मराठवाड़ा यात्रा: दूसरी किस्त
(गतांक से आगे)
कब्र पर सपने
अट़ठाईस साल के बाबासाहेब जिगे का बाकी इतिहास भी इतना ही रहस्यमय है। शुरुआती दिनों में अपने चाचा से प्रभावित होकर वे 2007 से पहले तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में हुआ करते थे। वहां का अनुशासन उन्हें पसंद नहीं आया, तो अचानक वे अपने बड़े भाई देविदास से प्रभावित होकर सीपीआई के एआईएसएफ में चले आए। जाते-जाते उन्होंने हमें जो कार्ड दिया, उस पर उनके नाम के आगे कॉमरेड लिखा है और एआईएसएफ के राज्य सदस्य व जिला सचिव, सीपीआई के जिला सदस्य, अखिल भारतीय नौजवान सभा के राज्य सदस्य, उनके गांव में चलने वाले सार्वजनिक ग्रंथालय के ग्रंथपाल, शहीद भगत सिंह क्रीड़ा मंडल व व्यायामशाला के सदस्य जैसे परिचयों के अतिरिक्त उनके गांव मठपिंपल में स्थित एक फोटो और वीडियो शूटिंग स्टूडियो के प्रोपराइटर का पता भी है।
पिछले पंद्रह साल से कर्मठ जमीनी कार्यकर्ता की तरह खेतिहर मजदूरों के बीच काम कर रहे देविदास से उलट बाबासाहेब अपने पांच साल के करियर की बदौलत अब विधायकी का चुनाव लड़ना चाहते हैं। यह चाहत निराधार नहीं है। उनके जैसों की पूरी एक फौज है जो दुष्काल में भी सुनहरे सपने देखती है। इन्हीं में एक हैं उनके चचेरे भाई भारतीय जनता पार्टी के तालुकाध्यक्ष कृष्णा लिंबाजीराव जिगे, जो फिलहाल मठपिंपल गांव में बनी पशु छावनी के संचालक हैं।
गौसेवा के नाम पर सूखे में कमाई का अवसर: मठपिंपल गांव में एक पशु छावनी |
मराठवाड़ा में जब से अकाल घोषित हुआ है, यहां सरकारी अनुदान की मदद से कुछ पशु छावनियां बनाई गई हैं जो सड़कों पर चलते हुए किसी गांव के बाहर आसानी से नज़र आ सकती हैं। फिलहाल अम्बड़ तालुका में ऐसी सात छावनियां हैं जिनमें प्रत्येक में औसतन पांच से सात सौ मवेशी रहते हैं। यहां सरकारी टैंकरों से पानी पहुंचाया जाता है। ऐसी अधिकतर छावनियां स्थानीय नेता और दबंग संचालित कर रहे हैं। झक सफेद कुरते में करीने से रंगे हुए बालों वाले कृष्णा जिगे इस काम को समाज सेवा बताते हुए कहते हैं, ''पिछले डेढ़ महीने में मेरा डेढ़ लाख का निजी नुकसान हो गया है इस छावनी को चलाने में, लेकिन कोई बात नहीं। आनंद आता है। पुण्य मिलता है। लोग जानते हैं। ये सब राजनीति के लिए ज़मीन तैयार करेगा।''
सूखे में विधायकी की तैयारी: कृष्णा जिगे |
जालना के गणेशनगर में रहने वाले दिनेश काम्बले बड़े किसान हैं। लंबे समय से मौसम्बी पैदा कर रहे हैं। पिछले कुछ साल से बारिश कम होने और भूजल स्तर नीचे चले जाने के कारण उन्होंने फैसला किया कि खुद का पैसा लगाकर पानी की एक पाइपलाइन खेत तक ले आएंगे। अक्टूबर 2011में दिनेश ने सात किलोमीटर लंबी पाइपलाइन पर 20 लाख रुपए का निवेश किया जिससे 20 एकड़ मौसम्बी का खेत सींचा जाना था। पैसे बह गए, पानी नहीं आया। जालना-अम्बड़ मार्ग पर मुख्य बाजार से ठीक पहले दाहिने हाथ पर दिनेश का 20 एकड़ खेत आज पूरी तरह पीला पड़ चुका है। दिनेश के सिर पर कुल 70 लाख रुपए का कर्ज है। वे आजकल घर से बाहर नहीं निकलते हैं। बाजार का हर आदमी उनकी बरबादी की कहानी सुनाता है। अब सबको बस उनकी खुदकुशी की खबर का इंतजार है। अगर पानी बरस भी गया, तो दिनेश जैसे मौसम्बी उत्पादकों के किसी काम का नहीं होगा क्योंकि इस फसल को दोबारा फल देने लायक बनने में पांच से सात साल का वक्त लगता है।
डूब गए 70 लाख, खेती बनी फंदा: दिनेश काम्बले का 20 एकड़ मौसम्बी का खेत |
बेयरिंग चोरी गई, पत्थर बाकी हैं : दुधना नदी पर बना छोटा बांध |
किस्मत पर हंसते, सरकार को गरियाते लोग: बाएं से बाबासाहेब जिगे, आसाराम महापुरे, कुछ ऑटो चालक और किसान तुकाराम म्हाड़े (सबसे दाएं) |
जिगे जैसे नौजवान दुष्काल से सूखी जिस ज़मीन पर खड़े होकर सियासी पेंच लड़ा रहे हैं, वह उतनी कमजोर भी नहीं है। वे जानते हैं कि दुष्काल और चुनाव दो अलहदा चीज़ें हैं। सपने, कब्र पर भी देखे जा सकते हैं।
(क्रमश:)
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