nb:आठ नवम्बर को जेएनयू,दिल्ली में आयोजित 'आठवें डाइवर्सिटी डे 'के अवसर पर बहुजन डाइवर्सिटी मिशन द्वारा आठ पृष्ठीय पुस्तिका
लोकसभा चुनाव-2014 के मुद्दे और डाइवर्सिटी
लोकतंत्र प्रेमी साथियों,
भीषणतम विषमता से देश बंटा :'अतुल्य' और बहुजन' भारत में
सोलहवीं लोकसभा का चुनाव एक ऐसे समय में होने जा रहा है जब देश में व्याप्त भीषणतम विषमता के कारण हमारे लोकतंत्र पर गहरा संकट मंडरा रहा है.विषमता का आलम यह है कि परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न और और विशेषाधिकारयुक्त अत्यन्त अल्पसंख्यक तबके का जहां शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार ,सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रत्येक क्षेत्र में 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है,वहीं परम्परागत रूप से तमाम क्षेत्रों से ही वंचित बहुसंख्यक तबका,जिसकी आबादी ८५ प्रतिशत है, 15-20 प्रतिशत अवसरों पर आज भी जीवन निर्वाह करने के लिए विवश है.ऐसी गैर-बराबरी विश्व में कहीं और नहीं है.किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक-राजनीतिक –सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है.इस असमानता ने देश को 'अतुल्य' और 'बहुजन'-भारत में बांटकर रख दिया है.चमकते अतुल्य भारत में जहां तेज़ी से लखपतियों-करोड़पतियों की संख्या बढती जा रही है,वहीँ जो 84 करोड़ लोग 20 रूपये रोजाना पर गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हैं,वे मुख्यतः बहुजन भारत के लोग हैं.उद्योग-व्यापार, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र से लगभग पूरी तरह बहिष्कृत बहुजनों के लिए रोजगार के नाम पर अवसर मुख्यतः असंगठित क्षेत्र में है,जहाँ न प्राविडेंट फंड,वार्षिक छुट्टी व चिकित्सा की सुविधा है और न ही रोजगार की सुरक्षा.
भीषणतम आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से मिली :लोकतंत्र को चुनौती
अवसरों के असमान बंटवारे से उपजी आर्थिक और सामाजिक विषमता का जो स्वाभाविक परिणाम सामने आना चाहिए,वह सामने आ रहा है.देश के लगभग 200 जिले माओवाद की चपेट में आ चुके हैं.लाल गलियारा बढ़ता जा रहा है और दांतेवाड़ा जैसे कांड राष्ट्र को डराने लगे है.इस बीच माओवादियों ने एलान का दिया है कि वे 2050 तक बन्दूक के बल पर लोकतंत्र के मंदिर पर कब्ज़ा जमा लेंगे.इसमें कोई शक नहीं कि विषमता की खाई यदि इसी तरह बढती रही तो कल आदिवासियों की भांति ही अवसरों से वंचित दूसरे तबके भी माओवाद की धारा से जुड़ जायेंगे ,फिर तो माओवादी अपने मंसूबों को पूरा करने में जरुर सफल हो जायेंगे और यदि यह अप्रिय सत्य सामने आता है तो हमारे लोकतंत्र का जनाजा ही निकल जायेगा.ऐसी स्थित सामने न आये ,इसके लिए डॉ.आंबेडकर ने संविधान सौंपने के पूर्व 25 नवम्बर,1949 को राष्ट्र को सतर्क करते हुए एक अतिमूल्यवान सुझाव दिया था.
बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर की चेतावनी
उन्होंने कहा था-'26 जनवरी 1950 को हमलोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं.राजनीति के क्षेत्र में हमलोग समानता का भोग करेंगे किन्तु सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में मिलेगी असमानता.राजनीति के क्षेत्र में हमलोग एक नागरिक को एक वोट एवं प्रत्येक वोट के लिए एक ही मूल्य की नीति को स्वीकृति देने जा रहे हैं.हमलोगों को निकटतम समय के मध्य इस विपरीतता को दूर कर लेना होगा,अन्यथा यह असंगति कायम रही तो विषमता से पीड़ित जनता इस राजनैतिक गणतंत्र की व्यवस्था को विस्फोटित कर सकती है.'
हमारे महान राजनेता:लोकतंत्र-प्रेमी या लोकतंत्र-विरोधी !
ऐसी चेतावनी देने वाले बाबा साहेब ने भी शायद कल्पना नही किया होगा कि भारतीय लोकतंत्र की उम्र छह दशक पूरी होते-होते विषमता से पीड़ित लोगों का एक तबका उसे विस्फोटित करने पर आमादा हो जायेगा.लेकिन यह स्थिति सामने आ रही तो इसलिए कि आजाद भारत के हमारे शासकों ने संविधान निर्माता की सावधानवाणी की पूरी तरह अनदेखी कर दिया.वे स्वभावतः लोकतंत्र विरोधी थे.अगर लोकतंत्र प्रेमी होते तो केंद्र से लेकर राज्यों तक में काबिज हर सरकारों की कर्मसूचियाँ मुख्यतः आर्थिक और सामजिक विषमता के खात्मे पर केन्द्रित होतीं.तब आर्थिक और सामाजिक विषमता का वह भयावह मंजर कतई हमारे सामने नहीं होता जिसके कारण हमारा लोकतंत्र विस्फोटित होने की ओर अग्रसर है.इस लिहाज से पंडित नेहरु,इंदिरा गांधी,राजीव गाँधी,नरसिंह राव,अटल बिहारी वाजपेयी,जय प्रकाश नारायण,ज्योति बसु जैसे महानायकों की भूमिका का आकलन करने पर निराशा और निराशा के सिवाय और कुछ नहीं मिलता.अगर इन्होंने डॉ.आंबेडकर की चेतावनी को ध्यान में रखकर आर्थिक और सामाजिक विषमता के त्वरित गति से ख़त्म होने लायक नीतियाँ अख्तियार की होतीं, क्या 10-15 प्रतिशत परम्परागत सुवुधाभोगी वर्ग का शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार ,शैक्षणिक –सांस्कृतिक क्षेत्रों पर 80-85 प्रतिशत वर्चस्व स्थापित होता और क्या देश अतुल्य और बहुजन भारत में विभाजित होता?
राजनीति के हमारे महानायकों ने 'गरीबी-हटाओ','लोकतंत्र बचाओ','भ्रष्टाचार हटाओ' 'राम मंदिर बनाओ'इत्यादि जैसे आकर्षक नारे देकर महज शानदार तरीके से सत्ता दखल किया किन्तु उस राज-सत्ता का इस्तेमाल लोकतंत्र की सलामती की दिशा में बुनियादी काम करने में नहीं किया.इनके आभामंडल के सामने भारत में मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या-आर्थिक और सामजिक विषमता-पूरी तरह उपेक्षित रही.इस देश की वर्णवादी मीडिया और बुद्धिजीवियों को इनकी बड़ी-बड़ी जीतों में लोकतंत्र की जीत दिखाई पड़ी.दरअसल इस देश के बुद्धिजीवियों के लिए इतना ही काफी रहा है कि पड़ोस के देशों की भांति भारत में सत्ता परिवर्तन बुलेट,नहीं बैलेट से होता रहा है.सिर्फ इसी बिला पर भारत के लोकतंत्र पर गर्व करनेवालों बुद्धिजीवियों की कमी नहीं रही.अतः महज वोट के रास्ते सत्ता परिवर्तन से संतुष्ट बुद्धिजीवियों ने प्रकारांतर में लोकतंत्र के विस्फोटित होने लायक सामान स्तूपीकृत कर रहे राजनेताओं को डॉ.आंबेडकर की सतर्कतावाणी याद दिलाने की जहमत ही नहीं उठाया.मजे की बात यह है कि आजाद भारत की राजनीति के महानायक आज भी लोगों के ह्रदय सिंहासन पर विराजमान हैं;आज भी उनके अनुसरणकारी उनके नाम पर वोटरों को रिझाने का प्रयास करते हैं.बहरहाल हमारे राष्ट्र नायकों से कहां चूक हो गयी जिससे विश्व में सर्वाधिक विषमता का साम्राज्य भारत में व्याप्त हुआ और जिसके कारण ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज विस्फोटित होने की और अग्रसर है?
आर्थिक-सामाजिक विषमता की उत्पत्ति के पीछे :सामाजिक और लैंगिक विविधता की अनदेखी
एक तो ऐसा हो सकता है कि गांधीवादी-राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े हमारे तमाम राष्ट्र नायक ही समग्र वर्ग की चेतना से समृद्ध न होने के कारण,ऐसी नीतियां ही बनाये जिससे परम्परागत सुविधासंपन्न तबके का वर्चस्व अटूट रहे. दूसरी यह कि उन्होंने आर्थिक और सामाजिक –विषमता की उत्पत्ति के कारणों को ठीक से जाना नहीं,इसलिए निवारण का सम्यक उपाय न कर सके.प्रबल सम्भावना यही दिखती है कि उन्होंने ठीक से उपलब्धि ही नहीं किया कि सदियों से ही सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी,जोकि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है,की सृष्टि शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक) में सामाजिक(social) और लैंगिक(gender) विविधता (diversity)के असमान प्रतिबिम्बन के कारण होती रही है.अर्थात लोगों के विभन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक-शक्ति का असमान बंटवारा कराकर ही सारी दुनिया के शासक विषमता की स्थित पैदा करते रहे हैं.इसकी सत्योपलब्धि कर ही अमेरिका,ब्रिटेन,फ़्रांस,आस्ट्रेलिया,न्यूज़ीलैंड इत्यादि जैसे लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देश ने अपने-अपने देशों में शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार,फिल्म-टीवी-मिडिया इत्यादि हर क्षेत्र ही सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन की नीति पर काम किया और मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से पार पाया.किन्तु उपरोक्त देशों से लोकतंत्र का प्राइमरी पाठ पढने सहित कला-संस्कृति-फैशन-टेक्नोलॉजी इत्यादी सब कुछ ही उधार लेनेवाले हमारे शासकों ने उनकी विविधता नीति से पूरी तरह परहेज़ किया.किन्तु ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि आजाद भारत के शासकों से भी विदेशियों की तरह 'डाइवर्सिटी नीति'अख्तियार करने की प्रत्याशा थी,ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है.
आजाद भारत को अपने शासकों से विविधता के सम्मान की प्रत्याशा थी
ऐसे इतिहासकारों के अनुसार –'1947 में देश ने अपने आर्थिक पिछड़ेपन ,भयंकर गरीबी,करीब-करीब निरक्षरता ,व्यापक तौर पर फैली महामारी,भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लम्बी यात्रा की शुरुआत की थी. 15 अगस्त पहला पड़ाव था,यह उपनिवेशिक राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था:शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था,स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा किया जाना था और जनता की आशाओं पर खरा उतरना था.भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना, राष्ट्रीय राजसत्ता को सामाजिक रूपांतरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था.यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आंख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए.इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय,भाषाई,जातीय एवं धार्मिक विविधताएँ मौजूद हैं.भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुए तथा देश के विभिन्न भागों और लोगों के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था.'
भारत में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतीकात्मक प्रतिबिम्बन
इतिहासकारों की उपरोक्त टिपण्णी बताती है कि हमारे शासकों को इस बात का इल्म जरुर था कि राजसत्ता का इस्तेमाल हर क्षेत्र में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन में करना है .यही कारण है उन्होंने किया भी,मगर प्रतीकात्मक.जैसे हाल के वर्षो में हमने लोकतंत्र के मंदिर में अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री,महिला राष्ट्रपति,मुसलमान उप-राष्ट्रपति, दलित लोकसभा स्पीकर,आदिवासी डिप्टी स्पीकर के रूप सामाजिक और लैंगिक विवधता का शानदार नमूना देखा.मगर यह नमूना सत्ता की सभी संस्थाओं,सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग-परिवहन,मिडिया –फिल्म-टीवी,शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश-अध्यापन,पौरोहित्य इत्यादि में पेश नहीं किया गया.
वोट खरीदने के लिए राहत और भीखनुमा घोषणाओं पर निर्भर:हमारे राजनीतिक दल
हमारे स्वाधीन भारत के शासक स्व-वर्णीय हित के हाथों विवश होकर या आर्थिक-सामाजिक विषमता की सृष्टि के कारणों से अनभिज्ञ रहने के कारण शक्ति के स्रोतों का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य बंटवारे की सम्यक नीति न ग्रहण कर सके.उन्होंने आर्थिक-सामाजिक विषमता के लिए भागीदारीमूलक योजनाओं की जगह 'गरीबी-उन्मूलन'को प्राथमिकता देते हुए राहत और भीखनुमा योजनाओं पर काम किया जिसकी 80-85 प्रतिशत राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती रही.शासक दलों की शक्ति के स्रोतों के बंटवारा-विरोधी नीति के फलस्वरूप बहुसंख्यक समाज इतना अशक्त हुआ कि वह शक्ति के स्रोतों में अपनी हिस्सेदारी की बात भूलकर विषमता बढानेवाली राहत भीखनुमा घोषणाओं के पीछे अपना कीमती वोट लुटाने लगा.राजनीतिक दलों ने भी उसकी लाचारी को भांपते हुए लोकलुभावन घोषणायें करने में दूसरे से होड़ लगाना शुरू कर दिया.
भीखनुमा घोषणाओं के चलते मुद्दाविहीन रहा:15 वीं लोकसभा चुनाव
इस बीच कई बार जिस तरह शासक दलों ने भीषण विषमता तथा अवसरों के असम बंटवारे को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की,उससे लगा अब आने वाले दिनों में राहत की जगह भागीदारीमूलक घोषणाओं के आधार पर वोट लेने का दौर शुरू होगा.किन्तु,पार्टियों द्वारा विषमता को लेकर गहरी चिंता व्यक्त करने के बावजूद कोई फर्क नहीं पड़ा.मसलन 2009 में आयोजित 15 वीं लोकसभा चुनाव को लिया जाय.उक्त चुनाव से पहले भूमंडलीकरण के दौर में भारत का तेज़ विकास चर्चा का विषय बन गया था.तेज़ विकास को देखते हुए दुनिया के ढेरों अर्थशास्त्रियों ने भारत के विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने के दावे करने लगे थे.लेकिन इस तेज़ विकास के साथ चर्चा विकास के असमान बंटवारे की भी कम नहीं थी.उन दिनों नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने बार-बार कहा था ,'गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है...मैं उनसे सहमत नहीं हूँ जो कहते हैं आर्थिक विकास के साथ गरीबी में कमी आई है.'उनसे भी आगे बढ़कर कई मौकों पर राष्ट्र को चेताते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था –'जिस तेज़ी से विकास हो रहा है,उसके हिसाब से गरीबी कम नहीं हो रही है.अनुसूचित जाति,जनजाति और अल्पसंख्यकों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है.देश में जो विकास हुआ है उस पर नज़र डालने पर साफ दिखाई देता है कि गैर-बराबरी काफी बढ़ी है.'यही नहीं गैर-बराबरी से चिंतित प्रधान मंत्री ने अर्थशास्त्रियों से सृजनशील सोच की मांग भी की थी ताकि आर्थिक-विषमता की चुनौती से जूझा जा सके.उन्ही दिनों रष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने विषमता की समस्या से चिंतित होकर बदलाव की एक नई क्रांति का आह्वान किया था.अतः प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति द्वारा विगत वर्षों में आर्थिक विषमता की समस्या पर एकाधिक बार चिंता व्यक्त किये जाने के बाद उम्मीद थी कि 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के घोषणापत्र में आर्थिक गैर-बराबरी के खात्मे को अधिक से अधिक स्पेस तथा अनुसूचित जाति,जनजाति और अल्पसंख्यकों के लिए विकास में भागीदारी का सटीक सूत्र देखने को मिलेगा.पर वैसा कुछ न कर कांग्रेस ने रिश्वत टाइप के लोकलुभावन वादे कर 15 वीं लोकसभा चुनाव को मुद्दाविहीन बना दिया,जिसका अनुसरण दूसरे दलों ने भी किया.
इस प्रक्रिया में भाजपा ने कांग्रेस के तीन रूपये के मुकाबले दो रुपया किलो के हिसाब से 35 किलो चावल देने का वादा का डाला.फिल्म एक्टर चिरंजीवी की 'प्रजा राज्यम'पार्टी ने आन्ध्र प्रदेश के डेढ़ करोड़ गरीबों को मुफ्त चावल,तेल,और कुकिंग गैस देने की घोषणा कर डाला था.तेलगु देशम का वादा था कि चुनाव जीतने पर वह गरीबों के खाते में कुछ नगद जमा; करा देगी.उसने हर निर्धन की पत्नी को मासिक दो हज़ार ,फिर पन्द्रह सौ और सामान्य गरीब को एक हज़ार नकद देने का वादा किया था.दूसरे दल भी इस किस्म की घोषणायें करने में पीछे नहीं रहे.मतलब साफ़ है 15 वीं लोकसभा चुनाव में हमारे राजनैतिक दलों ने अपने घोषणापत्रों में सरकारी खजाने से अरबों रुपये वोटरों को रिश्वत के रूप में देने का एलान कर डाला था.चुनाव बाद जिस तरह कांग्रेस ने मनरेगा को अपनी जीत का कारण बताया,उससे लोकलुभावन घोषणाओं का चलन और बढ़ा.
15 वीं लोकसभा की राह पर :16वीं लोकसभा चुनाव
बहरहाल 2014 के पूर्वार्द्ध में अनुष्ठित होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व केंद्र की सत्ता दखल का सेमी-फाइनल माने-जाने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाओं में जिस तरह राहत और भीखनुमा घोषणाओं की होंड मची हुई है उसे देखते हुए दावे के साथ कहा जा सकता है कि 15 वीं लोकसभा की भांति 16 वीं लोकसभा चुनाव में भी मुफ्त में अनाज,रेडियो-टीवी-कंप्यूटर-कुकिंग गैस-साइकल,नकद राशि इत्यादि का प्रलोभन देकर वोट खरीदने का उपक्रम चलाया जायेगा.ऐसा करके राजनीतिक दल हमारे लोकतंत्र को विस्फोटित करने का कुछ और सामान जमा करेंगे.बहरहाल आज जबकि आजाद भारत के शासकों द्वारा शक्ति के स्रोतों में विविधता की अनदेखी के कारण देश में लोकतंत्र के विस्फोटित होने लायक प्रचुर सामान जमा हो चुका है,तथा अगले लोकसभा चुनाव में उसमें कुछ और इजाफा होने जा रहा है,हम क्या करें कि सोलहवीं लोकसभा चुनाव से ही लोकतंत्र के सुदृढ़करण की प्रक्रिया तेज़ हो.इस दिशा में बहुजन लेखकों द्वारा स्थापित 'बहुजन डाइवर्सिटी मिशन 'के दस सूत्रीय एजेंडे से प्रेरणा लेकर राजनीतिक दलों को आर्थिक-सामाजिक विषमता के खात्मे तथा लोकतंत्र की सलामती पर अपने घोषणापत्रों केन्द्रित करने के लिए दबाव बनाया जा सकता है.
बीडीएम का दस सूत्रीय एजेंडा
स्वाधीन भारत के शासकों की लोकतंत्र-विरोधी नीतियों के चलते आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी का जो बेइंतहां विस्तार हुआ उसके खात्मे के लिए गाँधीवादी,मार्क्सवादी,राष्ट्रवादी,लोहियावादी और आंबेडकरवादी विचारधारा से जुड़े ढेरों राजनीतिक व सामाजिक संगठन 'समतामूलक समाज की स्थापना','सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति',सामाजिक विषमता का खात्मा' जैसे आकर्षक नारों के साथ वजूद में आये,पर लक्ष्य से दूर रहे.इसका खास कारण यह रहा कि सामाजिक और आर्थिक-विषमता की उत्पति का सुस्पष्ट चित्र उनके पास नहीं था.इसलिए वे टुकड़ों-टुकड़ों में शक्ति अर्जन की लड़ाई लड़ते रहे.कोई भूमि में बंटवारे की तो कोई मजदूरी बढ़वाने की;कोई दलितों के लिए तो कोई पिछडों के लिए; कोई मुसलमानों की तो कोई महिलाओं के हितों की लड़ाई लड़ता रहा.आज की तारीख में कोई पिछडों और मुसलमानों को नौकरियों में तो कोई महिलाओं को राजनीति में आरक्षण दिलाने की लड़ाई लड़ रहा है.इनमें से किसी के पास भी ऐसा प्रोग्राम नहीं है जिससे भारत में मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या का मुकम्मल हल;लोकतंत्र का सुदृढीकरण तथा सभी समुदायों का समान सशक्तिकरण किया जा सके.ऐसी स्थिति में ही 15 मार्च 2007 को वजूद में आया 'बहुजन डाइवर्सिटी मिशन' (बीडीएम). बीडीएम'दलित पैंथर'की भांति ही प्रधानतः दलित लेखकों द्वारा संचालित संगठन है.चूंकि मिशन से जुड़े लोगों का यह दृढ विश्वास रहा है कि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी ही मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या है तथा शक्ति के स्रोतों का विभिन्न तबकों और महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से ही सारी दुनिया सहित भारत में भी इसकी उत्पत्ति होती रही है ,इसलिए ही बीडीएम ने शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन अर्थात शक्ति के स्रोतों का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य बंटवारा कराने की कार्य योजना बनाया.ऐसे में मिशन के तरफ से निम्न क्षेत्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन कराने अर्थात विविधतामय भारत के चार सामाजिक समूहों-सवर्ण,ओबीसी,एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री-पुरुषों की संख्यानुपात में अवसरों के बंटवारे की निम्न दस सूत्रीय कर्मसूची स्थिर की गई -
1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों;
2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप;
3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीददारी अर्थात सप्लाई;
4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग-परिवहन;
5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन;
6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं
इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि;
7-देश–विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ)
को दी जानेवाली धनराशि;
8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों;
9-देवालयों की संचालन समिति एवं पौरोहित्य तथा
10-ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय,संसद-विधासभा की सीटों;राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों;विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों के कर्मचारियों इत्यादि...
आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे के मुक्कमल सूत्रों से लैस:दस सूत्रीय एजेंडा
अगर विभन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों का असमान बंटवारा ही आर्थिक और सामाजिक विषमता की सृष्टि का मूल कारण है तो बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे उसके निवारण में पूरी तरह सक्षम हैं.इनमें एक वैश्विक अपील है.इसे लागू कर किसी भी देश में समतामूलक समाज की स्थापना किया जा सकता है.जहाँ तक भारत का सवाल है यहां विषमता इसलिए है क्योंकि 15% परम्परागत सुविधासंपन्न वर्ग का शक्ति के तमाम स्रोतों पर 80-85%वर्चस्व है.15%कहना ज्यादती होगी ,क्योंकि इसमें उनकी महिलाओं की भागीदारी अति न्यून है.ऐसे में कहा जा सकता है कि बमुश्किल 8-9%विशेषाधिकारयुक्त लोगों का ही शक्ति केन्द्रों पर दक्षिण अफ्रीका के गोरों कि भांति ही 80-85%कब्ज़ा है.देश के योजनाकारों की बहुत बड़ी कमी रही कि इस विषमताकारी वर्चस्व को नियंत्रित किये बिना,वे वंचित समुदायों की बेहतरी की योजनाएं बनाते रहे.यह योजनाएं भी हिस्सेदारीमूलक नहीं,बहुधा राहतकारी.बहरहाल बीडीएम का दस सूत्रीय एजेंडा लागू होने पर 80-85%कब्ज़ा ज़मानेवाले अपनी संख्यानुपात पर सिमटने के लिए बाध्य होंगे,जैसे दक्षिण अफ्रीका के गोरे हुए.ऐसा होने पर उनके हिस्से की अतिरक्त (surplus) शक्ति के बाकी तीन वंचित समुदायों के मध्य बंटने के दरवाजे स्वतः खुल जायेंगे.शक्ति के उपरोक्त केन्द्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू होने पर सवर्ण,ओबीसी,एससी/एसटी और धार्मिक-अल्पसंख्यकों के मध्य व्याप्त विषमता का धीरे-धीरे विलोप हो जायेगा.बीडीएम का एजेंडा महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बांग्लादेश-नेपाल जैसे पिछड़े राष्ट्रों से भी पिछड़े भारत को विश्व की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देगा .तब सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली की तस्वीर खुशहाली में बदल जायेगी.पौरोहित्य में डाइवर्सिटी ब्राहमणशाही का खात्मा कर देगी.इससे इस क्षेत्र में ब्राहमण समाज की हिस्सेदारी सौ की जगह महज तीन-चार प्रतिशत पर सिमट जायेगी और बाकी क्षत्रिय,वैश्य और शूद्रातिशूद्रों में बंट जायेगी.तब किसी दस वर्ष के ब्राहमण को भूदेवता मान कर कोई दंडवत नहीं करेगा.
बीडीएम की दस सूत्रीय कर्मसूचियां दलित-आदिवासी और पिछड़ों के जीवन में क्या चमत्कार कर सकती हैं ,इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है.इसका परोक्ष लाभ यह भी होगा कि इससे दलित और महिला उत्पीडन में भारी कमी;लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण;विविधता में शत्रुता की जगह सच्ची एकता;विभिन्न जातियों में आरक्षण की होड़ व भ्रष्टाचार के खात्मे के साथ आर्थिक और सामाजिक-विषमता जनित अन्य कई उन समस्यायों के खात्मे का मार्ग प्रशस्त होगा,जिनसे हमारा राष्ट्र जूझ रहा है.
डाइवर्सिटी पर कैसे केन्द्रित हों 16 वीं लोकसभा चुनाव के मुद्दे!
अब लाख टके का सवाल है कि जब हमारी राजनीतिक पार्टियां आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की भीषणता से चिंतित होने के बावजूद यदि राहत और भीखनुमा योजनाओं पर ही निर्भर रहने लिए आमादा हैं,तब वैसे लोग क्या करें जो यह मानते हैं कि शक्ति के सोतों में डाइवर्सिटी लागू करवाकर ही देश की सारी समस्यायों से निजात पाया जा सकता है?यह एक कठिन सवाल है जिसका जवाब उन लोगों को ही ढूंढना होगा जो विषमता की समस्या को सबसे बड़ी समस्या मानते हैं.बहरहाल इस दिशा मेरा भी कुछ सुझाव है.सबसे पहले ऐसे लोगों को,जो डाइवर्सिटी में समाधान देख रहे हैं,मन-प्राण से यह विश्वास करना होगा कि भारत में भी डाइवर्सिटी लागू होना मुमकिन है.ऐसे लोगों को याद दिलाना ठीक रहेगा कि 27 अगस्त,2002 को मध्य प्रदेश में आंशिक ही सही सप्लाई में डाइवर्सिटी लागू होने के बाद मायावती सरकार ने 25 जून 2009 को उत्तर प्रदेश के सभी प्रकार के ठेकों में एससी/एसटी के लिए 23 प्रतिशत तथा केन्द्र सरकार ने 1 नवंबर 2011को लघु और मध्यम उद्यमियों से की जानेवाली खरीद में इनके लिए 4 प्रतिशत आरक्षण,जिसकी सालाना राशि 7000 करोड़ बनती है,की घोषणा किया है.यही नहीं अगर बसपा और कांगेस ने डाइवर्सिटी को कुछ की अमलीजामा पहनाया है तो भाजपा और लोजपा ने अपने घोषणापत्रों में इसे खासा स्पेस प्रदान किया है.दूसरा,यह कि भारत में डाइवर्सिटी का सरल अर्थ कांशीराम का प्रसिद्ध नारा 'जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी'से है. तीसरा,भारतीय राजनीति मिशन से पूरी तरह प्रोफेशन में तब्दील हो गयी है.यहाँ कमसे कम 99%नेताओं के लिए ही,चाहे वे किसी भी विचारधारा की राजनीति से जुड़े हुए हों,राजनीति खाने-कमाने का जरिया है.लेकिन वे ऐसा तब कर पाएंगे जब वे एमएलए/एमपी बनेंगे.और जनप्रतिनिधि बनने में मनी और मसल्स पावर जितना भी प्रभावी क्यों न हो ,सर्वोपरि है जन-समर्थन.और जन समर्थन के लिए वे जनाकांक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते.
मतदाताओं में भीख नहीं,भागीदारी की भरनी होगी:उत्कट चाह
अतः राजनीतिक दलों की मनोवैज्ञानिक कमजोरी को ध्यान में रखकर हमें ऐसा उपक्रम चलाना होगा जिससे मतदाताओं में भीख नहीं भागीदारी की उत्कट चाह पैदा हो.इसके लिए जिस तरह राजनीतिक पार्टियां अभी से अपना प्रचाराभियान चला रही हैं,उसी तरह आपको भी अपने टोले-मोहल्ले में लोगों के बीच जाकर राहत और भीखनुमा घोषणाओं के खतरे से अवगत कराने तथा शक्ति के स्रोतों में डाइवर्सिटी की अहमियत समझाना होगा.यदि संभव हो तो 'लोकसभा चुनाव-2014 के मुद्दे और डाइवर्सिटी'विषय पर छोटी-मोटी संगोष्ठियों का सिलसिला शुरू करें.साथ ही सबसे आवश्यक है कि यह पुस्तिका ,जरुरी नहीं बीडीएम के नाम से,ए-बी-सी-डी किसी भी संगठन के नाम से कुछ हज़ार की संख्या में छपवा कर बांटें.बांटने के लिए कचहरी,सरकारी दफ्तरों और बस-अड्डों व अपने स्थानीय रेलवे स्टेशनों को टारगेट करें.यह एक या दो दिन में संभव है.जहाँ तक पुस्तिका के खर्चे का सवाल है 23x36 इंच के एक रिम पेपर, जिसकी कीमत 11-12 सौ हो सकती है एवं जिसके छपाई का खर्च तीन सौ के करीब होगा,में 2000 पुस्तिका छप जाएगी.इसे बाइंडिंग कराने की जरुरत नहीं,दस रूपये के स्टेपलर पिन से काम चल जायेगा.मैटर भी टाइप करने की जरूरत नहीं.आप मुझे 9313186503,9696252469पर आदेश करें,मैं रेडीमेड मैटर इमेल से भेज दूंगा.अर्थात कुल डेढ़ हज़ार रूपये खर्च कर आप 2000 पुस्तिका तैयार कर लेंगे.अगर आप कुछ जागरुक साथी 4-6 हज़ार पुस्तिका छपवाकर अपने टोले- मोहल्ले,सरकारी दफ्तरों,कचहरी,बस अड्डों और स्थानीय रेलवे स्टेशन पर बंटवा देते हैं तो निश्चय ही लोकतंत्र को बचाने की दिशा में आप एक बड़ा काम कर जायेंगे.ऐसा करने पर मतदाताओं में राहत और भीखनुमा घोषणाओं के प्रति वितृष्णा तथा शक्ति के स्रोतों में अपनी वाजिब भागीदारी की उग्र चाह पैदा होगी.तब उनकी इस चाह का अंदाज़ा लगाकर राजनीतिक पार्टियां वोट की लालच में अपने घोषणापत्र को डाइवर्सिटी केन्द्रित करने के लिए बाध्य होंगी.और डाइवर्सिटी को घोषणापत्र में जगह देनेवाली पार्टी यदि केंद्र की सत्ता पर काबिज होती तब तब उस पर डाइवर्सिटी लागू करने का दबाव बनाने का आपको आधार मिल जायेगा.
इसके लिए आपको घोषणापत्रों के प्रति गंभीर भी बनना होगा.इस देश के गैर-जिम्मेवार बुद्धिजीवियों और मीडिया के सौजन्य से लोग घोषणापत्रों को गंभीरता से लेना भूल गए हैं.घोषणापत्र राजनीतिक दलों और मतदाताओं के बीच का इकरारनामा होते हैं.आप सक्रिय होकर सत्ताधारी दल को घोषणापत्र को लागू करने के लिए दबाव बना सकते हैं.अतः घोषणापत्रों की अहमियत को समझते हुए सोलहवीं लोकसभा चुनाव को डाइवर्सिटी केन्द्रित करने का प्रयास अभी से शुरू कर दें.इसमें आपके सिर्फ कुछ सौ रूपये और सौ घंटे ही समय खर्च होगा किन्तु लोकतंत्र की सलामती की दिशा इसका अवदान करोड़ों के बराबर होगा.
जय भीम-जय भारत
दिनांक:8नवम्बर,2013 एच.एल.दुसाध
(संस्थापक अध्यक्ष,बहुजन डाइवर्सिटी मिशन,दिल्ली,मो-9313186503)
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