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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, May 1, 2013

मल्‍टीनेशनल गिरोह से कुछ ऐसे निकला सैनेटरी नैपकिन!

मल्‍टीनेशनल गिरोह से कुछ ऐसे निकला सैनेटरी नैपकिन!

मल्‍टीनेशनल गिरोह से कुछ ऐसे निकला सैनेटरी नैपकिन!

1 MAY 2013 NO COMMENT

♦ अरुणाचलम मुरुगनाथम

मैंअपनी बीवी के लिए कुछ खास करना चाहता था… और उसी काम ने आज मुझे यहां ला खड़ा किया। नाम और पैसे भी दिलाये। तो बात तब की है, जब मेरी नयी नयी शादी हुई थी। शादी के पहले पहले दिनों में हर पति अपनी पत्नी की नजरों में छा जाना चाहता है। मैं भी यही चाहता था। एक दिन मैंने पाया कि मेरी पत्नी कोई चीज छुपा कर ले जा रही थी। मैंने देख लिया।

"ये क्या है?" उससे पूछा।
बीवी ने कहा, "तुम्हारे मतलब का कुछ नहीं।"

मैंने भाग कर देखा, वो अपने पीछे एक पोछे जैसा कपड़ा छुपा रही थी। वैसे कपड़े से तो मैं अपना टू-व्हीलर भी साफ न करूं! तब मैं समझा वो क्या था – मासिक धर्म के दिनों से निपटने का अस्वास्थ्यकर, अस्वच्छ तरीका।

मैंने तुरंत पूछा, तुम ये अस्वास्थ्यकर तरीका क्यों अपना रही हो? उसने कहा, "मैं भी सैनिटरी पैड के बारे में जानती हूं, पर अगर मैं और मेरी बहनें उनका इस्तेमाल करने लगीं, तो महीने के दूध का खर्च काटना पड़ेगा। मुझे जैसे झटका लगा। भला दूध के खर्च और सेनेटरी नैपकिन के इस्तेमाल में क्या संबंध है? यहां सीधा सवाल था खर्चा कर पाने की क्षमता का। मैंने अपनी बीवी को खुश करने के लिए उसे सैनेटरी पैड का पैकेट देने की ठानी। मैं सैनेटरी पैड खरीदने पास की एक दुकान में गया। दुकानदार ने दायें-बायें देखा, एक अखबार फैलाया और पैकेट को उसमें लपेटकर ऐसे देने लगा, जैसे कोई बहुत गलत चीज दे रहा हो। क्यों भई? मैंने कंडोम तो नहीं मांगा था! मैंने एक पैड उठाया। मैं देखना चाहता था कि ये था क्या, और इसके अंदर क्या है?

तो पहली बार, 29 साल की उमर में, मैंने एक सैनेटरी पैड को अपने हाथ में लिया। अब आप बताइए : यहां कितने आदमी हैं, जिन्होंने सैनेटरी पैड हाथ में लिया है? मुझे पता है, आप में से ऐसा यहां कोई नहीं। आखिर ये झमेला भी तो आपका नहीं! फिर मैंने सोचा, हे भगवान, ये रूई से बनी कौड़ियों के दाम की सफेद चीज को ये लोग सौ, दो सौ गुना ज्यादा महंगा बेच रहे हैं! क्यों न मैं अपनी नयी नवेली बीवी के लिए खुद ही सैनेटरी पैड बनाऊं? तो शुरुआत यहीं से हुई। मगर सैनेटरी पैड बनाने के बाद, मैं उसे परखने कहां ले जाता? आखिर मैं उसकी जांच किसी लैबोरेटरी में नहीं करवा सकता था। मुझे किसी महिला वोलंटियर की जरूरत थी। ऐसी महिला इस पूरे भारत में कहां मिलती? ऐसा कोई बैंगलोर में मिलने से तो रहा। तो समस्या का समाधान यही था : बलि का एकलौता उपलब्‍ध बकरा, मेरी बीवी।

मैंने सैनेटरी पैड बनाकर शांति को दे दिया। मेरी पत्नी का नाम शांति है। "अपनी आंखें बंद करो। मैं तुम्हें जो देने जा रहा हूं, वो न तो हीरों का हार है, न हीरे की अंगूठी, न ही कोई चॉकलेट। मैं तुम्हें रंगीन कागज में लपेटकर एक सरप्राइज देने जा रहा हूं। अपनी आंखें बंद करो।" मैं उसे ये तोहफा बड़े प्यार से देना चाहता था। आखिर हमारी अरेंज्‍ड मैरेज थी, लव मैरेज नहीं।

फिर एक दिन उसने मुझे सीधे कहा, "मैं इसमें तुम्हारा साथ नहीं दूंगी।" मुझे नये उपयोगकर्ता चाहिए थे, तो अब मैंने अपनी बहनों से मदद मांगी। पर न बहनें, न बीवी, इस काम में मदद के लिए तैयार नहीं था। इसलिए मुझे हमेशा अपने देश के साधु-संतों से जलन होती है। उनके आस-पास हमेशा महिला स्वेच्छासेवियों की टोली होती है। लेकिन मेरी मदद को एक भी महिला तैयार नहीं? और देखिए, साधु-संतों के काम में महिलाएं बुलाने से पहले ही स्वेच्छा-सेवा के लिए जमा हो जाती हैं। फिर मैंने मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से मदद लेने की सोची। मगर उन्‍होंने भी मना कर दिया। आखिरकार मैंने तय किया कि मैं खुद ही सैनेटरी पैड पहन कर देखूंगा। मेरा काम चांद में कदम रखने वाले पहले इंसान आर्मस्ट्रांग, या पहले एवरेस्ट चढ़ने वाले तेंजिंग और हिलेरी के ही जैसा है मुरुगनाथन – दुनिया में सैनेटरी पैड पहनने वाला पहला आदमी!

तो मैंने सैनेटरी पैड पहना। एक फुटबॉल बॉटल में जानवर का खून भर कर यहां बांध दिया। इससे निकलकर एक ट्यूब मेरी चड्डी के अंदर जाती थी। चलते समय, साइकिल चलाते समय मैं उसको दबाता था, जिससे ट्यूब से खून निकलता था। इस अनुभव के बाद मैं किसी भी महिला के आगे ससम्मान सर झुकाना चाहूंगा। वो पांच दिन मैं जिंदगी भर नहीं भूल सकता – वो तकलीफ भरे दिन, वो बेचैनी और गीलापन! हे भगवान, सोच पाना भी मुश्किल है!

पर अब समस्या थी, एक कंपनी रूई से नैपकिन बना रही थी। उनका पैड सही काम कर रहा था। पर मैं भी तो अच्छे रूई से ही सैनेटरी पैड बना रहा था। मगर मेरे बनाये पैड काम नहीं कर रहे थे। बार-बार नाकामी से परेशान होकर मैं ये सब छोड़ देना चाहता था। पहले आपके पास पैसे होने चाहिए। पर परेशानी सिर्फ पैसे की ही नहीं थी। चूंकि मेरा काम सैनेटरी नैपकिन जैसी चीज को लेकर था, मुझे हर तरह की परेशानी का सामना करना पड़ा। यहां तक कि अपनी बीवी से तलाक का नोटिस भी। ऐसा क्यों? क्योंकि मैंने मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से मदद ली थी। बीवी को लगा, मैं इस काम के बहाने मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से चक्कर चला रहा था। आखिरकार मुझे पाइन की लकड़ी से बनने वाली विशेष सेलुलोज का पता चला, मगर उससे पैड बनाने के लिए करोड़ों की लागत वाले प्‍लांट की जरूरत थी। रास्ते में फिर रुकावट आ गयी। मैंने और चार साल बिताये और खुद ही एक साधारण, आसान सी मशीन बनायी। इस मशीन से कोई भी ग्रामीण महिला बड़े मल्टीनेशनलों के प्‍लांट में लगने वाले कच्चे माल से ही घर बैठे विश्व स्तर की नैपकिन बना सकती है। ये मेरी खोज है।

इसके बाद, मैंने क्या किया, किसी के पास कोई पेटेंट या आविष्कार होता है, तो तुरंत वो उससे पैसे बनाना चाहता है। मैंने ऐसा नहीं किया। मैंने उसे बिल्कुल ऐसे ही छोड़ दिया, क्योंकि अगर कोई पैसे के पीछे ही भागता रहे, तो जीवन में कोई सुंदरता नहीं बचेगी। जिंदगी बड़ी उबाऊ होगी। बहुत से लोग ढेर सारा पैसा बनाते हैं, करोड़ों, अरबों रुपये जमा करते हैं। इस सबके बाद वो आखिर में समाजसेवा करने आते हैं, क्यों? पहले पैसों का ढेर बनाकर फिर समाजसेवा करने आने का क्या मतलब है? क्यों न पहले दिन से ही समाज के बारे में सोचें? इसीलिए, मैं ये मशीन केवल ग्रामीण भारत में, ग्रामीण महिलाओं को दे रहा हूं। क्योंकि भारत में, आपको जानकर आश्चर्य होगा, केवल दो प्रतिशत महिलाएं सैनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करती हैं। बाकी सभी, फटे-पुराने, पोछे-नुमा कपड़े, पत्ते, भूसा, लकड़ी का बुरादा – इसी सब से काम चलाती हैं – सैनेटरी नैपकिन नहीं। इस 21वीं सदी में भी ये हाल है। इसी वजह से मैंने ये मशीन भारत भर की गरीब महिलाओं को देने की सोची है। अब तक 23 राज्यों और 6 और देशों में 630 मशीन लग चुके हैं।

बड़े बड़े मल्टीनेशनल और विदेशी कंपनियों के उत्पादों से जूझ कर जमकर टिके रहने का ये मेरा सातवां साल है – इस बात से सभी एमबीए दंग हैं। स्कूल की पढ़ाई भी पूरी न कर पाने वाला कोयंबटूर का एक साधारण आदमी, कैसे अब तक मार्केट में टिका है? इसी बात ने मुझे सभी आईआईएम में विजिटिंग प्रोफेसर और गेस्ट लेक्चरर बना दिया।

तो आपको याद है एक दिन अपनी बीवी के हाथ में उसे देखकर मैंने पूछा, "तुम इस गंदे कपड़े का इस्तेमाल क्यों कर रही हो?" उसने तुरंत जवाब दिया, "मुझे नैपकिन के बारे में पता है, मगर अगर मैं उनका इस्तेमाल करने लगी, तो हमें हमारे दूध का खर्च काटना पड़ेगा।" और इसी बात से मुझे प्रेरणा मिली कि क्यों न मैं कम कीमत का नैपकिन बनाऊं? तो मैंने अब तय किया है कि इस नयी मशीन को केवल महिला स्वंय सहायता समूह (एसएचजी) को ही बेचूंगा। यही मेरी सोच है।

पहले आपको नैपकिन बनाने के लिए करोड़ों निवेश करना पड़ता था, मशीन और बाकी ताम-झाम में। अब, कोई भी ग्रामीण महिला आसानी से इसे बना सकती है। वो लोग पूजा कर रहीं हैं।

जरा सोचिए… हारवर्ड, ऑक्सफोर्ड से पढ़कर आये दिग्गजों से मुकाबला आसान नहीं। मगर मैंने ग्रामीण महिलाओं को इन मल्टीनेशनल से टक्कर लेने की ताकत दी। मैं सात साल से अपने पैर जमाये खड़ा हूं। अब तक 600 मशीनें लग चुकी हैं। क्या है मेरा मकसद? मैं भारत को अपने जीते जी सौ फीसदी सैनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करने वाला देश बनाना चाहता हूं। इस काम से मैं कम से कम दस लाख ग्रामीणों को रोजगार दिलाने जा रहा हूं। यही वजह है कि मैं पैसे के पीछे नहीं भाग रहा। मैं एक महत्वपूर्ण काम कर रहा हूं। अगर आप किसी लड़की का पीछा करें, वो आपको भाव नहीं देगी। मगर अगर आप अपना काम ढंग से करें, लड़की आपके पीछे-पीछे आएगी। बिल्कुल वैसे ही, मैंने कभी महालक्ष्मी (पैसे) का पीछा नहीं किया। महालक्ष्मी ही मेरे पीछे आ रही हैं, और मैं उन्हें अपने पीछे की पॉकेट में रखता हूं। सामने की पॉकेट में नहीं, मैं पैसे पीछे की पॉकेट में रखने वाला इंसान हूं। बस, मुझे इतना ही कहना था। स्कूली शिक्षा पूरी न करने वाले एक आदमी ने समाज में सैनेटरी पैड न इस्तेमाल कर पाने की समस्या को समझा। मैंने समस्या का समाधान बनाया। मैं बहुत खुश हूं। मैं अपने इस प्रयास को कोई कॉरपोरेट शक्ल नहीं देना चाहता। मैं इसे एक देसी सैनेटरी पैड आंदोलन बनाना चाहता हूं, जो आगे चलकर विश्व भर में फैल जाए। इसलिए मैंने इसकी सारी जानकारी ओपेन सॉफ्टवेयर की तरह साधारण लोगों की पहुंच में रखी है। आज 110 देश इससे जुड़ रहे हैं। क्या कहते हैं? मैं समझता हूं लोग तीन तरह के होते हैं : अनपढ़, कम पढ़े-लिखे, और बहुत पढ़े-लिखे। एक कम-पढ़े लिखे आदमी ने ये कर दिखाया। आप सब बहुत पढ़े लिखे लोग, आप समाज के लिए क्या कर रहे हैं?

बहुत धन्यवाद आप सभी का। चलता हूं।

अनुवाद : अर्पिता भट्टाचार्य, संपादन : राहुल

http://mohallalive.com/2013/05/01/arunachalam-muruganantham-how-i-started-a-sanitary-napkin-revolution/

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