भूमि के बंटवारे के प्रश्न को बलिष्ठता से सामने लाने का
सफल प्रयास करता है लखनऊ घोषणापत्र
एच एल दुसाध
गत 6 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश दलित बुद्धिजीवी मंच और गौतम बुद्ध ग्रामीण विकास संस्थान द्वारा लखनऊ के सहकारिता भवन में आयोजित भव्य समारोह के मध्य एक नया दलित घोषणापत्र जारी हुआ। अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल माता प्रसाद ,लविवि के प्रो. रमेश दीक्षित, मशहूर लेखक मुद्राराक्षस, डॉ.आंबेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल,बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के एच एल दुसाध, तेलंगाना के सोशल एक्टिविस्ट चार्ल्स वेल्सी मिशा, ऑक्सफाम इंडिया के नन्द किशोर,राष्ट्रीय भागीदारी आन्दोलन के संयोजक सुरेश गौतम, कपिलेश्वर राम, भग्गू लाल बाल्मीकि, विद्या भूषण रावत, पुष्पा बाल्मीकि, श्रीमती रीता कौशिक, डॉ. आर के राहुल,दलित अधिकार मंच, पटना के कपिल इत्यादि जाने-माने लेखक–एक्टिविस्टों की उपस्थिति में जारी'लखनऊ घोषणापत्र-2014' का मुख्य फोकस प्रत्येक भूमिहीन अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति परिवार के लिए 5एकड़ भूमि दिलाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार सहित देश के सभी राजनीतिक दलों से संवाद स्थापित करने तथा आने वाले लोकसभा में इसे विभिन्न दलों के मैनिफेस्टो में शामिल करवाने पर है। किन्तु इसके साथ ही कुछ अन्य मागों को शामिल किया गया है, जो काफी महत्वपूर्ण हैं।
मसलन, भारतीय योजना आयोग एवं उप्र राज्य योजना आयोग की पंचवर्षीय योजना एवं वार्षिक योजाना के निर्धारित लक्ष्यों में एससी-एसटी के विकास को हिस्सा बनाया जाय;अनुसूचित जाति उप-योजना (scheduled caste sub-plan:scsp) व जनजाति उप-योजना (tribal sub-plan:tsp) के अंतर्गत केंद्र व राज्य सरकारों के अधीन सभी मंत्रालयों व विभागों द्वारा अनुसूचित जातियों व जनजातियों की जनसंख्यानुपात में बजट का आवंटन व खर्च हो; उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006, अनुसूचित जाति के परिवारों की जमीन छीनने वाला कानून उप्र सरकार वापस ले; मैला ढोने वाले परिवारों के पुनर्वास एवं सम्मानजनक वैकल्पिक व्यवसाय के अवसर का सृजन और निजी क्षेत्र के उद्योगों में अनुसूचित जातियों व जनजातियों की भागीदारी सुनिश्चित हो, की मांग भी यह घोषणापत्र उठाता है।
लखनऊ घोषणापत्र के लेखक चर्चित दलित एक्टिविस्ट डॉ. महेंद्र प्रताप राणा हैं। पश्चिम 'एशिया में इजिप्ट व भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के तुलनात्मक अध्ययन' पर पी.एच.डी.करने वाले डॉ राणा दलित मानवाधिकार के प्रश्न को इंग्लैण्ड, अमेरिका, हॉलैंड, इजिप्ट, लीबिया, फिलिस्तीन, रूस व पड़ोसी देश नेपाल में उठा चुके हैं। वर्तमान में वे उत्तर प्रदेश के भूमिहीन अनुसूचित जाति व जनजाति परिवारों के लिए 5 एकड़ कृषि योग्य भूमि दिलाने के आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं। भूमि आन्दोलन से जुड़े होने के अनुभव का उन्होंने लखनऊ घोषणापत्र में भरपूर इस्तेमाल किया है। यही कारण है जहां दलितों को सरकार द्वारा मिले पट्टे पर कब्ज़ा जमाना टेढ़ी खीर साबित हो रही है,वहां डॉ।राणा भूमिहीन दलित परिवारों के लिए 5 एकड़ देने लायक भूमि की उपलब्धता तथा उसे सुलभ कराये जाने का एक विश्वसनीय उपाय बतलाने में सफल हुए हैं। इन उपायों का अवलंबन कर भूमिहीन परिवारों की पांच एकड़ जमीन सुलभ कराने का लक्ष्य मुमकिन किया जा सकता है। जो लोग इसके लिए आन्दोलन चला रहे हैं उन्हें सबसे पहले इसे लोकसभा चुनाव-2014 में उतरने वाले राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में शामिल करवाने का प्रयास करना चाहिए।
डॉ. राणा ने इसमें एक अन्य अत्यंत महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया है। वह लिखते हैं,'27 जून,2005 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय विकास परिषद् की बैठक में अनुसूचित जातियों-जनजातियों तथा सामान्य वर्गों के बीच सामजिक व आर्थिक अंतर(गैप) को पाटने के लिए 10 वर्षों की समय सीमा तय की थी। अब उपयुक्त समय आ गया है जब प्रधानमंत्री जी देश की जनता को बताएं कि 2005 में यह अंतर कितने प्रतिशत का था? प्रधानमंत्री की घोषणा के आठ साल बीत चुके हैं और यह अंतर कितने प्रतिशत कम हुआ है? शेष दो वर्षों में यह अंतर कैसे कम होगा?' अब जबकि 7-8 महीने अन्दर ही एक नए लोकसभा चुनाव की घोषणा होने वाली है, जिसे दृष्टिगत रखकर देश में सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाली पार्टी फिर नई-नई लोक लुभावन घोषणायें करने लगी है, हर जागरूक नागरिक,विशेषकर दलितों का यह फ़र्ज़ बनता है कि 27 जून,2005 वाली घोषणा को लेकर मनमोहन सिंह से सवाल करे।
कुल मिला कर यह बहुत मेहनत से तैयार किया घोषणापत्र है जिसके पीछे लेखक की विद्वता ही नहीं, उसकी दलित –आदिवासियों के आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण के प्रति गहरी प्रतिबद्धता भी झलकती है। भूमंडलीकरण के सैलाब में दलित समाज को तिनको की भांति बहने से बचाने के लिए पिछले एक दशक में दलित संगठनों व बुद्धिजीवियों के तरफ से कई ऐतिहसिक महत्व के घोषणापात्र जारी हुए हैं। उनमें दलित-आदिवासियों के आर्थिक सशक्तिकरण तथा समतामूलक समाज निर्माण की ठोस कार्ययोजना पेश की गयीं तथा ये घोषणापत्र दलित आन्दोलनकारियों के लिए मार्ग दर्शक भी साबित हुए। लखनऊ घोषणापत्र भी महत्त्वपूर्ण दलित घोषणापत्रों में जगह बनाने की कूवत रखता है। इसकी अन्य विशेषता भी है। अधिकांश घोषणापत्रों में एससी/एसटी के लिए आरक्षण से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार इत्यादि में वाजिब भागीदारी दिलाने पर जोर दिया गया है। लखनऊ घोषणापत्र भूमि के बंटवारे के प्रश्न को बलिष्ठता से सामने लाने का सफल प्रयास करता है।
और अंत में। लखनऊ घोषणापत्र देखकर यह यकीन पुख्ता होता है कि दलित आन्दोलन अब अमूर्त सामाजिक मुद्दों की जगह,ठोस आर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित हो गया है।
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