पुस्तकांश : प्रतिरोध और जागरण का आगमन
Author: समयांतर डैस्क Edition : February 2013
मिशेल बो
उन्नीसवीं शताब्दी का पूंजीवाद जैसे-जैसे फला-फूला वैसे ही वैसे उसने पाशविक टकराव को जन्म दिया : पूंजीवादी समृद्धि और मजदूरों की तंगहाली के बीच। परिष्कृत ऐशो-आराम और अपरिष्कृत व्यवस्था के बीच। सत्ता और पूर्ण दासता के बीच।
ये दो अलग-अलग संसार थे। जानलेवा दुश्मन, फिर भी एक दूसरे से अविभाज्य। मिमरेल के एक उद्योगपति नार्ड ने तथ्यगत ढंग से लिखा : 'मजदूरों की नियति बुरी नहीं है : उनका श्रम अत्यधिक नहीं है क्योंकि वे 13 घंटों से ज्यादा काम नहीं कर पाते… जिस उत्पादक का मुनाफा कम है, वह हदया का पात्र है।' थियेर (1871-73 तक फ्रांसीसी जनतंत्र का राष्ट्रपति) मानवतावादियों की प्रतिभा पर जोर देता था : 'अमीर आदमी कभी-कभी परोपकारी हो जाता है और वह गरीब की झोपड़ी देखने अपने राजमहल से बाहर निकलता है। वह भयंकर गंदगी और संक्रामक बीमारियों से बहादुराना मुकाबला करता है और जब उसे नए आनंद का पता चल जाता है तो उसे इसका शौक हो जाता है। इसमें उसे आनंद मिलता है और इसके बिना वह नहीं रह सकता है।' यह एक और कारण था जिससे सुधारों का विचार लागू नहीं होना चाहिए था : 'मान लीजिए कि सबकी दौलत बराबर हो, मान लीजिए कि सारी संपदा और सारी कंगाली मिट जाए तो किसी के पास देने का साधन नहीं रह जाएगा… आप मानवता के सबसे मधुर, सबसे सुंदर और सबसे दयावान कार्यकलाप का दमन कर चुके होंगे। विपणन सुधारक, आप ईश्वर की सृष्टि को उसे फिर से छेडऩे की चाहत से बर्बाद कर चुके होंगे।'
एक ही मिल, एक ही शहर में दो संसार : इधर ऐसा माहौल जहां व्यवस्था, शांति और 'अच्छे मिजाज' का साम्राज्य है, उधर अस्वास्थ्यकर माहौल : गंदगी, घालमेल, अभद्रता, असुरक्षा। अकसरहां उद्योगपति का राजमिस्त्री मिल के आसपास होता था। एक पार्क के बीच में। उससे आगे मजदूरों के घर होते थे। जैसे-जैसे एक दूसरे से सटे हुए या पंक्तिबद्ध। पहले से ही पहली पितृसत्तावादी गतिविधियों का विकास होने लगा था। पहले से ही प्रबुद्ध मन-मस्तिष्क में यह विस्फोटक परिस्थिति भर चुकी थी। इन्हीं लोगों के बीच से लुई नेपोलियन बोनापार्ट कहता है:
मजदूर वर्ग जिसके पास कुछ नहीं है, उसके पास कुछ रहना चाहिए। उनकी भुजाएं ही उनकी एकमात्र संपत्ति हैं। इन भुजाओं को सबके लिए उपयोगी रोजगार मिलना चाहिए… उन्हें समाज में स्थान मिलना चाहिए। उनके हित देश की मिट्टी के हित के साथ जुड़ जाने चाहिए। अंतत: मजदूर वर्ग संगठनविहीन और गठजोड़विहीन है। वह अधिकारविहीन और भविष्यविहीन है। उन्हें अधिकार और भविष्य मिलना चाहिए। संगठन, शिक्षा ओर अनुशासन की बदौलत अपनी ही नजर में उनका उत्थान होना चाहिए।
लेकिन 1848 में फ्रांस में घृणा फूट पड़ी। 7 अप्रेल 1849 को मार्शल ब्यूगु ने थियेर को लिखा : 'वे कितने क्रूर और उग्र हिंसक पशु हैं। भगवान माताओं को ऐसी संतान पैदा करने की इजाजत कैसे देता है। उफ! रूसी या आस्ट्रेलियाई नहीं ये लोग असली दुश्मन हैं।' और लुई नेपोलियन बोनापार्ट का सौतेला भाई चाल्र्स मॉर्नी ने उसे लिखा :
समाजवाद ने भयानक प्रगति कर ली है… करने के लिए इतना ही बचा है कि माल-असवाब समेटो, गृहयुद्ध की तैयारी करो और कज्जाकों से प्रार्थना करो कि आकर हमारी मदद करें। यह वाक्य लिखते समय मुझे हंसी आ रही है और मुझे लगता है कि तुम्हारे राष्ट्रीय गौरव को धक्का लगेगा। लेकिन मुझ पर यकीन करो कि अगर तुमने नजदीक से समाजवादी खेमे को देख लिया तो उनकी तुलना में कज्जाकों को चुनने में तुम संकोच नहीं करोगे। मेरी देशभक्ति वहां रुक जाती है।
मजदूर आंदोलन की परिपक्वता
जब मॉर्नी समाजवाद की भयावह प्रगति की बात करता है तो वह उसका सारांश एक वाक्य में पेश करता है कि वह एक धीमा और बहुपक्षीय आंदोलन था। सबसे पहले मजदूरों के संघर्ष हुए। उन्नीसवीं सदी में ये संघर्ष कंगाली और भूख से पे्ररित औरतों और मर्दों के कार्यकलाप थे। जिंदा रहने के लिए जेल, निष्कासन और अपनी जान का जोखिम उठाना पड़ता था। यांत्रिक उत्पादन के विस्तार से बर्बाद और काम से वंचित कारीगर मजदूरों की तीखी प्रतिक्रियाएं हुईं। उन लोगों ने मशीनें तोड़ डालीं और मिलों को जला डाला। बेरोजगारी और भुखमरी के शिकार लोगों के निराश और खतरनाक जुलूस निकले और शोषण की बढ़ती आक्रामकता के खिलाफ क्रोध के भयावह विस्फोट हुए : मजदूरी में कमी, काम के घंटों में बढ़ोतरी, कारखाना कानूनों की सख्ती; कभी-कभी तो एक चिंगारी ही काफी थी। महज एक अत्याचार, महज एक मनमाना निर्णय।
संगठनों की ओर से भी अथक प्रयास हुए। एक समूह में लाने के प्रयास। एकजुटता कायम करने के प्रयास। ये प्रयस कमोबेश लुक-छिपकर चलते थे : पुरानी व्यापार संरचना को बनाए रखने या पुनर्जीवित करने के प्रयास, मजदूर संघ, गुप्त समाज; शराबखानों में जमावड़े; किसी अखबार के इर्द-गिर्द समूहों का निर्माण; किसी मजदूर, किसी मुद्रक या दुकानदार के पास-पड़ोस या शहर में खास प्रभाव का निर्माण। इनमें भी वैसे लोगों के साथ जो पढ़े-लिखे होते थे और दूसरों के सामने बोलते थे। राहत संगठन, परस्पर लाभदायक संगठन और सहयोग समिति बनाए गए : ओवेन, फूरिए और प्रुदों के विचार उठे। उन पर चर्चा हुई। उन्हें तोड़ा-मरोड़ा गया और लागू किया गया।
समाजवादी विचार भी मौजूद थे। वे परिपक्व हो रहे थे और उनकी जड़ें जम रही थीं। इनमें बड़ी-बड़ी हस्तियां थीं जिन्हें पैदा करने में उन्नीसवीं शताब्दी सक्षम थी : ब्लांकी, प्रूदों, बाकूनिन, एंगेल्स, मार्क्स और संत साइमनवादी। इनमें संत साइमनवादी लोग मजदूरों के माहौल में घुसे। फ्लोरा त्रिस्तान जैसी महिला भी थीं जिन्होंने महिलाओं और सर्वहारा के उत्पीडऩ की निंदा की। वैसे मजदूर थे जिन्होंने पढ़ा और अपने विचार और संस्मरण लिखे। इसके साथ ही स्वप्नद्रष्टा, विद्रोही, आदर्शवादी और उत्कट सुधारक भी हुए। असंख्य पंफलेटों में निष्क्रिय आस्था के साथ दरिद्रता के समाधान की वकालत की गई। सामाजिक विचारों पर समाजवादियों का एकाधिकार नहीं था : महान क्लासिकीय अर्थशास्त्री जॉन स्टूअर्ट मिल समाज सुधारक था। उसके सुधारवादी मार्ग को कई तरह से सीसमंदी ने खोल दिया।
मजदूर वर्ग के भीतर या इर्द-गिर्द उत्पन्न ये विभिन्न कार्यरत शक्तियां एक दूसरे के साथ हस्तक्षेप करती थीं या जुड़ती थीं। कभी-कभी उनमें टकराव भी होता था। ठीक इसी कारणवश कि मजदूर वर्ग आम जनता के अन्य स्तरों के साथ बहुतेरे बिंदुओं पर जुड़ा हुआ था। मजदूर वर्ग के भीतर इन शक्तियों ने निम्न और मध्यम पूंजीपतियों के बीच की अन्य शक्तियों के साथ संपर्क साधा। ये पूंजीवादी शक्तियां जनतंत्र और गणराज्य के लिए संघर्ष को नेतृत्व दे रही थीं। यह जुड़ाव मजदूर वर्ग की विविधता के कारण ही हो सका। ये संघर्ष अकसरहां अलग-अलग होते थे। कभी-कभी ही मिलते थे। इस प्रकार मजदूर आंदोलन जिस राह पर चलकर परिपक्व बना उस पर अनंत विविधता और विशाल समृद्धि के चिह्न थे।
'सामाजिक नियोक्ता' के रूप में चकाचौंध करने वाले उत्थान और सफलता के बाद ओवेन अपने समुदायों की विफलता से हतोत्साहित नहीं हुए। उसकी स्थापना उन्होंने संयुक्त राज्य में की थी। ग्रेट ब्रिटेन में ट्रेड यूनियन आंदोलन के पहले संगठनात्मक दौर में वे मजदूर आंदोलन की मुख्य हस्तियों में एक थे : 1833 में अपने विघटन के पूर्व ग्रांड नेशनल कांसोलिडेटेड ट्रेड यूनियन की सदस्य संख्या 5,00,000 तक पहुंच गई थी। ब्रिटिश मजदूरों की ऊर्जा का बड़ा भाग महान लोकप्रिय आंदोलन चार्टिस्ट आंदोलन में लग गया था। इस आंदोलन के सूत्रधार विलियम लॉवेट और फार्गुस ओ' कोनर थे : इसका मुख्य उद्देश्य सच्चे राजनीतिक जनतंत्र की स्थापना करना था। इसमें पुरुषों के लिए वयस्क सार्विक मताधिकार और संसदीय मुआवजा शामिल थे ताकि निर्धन उम्मीदवार चुने जा सकें। 1839 में इसी स्वीकृति के बाद 1842 तक इस मांगपत्र पर 20-30 लाख और 1848 तक 50-60 लाख हस्ताक्षर हो चुके थे। लेकिन आंदोलन में फूट पड़ गई (लॉवेट महीना भर की लंबी आम हड़ताल और हिंसा का विरोधी था और ओ' कॉनर इसकी वकालत करता था) और संसदीय टाल-मटोल का शिकार बना। उसे धमकी और दमन झेलना पड़ा और दुविधा की स्थिति में खत्म हो गया।
इस पूरी अवधि में उत्प्रवासन ने निकास का काम किया। इस शताब्दी के मध्य के बाद मजदूर वर्ग के एक भाग ने देखा कि उसकी वास्तविक मजदूरी बढ़ गई और शोषण की परिस्थितियां मंद पड़ गईं। पुरुषों का सार्विक मताधिकार 1867 में मिल गया। यूनियन संगठनों का नया और निर्णायक दौर तब प्रगति कर रहा था। इसका नतीजा हुआ 1868 में ट्रेड यूनियन कांग्रेस का निर्माण। सार्विक मताधिकार और ट्रेड यूनियन संगठन : तब से मजदूर आंदोलन ब्रिटिश पूंजीपतियों की नजर में ऐसी ताकत बन गया जिस पर ध्यान देना जरूरी था।
फ्रांस में मजदूर 1830 में चार्ल्स (दसम) को खदेड़ देने वाली लोकप्रिय और गणराज्यवादी शक्तियों के बीच सक्रिय थे। लेकिन लुई फिलिप के खिलाफ बैरिकेडों में उनके लोग शामिल नहीं थे। इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था जिससे उनका उत्पीडऩ और जीवन के खतरे कम होते। मुक्ति का किराया घट गया था। फिर भी इसका संबंध दसियों हजारों स्वामियों से था। हड़तालों, दंगों और गली-कूचों की की कार्रवाइयों में जनअसंतोष और मजदूर असंतोष व्यक्त होता रहा। लिऑन के सिल्क मजदूर विद्रोह पर उतर गए : 'हम रोटी और रोजगार के लिए लड़ रहे हैं।' सेना ने शहर से फिर कब्जा कर लिया। इसमें एक हजार लोग मारे गए या घायल हो गए। जैसे-जैसे आंदोलन खिंचता गया शासक वर्ग किसी भी स्थिति के लिए तैयार हो गया। थियेर ने कहा 'कोई दया नहीं।' 'सब-के-सब मार डाले जाएं। बिलकुल दया नहीं। निर्दयी हो जाओ… 3000 उपद्रवियों के बीच से हमें अपने हथियार और मंजिल तैयार करना होगा', व्यूगो ने यह आदेश दिया। यह विषादमय ट्रांस्नोने का कत्लेआम था।
जुलाई 1830 में भूस्वामी अभिजात्य के खिलाफ सभी वर्ग एकजुट थे। फरवरी 1848 में वे उच्चस्थ पूंजीपतियों लुई फिलिप और ग्विजट के खिलाफ एकजुट थे। लेकिन गणतंत्रवादी और मजदूर इस विजय को छोडऩा नहीं चाहते थे। वास्तव में गणतंत्र की घोषणा हो गई जैसे सार्विक मताधिकार और काम के अधिकार की घोषणा हुई थी। नेशनल वर्कशॉप का निर्णय दबाव में लिया गया था और मजदूरों का असंतोष जारी था : डी तोक्विले ने लिखा कि 'यह देखना अटपटा और कष्टदायक था कि अनेक अमीरों से भरापूरा विशाल शहर उनके कब्जे में था जिनके पास कुछ नहीं था।' 'चिंता और भय ने बड़े से छोटे तक सभी धनवानों को एकजुट कर दिया : पेरिस के मजदूर उस समय अलग-अलग पड़ गए जब उन्हें कैवेग्नाक के दमन के हवाले किया गया।' 'दुश्मनों को कुचल डालने का जिम्मा' उसे ही सौंपा गया था। हजारों लोग मारे गए थे और 11,000 से ऊपर गिरफतारियां हुई थीं। थोड़े से लोगों को मौत या आजीवन जबरन श्रम की सजा मिली थी। बहुतेरे लोगों को देश से निकाला गया और अकसरहां अल्जीरिया भेजा जाता था।
काम के अधिकार को 'काम करने की आजादी' में बदल दिया गया। सार्विक मताधिकार द्वारा एक राष्ट्रपति का चुनाव होना था : पहला निर्वाचित व्यक्ति लुई नेपोलियन बोनापार्त था। जब सम्राट था तब उसने ही 'समाजवाद और सैन्यवाद के गठजोड़' के माध्यम से 'गरीबी उन्मूलन' की वकालत की थी। इसके लिए नियोक्ताओं और मजदूरों के बीच 'पंचाटों' का बिचौलिया वर्ग खड़ा करने की वकालत भी उसने ही की थी यानी औद्योगिक फौज में अफसर खड़ा करने की। जो व्यक्ति इन सबके पक्ष में खड़ा हुआ था उसने ही अब मुख्यत: औद्योगिक और बैंक पूंजीवाद को आगे बढ़ाया। इसी 'उदारवादी' साम्राज्य के अधीन हड़ताल के अधिकार को भी मान्यता मिली (1854) और फ्रांसीसी ट्रेड यूनियनवाद के पहले वास्तविक विस्तार का अनुभव हुआ।
जर्मनी में भी मजदूर आंदोलन का जन्म कड़ी टक्कर और खूनी संघर्ष के बीच हुआ। 1844 में सेल्सियन बुनकरों के विद्रोह के मामले में ऐसा ही हुआ था। 1862 में लासाल ने जेनरल एसोसिएशन ऑफ जर्मन वर्कर्स की स्थापना की और ट्रेड यूनियन आंदोलन का विकास हुआ। 1867 के संविधान ने सार्विक मताधिकार स्थापित किया और 1869 में बेबेल और लिबनेख्त ने सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी की नींव रखी। यूरोप के अन्य देशों के साथ-साथ संयुक्त राज्य में भी मजदूर आंदोलन आगे बढ़ा और ट्रेड यूनियन संगठन का विकास हुआ। कभी-कभी पाशविक दमन के माहौल में। संयुक्त राज्य अमेरिका में पहले विशाल केंद्रीकृत ट्रेड यूनियन नेशनल लेबर यूनियन की स्थापना 1866 में डब्ल्यू.एच. सिल्विस ने की थी।
1864 में अंग्रेज ट्रेड यूनियनवादियों, जुझारू फ्रांसीसी मजदूरों और निष्काशित जर्मनों (कार्ल मार्क्स सहित), इटली, स्विट्जरलैंड और पोलैंड से निष्कासित लोगों ने लंदन में इंटरनेशनल वर्किंग मेन एसोसिएशन का गठन किया। इसने मजदूर आंदोलन में एक नया आयाम खोल दिया उसे ठोस बनाया। दीगर बात है कि यह काम सीमित तरीके से हुआ : अंतर्राष्ट्रीयतावादी के तरीके से।
इस प्रकार ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग खुद को शानदान और विजेता पूंजीवाद के आधार पर प्रभावशाली वर्ग के रूप में मुश्किल से सारे संसार पर आरोपित कर पाया था। फ्रांस, जर्मनी और संयुक्त राज्य के पूंजीपतियों को उस गठबंधनों पर निर्भर रहना पड़ता था जो उसकी राह के रोड़े थे। तभी मजदूर वर्ग ने अपनी राजनीतिक और सामाजिक ताकत का एहसास करा दिया। अब तक कुचले जाते रहे, निरस्त्र होते रहे और रोज-रोज उत्पीडऩ और पाशविक दमन झेलते रहे लोग अब संगठित हुए। उन्होंने पार्टियों, ट्रेड यूनियनों और क्लबों की स्थापना की और अपने विकास के लिए अन्य स्वायत्त साधन अपनाए। न तो उत्पीडऩ बंद हुआ और न दमन, लेकिन अब से प्रभावशाली वर्ग का ऐसे वर्ग से सामना हुआ जो शक्ति संतुलन थोपने में सक्षम था। इस शक्ति संतुलन ने पूंजीवाद के भविष्य के बदलाव को गहरे ढंग से प्रभावित किया।
पूंजी, पूंजीवाद के विश्लेषण के रूप में
मार्क्स ने क्लासिकीय अर्थशास्त्रियों की सोच, विजेता की तरह उभर रहे पूंजीवाद के साक्षी लोगों की टिप्पणियों और समाजवादियों की आलोचना को काफी श्रेय दिया। इसके बावजूद कि उनसे अलग पहचान बनाने और अपने चिंतन को आगे बढ़ाने के क्रम में उन्होंने उनकी आलोचना भी की। अकसरहां बढ़चढ़कर आलोचना की। उनकी मजबूती अपने गहन अंतज्र्ञान को क्रमवत सजाकर पेश करने में है। यह काम विशाल और थका देने वाले सैद्धांतिक प्रयास की कीमत पर हुआ है। यह काम उस सदी के मध्य तक पूरा हो गया। अपने कामों का अंतरिम मूल्यांकन उन्होंने खुद 1852 में किया जो शिक्षाप्रद है :
आधुनिक समाज में वर्गों के अस्तित्व की खोज करने के श्रेय का अधिकारी मैं नहीं हूं। न ही उनके संघर्ष की खोज का श्रेय मुझे मिलना चाहिए। वर्गों के इस संघर्ष के ऐतिहासिक विकास का वर्णन बुर्जुआ इतिहासकार और वर्गों की आर्थिक बनावट का वर्णन बुर्जुआ अर्थशास्त्री मुझसे बहुत पहले ही कर चुके थे। मैंने जो नई चीज की वह यह सिद्ध करना था कि : (1) वर्गों का अस्तित्व उत्पादन के विकास के खास ऐतिहासिक दौरों के साथ बंधा हुआ है, (2) वर्ग संघर्षा लाजिमी तौर से सर्वहारा के अधिनायकत्व की दिशा में ले जाता है, (3) यह अधिनायकत्व स्वयं सभी वर्गों के उन्मूलन और वर्गहीन समाज की ओर संक्रमण मात्र है…।
उन्होंने विस्तृत ढंग से वर्ग संघर्ष पर विचार किया :
अभी तक के समस्त समाजों का लिखित इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है। स्वतंत्र मनुष्य और दास, पेट्रीशियन और प्लेबियन, सामंत और भूदास, शिल्प संघ का उस्ताद कारीगर और मजदूर कारीगर। संक्षेप में उत्पीड़क और उत्पीड़त बराबर एक दूसरे का विरोध करते आए हैं। वे कभी छिपे, कभी प्रकट रूप से लगातार एक दूसरे से लड़ते रहे हैं जिस लड़ाई का अंत हर बार या तो पूरे समाज के क्रांतिकारी पुनर्गठन में या संघर्षरत दोनों ही वर्गों की बर्बादी में हुआ है।
उन्होंने वर्ग संघर्ष के आधार को साफ-साफ दिखा दिया : मनुष्य अपनी धारणाओं और विचारों आदि के सृजनकर्ता होते हैं। वे वास्तविक और सक्रिय मनुष्य होते हैं। उस रूप में जिस रूप में उनकी उत्पादक शक्तियों और उनके समरूप संबंधों के विकास, अपने उच्चतम रूप तक उन्हें ढाल देते हैं। और आगे उन्होंने उसके विकास का विवरण पेश किया : 'विस्तृत खाकों के अंतर्गत हम एशियाई, प्राचीन, सामंती और आधुनिक पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के नाम से विभाजन कर सकते हैं। यह विभाजन समाज की आर्थिक बनावट की प्रगति में अनेक युगों की तरह है।' मार्क्स की नजर में पूंजीवादी समाज में वर्ग संघर्ष आवेग की अवस्था में पहुंच जाता है :
हमारे युग को, पूंजीवादी युग के युग को अन्य युगों से अलग करने वाला विशिष्ट लक्षण यह है कि इसने वर्ग विरोधों को सरल बना दिया है। आज पूरा समाज दो विशाल शत्रु शिविरों में, एक दूसरे के खिलाफ खड़े दो विशाल वर्गों में अधिकाधिक बंटता जा रहा है पूंजीपति और सर्वहारा वर्गों में।
कारखाने में भरे झुंड के झुंड मजदूर सैनिकों की तरह संगठित किए जाते हैं। औद्योगिक फौज के सिपाहियों की तरह वे बकायदा एक दरजावार तरजीब में बंटे हुए अफसरों और सार्जेंटों की कामन में रखे जाते हैं। वे केवल पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी राज्य के ही गुलाम नहीं है, वे हर दिन हर घंटे मशीन के ओवरसियर के और सर्वोपरि खुद कारखानेदार पूंजीपति के गुलाम होते हैं। यह तानाशाही जितनी ही अधिक खुलकर यह घोषित करती है कि मुनाफा ही उसका लक्ष्य और उद्देश्य है, उतना ही अधिक वह तुच्छ घृणित और कटु होती है।
अंतर्विरोध गहरे हो जाते हैं जो पूंजीवाद के विध्वंस की दिशा में ले जा सकते हैं :
पिछले कई दशकों से उद्योग और वाणिज्य का इतिहास, आधुनिक उत्पादक शक्तियों का उत्पादन की आधुनिक अवस्थाओं के खिलाफ, संपत्ति के उन संबंधों के खिलाफ विद्रोह का ही इतिहास है, जो पूंजीपति वर्ग और उसके शासन अस्तित्व की शर्तें हैं। यहां पर उन वाणिज्यिक संकटों के उल्लेख ही काफी हैं जिनके नियतकालीन आवर्तन द्वारा संपूर्ण पूंजीवादी समाज के अस्तित्व की परीक्षा होती है। हर बार पहले से ज्यादा सख्ती के साथ। …इन संकटों में एक महामारी फैल जाती है जो पिछले युगों में एक बिलकुल बेतुकी बात समझी जाती। यानी अति उत्पादन की महामारी। समाज अचानक अपने आप को क्षणिक बर्बरता की अवस्था में लौटा हुआ पाता है; ऐसा लगता है कि उसके जीवन-निर्वाह तमाम साधनों की आपूर्ति को किसी अकाल या सर्वनाशी विश्वयुद्ध ने समाप्त कर दिया है। उद्योग और वाणिज्य नष्ट हो चुके प्रतीत होते हैं। और यह सब क्यों? ऐसा इसलिए कि समाज में सभ्यता का, जीवन निर्वाह के साधनों का, उद्योग और वाणिज्य का आधिक्य हो गया है। समाज की मौजूदा उत्पादक शक्तियां पूंजीवादी संपत्ति की अवस्थाओं को अब उन्नत नहीं करतीं। इसके विपरीत वे इन अवस्थाओं के लिए अत्यंत ताकतवर बन जाती हैं जिनकी बेडिय़ों में वे जकड़ी रहती हैं, और जैसे ही वे उन बेडिय़ों को तोड़ देती हैं वैसे ही पूरे पूंजीवादी समाज में अव्यवस्था पैदा कर देती हैं और पूंजीवादी संपत्ति के अस्तित्व को खतरे में डाल देती हैं। पूंजीवादी समाज की अवस्थाएं इतनी संकीर्ण होती हैं कि वे उनके द्वारा पैदा की गई संपत्ति को समाविष्ट नहीं कर पातीं।
यह महज पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने से बड़ा मामला है। इसका कारण है कि इसमें वर्ग समाज का खात्मा दांव पर लगा होता है। मार्क्स को 1844 आते-आते पूंजीवादी विकास की बदौलत फल-फूले और मजबूत बने सर्वहारा के लिए ऐतिहासिक मिशन 'नजर आता' है।
इस प्रकार जर्मन मुक्ति की सकारात्मक संभावना कहां है?
हमारा जवाब यह है। मूलभूत बेडिय़ों में जकड़े एक वर्ग के निर्माण में सभ्य समाज का ऐसा वर्ग जो उसका वर्ग नहीं है, ऐसा वर्ग जो सभी वर्गों का विसर्जन है, ऐसा हिस्सा जिसका विश्वव्यापी लक्षण है क्योंकि उसका विश्वव्यापी उत्पीडऩ है और जो किसी खास अधिकार का दावा नहीं करता क्योंकि वह जिन अन्याय को भोगता है वह कोई खास किस्म का अन्याय नहीं है, बल्कि हर क्षेत्र में मौजूद महाअन्याय है, समाज का वह हिस्सा जो किसी ऐतिहासिक उपाधि का दावा नहीं करता, बल्कि सिर्फ मनुष्य होने का दावा करता है, जो हम सबके नतीजों का एकपक्षीय विरोध नहीं करता, बल्कि जर्मन सामाजिक व्यवस्था की प्रस्थापनाओं का हर पक्ष से विरोध करता है; और अंतत: वह भाग जो समाज के सभी अन्य भागों से अपने-आप को मुक्त किए बिना और इस प्रकार मुक्त कर अपने आपको मुक्त नहीं कर सकता। समाज के सभी अन्य भागों का एक शब्द में मतलब है संपूर्ण मानवता का क्षय। इस प्रकार यह समाज का वह हिस्सा है जो मानवता का पूर्ण उद्धार कर ही अपना उद्धार कर सकता है। एक खास वर्ग के रूप में समाज का यह विसर्जन सर्वहारा है।
अगर जन-क्रांति और सभ्य समाज के एक वर्ग की मुक्ति का एक-दूसरे से मेल खाना है और संपूर्ण समाज का प्रतिनिधित्व एक वर्ग को करना है, तो जरूरी है कि सभी खामियां एक दूसरे वर्ग में केंद्रीभूत हों। निश्चित तौर पर एक खास वर्ग होना चाहिए जो सर्वव्यापी आक्रमणकारी हो, सामान्य सीमा को मूर्त रूप मिले : समाज के एक खास भाग को सारे समाज के मुश्चात अपराधी के रूप में दिखाई पडऩा चाहिए ताकि इस भाग की मुक्ति सार्विक आत्ममुक्ति जैसी लगे। अगर एक वर्ग को मुक्तिदाता वर्ग बनना है तो एक दूसरे वर्ग को प्रत्यक्ष उत्पीड़क वर्ग बनना ही होगा।
क्या यह सर्वहारा आधुनिक युग का मसीहा है? बिल्कुल नहीं, मार्क्स का जवाब है :
जब समाजवादी लेखक सर्वहारा को इस ऐतिहासिक भूमिका का श्रेय देते हैं तो वैसे ही नहीं होता जैसे आलोचनात्मक आलोचना सोचने का स्वांग भरती है। इसका कारण है कि वे सर्वहारा को देवता मानते हैं। बात ठीक उलटी है। हर किस्म की मानवता का अमूर्तकरण और मानवता का ढोंग भी, पूर्ण विकसित सर्वहारा में व्यवहारत: पूरा हो जाता है, सर्वहारा के जीवन की शर्तें वर्तमान समाज की सभी अवस्थाओं को सर्वाधिक अमानवीय केंद्रबिंदु तक पहुंचा देती है, मनुष्य सर्वहारा में खो जाता है लेकिन साथ ही उस बर्बादी की सैद्धांतिक चेतना प्राप्त कर चुका होता है और इस अमानवीयता के खिलाफ विद्रोह के लिए प्रेरित हो जाता है। इसीलिए सर्वहारा अपने को मुक्त कर सकता है और उसे अवश्य करना चाहिए। विद्रोह की प्रेरणा वह अत्यंत जरूरी, प्रत्यक्ष और पूर्णत: बाध्यकारी जरूरतों से पाता है। लेकिन वह वर्तमान समाज की अपनी ही परिस्थिति में समाविष्ट अमानवीय अवस्थाओं को बदले बिना अपने को मुक्त नहीं कर सकता।
इस प्रकार :
पूर्ववर्ती सभी वर्गों ने अपने पहले से प्राप्त हैसियत को मजबूत बनाने की कोशिश की है जिनका पलड़ा भारी हुआ है। यह काम उन्होंने समाज को अपनी अधिकरण प्रणाली के अधीन बनाकर किया है। सर्वहारा समाज की उत्पादन शक्तियों का स्वामी तब तक नहीं बन सकता जब तक वह अपनी पूर्ववर्ती अधिकरण प्रणाली और उसके साथ-साथ पहले की सभी अधिकरण प्रणालियों का नाश नहीं कर देता। उनके पास बचाए रखने और मजबूत बनाने के लिए अपना कुछ नहीं है। उनका लक्ष्य है निजी संपत्ति की सभी पुरानी सभी बुराइयों और जमानतों को नष्ट कर देना।
मार्क्स और एंगेल्स कम्युनिस्ट घोषणापत्र में इसे बेबाक ढंग से कहते हैं :
पिछले सभी समाजों के इतिहास में वर्ग विरोधों का विकास भरा पड़ा है। इन विरोधों ने अलग-अलग युगों में अलग-अलग रूप अख्तियार किया है।
लेकिन उन्होंने चाहे जो रूप अख्तियार किया हो। एक बात बीते हुए सभी युगों में समान रूप से शामिल है। वह है समाज के एक हिस्से का दूसरे हिस्से द्वारा शोषण। तब आश्चर्य की कोई बात नहीं कि बीते युगों की सामाजिक चेतना, बहुत सारी विविधता और विभिन्नता के दिखावे के बावजूद एक निश्चित साझे रूपों या सामान्य विचारों के भीतर ही गतिशील रहती है जो वर्ग विरोधों के पूरी तरह गायब होने के साथ ही पूरी तरह खत्म हो सकते हैं। दूसरे तरीकों से नहीं।
…मजदूर वर्ग द्वारा संपन्न क्रांति का पहला कदम सर्वहारा वर्ग को शासक वर्ग के आसन पर बैठाना और जनवाद की लड़ाई जीतना है।
यह एक ताकतवर निश्चय है :
सर्वहारा वर्ग अगर पूंजीपति वर्ग के साथ अपने संघर्ष के दौरान परिस्थितियों के दबाव में संगठित होने को बाध्य हो जाता है, अगर वह क्रांति की बदौलत शासक वर्ग बन जाता है और इस तरह उत्पादन की पुरानी अवस्थाओं का बलपूर्वक अंत कर देता है, तब वह इन अवस्थाओं के साथ-साथ वर्ग विरोधों के अस्तित्व की शर्तों का नाश कर देता है, और सामान्यतया वर्ग के अस्तित्व की शर्तों का नाश कर देता है…
एक प्रशंसनीय आस्था है जिसका समर्थन मार्क्स ने जीवनपर्यंत किया। राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन और विवेचन के माध्यम से मार्क्स ने इस आस्था को वैज्ञानिक रूप से समर्थन देने का प्रयास कई दशकों तक किया।
अपनी रचना राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना का प्रयास में मार्क्स ने ऐतिहासिक गति की अपनी अवधारणा का सारतत्व रखा :
सामाजिक उत्पादन मनुष्य चलाते हैं। इसमें वे निश्चित संबंधों में शामिल हो जाते हैं। ये संबंध अपरिहार्य और उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये संबंध उत्पादन की उनकी भौतिक शक्तियों के विकास की निश्चित मंजिल से मेल खाते हैं। उत्पादन के इन संबंधों के कुल योग में समाज का आर्थिक ढांचा समाहित रहता है। आर्थिक ढांचा यानी वास्तविक आधार जिस पर कानूनी और राजनीतिक अधिसंरचना खड़ी होती है और जिससे सामाजिक चेतना के निश्चित रूप मेल खाते हैं… अपने विकास की निश्चित मंजिल पर सामाजिक उत्पादन की भौतिक शक्तियां तत्कालीन उत्पादन संबंध से या संपत्ति संबंध से टकराती हैं जिनके भीतर वे पहले से काम करती रही हैं। यह संपत्ति संबंध उत्पादन संबंध की कानूनी अभिव्यक्ति के सिवाय और कुछ नहीं है। ये संबंध उत्पादन शक्तियों के विकास के रूप में बदलकर उनकी बेडिय़ां बन जाते हैं। तब क्रांति की अवधि शुरू हो जाती है।
हाथ में कलम और आलोचनात्मक ढंग से सजग दिमाग के साथ उन्होंने उस समय उपलब्ध आर्थिक साहित्य के मूल तत्व का अध्ययन किया। उन्होंने अपने आर्थिक नोटबुक पर काम किया और पूंजी के समक्ष श्रम की वास्तविक अधीनता पर, उत्पादक और अनुत्पादक श्रम पर, संकट पर और उत्पादन की तात्कालिक प्रक्रिया पर अध्याय लिखे। इसके अंतिम अध्याय में उन्होंने अध्ययन के उद्देश्य को खुद ही सामने रखा :
1. पूंजी या पूंजीवादी उत्पादन के रूप में माल;
2. अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन में पूंजीवादी उत्पादन;
3. सभी संबंधों के उत्पादन और पुनरुत्पादन के रूप में पूंजीवादी उत्पादन। यही उत्पादन की तात्कालिक प्रक्रिया को उसका 'विशिष्ट पूंजीवादी' चरित्र प्रदान करता है।
उसके बाद से ही अध्ययन और चर्चा-परिचर्चा के विशाल भंडार और निर्माणाधीन इतिहास की सक्रिय जांच-पड़ताल से पूंजी का जन्म हुआ। चर्चा-परिचर्चा का दौर खासकर एंगेल्स के साथ चला। 1867 में प्रकाशित पूंजी का पहला खंड अलंकार के साथ बात शुरू करता है : 'जिन समाजों में पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का प्रचलन रहता है, उनकी संपदा 'मालों के विशाल भंडार' के रूप में सामने आती है। उसकी इकाई एकल माल होती है। अत: हमारी खोजबीन माल के विश्लेषण से ही शुरू होनी चाहिए।'
साभार: पूंजीवाद का इतिहास, ले.-मिशेल बो। प्रकाशक : ग्रंथशिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, बी-7, सरस्वती कामप्लेक्स, सुभाष चौक, लक्ष्मी नगर, दिल्ली-110092
(मिशेल बो पेरिस विश्वविद्यालय, फ्रांस में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं। अब वहां प्रोफेसर एमेरिटस हैं।)
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