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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, May 1, 2013

काम के घण्टे कम कराने की ऐतिहासिक अनिवार्यता

काम के घण्टे कम कराने की ऐतिहासिक अनिवार्यता



रीतेश कुमार श्रीवास्तव

 

याद करें! पहली मई 1886 का महान् ऐतिहासिक बलिदानी दिवस। अमेरिका के शिकागो शहर की सड़कें जब लाखों मजदूरों के खून से रक्त रंजित हो उठी थीं।  ''आठ घण्टे कामआठ घण्टे आरामऔर आठ घण्टे मनोरंजन'' की राजनीतिक ऐतिहासिक मजदूर वर्गीय माँग के इस आन्दोलन ने पूँजीपति वर्ग को आठ घण्टे का कार्य दिवस लागू करने को मजबूर कर दिया था। इससे पूर्व पूँजीवाद के विकास की प्रारम्भिक अवस्था में पूँजीपति वर्ग द्वारा मजदूरों से 16-18 घण्टे तक काम करवाया जाता था। इन अमानवीय स्थितियों के विरुद्ध पैदा हो रहे असन्तोष व आक्रोश के संघात में मजदूरों ने काम के घण्टे कम कराने की अपनी वर्गीय माँग को लेकर संघर्ष प्रारम्भ किया। 19 वीं सदी मे प्रारम्भ में अमेरिका के मजदूर इसके खिलाफ आवाज उठाने लगे। 1820 से 1840 तक काम के घण्टे कम कराने के लिये लगातार हड़तालें हुयीं। श्रम दिवस 10 घण्टे करने की माँग की जाने लगी। अमेरिकी सरकार को 1837 के आर्थिक संकट के राजनीतिक संघात में 10 घण्टे का श्रम दिवस लागू करना पड़ा। किन्तु कुछ ही स्थानों पर लागू होने के कारण पुनः मजदूर आन्दोलन 10 घण्टे कार्य दिवस की जगह 8 घण्टे का कार्य दिवस की माँग के साथ तेज होने लगा। यह आन्दोलन अमेरिका तक ही सीमित न रहकर उन सभी देशों में फैल गया जहाँ पूँजीवाद अस्तित्व में आ चुका था।

इसी क्रम में अमेरिका में 1866 में 20 अगस्त को 60 मजदूर ट्रेडयूनियनों के प्रतिनिधियों ने बाल्टिक मोर में एकत्रित होकर नेशनल लेबर यूनियन गठित की और प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय के नेताओं मार्क्स व एंगेल्स के साथ मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयासों में लग गये। अपने स्थापना सम्मेलन में नेशनल लेबर यूनियन ने एक प्रस्ताव पास किया कि '' इस देश के मजदूर वर्ग को पूँजीपतियों की दासता से मुक्त कराने के लिये इस समय का प्रथम और प्रधान काम ऐसा कानून पास कराना है, जिससे अमेरिका के सभी अंग राज्यों में आठ घण्टे काम का समय हो। इस महान् लक्ष्य को पूरा करने के लिये हम सारी शक्ति लगाने की शपथ लेते हैं।'' 1869 में ही नेशनल लेबर यूनियन ने अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर आन्दोलन के साथ सहयोग करने का प्रस्ताव किया। गौरतलब है कि सितम्बर 1866 में प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय की जेनेवा कांग्रेस में ही पारित प्रस्ताव में कहा था कि काम का समय कानून के जरिये सीमाबद्ध करना एक प्राथमिक अवस्था है, इसके बिना मजदूर वर्ग की उन्नति और मुक्ति की बाद वाली सारी कोशिशें निश्चित ही विफल होंगी।

रीतेश श्रीवास्तव,

रीतेश श्रीवास्तव, पिछले दस वर्षों से गैर व्यवसायिक व व्यवसायिक पत्रकारिता में सक्रिय हैं। पइलहार साप्ताहिक हमवतन में सीनियर रिपोर्टर हैं।

वहीं देखते-देखते आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन व आठ घण्टे आराम का मजदूर वर्गीय आन्दोलन एटलांटिक महासागर से प्रशांत महासागर व न्यू इंग्लैण्ड से कैलिफोर्निया तक फैल गया। द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय की प्रथम पेरिस कांग्रेस में पहली मई 1886 को विशेष दिवस मनाने का फैसला लिया गया। जबकि इससे पूर्व अमेरिका के फेडरेशन ऑफ लेबर ने सन् 1884 के 7 अक्टूबर को एक प्रस्ताव पासकर 1886 की पहली मई से 8 घण्टे काम का दिन की वैधता मानने का प्रस्ताव पास किया था और वहीं मजदूरों की शहादत के साथ पहली मई 1886 को अमेरिका के शिकागो शहर में जिसका इन्कलाबी इतिहास रचा गया। तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष पहली मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाने की परम्परा चल पड़ी। लेकिन इस दिन को तमाम कथित कम्युनिस्ट पार्टियाँ, मजदूरों का हितैषी बताने के नाम पर मजदूरों की एकता को भंग करने वाले ट्रेड यूनियन सिर्फ एक जश्न मनाकर इसके इतिहास व कार्यभार पर पर्दा डालने का काम करते चले आ रहे हैं।

आज 21 वीं सदी के द्वितीय दशक काल में आठ घण्टे के कार्य दिवस को लागू हुये आज 127 वर्ष होने जा रहे हैं। इन वर्षों में पूँजीवाद ने अपना राष्ट्रीय रूप त्याग कर अन्तर्राष्ट्रीय यानि साम्राज्यवादी रूप ग्रहण किया। जिसका विश्लेषण मूल्याँकन कर महान् मार्क्सवादी लेनिन ने 20 वीं सदी के प्रथम दशक काल में ही कहा था राष्ट्रीय पूँजीवाद अब विकसित होकर साम्राज्यवादी अवस्था में पहुँचकर विश्व पूँजीवाद, मरणोन्मुख पूँजीवाद हो गया है। वहीं इन वर्षों में मशीनों में तकनीकी विकास व विज्ञान के सहारे श्रम उत्पादकता में कई गुना वृद्धि हुयी। परन्तु कानूनन कार्य दिवस आठ घण्टे का ही बना रहा। जिससे आवश्यक श्रम काल कम होता गया और अतिरिक्त श्रम काल लगातार बढ़ता गया। यानि मजदूर वर्ग का शोषण लगातार तीव्रतर से तीव्रतम होता गया। जबकि कार्य दिवस के सम्बन्ध में भयानक सचाई यह है कि अघोषित व अलिखित रूप से आज मजदूर 15 से 16-18 घण्टे तक काम करने को लगातार विवश किया जा रहा है और सरकारें कानूनी रूप से कार्य दिवस को 8 से 10-12 घण्टे करने का मंसूबा बना रही हैं। इन सबके फलस्वरूप एक तरफ आम श्रमिक जन वर्ग का शोषण, दोहन, दमन, उत्पीड़न में लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है वहीं इसी के अनिवार्य परिणाम के रूप में उत्पन्न गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, महँगाई मुद्रास्फीति, भ्रष्टाचार, अराजकता, असमानता अभावग्रस्तता, सरीखी समस्याएं भी विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। इनके बीच श्रमिक जन-वर्ग घुट-घुटकर जीने को विवश है। इसी का परिणाम है कि कहीं किसान सपरिवार आत्महत्या कर रहे हैं कहीं मजदूर। कहीं बरोजगारी, बेकारी का दंश झेलता युवा आत्महत्या का शिकार हो रहा है।

ऐसे माहौल में एक बार पुनः पहली मई 1886 की वह शहादत दुनिया के मजदूरों को आवाज दे रही है कि अगर आपको अपनी समस्याओं से निजात पाना है तो मुख्यतः तो ''पूँजीवादी वर्ग राज-व्यवस्था के ध्वंस-उन्मूलन'' शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह के शब्दों में पूँजी की सत्ता को मिटाकर श्रम की सत्ता (यानि सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व) कायम करना, को अपना लक्ष्य बनाना होगा। चूंकि 127 वर्षों में जहाँ श्रम की उत्पादकता में कई गुना वृद्धि हुयी वहीं काम का दिन कानूनी रूप से आठ घण्टे का ही बना रहा। इसलिये श्रम की सत्ता के लक्ष्य तक पहुँचने के लिये तात्कालिक तौर पर काम के घण्टे कम कराने का आन्दोलन भी गठित विकसित करना होगा। जिससे मजदूरों की वर्गीय एकता कायम हो सके और वह निजी सम्पत्ति की सुरक्षा पर टिके ढाँचे को नेस्तनाबूद कर सके। यही समय की माँग है और मजदूर वर्ग के कन्धों पर इतिहास द्वारा डाला गया ऐतिहासिक दायित्व भी।

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