तरह इसका प्रतिबिंबन सांप्रदायिक गोलबंदी से लेकर बहुसंख्यकवादी संगठनों से जुड़े आतंकी समूहों द्वारा की जाने वाली आतंकी कार्रवाई तक में देखा जा सकता है। यह कहना अधिक मुनासिब होगा कि 2002 के गुजरात जनसंहार के बाद- जिसमें इनकी संलिप्तता जगजाहिर थी- इन्होंने अपनी नीति में सूक्ष्म बदलाव किया जान पड़ता है।
याद रहे कि गुजरात-2002 को लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानवाधिकार संगठनों द्वारा पैंसठ से अधिक रिपोर्टें प्रकाशित की गर्इं, जिन्होंने उन दुखद घटनाओं की समीक्षा करते हुए पाया कि किस तरह दंगाइयों को राज्यतंत्र की शह हासिल थी। यह अकारण नहीं कि आधिकारिक तौर पर एक हजार से अधिक निरपराधों की मौत के लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकने वाले सूबे के मुखिया को कई देशों में वीजा नहीं मिल रहा है।
रणनीति में यह सूक्ष्म बदलाव ऐसे प्रगट हो रहा है। विश्लेषकों के मुताबिक यह सिलसिला है दंगे के आतंक से बम के आतंक की दिशा में बढ़ना। लगभग डेढ़ साल पहले खुफिया ब्यूरो के एक विशेष निदेशक ने राज्यों के पुलिस प्रमुखों को बताया था कि किस तरह 'हिंदुत्व आतंक' अपनी कल्पना से अधिक बड़ी परिघटना है जिसमें जांच एजेंसियों को कम से कम सोलह बड़े आतंकी कांडों में इनकी संलिप्तता स्पष्ट दिखी है। अपनी प्रस्तुति में विशेष निदेशक ने बताया था कि ये दक्षिणपंथी हिंदू संगठन भावनात्मक मुद््दों को उछालते हैं जिसके चलते बहुसंख्यक समुदाय के एक हिस्से का अतिवादीकरण होता है और 'हिंदुत्व आतंक' अधिक फलता-फूलता है। 
विडंबना यह है कि एक अजीब किस्म का मौन इस बारे में पसरा हुआ है। बात तभी होती है, जब कोई नई गिरफ्तारी होती है, कुछ नए खुलासे होते हैं। मगर बाकी समय खामोशी रहती है, गोया सभी ने मिल कर तय किया हो कि इसबारे में बोलना नहीं है। एक वजह यह भी जान पड़ती है कि मसले को लेकर विभ्रम है, लोगों को लगता है कि इस आतंक की चर्चा करने का मतलब है कि बहुमत के धर्म को ही प्रश्नांकित करना।
लेकिन जिस तरह यहूदी धर्म और यहूदीवाद को समकक्ष नहीं रखा जा सकता, जिस तरह इस्लाम और राजनीतिक इस्लाम को समकक्ष नहीं रखा जा सकता, इस्लाम और उसकी दुहाई देते हुए हिंसाचार में लिप्त लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद को समकक्ष नहीं रखा जा सकता, वही बात हम हिंदू धर्म और हिंदुत्व के संदर्भ में भी कर सकते हैं। इस फर्क को खुद सावरकर ने अपनी चर्चित रचना में स्पष्ट किया है, जिसका शीर्षक है 'हिंदुत्व'। वे स्पष्ट लिखते हैं कि 'यह रेखांकित करना काफी है कि हिंदुत्व को जिसे हिंदू धर्म कहा जाता है उसके समकक्ष नहीं रखा जा सकता।'
दक्षिण एशिया के विशाल हिस्से में विभिन्न रूपों में प्रगट होता बहुसंख्यकवाद उन सभी के सामने एक चुनौती के रूप में उपस्थित है, जो अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण दक्षिण एशिया के निर्माण का सपना देख रहे हैं, जहां मुल्कों के बीच आपसी संबंध समानता के आधार पर कायम हों। यह तभी मुमकिन है, जब इन मुल्कों में रहने वाले सभी समुदाय आपस में बराबरी का रिश्ता रखें और समान रूप से अवसरों का लाभ उठा सकें।

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