दो गज जमीन भी मिलेगी नहीं
খাস কোলকাত্তায় জমি কাইজ্যা
Great rural land rush: 3 to 100-fold rise in property prices may not bode well
Top realtors like DLF, Tata Housing, Fire Capital rush to hills to tap holiday home demand
पलाश विश्वास
Prices of agricultural land have risen by anywhere between three-fold and 100-fold. This is the beginning of a new phase in India's agricultural land mark
दो गज जमीन भी
अब कहीं किसी को
नहीं मिलेगी
सारी जमीन हो गयी
बेदखल, सारे घर
हो गये बेदखल
सर्वत्र प्रोमोटर राज
हालांकि हर सरकारी
झूठ और फरेब की तरह
यह दावा भी पुख्ता है
कि कृषि भूमि में
कोई कमी नहीं है
इस देश में अब
खेती के लिए
कहीं कोई
जमीन नहीं है
आज नींद खुलते ही
सविता ने फरमाया
अब कहां जाओगे
कहां सर छुपाओगे
जो फ्लैट तीन
कमरों का छह साथ
साल पहले सोदपुर में
मिल रहा था
आठ नौ लाख में
अब कहां से लाओगे
दो कमरों का फ्लैट
कोलकाता से 20 किमी दूर
उपनगर सोदपुर में
अब 40-50 लाख
रुपये का है
कल्याणी हाईवे हो या
डायमंडहारबर रोड
या सोनारपुर बासंती रोड
या जीटी रोड
या मुंबई हाईवे
या कोना एक्सप्रेसवे
या दिल्ली हाईवे
आसपास के सारे गांवों के
खेत हुए बेदखल
जमीन के हर टुकड़े पर
कारपोरेट ठप्पा
चप्पे चप्पे पर
प्रोमोटर राज
राजनीतिक सिंडिकेट
और भाड़े पर बाउंसर
बेदखली विशेषज्ञ
कहीं कोई गांव
साबूत नहीं बचा
नरभक्षी जमीनखोरों
के खूनी पंजे से
हर घर पर हमला है
शहरो और कस्बों में
गांवों तक फैलने लगा
कंक्रीट का घना
बहुमंजिली जंगल
जमीन से बेदखल लोगों
के लिए इस जहां में
अब दो गज जमीन भी नहीं
मिलेगी कहीं भी
पांच सात साल पहले भी
इस उपनगर के हर इलाके के
लोगों को जानते रहे हम
अब बहुमंजिली आबादी
शापिंग माल
बार रेस्तरां
से घिर गये हम
और हर चेहरा अब
अजनबी है
हर चेहरे पर
क्रयशक्ति का लेवेल चस्पां
हर रिश्ते पर अब
क्रयशक्ति का तमगा
अब हिमालय की
हरिकथा अनंत का
नया आयाम भी
एकाधिकारवादी
प्रोमोटरराज है
पूरा हिमालय अब
या दंडकारण्य है
या फिर गोंडवाना है
निःशब्द आतताइयों
का जमघट है
पहाड़ों में और
निःशब्द हो रहा
कत्लेआम पहाड़ों में
किसी को कानोंकान
कबर भी नहीं
जलप्रलय के बाद
भी हिमालयी लोग
बेखबर हैं अपने
अपने डूब में मस्त
कि हर ग्लेशियर पर
कारपोरेट झंडे हैं
हर घाटी प्रोमोटरों
के शिकंजे में है
गलतफहमी में हैं
देवभूमि के
देवदेवियां कि
धर्म कर्म में आस्था
खिंचती हैं
विदेशी पूंजी
और विदेशी पूंजी
से होता है विकास
बल्कि सत्यानाश है
प्रोमोटरों,रियल्टरों की
पहली पसंद है
पहाड़ों की हरियाली
हरियाली की हत्या
पूंजी के एजंडे में
सर्वोच्च प्राथमिकता है
सबसे मंहगे हैं
पहाड़ों में भू संपत्ति
क्योंकि पूंजी के लिए
हिमालय देवभूमि नहीं
अय्याशी की इंद्रसभा है
और भूदेवताओं,
होशियार धर्म कर्म
इंद्रसभा में
औपचारिक पासवर्ड
है फिर खुल जा
सिमसिम नहीं
खुल जा केदार
खुल जा बद्री
खुल जा गंगोत्री
खुल जा जमनोत्री है
हिमालय के हिस्से में
सिर्फ जलसुनामी है
या फिर अनंत डूब है
पर्यटन से और
बहुत मजे की बात
धर्म कर्म
और
धार्मिक पर्यटन से
जल जमीन जंगल
आजीविका से
संस्कृति से
मातृभाषा से
बेदखल हैं पहाड़ के लोग
ठीक उसीतरह
जैसे कि दंडकारण्य
या गोंडवाना
पहाड़ के लोग भी
कारपोरेट इंडिया के लिए
दरअसल आदिवासी हैं
मंगोलियन नस्ल के लोग
हिंदू हो सकते हैं
ब्राह्मण और सवर्ण
हो सकते हैं
जैसे कि हड़प्पा
और मोहंजेदोड़ो के लोग हुए
जैसे बंगाल के असुर हुए
निग्रोइड नस्ल के तमाम
लोगों पर जातिव्यवस्था
का शिकंजा कसा
इसीतरह कि
सारे के सारे
शूद्र अपने को
वर्ण हिंदू समझते हैं
विशुद्ध आर्य रक्त के बिना
और आर्यावर्त के शासक
मृगया में शब्दबेदी
वामों से कर रहे
उनका शिकार
फिर प्रायश्चित्त में
अखंड रामराज
अखंड ऊर्जा प्रदेश
देश की पहचान
संस्कृति है
इस देश में अब
ग्लोबल संस्कृति है
क्रयशक्ति में निष्णात
देश की अस्मिता है
मातृभाषा और
हर समुदाय की मातृभाषा
विलुप्तप्राय है
मातृभाषा अब मिक्स है
मल्टीमीडिया है मातृभाषा
मातृभाषा अब विज्ञापनी जिंगल
कला,साहित्य पर
बाजार का कसा शिकंजा
पालतू मीडिया की क्या कहें
जनपदों की कोई
आवाज नहीं कहीं
सारे जनपद भूतेर
भविष्यत है इनदिनों
सारे जनपद श्मशान
घरों में भूतों का बसेरा
हर गांव अब प्रेतपुरी है
जहां पुरखों की
बेचैन आत्माएं
खूंटी पर टंगे नरमुंड है
औघड़ कापालिकों,
ज्योतिषियों,धर्म कारोबारी
राजनेताओं, वीर्यवान बापुओं
ययातियों, मुक्तिदाता
मसीहाओं का गिरोह है
आपराधिक यह सत्तावर्ग
शैतानी त्रिइबलिस
जायनवादी सामंती
और राजधानियां
बहुत वाचाल हैं
सुर्खियों में बस
राजधानियां हैं
बाकी पिपली लाइव
रैंडम सैंपिल हैं
सारे जनपद
या फिर जनादेश निर्माण
हेतु चुनावी सर्वेक्षण
चुनावी समीकरण
या सांप्रदायिकता की
आग में झोंकने लायक
गैस चैंबर हैं जनपद
समूचा हिमालय
अब ऊर्जा प्रदेश हैं
सारे महानगर, नगर
उपनगर और कस्बे
यूनियन कार्बाइड
हवाओं में आक्सीजन नहीं
कार्बन मोनोआक्साइड है
भोजन में विशुद्ध विषैला रसायन
औषधि अल्कोहल है
या वियाग्रा
या जापानी तेल
या मादक द्रव्य
सारे अनाज
सारे वनस्पति
सारी दलहनें
सारी तिलहनें
अब जिनेटिकैली
मौडीफाइड
सारे वीर्य बिंदु
जिनेटिकेली मोडीफाइड
मां की कोख जिनेटिकैली मोडीफाइड
अंत्योदय, किराये पर उपलब्ध
समूचा दंडकारण्य
माओवादी हौआ
सारा गोंडवाना युद्धक्षेत्र
सारा आदिवीसी भूगोल
युद्धबंदी,जहां कहीं भी
कानून का राज नहीं
संविदान लागू
नहीं कहीं भी
चुनाव के वक्त ही
पांचवीं छठी अनुसूचियां
बाकी समय अंधाधुंध
जमीन डकैती
विकास के नाम
निरंतर विस्थापन
आंतरिक सुरक्षा
के बहाने निरंतर दमन
उत्पीड़न, अत्याचार
हर आदिवासी मां
अब सोनी सोरी
अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता सीमा आजाद
या फिर इरोम शर्मिला
भूमि सुधार के लिए
जनयुद्ध जारी है
सदियों से
भूमि सुधार के लिए
ही आजादी की जंग
सदियों से
संसाधनों और
अवसरों का न्यायोचित
बंटवारा ही समता
और सामाजिक न्याय
का आधार
उन्होंने देश का
बंटवारा कर दिया
संसाधनों से
आम जनता को
बेदखल कर दिया
और यही बेदखली
विकास है
भारत उदय है
भारत निर्माण है
आर्थिक सुधार है
विकास दर है
भुगतान संतुलन है
अबाध विदेशी
पूंजी प्रवाह है
सर्वव्यापी कालाधन है
राजनीतिक दलों का
कारपोरेट फंडिंग है
एफडीआई है
आईपीओ है
विकास के तमाम
फर्जी आंकड़े हैं
हम को मिला सिर्फ
निराधार आधार
भूमि सुदार के बदले
जल जंगल जमीन
आजीविका
और नागरिकता से
बी बेदखली
क्रयशक्तिहीन
हर भारतीय नागरिक
की नियति है इस
अनंत वधस्थल में
सारे समुद्रतट
निरंतर समुद्री
तूफानों के शिकंजे
जनपद जनपद
जलप्लावित
और पारमाणविक
विकिरण सर्वत्र
विकास का पैमाना
परमाणु ऊर्जा
शांति ,समृद्धि
और ऐश्वर्य का पर्याय
पांचवी और छठीं
अनुसूचियां हैं
पेसा है
पर्यावरण कानून है
पंचायती राज है
आरटीआई है
वनाधिकार कानून है
खनन अधिनियम
संशोधित है
भूमि अधिग्रहण कानून
भी संशोधित है
जनसंहार और सामूहिक
बलात्कार के लिए
सशस्त्र सैन्य बल
विशेषाधिकार कानून
रक्षाकवच है
घोटालों को रफा दफा
करने के लिए
महामहिम के हक में
संवैदानिक रक्षाकवच है
लेकिन जनता के लिए
न कवच है
और न कुंडल है
सिर्फ कमंडल है
या फिर मंडल है
ससुरे आपसे में लड़ मरो
बाकी कारपोरेट राज है
प्रोमोटर राज है
सिंडिकेड है
रंग बिरंगी छिनाल
राजनीति है
और अबाध जनसंहार मध्ये
भूमि लूट अबाध है
गंगा बंधी हुई है
गंगा जल अब
विषेला पानी है
मनाते रहो कुंभ
मनाते रहो पर्व
खुश होते रहो
व्हाइट हाउस में
मनती दिवाली से
वाशिंगटनी छठ से
बकरे की भी पूजा होती है
बलि देने से पहले
गंगाजल किसी को
अब कभी नहीं मिलने वाला
गंगा सफाई कारपोरेट
अभियान हालांकि चालू है
संघी सत्ता में आ गये
तो फिर नदी जोड़ो
अभियान भी होगा
चौतरफा सत्यानाश के लिए
तमाम बड़े बांध
जाहिर है कि
पर्याप्त नहीं है
पेयजल के लिए भी तड़पोगे
क्योंकि इस देश में पानी
अब मिनरल वाटर है
या फिर शीतलपेय है
और खाना फास्ट फूड
और जंक फूड
पाखाना है
देश बेच दिया जिनने
किसानों को
आत्महत्या का
एकमेव विकल्प दिया जिनने
जिनने हमारे सीने पर
टांग दिये स्वर्मिम राजपथ
पूरे देश की जमीन
जिनने बना दिये
इंफ्रास्ट्रक्चर
विदेशी निवेशकों को
हर छूट दी जिनने
जिनेन सन सैंतालीस के बाद से
अब तलक घोटालों के सिवा
देश को कुछ नहीं दिया
हरिते क्रांति की आड़ में
जिनने किये सिकों का
संहार अस्सी और नब्वे के दशक में
जिनने गुजरात में
किये नरसंहार
रासायनिक हथियारों का
प्रयोग किये जिनने
भोपाल गैसत्रासदी बजरिये
जिनने किये बाबरी विध्वंस
जिनने किये
मुज्फरनगर कांड
जिनने लूटी
फूलनदेवी की अस्मत
जिनने उजाड़े
हमारे सारे केत खलिहान
जिनने गुजरात को
नरसंहार का
पर्याय बना दिया
कारपोरेट पीपीपी
माडल विकास के लिए
जिनने उद्योग केंद्रों को
तबाह करने के लिए
अबतक के सारे दंगे रचे
रच दिये आतंकवादी हमले
और फर्जी मुठभेड़
मेरे देशवासियों
गुलामी के मजर में
उनके तलवे चाटते रहो
क्योंकि कृषि भूमि
अब भी बाकी है
बैदखली के लिए
नंदन निलेकनी है
हमारे वजूद के लिए
विकास के लिए मंटेक सिंह है
घोटालों की जांच के लिए
पिंजरे में कैद
बूढ़ा तोता है
दुश्मनी के लिए
पाकिस्तान और चीन के
अलावा हर नागरिक का
दुश्मन हर दूसरा नागरिक है
और यही आर्थिक विकास है
कि मंगल यान खोज रहा
ग्रहांतर में
हमारे लिए नयी जमीन
और भारत के आसमान में
निगरानी को ड्रोने है
और आंतरिक सुरक्षा के लिए
सीआईए और मोसाद है
कॉरपोरेट जगत के हित में देश की आम जनता के संहार की योजना रोकें
हम महसूस करते हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विध्वंसक कदम होगा, यदि सरकार ने अपने लोगों को, बजाय उनके शिकायतों को निबटाने के उनका सैन्य रूप से दमन करने की कोशिश की. ऐसे किसी अभियान की अल्पकालिक सफलता तक पर संदेह है, लेकिन आम जनता की भयानक दुर्गति में कोई संदेह नहीं है, जैसा कि दुनिया में अनगिनत विद्रोह आंदोलनों के मामलों में देखा गया है. हमारा भारत सरकार से कहना है कि वह तत्काल सशस्त्र बलों को वापस बुलाये और ऐसे किसी भी सैन्य हमले की योजनाओं को रोके, जो गृहयुद्ध में बदल जा सकते हैं और जो भारतीय आबादी के निर्धनतम और सर्वाधिक कमजोर हिस्से को व्यापक तौर पर क्रूर विपदा में धकेल देगा तथा उनके संसाधनों की कॉरपोरेशनों द्वारा लूट का रास्ता साफ कर देगा. इसलिए सभी जनवादी लोगों से हम आह्वान करते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें और इस अपील में शामिल हों.
-अरुंधति रॉय, नोम चोम्स्की, आनंद पटवर्धन, मीरा नायर, सुमित सरकार, डीएन झा, सुभाष गाताडे, प्रशांत भूषण, गौतम नवलखा, हावर्ड जिन व अन्य
শর্ট স্ট্রিটে 'কোম্পানি' কানেকশন?
12 Nov 2013, 14:38
মুম্বইয়ের এক ব্যবসায়ীর নির্দেশেই শর্ট স্ট্রিটের ওই স্কুলের বিতর্কিত জমি দখলের চেষ্টা করেছিলেন কলকাতার এক ব্যবসায়ী। জমি দখলের জন্যই কলকাতার ওই ব্যবসায়ী তাঁর সাহায্য নিয়েছিলেন। জেরায় এমনই দাবি করেছেন ধৃত আইনজীবী পার্থ চট্টোপাধ্যায়।
http://eisamay.indiatimes.com/
मध्य प्रदेश के जनसंघर्ष: आजीविका का सवाल
Posted by संघर्ष संवाद on शनिवार, जून 16, 2012 | 0 टिप्पणियाँ
प्रदेश में 11 प्रमुख नदियाँ बहती हैं. यह नदियाँ कभी लोगों की खुशहाली का कारण होती थीं, लेकिन आज कंपनियों, कार्पोरेट्स और सरकारों के मुनाफ़ा कमाने का साधन बन चुकी हैं, क्योंकि सरकारें इन नदियों पर बाँध बनाकर इनका पानी बेचने का काम करने लगी हैं. नर्मदा, चम्बल, ताप्ती, क्षिप्रा, तवा, बेतवा, सोन, बेन गंगा, केन, टोंस तथा काली सिंध इन सभी नदियों के मुहानों पर आज सरकार पावर प्लांट लगा रही है या लगाने जा रही है जिससे लाखों लोगों के सामने अपने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है.
मध्य प्रदेश के जनसंघर्ष: आजीविका का सवाल
Tags: मध्य प्रदेश के जनसंघर्ष: आजीविका का सवाल , मार्च 2012
- See more at: http://www.sangharshsamvad.org/2012/06/blog-post_16.html#sthash.tFzw8ry4.dpuf
राज्य दमन
पुलिस की बर्बरता: कहानी इतनी आसान नहीं
जिंदल, जंगल और जनाक्रोश: 2008 का पुलिस दमन नहीं भूलेंगे रायगढ़ के लोग
कारपोरेट लूट- पुलिसिया दमन के विरोध में दुर्ग में दस्तक: किसान-मजदूर-आदिवासियों ने किया प्रदर्शन
धरमजयगढ का संघर्ष आख़िरी दौर में
मानवाधिकार
जनता के अधिकारों को बहाल करो, चंद्रवंशी पर लगाए फर्जी मुकदमे वापस लो
सरदार सरोवर बांध : खामियाजा भुगतती नर्मदा घाटी
चुटका : घुप्प अंधियारे में रोशनी का खेल
चुटका में दुबारा जन-सुनवाई की नौटंकी: परमाणु ऊर्जा कारपोरेशन पिछली फजीहत के बाद इस बार मक्कारी की मुद्रा में
हम मरब, कउ नहीं बचाई बाबू: जीतलाल वैगा
चुटका के बहाने शहरों से एक संवाद
यहाँ भी देखें:
-
2 दिन पहले
-
1 सप्ताह पहले
-
Open letter to asian human right commission, Hong Kong (China)
-
2 सप्ताह पहले
-
4 सप्ताह पहले
-
5 सप्ताह पहले
-
INSAF V/S FCRA: INSAF bank account frozen by Home Ministry....
-
5 माह पहले
-
6 माह पहले
- See more at: http://www.sangharshsamvad.org/2012/06/blog-post_16.html#sthash.tFzw8ry4.dpuf
जनसंघर्षों की राज्यवार रिपोर्टें
- थर्मल पावर प्लांट विरोधी आंदोलन
- गंगा एक्सप्रेस वे विरोधी आंदोलन
- करछना जे पी पॉवर प्लांट विरोधी आंदोलन
- जल विधुत परियोजना विरोधी आंदोलन
- विस्थापन विरोधी आंदोलन
- जिंदल-भूषण-मित्तल विरोधी आंदोलन
- कूडनकुलम परमाणु पॉवर प्लांट विरोधी आंदोलन
- राष्ट्रीय संवाद
- हरीपुर परमाणु पॉवर प्लांट विरोधी आंदोलन
- विस्थापन विरोधी आंदोलन
- पेंच व्यपवर्तन परियोजना विरोधी आंदोलन
- अडानी पॉवर प्लांट विरोधी आंदोलन
- चुटका परमाणु पॉवर प्लांट विरोधी आंदोलन
- जैतापुर परमाणु पॉवर प्लांट विरोधी आंदोलन
- बांसवाड़ा परमाणु पॉवर प्लांट विरोधी आंदोलन
- परमाणु प्रदूषण विरोधी आंदोलन
हरियाणा
- गोरखपुर परमाणु पॉवर प्लांट विरोधी आंदोलन
- विस्थापन विरोधी आंदोलन
- जल विधुत परियोजना विरोधी आंदोलन
- जे पी थर्मल पॉवर प्लांट विरोधी आंदोलन
- See more at: http://www.sangharshsamvad.org/2012/06/blog-post_16.html#sthash.tFzw8ry4.dpuf
How forged are government statements!
Most amusing that despite nationwide land grab war,corporate India government claims that due to the buying spree in rural land, how much farmland has India lost? According to the ministry of agriculture, almost none.
It says India lost 16,000 sq km, or 0.8% of her gross cropped area, in the 10-year period to 2010-11. The National Remote Sensing Centre (NRSC), in fact, says land under cultivation stayed constant in the last 10 years.
India's agri-business companies are likely to attract more funds in the coming years with more potential seen in the farm sector by venture capital and private equity funds, a latest KPMG-Ficci report said today.
The opportunities in the food processing industry are significant, which is expected to reach a size of Rs 4 lakh crore by 2014-15 fiscal, contributing around 6.5 per cent to the gross domestic produce, it said.
"Venture capital and private equity funds have shown high level of interest towards various food and agri ventures in India. ...while all segments of agribusiness are expected to attract funding in the future," according to the KPMG-Ficci report released in Hyderabad today.
Agri-technology-based segments are expected to receive higher relative share of funding over others, it said, adding the double-digit growth of vast Indian agri-business has triggered a surge in private equity (PE) placements and merger and acquisitions (M&A) over the past few years.
Noting that Indian food value chain is on the verge of a great transformation, consulting firmKPMG India Retail Head Rajat Wahi said: "Continuous financial and regulatory support from government, increasing participation of private and public corporates, and increasing exposure of foreign players is likely to spur investments in developing the infrastructure across value chain right from farm inputs to the consumers."
According to the report, agri-product companies with presence in edible oils and spices have attracted high investor interest with more than 40 transactions in this space over the last five years.
Agri-logistics is the other area that has been attracting a lot of attention from investors with over USD 60 million invested just in 2012, it said.
The report highlighted that PE investments in agri- business as a percentage of total investments have grown to 3.8 per cent in 2012 from 0.2 per cent in 2008.
During the same period, venture capital (VC) investments in agribusinesses grew from 0.2 per cent to 1.6 per cent of total investments.
The report recommended that the public-private partnerships (PPPs) could be a useful tool to accelerate development in various areas of agri-business.
Currently there are PPPs in the areas of contract farming, drip irrigation projects and terminal markets among others. "However, the scope of these projects is still limited and they serve as examples or models rather than be the norm."
Agri-business incubators modelled along PPP lines could also prove to be immensely helpful to foster support for agri ventures, it added.
Inspite of the huge supply advantages, the report said that India's share in the global food trade is still around 1.5 per cent and suggested skill development and training manpower to handle food processing operations.
নয়াদিল্লি: সাধারণ মানুষ যাতে আরও সহজে পুলিশের সাহায্য পায়, সে কারণে পুলিশকে সুপ্রিম কোর্টের কড়া নির্দেশ৷ জামিন অযোগ্য অপরাধের ক্ষেত্রে পুলিশের দ্রুত এফআইআর নেওয়া বাধ্যতামূলক৷ কোনও পুলিশ অফিসার তা না মানলে কড়া ব্যবস্থা নেওয়ারও নির্দেশ দিয়েছে সর্বোচ্চ আদালত৷ পাশাপাশি সুপ্রিম কোর্ট জানিয়েছে, পারিবারিক বিবাদ, সম্পত্তি বিবাদ, দুর্নীতি, চিকিত্সায় গাফিলতির মতো অভিযোগের ক্ষেত্রেও প্রাথমিক তদন্তের পর এফআইআর করতে পারে পুলিশ৷ কিন্তু, সেক্ষেত্রে সাতদিনের মধ্যে তদন্ত শেষ করে, এই মামলাটি জামিন অযোগ্য অপরাধ কিনা, তা নিয়ে পুলিশকে সিদ্ধান্ত নিতে হবে৷
কলকাতার প্রাণকেন্দ্রে কিন্ডারগার্ডেন স্কুলের জমি বিবাদে হত ২, গ্রেফতার ১২, শর্ট স্ট্রিটের বিতর্কিত জমি একনজরে
কলকাতার প্রাণকেন্দ্রে , সম্ভ্রান্ত এলাকায় ১৭ কাঠা জমি। জমিতে কিন্ডারগার্টেন স্কুল চালান এক মহিলা। জমির মালিকানা নিয়ে আইনি বিবাদ দীর্ঘদিনের। সেই বিবাদের জেরেই ভোর রাতে হামলা। আত্মরক্ষায় গুলি। গুলিতে প্রাণ গেল দুজনের। আহত হলেন চারজন। গ্রেফতার ১২। কিন্তু জমি নিয়ে বিবাদটা ঠিক কোথায়। একবার দেখে নেওয়া যাক।
পার্ক স্ট্রিট লাগোয়া শর্ট স্ট্রিটের নাইন এ প্লটের জমির পরিমাণ ১৭ কাঠা ১২ ছটাক ৩৫ স্কোয়ার ফুট।
১৯৪৬ সাল থেকে জমির হাত বদল শুরু। জমির আদত মালিক বিশ্বনাথ সেইন। তাঁর দুই ছেলে রাজেন্দ্রনাথ ও হরেন্দ্রনাথ।
১৯৪৬ সালের তেসরা এপ্রিল ডিড অফ পার্টিশনে রাজেন্দ্রনাথের ভাগে আসে এই জমি। রাজেন্দ্রনাথের স্ত্রী শৈলবালা সেইনের একমাত্র সন্তানের মৃত্যু হয় অল্পবয়সে। উত্তরাধিকারী না থাকায় বৃদ্ধ বয়সে শৈলবালা হরেন্দ্রনাথের ছেলে দ্বারিকানাথের কাছেই থাকতে শুরু করেন।
১৯৯৯ সালের ২২ জুন। মুম্বই হার্ট লাইন এস্টেট প্রাইভেট লিমিটেড সংস্থা ১ লক্ষ ৪০ হাজার টাকার বিনিময়ে শৈলবালার থেকে গোটা জমি কিনে নেয়। জমি হস্তান্তরে পাওয়ার অফ অ্যাটর্নি ছিল আইনজীবী শিবাজি ব্যানার্জির। শৈলবালা দ্বারিকানাথের কাছে থাকায় জমি বিক্রির টাকা তাঁর হাতেই তুলে দ্বারিকানাথ। এরপরেও মৃত্যুর আগে শৈলবালা সেইন উইল করে ওই জমি দিয়ে যান দ্বারিকানাথের দুই মেয়ে রুমি ও রাখির নামে।
২০১০ সালে রতনলাল নাহাটা নামে এক ব্যক্তি এই জমি দেড়কোটি টাকায় কিনে নেন রুমি ও রাখির থেকে।
অন্যদিকে হার্টলাইন এস্টেট প্রাইভেট লিমিটেডের থেকে এই জমি তিনকোটি টাকায় কেনেন সঞ্জয় সুরেখা ও স্বপ্না সুরেখা।
হমালার ঘটনায়, স্কুলের প্রধান শিক্ষিকার অভিযোগ ছিল ভোর রাতে সম্পত্তির দখল নিতে দুষ্কৃতীদের পাঠায় রিয়াল এসেস্ট সংস্থা রিটম্যান গোষ্ঠীর কর্ণধার পরাগ মজমুদার। প্রধান শিক্ষিকা মমতা আগরওয়াল চক্রান্তের অভিযোগ তুলেছিলেন ইস্পাত সংস্থা কনকাস্ট স্টিলের কর্ণধার সঞ্জয় সুরেখার বিরুদ্ধেও।হামলা এবং চক্রান্তের গোটা অভিযোগটাই ভিত্তিহীন বলে মন্তব্য রিয়েল এসেস্ট সংস্থার কর্ণধারের।
হামলার ঘটনায় অভিযোগ ছিল সঞ্জয় সুরেখার বিরুদ্ধেও। তার গলায় আবার ভিন্ন সুর।
কলকাতা কর্পোরেশনের মিউটেশন সার্টিফিকেটে সঞ্জয় সুরেখা ও স্বপ্না সুরেখাকেই জমির মালিক হিসাবে দেখানো হয়েছে।
তবে জমির মালিকানা সংক্রান্ত বিতর্ক নিয়ে ২০১০ সাল থেকেই কলকাতা হাইকোর্ট ও দেওয়ানি আদালতে চলছে একাধিক মামলা।
http://zeenews.india.com/bengali/kolkata/short-street-land-contro_17775.htmlকলকাতা: ভোররাতে শহরের প্রাণকেন্দ্রে গুলির আওয়াজ৷ তীব্র আতঙ্ক এলাকায় শহরের অভিজাত এলাকায়৷ ভোর সাড়ে চারটেয় এলোপাথারি গুলির শব্দে কেঁপে ওঠে ৯-এ শর্ট স্ট্রিটের একটি স্কুলবাড়ি, যার ঠিক পাশেই থাকেন কলকাতার পুলিশ কমিশনার৷ শেক্সপিয়র সরণি থানা থেকেও ঢিলছোড়া দূরত্বে ওই বাড়ি৷ সেখানেই থাকেন স্কুলের অধ্যক্ষা৷ তাঁর অভিযোগ, কিছুদিন ধরে এই জমির দখল নেওয়ার জন্য এক ব্যক্তি তাঁকে ক্রমাগত হুমকি দিচ্ছিল৷ অধ্যক্ষার দাবি, এ দিন কয়েকজন তরুণী সহ ১৬ থেকে ১৭ জন তাঁর বাড়িতে আসেন৷ ওই দলে ছিলেন এক আইনজীবীও৷ বহিরাগতরা জোর করে সম্পত্তি দখল নেওয়ার চেষ্টা করেন৷ তখনই বাড়ির নিরাপত্তারক্ষী পাপ্পু খান গুলি চালান৷ পালটা গুলি চালায় বহিরাগতরাও৷ তাঁর শ্লীলতাহানি করা হয়েছে বলেও অভিযোগ করেন অধ্যক্ষা৷ ঘটনাটির কথা জানাজানি হতেই চাঞ্চল্য ছড়ায় গোটা এলাকায়৷
সকাল ৬টায় ঘটনাস্থলে আসেন শেক্সপিয়র থানার পুলিশ কর্মীরা৷ খুনের অভিযোগে প্রথমে গ্রেফতার করা হয় বাড়ির নিরাপত্তারক্ষী পিন্টু খানকে৷ এরপর ঘটনাস্থলে আসেন যুগ্ম কমিশনার ক্রাইম, ডিসি সাউথ সহ কলকাতা পুলিশের পদস্থ কর্তারা৷ আটক করে থানায় নিয়ে যাওয়া হয় অধ্যক্ষা সহ ৪ জনকে৷ মেডিক্যাল কলেজে ভর্তি করা হয় এক আহতকে৷ বক্তব্যে অসঙ্গতি মেলায় বেলার দিকে গ্রেফতার করা হয় অধ্যক্ষাকে৷ যদিও পুলিশ সূত্রে খবর, তাঁর দাবির সঙ্গে বাড়ির সিসিটিভি ক্যামেরার ফুটেজের কোনও মিল নেই৷ পুলিশ সূত্রে খবর, সোমবার ভোরে আটজন বহিরাগত পাঁচিল টপকে ওই বাড়ির ভিতরে ঢোকে৷ ভিতরে ঢুকে তারা বাড়ির গেট খোলার জন্য নিরাপত্তারক্ষীদের হুমকি দেন৷ এরপর গেট দিয়ে আরও ৮ থেকে ৯ জন ভিতরে ঢোকে৷ পুলিশ সূত্রে জানা গিয়েছে, বাড়ির সিসিটিভি ফুটেজে দেখা গিয়েছে, সেই সময় বহিরাগতদের লক্ষ্য করে গুলি চালান অধ্যক্ষা৷ কয়েকজন সেখান থেকে পালিয়ে গেলেও পাশের একটি ঘরের ভিতরে ঢুকে পড়েন বাকিরা৷ পুলিশ সূত্রে খবর, সেই সময় অধ্যক্ষার সহযোগী পাপ্পু খান বহিরাগতদের লক্ষ্য করে গুলি চালান৷ মৃত্যু হয় প্রসেনজিত্ দে ও পিকলু আচার্য নামে দুই বাউন্সারের৷ স্কুলবাড়ির ভিতর থেকে উদ্ধার হয়েছে দুটি আগ্নেয়াস্ত্র এবং ৯টি খালি কার্তুজের খোল৷ তবে পুলিশের দাবি, অধ্যক্ষার শ্লীলতাহানির অভিযোগ ঠিক নয়৷ কারণ, ফুটেজে দেখা গিয়েছে তিনি নিজেই নিজের পোশাক ছিঁড়েছেন৷ ঘটনাকে কেন্দ্র করে দানা বেঁধেছে একাধিক প্রশ্ন৷
যে বাউন্সারদের বিরুদ্ধে সম্পত্তি দখল করতে আসার অভিযোগ উঠছে, তাদের কে পাঠিয়েছিল? সত্যিই কি সম্পত্তি বিবাদের জেরেই এই ঘটনা, নাকি নেপথ্যে রয়েছে অন্য কোনও কারণ? বিতর্কিত সম্পত্তির সঙ্গেই বা অধ্যক্ষার কি সম্পর্ক?
http://www.abpananda.newsbullet.in/kolkata/59/43432
How much farmland has India lost?
By ET Bureau | 12 Nov, 2013, 04.00AM IST
Due to the buying spree in rural land, how much farmland has India lost? According to the ministry of agriculture, almost none.
It says India lost 16,000 sq km, or 0.8% of her gross cropped area, in the 10-year period to 2010-11. The National Remote Sensing Centre (NRSC), in fact, says land under cultivation stayed constant in the last 10 years.
Another number comes from the Census Department, which says area under urban use jumped by 24,000 sq km during the same period. Much of this would have been at the expense of rural land. "As cities grow, agricultural area around them comes down," says a senior official of the National Remote Sensing Centre (NRSC), on the condition of anonymity as he is not authorised to speak to the press.
Even this might be conservative. Micro-studies and anecdotal observations suggest the extent of loss of agricultural land is greater. In 'Land Alienation and Local Communities: Case Studies in Hyderabad-Secunderabad', a paper published in the Economic & Political Weekly in August 2007, V Ratna Reddy and B Suresh Reddy write: "Agriculture (has) ceased to be the main activity in all the 25 mandals in and around Hyderabad. The total sown area that has gone out of cultivation in these mandals is estimated at more than 90,000 hectares (900 sq km)."
The paper goes on to add that only 10% of the total sown area in the district is being cultivated. "Considering developments across Andhra Pradesh, the loss of cultivable land could be around half a million hectares (5,000 sq km) even by a conservative estimate," it says. And this is just one state.
According to Ramesh Chand of the National Centre for Agricultural Policy and Research, fertile lands being replaced by less fertile lands is one reason why the magnitude of this shift might be understated. NRSC data between 2004-05 and 2011-12 shows a decline in the areas of shrublands, grasslands, grazing lands, swamps and wastelands—poorer alternatives to fertile land if co-opted into farming.
"Good land with high productivity is being reduced to banjar zameen (barren land). What about agricultural production?" asks Shiv Sena MP from Maharasthra Anil Patil, who estimates that areas around Pune have lost 20% of their agricultural land.
Top realtors like DLF, Tata Housing, Fire Capital rush to hills to tap holiday home demand
NEW DELHI: Luxury holiday homes in the hills are once again becoming an object of desire and India's top real estate companies are ready to meet this demand, especially as the slowdown has eroded sales in urban markets. Entrepreneurs, retired industrialists and top executives are all looking to pick up a second home to get away from the hassles of city life.
While small local developers have been offering homes in the hills in places such asShimla, Kasauli, Nainital and elsewhere, it's the entry of larger national players such as DLF and Tata Housing, besides others such as Fire Capital and Woodside Developments that has energised the market.
Tata Housing has launched a gated project in Kasauli in Himachal Pradesh which will have 70 villas spread across 24 acres. The Myst villas are priced at Rs 3.5-8 crore. Woodside Developments is close to completing a project in Kasauli with 35 villas of 2,800-5,000 sq ft area and a clubhouse.
Buyers include Dabur Group chairman emeritus Vivek Burman, Ambuja Cements chairman emeritus Suresh Neotia, Rajya Sabha MP and lawyer Abhishek Manu Singhvi, Arun Bharat Ram of SRF Group, Deepak Jain of Lumax Industries and Ram Sarvepalli, partner at EY. DLF has launched one project each in Kasauli and Shimla, where it is selling plots as well as homes.
"Luxury developments in the hills are the most sought after today as ideal holiday home destinations," said Jaiwant Daulat Singh, director, Woodside Developments. The market has grown in the last few years as people have moved beyond beach destina tions for holiday homes.
Gated communities in the hills are a new concept, said Rajeeb K Dash, head of marketing at Tata Housing. "People are looking for a contemporary lifestyle even in their holiday destinations."
Tata Housing has sold close to 20% of inventory in the first destinaphase of its Kasauli project, marketed as a mix of lifestyle and nature. "Ours is a biophilic design," he said, which implies harmony with nature.
Until recently, there weren't too many options for buyers except for projects built by local developers where quality was an issue, said Mudassir Zaidi, national director, residential, Knight Frank India. "Now with some credible developers in the fray, people know what to expect."
Private equity fund Fire Capital has entered the segment with a luxury apartment project called Clouds' End in Kufri, also in Himachal Pradesh, where apartment sizes have been deliberately kept small to bring down the ticket size —Rs 60 lakh to Rs 1.5 crore.
Change in law helps buyers
In states such as Himachal Pradesh buying property isn't easy for people from outside the state. They can, however, buy land from an agriculturist if they get approval under Section 118 of the Land Reform Act of 1972.
The new Town and Country Planning Act that was put in place in September to replace the erstwhile Himuda Act of 2005 has brought more clarity to the transfer/conveyance of land and buildings for projects approved under Section 118. This means apartments in projects by developers which have approval under Section 118 can be bought by outsiders.
Great rural land rush: 3 to 100-fold rise in property prices may not bode well
By M Rajshekhar, ET Bureau | 12 Nov, 2013, 09.32AM IST
For the longest time, the price of farmland in Vadicherla stayed below Rs 20,000 an acre. Ten years ago, that began to change. "In 2003, an acre cost Rs 25,000. By 2006-07, it had climbed to Rs 2 lakh," says Byru Veeraiah, sarpanch of this village in Andhra Pradesh's Mehbubnagar district."By 2010, an acre cost Rs 3 lakh. And Rs 12 lakh by 2012."
It was a puzzling spike. This village, with 700-odd families, is nowhere near large cities. Warangal, the nearest large town, is 100 km away. The Vijayawada-Hyderabad highway is a good 15 km away. No farmland in the village or its vicinity was being bought by the government or companies.
Vadicherla is not alone. In 10 years, the price of an acre in Ramavarapadu, a village next to Vijayawada, has leapt from Rs 7 lakh to Rs 7 crore. Or take Mardi, 15 km off Solapur, Maharashtra. The price of an acre in this village, says Prakash Arjun Kate, a local, has "climbed from Rs 20,000-25,000 ten years ago to Rs 10 lakh now." Ramavarapadu, Vadicherla and Mardi are not isolated instances. Microstudies and anecdotal information on 68 villages in seven states gathered by ET suggest a lot of rural India is seeing a similar climb in farmland prices (See graphic), primarily because of highways, investors and urbanisation.
* |
"This is true for almost all of India, perhaps barring only the north-east and Kashmir," says RS Deshpande, former director of Bangalore's Institute for Social and Economic Change(ISEC).
A Trinity Converges
For the longest time, farmland markets were comatose. Land ceiling laws, designed to prevent concentration of land ownership, were one reason. Another reason, as academic Sanjoy Chakravorty writes in 'The Price of Land: Acquisition, Conflict, Consequence', his book on land acquisition in India, was the limited reason to buy land. He writes: "If land's value is a measure of its future income, and if the future use is not dramatically different from its current use, a sale is possible only if a buyer's evaluation of the discounted future income stream is more than the buyer's valuation of the same."
The wheels are turning faster on both counts. New buyers, with a different assessment of value, are entering the market. In Vadicherla, for instance, says sarpanch Veeraiah, "people from Hyderabad, Warangal and NRIs are buying land." At the point where the road to the village meets the Suryapet-Warangal road, investors from Suryapet have marked plots to build houses, and are waiting for buyers to come. In Ramavarapdu, outsiders are building four- and five-floor apartment blocks on what used to be farmland.
Elsewhere, investors are converting agricultural land into commercial use. Or, they are just holding on to it, waiting for its value to appreciate to offload it in the market.
The resultant spike in farmland prices is leaving its imprimatur on rural India. It is giving farmers seeking to leave agriculture an exit option. It is also pulling an unknown quantum of land out of agriculture. As land rates rise, farmers are unable to buy farmland in their own villages. As such, it is reshaping the ownership of land. And it's all coming about because a trinity is converging on it—investors looking to buy, farmers looking to exit agriculture, and politicians and their associates looking to create a marketplace for such transactions.
A Shiny New Investment
Investor interest in farmland can be traced back to two factors. First, says Gaurav Jain, a real estate professional who worked with Emaar and DLF before setting up his own consultancy, Samyak Properties & Infrastructure, liberalisation boosted job creation and incomes, and increased demand for housing.
Second, as Chakravorty writes, till the mid-1990s, almost all house purchases were in cash. Around 2000, the housing market in credit began to grow. That, he writes, "brought very large numbers of new housing consumers into the market".
This has pushed up land prices. Indian cities, notes Chakravorty, wary of congestion, have kept floor space index (FSI)—a measure of how much can be built on a plot of land—low. Unhappy with the combination of limited (and costly) undeveloped space and low FSI in cities, builders began looking towards the periphery.
So did buyers. "The rule of thumb used in much of the developed world is that a family cannot afford a home whose price is three to four times the family's annual income," writes Chakravorty. In cities like Mumbai, he notes, a family with a per capita income of Rs 60,000 will take 100 years to buy a 800 sq ft house. As both builders and buyers move to the periphery, and beyond it to towns and villages, their demand is pushing up prices of farmland at a rate faster than traditional financial and real assets (See graphic).
Farmland has even outperformed investments in urban property. Says Pran Khanna, a Delhi-based consultant to companies: "A Rs 50 crore investment in a south Delhi house will climb to maybe Rs 55 crore in five years." In contrast, as Mardi and Vadicherla show, returns can be exponential.
Pure agricultural land, adds Jain, appreciates faster. "It has fewer encumbrances— like pre-existing structures." This is resulting in land being bought and left fallow.
This has created a second set of buyers: investors. The average buyer, says Jain, is "someone who is over 40, kids educated, has a house and is wondering what to do with surplus cash." Seeing the escalation in land values in peri-urban areas, people began buying land even far from cities, reasoning they would make a killing once the city expanded. Similarly, businessmen, in small towns like Suryapet, knowing they could not buy land near big cities, began buying land in their own peripheries. Their bet: rates can only rise—as population rises, land will only get more scarce.
A Ticket Out of Agriculture
These buyers are finding willing sellers in farmers. "In rural areas, agriculture is not the most important component any longer," says Ramesh Chand, director of National Centre for Agricultural Economics and Policy Research (NCAP). "It now accounts, as per NSSO numbers, for just 33% of the rural economy."
From his office in Hyderabad, CS Reddy, the founder of APMAS, a Hyderabad-based organisation that advises SHG (self-help group) organisations, has been watching investors flock to buy farmland. "In the last 10 years, we have seen a lot of farmers become wage labourers," he says. "This is not only because they sold their land out of distress. Some of them are starting to feel they are better off working as labour than putting money into farming, with its uncertain returns."
A small farmer with an acre of land will get 30 bags of paddy. At Rs 2,000 each, that's a gross income of Rs 60,000. But net of costs, his net income will probably be closer to Rs 20,000. Even this is subject to weather risk—and price risk for crops not supported by minimum assured government prices. Says Deshpande of ISEC: "The 59th NSSO report asked farmers if they wanted to leave agriculture. 40% said 'yes'." That was in 2002. Since then, the drift has only continued.
A Source Of Political Rent
Politicians, who created a market out of matching buyers and sellers, opened a third flank. In the last 10 years, the cost of fighting elections has shot up, and politicians are using the land boom to subsidise their campaigns.
Anil Patil, the Shiv Sena MLA in Madha constituency of Maharashtra, explains the arithmetic, which makes a mockery of election-spending rules. "In 2009, an MLA spent Rs 10 crore on campaigning," he says. "In 2014, they will probably spend Rs 20 crore. This means an MLA needs to raise at least Rs 30 crore during his five-year stint." Political parties face a similar arithmetic. They need to, says Patil, "fund at least half the campaign expenses of their MLAs and MPs so that they stay loyal to the party."
Besides parking their own money in land, politicians, through associates, are making a killing by positioning themselves in between real estate companies and the state. What unlocks the value of farmland is change of land use, clearing it for non-agricultural use— like commercial or residential.
According to Patil, the region between Pune, Nashik, Mumbai, Thane and Raigad is seeing a real estate boom. Here, he says, politicians either buy the land—through middlemen—from farmers and sell it to builders. Or, they charge a commission for land-use change. This money is then used to buy land elsewhere. Land in Madha that used to cost Rs 50,000 an acre in 2005-06, adds Patil, now costs Rs 15 lakh.
Several moves by the state government have given such forces a larger market to play in. For instance, Haryana has relaxed land ceiling laws for non-agricultural owners. Others have made it easier for outsiders to acquire tribal or Dalit land. They are also expanding urban limits. Haryana, for instance, says Jain, has added 30,000 acres to the urban area of Gurgaon.
The Meaning Of It All
Besides a reduction in the area under agriculture, the farmland boom is propelling some fundamental shifts. For example, how farmers perceive the value of their land. A farmer, having heard about another farmer selling his land for Rs 80 lakh an acre, will not settle for anything less.
Chakravorty feels India is now "permanently in a new land price regime". "The tipping point has come from the expansion of money supply in India— black, white and foreign," he writes. In contrast, Himanshu, a professor at the Jawaharlal Nehru University in New Delhi, thinks this is a bubble. Most buyers, he says, are investors. "Are there are enough people willing to buy at the price these people want to sell?" he asks.
Over time, Himanshu says, as prices keep rising, the market will shrink to a small number of actors transacting among each other. This will trigger a correction and a return to the rubric of three to four times annual income. "While prices can stay high for some time, the moment one farmer sells at a lower rate, the buyers' expectations will fall, and that will be the end of the boom," he adds.
In peri-urban areas, land is being bought by people who already know what use they want to put it to. Deeper, however, people are buying land and letting it lie fallow. This is what is happening in villages like Vadicherla. Places deep in the hinterland, feels Himanshu, are likely to attract predominantly black money. "If the money being put into land is illegally sourced, it can be parked here and good as forgotten," he says. "But if the land is credit-linked, the owner will need to see returns before long."
In the interim, farmers are facing reduced affordability of agricultural land in their own villages, especially in peri-urban areas, which tend to have a high number of buyers and sellers. For example, in Yeshwanthapur, a village between Janagaon and Warangal, a private organisation has bought about 100 acres of land for a golf club. The sarpanch of the village, Clemenca Reddy, says her cousins and her family together sold "about 30 acres of land at Rs 9 lakh per acre."
Her family went 20 km away and bought 25 acres there for Rs 40,000-50,000 an acre. Another villager in Yeshwanthapur, Botla Narsaiah, has a different story. A small farmer with just 2.5 acres, he sold it all in batches to first fund the construction of a house and then to get his daughters married. He is now working as a labourer, making Rs 2,000 a month. "Even far off the highway, land now costs Rs 4 lakh. We cannot afford it," he says.
Human Costs
There are human costs too. In villages, youngsters will want the family to sell the land and start a new business instead. In 'Land Alienation and Local Communities', a paper published in the Economic & Political Weekly in 2007, V Ratna Reddy and B Suresh Reddy studied the impact of urbanisation and land sales in four villages near Hyderabad. They found traditional rural occupations were being replaced by newer ones -- construction contractors,real estate broking, driving auto rickshaws, petty business, etc.
Yet others are seeing this as their ticket out of agriculture. In areas near Vijayawada, reports S Ananth, a Hyderabad-based independent researcher studying rural change, "several farmers near Vijayawada have sold their land and bought apartments. They are now living on rental income." Adds S Malla Reddy, national vice-president of a CPI (M) organisation working on peasant issues: "Due to high prices in villages, villagers are now investing in open plots (real estate ventures) in towns nearby."
In villages, as land prices rise, there will be a concentration of land ownership. Says Chand of NCAP, the country will see a rise in absentee landlordism. This has implications for food production: sharecroppers struggle to improve productivity of their lands.
India will also see, says Deshpande of ISEC, "the rise of a white-collared cultivating class. They are better educated and will participate better in markets." JA Chowdary, chairman of an IT company called Talent Sprint, typifies that. Over the past 10 years, his family has bought 200 acres of farmland in Andhra's Ananthapur district at Rs 30,000 per acre. Most of them, feels Himanshu, will grow higher value plantations crops. Chowdary is growing mangoes and pomegranates.
All this will strain food security and prices further. "Fifty years ago, Pune's vegetables came from nearby places like Haveli and Purender," says Patil. "Now, they come from as far as Satara and Kolhapur." Agrees Himanshu: "In the next 10 years, the number of people leaving agriculture will rise. Cropping intensity, too, will have to go up."
With inputs from Rajireddy Kesireddy
বন্দুক দাগলেন মহিলাও, শহরে জমিযুদ্ধে নিহত ২ | ||||
নিজস্ব সংবাদদাতা | ||||
তখনও ভোরের আলো ফোটেনি। বাড়ির উঠোনে দাঁড়িয়ে কিছু লোককে লক্ষ্য করে বন্দুক চালাচ্ছেন টি-শার্টের উপরে ওড়না জড়ানো এক মহিলা! সঙ্গীদেরও নির্দেশ দিচ্ছেন গুলি চালাতে! মধ্যপ্রদেশের চম্বল নয়। ঘটনাস্থল খাস কলকাতা! শহরের পুলিশ কমিশনারের বাংলোর পিছনেই। সোমবার কাকভোরে কলকাতার কেন্দ্রস্থলে, শেক্সপিয়র সরণি থানা-এলাকার শর্ট স্ট্রিটে এই ঘটনায় নিহত হয়েছেন দুই যুবক। দু'জন আহতও, আশঙ্কাজনক অবস্থায় তাঁরা হাসপাতালে ভর্তি। পুলিশ জানিয়েছে, নিহতদের নাম প্রসেনজিৎ দে (২৩) ও পিকলু আচার্য (২২)। প্রসেনজিতের বাড়ি উত্তর ২৪ পরগনার ব্যারাকপুরে, পিকলু কল্যাণীর গয়েশপুরের বাসিন্দা। দু'জনেই একটি বেসরকারি নিরাপত্তা সংস্থার কর্মী। তাঁদের খুন করার অভিযোগে গ্রেফতার হয়েছেন মমতা অগ্রবাল নামে ওই মহিলা ও তাঁর দুই নিরাপত্তারক্ষী প্রমোদ সাহু ও সফিক আহমেদ ওরফে পাপ্পু। জবরদস্তি অনুপ্রবেশ ও হাঙ্গামা বাধানোর অভিযোগে ধরা হয়েছে তিন মহিলা-সহ আরও ৯ জনকে। এঁঁদের মধ্যে এক জন আইনজীবী। শর্ট স্ট্রিটের যে বাড়িটিকে ঘিরে এত কাণ্ড, মমতাদেবী তারই চৌহদ্দিতে থাকা একটি মন্তেসরি স্কুলের প্রধান শিক্ষিকা। তাঁর বসবাস লাগোয়া অন্য একটি বাড়িতে। যদিও ঘটনার সময়ে তিনি স্কুল-বাড়িতেই ছিলেন। প্রাথমিক তদন্তের পরে পুলিশের দাবি, ১৭ কাঠা জমি-সমেত গড়ে ওঠা বাড়িটি নিয়ে সম্পত্তিগত বিবাদ রয়েছে। এবং তারই জেরে প্রসেনজিৎ, পিকলু-সহ একুশ জনের একটি দল ভোররাতে ওই বাড়িতে ঢুকেছিল, দখল নিতে। তখনই গুলিচালনার ঘটনা ঘটে। | ||||
* | ||||
অঙ্কন: সুমন চৌধুরী। | ||||
অদূরে ডিসি (সাউথ)-এর অফিসের সঙ্গে আইপিএস অফিসারদের আবাসন। ভোর সওয়া চারটে নাগাদ গুলির আওয়াজে এক পুলিশ-কর্তার ঘুম ভেঙে যায়। তিনি-ই প্রথম কন্ট্রোলে ফোন করে খবর দেন। প্রায় একই সঙ্গেই আর একটি ফোন থেকে শর্ট স্ট্রিটে গুলিচালনার খবর আসে। ওয়্যারলেসে বার্তা পেয়ে টহলদার ভ্যান পৌঁছে যায় কিছু ক্ষণের মধ্যে। গিয়ে দেখা যায় বাড়ির এক ঘরে রক্তাক্ত অবস্থায় পড়ে রয়েছেন চার যুবক। এক জনের মাথার ঘিলু বেরিয়ে এসেছে। সকলকে এসএসকেএমে নিয়ে যাওয়া হয়। চিকিৎসকেরা দু'জনকে মৃত ঘোষণা করেন। ঠিক কী হয়েছিল এ দিন ভোরে? লালবাজারের খবর: গত সেপ্টেম্বরে ওই বাড়িতে হামলা চালানোর একটি অভিযোগ দায়ের করেছিলেন মমতা। তখন পুলিশই তাঁকে বাড়ির বাইরে সিসিটিভি-ক্যামেরা বসানোর পরামর্শ দিয়েছিল। আর এ দিন সেই নজরদার-ক্যামেরার ফুটেজ দেখেই পুলিশ ঘটনার ছবি পেয়েছে। কী রকম? তদন্তকারীরা জানিয়েছেন, ভোর সওয়া চারটে নাগাদ শর্ট স্ট্রিটের ওই বাড়ির সামনে তিনটি গাড়ি এসে থামে। তা থেকে নেমে আসে পুরুষ-মহিলা মিলিয়ে ২১ জন, যাদের মধ্যে ১৮ জন পেশায় বেসরকারি নিরাপত্তারক্ষী (৪ জন পুরুষ সিকিওরিটি গার্ড, ৪ জন মহিলা সিকিওরিটি গার্ড, ও ১০ জন 'বাউন্সার')। এ ছাড়া 'দখলদার' দলে ছিলেন পার্থ চট্টোপাধ্যায় নামে এক আইনজীবী, তাঁর এক সঙ্গী এবং এক জন ফোটোগ্রাফার। ফুটেজ দেখে পুলিশের অভিযোগ, প্রথমে ধাক্কাধাক্কি করে গেট খোলার চেষ্টা হয়। তাতে কাজ না-হওয়ায় জনা আটেক যুবক পাঁচিল টপকে বাড়ির চত্বরে ঢুকে পড়ে। বাড়ির দুই প্রহরী তখন চত্বরে পার্ক করে রাখা একটি গাড়ির ভিতরে ছিলেন। হানাদারেরা তাঁদের কাছ থেকে গেটের চাবি ছিনিয়ে ফটক খুলে দেয়। দলের বাকিরাও ঢুকে পড়ে। তাদের অনেকের হাতে রড-লাঠিও দেখা গিয়েছে বলে পুলিশের দাবি। এর পরেই প্রতিরোধ। পুলিশ জানিয়েছে, অনুপ্রবেশকারী এক মহিলা সিকিওরিটি গার্ড বাড়ির ভিতরে ঢোকার চেষ্টা করতেই মমতা আচমকা বেরিয়ে এসে একনলা স্পোর্টিং গান থেকে গুলি চালান। পাপ্পুও বেরিয়ে আসে দোনলা বন্দুক হাতে। খালি হাতে বেরোয় প্রমোদ। হকচকিয়ে গিয়ে হামলাকারীদের কয়েক জন বাড়ির বাইরে ছুটে পালায়। কয়েক জন ঢুকে পড়ে বাড়ির ভিতরে, বাচ্চাদের স্কুলের একটি ঘরে। পুলিশের দাবি, মমতা তখন পাপ্পুকে গুলি চালাতে নির্দেশ দেন। সেই সঙ্গে নিজের বন্দুক পাপ্পুর হাতে দিয়ে তিনি পাপ্পুর বন্দুকটি নিজের কাছে রাখেন। পাপ্পু গুলি চালায়। বন্দুকবদল-সহ যার পুরোটা সিসিটিভি-ক্যামেরায় স্পষ্ট ধরা পড়েছে বলে পুলিশের দাবি। কিন্তু কার গুলি কাকে বিদ্ধ করল, সেটা এখনও পরিষ্কার নয়। মন্তেসরি স্কুলের কাঠের ঘরের ভিতরে নিহত ও আহতদের পাওয়া গিয়েছে। ওই ঘরে কোনও সিসিটিভি-ক্যামেরা নেই। পুলিশ জানিয়েছে, প্রত্যক্ষদর্শী তথা পিকলু-প্রসেনজিতের সহকর্মী সুব্রত ঘোষ জেরায় বলেছেন যে, মমতা-পাপ্পু-প্রমোদ মিলে ওই ঘরের মধ্যে প্রথমে তাঁদের কয়েক জনকে মারধর করেন। আর এক প্রত্যক্ষদর্শী, সিকিওরিটি গার্ড ইমরানের কথায়, "মহিলা গুলি চালাতেই আমি একটা টেবিলের তলায় লুকিয়ে পড়ি। পরে ওদের এক জন এসে আমাকে মারধর করে।" ধৃতদের মধ্যে সুব্রত, ইমরানও রয়েছেন। ঘটনাস্থল থেকে বন্দুক দু'টি বাজেয়াপ্ত করেছে পুলিশ। লালবাজারের খবর, দু'টিরই লাইসেন্স রতনলাল নাহাটার নামে। মিলেছে ২০টি তাজা কাতুর্জ ও সাতটি কার্তুজের খোল। তদন্তকারীদের দাবি, মমতা ও রক্ষীরা দু'টি বন্দুক থেকে প্রায় সাত রাউন্ড গুলি চালিয়েছেন। নিহত দু'জনেরই মাথায় আঘাত। ঘটনার পরে মমতা অবশ্য নিজের হাতে গুলি চালানোর কথা অস্বীকার করেন। হামলাকারীদের বিরুদ্ধে শ্লীলতাহানির নালিশও এনেছেন তিনি। "আমি দরজা খুললেও বাইরে বেরোইনি। জমি নিয়ে কথা বলতে বলতে বহিরাগতেরা আমার উপরে চড়াও হয়। শ্লীলতাহানির চেষ্টা করে। পাপ্পু ওখানেই ছিল। ও বন্দুক নিয়ে ঘরের বাইরে চলে যায়। গুলির আওয়াজও পাই। পরে শুনেছি, লোক মারা গিয়েছে।" গ্রেফতার হওয়ার আগে বলেছেন মমতা। তবে পুলিশ সিসিটিভি-র ফুটেজে তাঁর এই বক্তব্যের সমর্থন পায়নি। কলকাতা পুলিশের গোয়েন্দা-প্রধান পল্লবকান্তি ঘোষ বলেন, "ফুটেজে দেখা গিয়েছে, মমতা অগ্রবাল বন্দুক থেকে গুলি ছুড়ছেন।" এক পুলিশকর্তার মন্তব্য, "উনি পাপ্পুর সঙ্গে বন্দুক বদল করে বাঁচতে চেয়েছিলেন। কিন্তু ওঁর বসানো সিসিটিভি'র ফুটেজই ওঁকে ধরিয়ে দিল।" | ||||
| ||||
কিন্তু এমন ঘটনা ঘটল কেন? পুলিশ সূত্রের ব্যাখ্যা, পুরোটার পিছনে রয়েছে শর্ট স্ট্রিটের মতো অভিজাত এলাকায় ১৭ কাঠা জমি ও বাড়ির মালিকানা-বিবাদ। বাড়িটি বর্তমানে রতনলাল নাহাটা নামে এক ব্যবসায়ীর দখলে, যিনি ওই বাড়িরই বাসিন্দা। কিন্তু ২০১০-এ শিল্পপতি সঞ্জয় সুরেখা পুলিশের কাছে দাবি করেন, জমিটি তিনি মুম্বইয়ের এক সংস্থার কাছ থেকে কিনেছেন। এই পরিস্থিতিতে মালিকানা নিয়ে নিম্ন আদালতে মামলা চলছে। এক পুলিশ-কর্তা বলেন, "রতনবাবু অসুস্থ, শয্যাশায়ী। তিনি বাড়িটার একটা ঘরে থাকেন। তাঁর হয়ে মমতা-ই বাড়ির দেখভাল করছিলেন।" পুলিশ-সূত্রের খবর, গত ১৫ সেপ্টেম্বর তাঁর স্কুলের উপরে হামলা ও বন্দুক চুরির অভিযোগ করেছিলেন মমতা, যদিও তার সত্যতা প্রমাণিত হয়নি। এ দিনও গ্রেফতার হওয়ার আগে মমতা অভিযোগ করেছেন, সম্পত্তি দখলের জন্য বেশ কয়েক জন তাঁকে ধর্ষণ ও হামলার হুমকি দিচ্ছিল, যে ব্যাপারে পুলিশ কমিশনার থেকে শুরু করে শেক্সপিয়র সরণি থানাকে জানিয়েও তিনি ফল পাননি। মমতার অভিযোগ, সঞ্জয় সুরেখা ও তাঁর দুই সঙ্গী বাড়িটি দখল করতে চান। সঞ্জয়বাবু অবশ্য দাবি করছেন, "ওই ১৭ কাঠা জমি-সম্পত্তির মালিক আমি। জমির নামপত্তনও (মিউটেশন) হয়ে গেছে।" কিন্তু আইনি পথে না-গিয়ে ভোর রাতে অত জন লোক নিয়ে দখল-অভিযান কেন? পুলিশের এক সূত্রের ধারণা, পেশাদার নিরাপত্তাকর্মী দিয়ে ভয় দেখিয়ে সহজে বাড়ির দখল নেওয়াই উদ্দেশ্য ছিল। প্রসেনজিৎ-পিকলু-সুব্রত-ইমরানদের নিয়োগকারী সংস্থার তরফে অরূপ দেবনাথ অবশ্য বলেন, "জানতাম না যে, কিছুর দখল নেওয়ার জন্য আমার ছেলেদের নিয়ে যাওয়া হচ্ছে। জানলে ওদের পাঠাতাম না।" কিন্তু কোন কাজের কথা বলে ওই সময়ে ছেলেদের নিয়ে যাওয়া হয়েছিল, সে সম্পর্কে তিনি খোলসা করে কিছু বলেননি। পাশাপাশি তদন্তকারী-সূত্রের খবর, আইনজীবী-সহ ওই নিরাপত্তারক্ষীদের কার তরফে শর্ট স্ট্রিটের বাড়িতে পাঠানো হল, এখনও তা পরিষ্কার জানা যায়নি। তবে পুলিশের দাবি, পুরো অভিযানের ছক আগেই কষা হয়েছিল। অরূপবাবুর সংস্থার কয়েক জন গার্ড রবিবার বিকেলে এলাকা 'রেকি' করে গিয়েছিল। মমতাদেবীর শ্লীলতাহানির অভিযোগের সত্যতা সম্পর্কেও পুলিশ নিশ্চিত হতে পারেনি। ডিসি (সাউথ) মুরলীধর শর্মা বলেন, "এখনও তেমন কোনও প্রমাণ মেলেনি।" আর পাঁচ দিনের মতো এ দিনও সাতসকালে মমতা অগ্রবালের খুদে পড়ুয়াদের নিয়ে তাঁর মন্তেসরি স্কুলের বাইরে হাজির হয়েছিলেন অভিভাবকেরা। রক্তের দাগ আর পুলিশের উর্দি দেখে তাঁরা ছেলেমেয়েদের নিয়ে বাড়ি যান। | ||||
| ||||
|
Parsvnath Developers plans to list mall assets as a real estate investment trustParsvnath, which counts JPMorgan and US-based private equity firm Red Fort Capital among its investors, plans to list the assets in India once the market regulator issues final guidelines on REITs, expected as soon as early next year.
MUMBAI: India's Parsvnath Developers LtdBSE 0.58 % plans to list its two million square feet of shopping malls as a real estate investment trust (REIT), potentially making it among the first firms in the country to use such a vehicle to raise funds.
Parsvnath, which counts JPMorgan and US-based private equity firm Red Fort Capital among its investors, plans to list the assets in India once the market regulator issues final guidelines on REITs, expected as soon as early next year.
"It is the perfect portfolio that we want for aREIT. We will take a final call once the guidelines are out," Parsvnath Chairman Pradeep Jain told Reuters on Thursday, a day after his company reported a 30 per cent fall in net profit for the September quarter.
Parsvnath is among several property developers looking for new ways to raise capital to pay down debt and invest in future growth, with bank funding to the sector mostly drying up after slowing home sales hit profitability.
Developers are also burdened by high borrowing costs, inflation and low consumer confidence in Asia's third-largest economy, which is growing at its slowest pace in a decade.
DLF Ltd, India's biggest builder with a market value of $4.5 billion, has said it plans to raise capital by issuing asset-backed bonds as early as end-December to bring down its cost of debt.
In October, India's capital markets regulator issued draft guidelines to set up REITs in the country, reviving an effort it had put on hold in 2008, which would allow developers to monetise their revenue-generating assets by off-loading them in a separate listed entity.
Parsvnath has invested about Rs 500 crore($80 million) in the 12 malls located at metro stations across Delhi, of which seven are built. Jain expects to earn annual rent of up to Rs 250 crore once all the malls are built and leased.
Shares in Parsvnath, valued by the market at $192 million, are down about 31 per cent so far this year, outperforming the wider real estate index, which is down 37 per cent.
জমি-লিজ: ক্রেডাইয়ের কাছে রাজ্যকলকাতা: মুমূর্ষু কলকাতা ট্রাম কোম্পানি অনেক দিন ধরেই আইসিউতে৷ তাদের অক্সিজেন জোগাতে উদ্যোগী তৃণমূল সরকার৷ সরকার সিদ্ধান্ত নিয়েছে, সিটিসির ডিপোগুলির উদ্বৃত্ত জমি লিজ দেওয়া হবে৷ সেই মতো নির্মাণ সংস্থাদের সংগঠন 'কনফেডারেশন অফ রিয়েল এস্টেট ডেভেলপার্স অ্যাসোসিয়েশন অফ ইন্ডিয়া' বা 'ক্রেডাই'-এর দ্বারস্থ হয়েছে রাজ্য সরকার৷ স্বচ্ছতা ও পেশাদারিত্ব দেখাতে সরকার দায়িত্ব দিয়েছে কেপিএমজির মতো বিশেষজ্ঞ সংস্থাকে৷ তাদের প্রেজেন্টেশন দেখে খুশি ক্রেডাই৷ সংস্থার ভাইস প্রেসিডেন্ট সুশীল মোহতা জানিয়েছেন, সরকারের উদ্যোগে তাঁরা খুশি৷ পেশাদারিত্বের ছাপ রয়েছে৷ রয়েছে স্বচ্ছ্বতা৷ জমি লিজ নিতে ক্রেডাইয়ের সদস্যরা আগ্রহী৷ কারণ, ডিপোগুলি রয়েছে শহরের গুরুত্বপূর্ণ জায়গায়৷
সরকার সিদ্ধান্ত নিয়েছে, সিটিসির ৬ টি ডিপোর তিনশো বাহাত্তর দশমিক ছয় আট কাঠা উদ্বৃত্ত জমি লিজ দেওয়া হবে৷ এর মধ্যে টালিগঞ্জে রয়েছে ২৪০ দশমিক পাঁচ কাঠা জমি৷ বেলগাছিয়ায় ৫১ দশমিক ৬৬ কাঠা৷ খিদিরপুরে ২১ দশমিক আট আট৷ কালীঘাটে ১২. দশমিক তিন তিন৷ শ্যামবাজারে ৩১ দশমিক তিন ছয় এবং গ্যালিফ স্ট্রিটে ১৪ দশমিক নয় পাঁচ৷
সরকারের সিদ্ধান্ত, প্রথমে নিরানব্বই বছরের জন্য জমি লিজ দেওয়া হবে৷ তারপর ফের নিরানব্বই বছরের জন্য মেয়াদ বাড়ানো যাবে৷ সরকারের আশা, জমি লিজ দিয়ে ২০০ থেকে চারশো কোটি টাকা কোষাগারে ঢুকতে পারে৷ সরকারি সূত্রে খবর, জমি লিজ দেওয়ার ক্ষেত্রে কোনও রকম শর্ত রাখা হয়নি৷ কারণ, তেমনটা করলে সম্ভাব্য ক্রেতা আগ্রহ হারিয়ে ফেলতে পারেন৷ তাই, ক্রেতা সেখানে আবাসন তৈরি করবে, না মল, না অন্য কিছু, সে ব্যাপারে সরকার নাক গলাবে না৷
তবে কয়েকটি মহল থেকে বলা হচ্ছে, শহরের গুরুত্বপূর্ণ এলাকার ডিপোগুলির জমি বেসরকারি হাতে তুলে দিলে পরে প্রয়োজনে তা পাওয়া যাবে না৷ সেক্ষেত্রে সমস্যা হতে পারে৷ তবে প্রশাসনের শীর্ষ কর্তাদের পাল্টা যুক্তি, জমি লিজের পাশাপাশি অন্যান্য জায়গায় নতুন নতুন বাস টার্মিনাসও তৈরি হচ্ছে৷ নবান্নতে ৬ একর জমির উপর নতুন টার্মিনাস হয়েছে৷ এছাড়াও রাজারহাট-নবদিগন্তেও একাধিক টার্মিনাস তৈরি করেছে রাজ্য সরকার৷
ওয়াকিবহাল মহলের একাংশের মতে, শহরে বাণিজ্যিক জায়গার চাহিদা কম৷ এই প্রেক্ষাপটে বাস ডিপোর জমিতে আবাসন তৈরির সম্ভাবনা বেশি বলেই তারা মনে করছে৷
http://www.abpananda.newsbullet.in/kolkata/59-more/43397-2013-11-10-05-35-31
बुद्धि की मंदी है : मुद्दों का न होना
Posted by Reyaz-ul-haque on 5/11/2009 05:01:00 PM
पी साइनाथ
कम-से-कम दो प्रमुख अखबारों ने अपने डेस्कों को सूचित किया कि 'मंदी' (recession) शब्द भारत के संदर्भ में प्रयुक्त नहीं होगा। मंदी कुछ ऐसी चीज है, जो अमेरिका में घटती है, यहां नहीं. यह शब्द संपादकीय शब्दकोश से निर्वासित पडा रहा. यदि एक अधिक विनाशकारी स्थिति का संकेत देना हो तो 'डाउनटर्न' (गिरावट) या 'स्लोडाउन' (ठहराव) काफी होंगे और इन्हें थोडे विवेक से इस्तेमाल किया जाना है. लेकिन मंदी को नहीं. यह मीडिया के दर्शकों के खुशहाली भरे, खरीदारीवाले मूड को खराब कर देगा, जो कि अर्थव्यवस्था को उंउं, उंउं, ठीक है, मंदी (recession) से बाहर निकालने के लिए बेहद जरूरी है.
'डोंट वॅरी-बी हैप्पी' के इस फरमान ने हास्यास्पद और त्रासदीपूर्ण दोनों स्थितियों को पैदा किया है। कई बार उन्हीं या दूसरे प्रकाशनों के इस नकार भरे नजरियेवाली सुर्खियां हमें बताती हैं कि 'बुरे दिन बीत गये और उबरने की शुरुआत हो रही है.' किस बात के बुरे दिन? मंदी के? और हम किस चीज से किसी तरह उबरने लगे हैं? अनेक प्रकाशन और चैनल इस प्रकार के बहाने बना कर अनेक पत्रकारों समेत अपने कर्मियों को थोक में निकाल बाहर कर रहे हैं.
वे गरीब आत्माएं (इनमें से अनेक ने बडे होम लोन इएमआइ पर करार किये, जब कि अर्थव्यवस्था अब से भी अधिक गिरावट पर थी) नौकरियां खो रही हैं, क्योंकि...जो भी हो, ठीक है। कल्पना कीजिए कि आप डेस्क पर कार्यरत उनमें से एक हैं, अपने पाठकों को आश्वस्त करने के लिए कि सब ठीक है, खबरों की काट-छांट कर रहे हैं. आप शाम में मंदी के भूत की झाड-फूंक करते हैं. अगली दोपहर के बाद आप खुद को उसका शिकार पाते हैं, जिसे आपने मिटा दिया था. मीडिया का पाखंड इसमें है कि वह उसके उलटा व्यवहार करता है, जिसे वह यथार्थ कह कर वह अपने पाठकों को बताता है,-जी, यह बिजनेस की रणनीति का हिस्सा है. लोगों को डराओगे तो वे कम खर्च करेंगे. जिसका मतलब होगा कम विज्ञापन, कम राजस्व, और भी बहुत कुछ कम.
इन दैनिकों में से एक में एक बार एक शीर्षक में 'आर' शब्द का जिक्र था, जिसमें कुछ इस तरह का मखौल किया गया था कि कैसी मंदी? एक खास क्षेत्र में अधिक कारें बिक रही थीं, ग्रामीण भारत चमक रहा है (यहां शब्द था, 'नयी-नयी मिली समृद्धि')। हमें उजले पक्ष की खबरों की जरूरत है-तब भी जब हम निचली सतह पर कुछ अलग करने की कोशिश कर रहे हैं. टेलीविजन चैनल हमेशा की तरह (संदिग्ध) विशेषज्ञों को सामने ला रहे हैं, जो बता रहे हैं कि चीजें उतनी बुरी नहीं हैं, जितनी वे बना दी गयी हैं (किनके द्वारा, हमें यह बिरले ही बताया जाता है). गिरती मुद्रास्फीति के लिए खुशनुमा सुर्खियां हैं. (हालांकि कुछ बाद में इसकी उत्पाद संख्या बनाने को लेकर सतर्क हो गये हैं). लेकिन इस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है कि अनाज की कीमतें कितनी गंभीर समस्या हैं. भूख अब भी कितना बडा मुददा है. इसका एक संकेत तीन या दो रुपये और यहां तक कि एक रुपये किलो चावल देने का वादा करती राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में है. (यह अजीब है कि एक आबादी जो कारें खरीदने के लिए तत्पर दिखती है, अनाज खरीदने के लिए नहीं). हालांकि आप जानते हैं कि इन घोषणापत्रों की असलियत क्या है.
इसलिए मीडिया अपने चुने हुए विश्वस्त विशेषज्ञों, प्रवक्ताओं और विश्लेषकों से बात करता है और एलान करता है : इस चुनाव में कोई मुददा नहीं है। निश्चित तौर पर मीडिया जिनके बारे में बात कर रहा है, वैसे बहुत नहीं हैं. और हां, यह राजनीतिक दलों के लिए एक राहत की तरह आता है, जो उन्हें सामने आ रही बडी समस्याओं को टालने में सक्षम बनाता है. यहां तक कि उभरते हुए मुद्दों को सामने लाने के अवसर, जो अनेक मतदाताओं के लिए एक बडी मदद होते-छोड दिये जा रहे हैं. इस तरह हमें आइपीएल बनाम चुनाव, वरुण गांधी, बुढिया, गुडिया और इस तरह की दूसरी बकवासों के ढेर पर छोड दिया गया है. जरनैल सिंह को (जिन्होंने बेयरफुट जर्नलिज्म-नंगे पांव पत्रकारिता को एक नया मतलब दिया है) इसका श्रेय जाता है कि उन्होंने वरुण गांधी जैसी बकवासों को परे कर दिया और 1984 के बाद से सभी चुनावों के लिए महत्वपूर्ण रहे एक मुद्दे पर वास्तव में ध्यान खींचा.
हम अमेरिका में हो रहे विकास के बारे में जो रिपोर्ट करते हैं, उसमें और यहां जिस यर्थाथ पर हम जोर देते हैं, उसमें एक अनोखा अंतर है, और वास्तव में अंतर महत्वपूर्ण हैं-लेकिन वे सामने कैसे आये इसे प्रस्तुत करना हम नहीं चाहते। वर्षों से, हम वैश्वीकरण के एक खास स्वरूप के मुनाफों की दलाली करते रहे हैं. इसमें हम विश्व अर्थव्यवस्था (पढें, अमेरिकी और यूरोपीय) से अधिक से अधिक एकाकार होते गये, सारी चीजें अच्छीं हासिल हुईं. लेकिन जब वहां चीजें बदतर होने लगीं, वे हमें प्रभावित नहीं करतीं. ओह नहीं, बिल्कुल नहीं.
यह अनेक तरीकों से यहां पार्टियों में जानेवालों और साधारण लोगों के बीच की दूरी की माप भी है। बादवाले लोगों के लिए किसी भी तरह बहुत उत्साहित नहीं होना है. उनमें से अनेक आपको विश्वास दिलायेंगे कि उनके पास मुद्दे हैं. लेकिन हम कैसे उन समस्याओं को उठा सकते हैं, जिनका अस्तित्व हम पहले ही खुले तौर स्वीकार चुके हैं? इसलिए भूल जाइए, कृषि संकट और पिछले एक दशक में एक लाख 82 हजार किसानों की आत्महत्याओं को. और बहरहाल, भुखमरी और बेरोजगारी मीडिया में मुद्दा कब रहे? अधिकतर प्रकाशनों ने ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत के निराशाजनक प्रदर्शन को नगण्य स्पेस दिया है. ये सारी समस्याएं वॉल स्ट्रीट में गिरावट के पहले घटी थीं (मीडिया के लिए जो खुद अप्रत्याशित तौर पर, बिना किसी चेतावनी के घट गया.)
पिछले डेढ साल से, इतनी भीषण चीजें कहीं नहीं हुईं। उद्योग जगत का संकट, निर्माण उद्योग में नकारात्मक विकास, इन सेक्टरों में कुछ नौकरियों का खत्म होना, इन सबका थोडा जिक्र हुआ. अधिकतर एक चलताऊ जिक्र. लेकिन चीजें असल में तब बुरी हुईं जब ऊपर का 10 प्रतिशत हिस्सा शिकार बना. उन्हें फिर से आश्वस्त किये जाने और कारें खरीदना जारी रखे जाने की जरूरत है. कुछ जगहों पर 'उन्हें शिकार मत बनाओ' का मतलब है विभ्रमों, सिद्धांत, यथार्थ और रिपोर्टिंग के बीच की रेखा को धुंधला करना है. इसका बेहद खतरनाक नतीजा हो सकता है.
आबादी के बडे हिस्से के लिए, जो अपने मोबाइल फोन पर शेयर बाजार की ताजा सूचनाएं नहीं पाता, चीजें उतनी बेहतर नहीं हैं। वर्ष 2006 मीडिया में एक बडे बूमवाले वर्ष के रूप में दर्ज है. लेकिन उस वर्ष के तथ्य हमें संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में 132वें स्थान पर रखते हैं. तब से उस पहले से ही निराशाजनक स्थान से आयी और गिरावट ने हमें 128वें स्थान पर रखा है-भूटान से भी नीचे. कमवजन के और कुपोषित बच्चों के संदर्भ में भारत एक आपदाग्रस्त जोन है. सूचकांक में हमसे नीचे रहे देश भी इस मोरचे पर काफी बेहतर कर रहे हैं. हम इस ग्रह पर ऐसे बच्चों की सबसे अधिक संख्यावाले देश हैं. और मुद्दे हैं ही नहीं? प्रभावी राजनीतिक ताकतों की उन मुद्दों को टाल जाने की क्षमता का मतलब यह नहीं कि वे मौजूद नहीं हैं. यह बात कि हम अपने आसपास चल रही विशाल प्रक्रियाओं से जुडने में अक्षम हैं, हमें मीडिया के बारे में अधिक और मुद्दों के बारे में कम बताती है.
ऑर्डरों के रद्द हो जाने के कारण निर्यात आधारित सेक्टरों में उदासी है। यह गुजरात, महाराष्ट्र और हर जगह की सच्चाई है. यह सब होने के साथ ही, लाखों मजदूर-हर जगह के प्रवासी, उडीसा, झारखंड या बिहार अपने घरों को लौटने लगे हैं. वे किसके लिए लौट रहे हैं? उन जिलों के लिए, जहां काम का भारी अभाव है, जिस वजह से उन्होंने पहले उन्हें छोडा था. उस जर्जर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के पास, जो पहले की ही, घटी हुई, आबादी को खिला पाने में अक्षम है. नरेगा के पास, जो शुरू होने में ही अक्षम था और निश्चित तौर पर फंडिंग के अपने वर्तमान स्तर पर, इन अतिरिक्त लाखों लोगों का सामना नहीं कर सकता.
यह मंदी-या इसे आप जो चाहें कहें-के नये चरण के हमले और इन चुनावों में वोट देने के बीच फंसा हुआ समय है। इस माह और मई में हम वोट देने जा रहे हैं. प्रवासी मजदूरों और दूसरों की नौकरियों का जाना हर हफ्ते बढ रहा है. मानसून के आते-आते आपके पास एक थोडी बुरी स्थिति होगी. कुछ महीनों के बाद, अभूतपूर्व रूप से यह बुरी होगी. लेकिन चुनाव अभी हो रहे हैं. अगर ये आज से कुछ माह बात होते, तो कुछ राज्यों में बेहद निर्णायक नतीजे आते. और मुद्दे भी वरुण, बुढिया, गुडिया या अमर सिंह के अंतहीन कारनामे नहीं होते.
इसी बीच, अपने दर्शकों को मीडिया यह शायद नहीं बताये कि हम महान मंदी (ग्रेट डिप्रेशन) के बाद के सबसे बुरे, 80 वर्षों के बाद देखे गये सबसे गंभीर आर्थिक संकट का हिस्सा हैं. इसके बाद जो हो सकता है, उसके लिए पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों को तैयार करने के लिए कुछ भी नहीं हो रहा है. अकेला ठहराव खबरों (और लकवाग्रस्त संपादकीय प्रतिभा) में है. बडी गिरावट मीडिया के प्रदर्शन में है. बाकी की दुनिया के लिए यह एक मंदी है, जिसमें हम और बदतरी की ओर बढ रहे हैं.
अनुवाद : रेयाज उल हक
मूल अंगरेजी सोमवार, 20 अप्रैल, 2009 को द हिंदू में प्रकाशित
जनसंहार की राजनीति और प्रतिरोध
Posted by चन्द्रिका on 11/04/2013 10:07:00 AM
सुष्मिता
सोन नदी की निष्ठुरता में अब भी कोई कमी नहीं आई हैं। मध्य बिहार में इसके दोनों किनारों पर गरीबों का इतना खून बहाया गया कि इसका पानी खून से लाल हो गया। लेकिन तब भी यह ऐसे बहती रही जैसे कुछ हुआ ही न हो। यह सोन का निर्विकार भाव से बहना नहीं था बल्कि यह उसकी सामंतों के प्रति पक्षधरता ही थी कि उसने अपने पानी से सामंतों के खेतों को सींचकर उन्हें ताकतवर बनाया। सैकड़ो महिलाओं, नौजवानों और बच्चों के खून तथा इनके परिवार वालों के विलाप ने इसके प्रवाह पर कोई प्रभाव नहीं डाला। ठीक वैसे ही जैसे देश के मध्य वर्ग को इन गरीबों की हत्या, बलात्कार और इनके विलाप से कोई परेशानी नहीं होती। बल्कि यह वर्ग तो मानता है कि देश की सुरक्षा के लिए सरकारी एजेंसियां अच्छा काम कर रही हैं। उत्तर प्रदेश के रिहंद इलाके से निकलकर घोर सामंती प्रभुत्व वाले इलाकों से गुजरने वाली यह नदी सैकड़ों हत्याओं की गवाह बनती आयी है।
उसी सोन नदी के एक छोर पर बसा गांव बाथे 1997 में अचानक दुनिया के नक्शे पर आ गया। इसी तरह इस गांव से महज 15-20 किलोमीटर की दूरी पर बसा अरवल भी 1986 में दुनिया के नक्शे पर आ गया था। 1 दिसंबर, 1997 को सहार की तरफ से आए रणवीर सेना के हत्यारों ने इस बाथे में मजदूर किसान संग्रामी परिषद् (माओवादियों का करीबी माना जाने वाला संगठन, नामक किसानों के संगठन के 56 समर्थकों और कार्यकर्ताओं और भाकपा (माले, लिबरेषन के 3 समर्थकों की गोली मारकर बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी थी। मारे गए तमाम लोग दलित समुदाय के थे। अभी 9 अक्टूबर 2013 को इस हत्याकांड के तमाम आरोपियों के बरी हो जाने की वजह से फिर बाथे चर्चा में है। इस मामले में निचली अदालत ने 16 आरोपियों को फांसी दी थी जबकि 10 को आजीवन कारावास की सजा दी थी। उच्च न्यायालय ने परिस्थितिजन्य साक्ष्य के अभाव की बात कहते हुए तमाम लोगों को बरी कर दिया। इस पर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जा रही हैं। संसदीय पार्टियां इस पूरी परिघटना को जहां चुनावी नजरिए से देख रही हैं, वहीं कम्युनिस्ट नामधारी कुछ पार्टियां निचली अदालत के फैसले को सही ठहराते हुए उच्च न्यायालय के फैसले को कठघरे में खड़ा कर रही हैं। लेकिन यहां यह समझने की जरूरत है कि क्या यह महज निचली अदालत और ऊपरी अदालत के फैसले में विरोध का मामला है; कुछ लोग इन नरसंहारों को दलितवादी नजरिए से देखते हुए इसके पीछे काम कर रहे शासक वर्गीय तंत्र को ओझल कर देते हैं। ऐसे में जनसंहार और प्रतिरोध की पूरी राजनीति को समझने के लिए इन जनसंहारों को पुरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।
जनसंहार की राजनीति
बिहार में 1976 से लेकर 2001 तक लगभग 700 दलितों और पिछड़ों की ऊंची जातियों की सेना और पुलिस द्वारा हत्या की गयी है। अगर इन जनसंहारों की राजनीति को समझना है तो इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। शासक वर्गों की मदद से सामंतों द्वारा कराए गए जनसंहार एक खास दौर में सामने आए हैं, और यह दौर मुख्य रूप से 70 से लेकर 90 के दशक तक है। यहां यह सवाल बनता है कि यह सामंतों का महज दलितों पर हमला था तब ये नरसंहार 70 के दशक से पहले क्यों नहीं किए गए। उस समय तो सामंतों द्वारा दलितों पर हमला करना बेहद सुविधाजनक था। यहां मूल बात यह है कि 1970 के दशक में देश में उभरी राजनीति ने देश के सामने नए सवाल सामने रखे। इस राजनीति ने जनता के समक्ष यह साबित करने की कोशिश की कि सामंती उत्पीड़न जमीन और इज्जत के सवाल शासक वर्गों के खिलाफ लड़ाई से ही हल किए जा सकते हैं न कि सरकारी कानूनी दायरे में। इस संघर्ष ने व्यापक उत्पीड़ित जनता को हौसला दिया और इन तमाम सवालों को संविधान के दायरे से बाहर संघर्ष के मैदान में हल करने के लिए संघर्ष शुरू हो गया। इस संघर्ष को आतंकित और नेस्तनाबूद करने के लिए शासक वर्गों ने जनसंहार का सहारा लिया। इस तरह ये जनसंहार सामंती उत्पीड़न, जमीन और इज्जत जो कि सीधे राजसत्ता के साथ जुड़े हुए थे, के लिए संघर्ष के दौर की उपज थे। शासक वर्ग की प्रतिक्रिया जाहिर तौर पर पुराने तंत्र को बचाए रखने के लिए ही थी।
अब यहां प्रश्न यह बनता है कि आखिर उन मुद्दों का क्या हुआ, जिनकी वजह से इतने लोगों ने अपनी शहादतें दीं। आज इन जनसंहारों और फैसलों पर अपनी राजनीति चमकाने वालों की तो भरमार है लेकिन तमाम लोग उन सवालों से बचने की कोषिष कर रहे हैं। जाहिर तौर पर शासक वर्गों का उत्पीड़ित जनता पर ये हमले जनता के राजनीतिक सवालों को सैनिक हमलों के जरिए कुचल देने की साजिषों का ही एक हिस्सा थे। इसे दलितवाद और महज न्यायिक ढोंग के चश्मे से देखना अंततः इस पूरे संघर्ष को नकारने की तरह ही होगा। अरवल जनसंहार पूरे देश में अपने तरह का बर्बर जनसंहार था जिसे मिनी जलियांवाला बाग कहा गया था। इसमें एक शांतिपूर्ण सभा को घेरकर पुलिस ने 25 लोगों की हत्या कर दी थी और इसमें 60 लोग घायल हो गए थे। आज इसपर कोई बात नहीं करना चाहता क्योंकि यह उनके संसदीय राजनीतिक हितों के अनुकूल नहीं है। दरअसल इन तमाम निजी सेनाओं और जनसंहारों को जनता के प्रतिरोध और शासक वर्गों की प्रतिक्रिया के रूप में ही देखना ज्यादा माकूल है।
जनसंघर्ष और शासक वर्ग
1970 के दशक में जब जौहर के नेतृत्व में भोजपुर में किसानों का व्यापक संघर्ष शुरू हुआ तब से ही शासक वर्गों की तीखी प्रतिक्रिया सामने आने लगी। कहा जाता है कि सहार के बेरथ, बाघी और एकबारी में 1974 में ऊंची जातियों के जमींदारों द्वारा स्थापित प्रशिक्षण केंद्रों को आरएसएस ने मदद की। इसके अलावा 28 मई, 1975 को तत्कालीन पुलिस उप-महानिरीक्षक (नक्सल) शिवाजी प्रसाद सिंह ने एलान किया कि बिहार सरकार ने भोजपुर और पटना जिले के सभी स्वस्थ पुरुषों को हथियारों से लैस करने का फैसला किया है, ताकि वे नक्सलवादियों के खिलाफ अपनी रक्षा कर सकें। इसके एक सप्ताह पहले ही पूर्व-मध्य क्षेत्र के पुलिस उप-महानिरीक्षक ने आदेश दिया था कि भोजपुर, नालंदा, रोहतास और गया जिले के तमाम गैर लाइसेंसशुदा हथियारों को जब्त कर लिया जाए, क्योंकि नक्सलवादी जमींदारों के हथियार छीनने में इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके अलावा 1975 के उत्तरार्ध आते-आते बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने बिना किसी प्रचार के भोजपुर की या़त्रा की और जमींदारों तथा उनके बेटों के लिए स्थापित फायरिंग एंड शूटिंग सेंटर का उद्घाटन किया। इस दौरान तमाम नियमों को ताक पर रखते हुए ऊंची जातियों के लोगों को भारी मात्रा में हथियार के लाइसेंस जारी किए गए। 28 मई, 1975 को ही नक्सलवादी मामलों से संबद्ध पुलिस उप-महानिरीक्षक (नक्सल) षिवाजी प्रसाद सिंह द्वारा जारी विज्ञप्ति में बताया गया कि भोजपुर और पटना जिले के जिलाधीशों से कहा गया है कि वे उग्रवादियों के प्रभाव वाले गांवों का दौरा करें और मौके पर ही उन लोगों को हथियार के लाइसेंस जारी कर दें जिनके अंदर इन हथियारों को चलाने की क्षमता है'। इस तरह 1970 के दषक में संघर्ष के शुरू होते ही शासक वर्ग ने एक संगठित प्रतिक्रिया व्यक्त की और सामंतों को हथियारबंद किया। 6 मई, 1973 को ही भोजपुर के चवरी में पुलिस ने अर्धसैनिक बलों की मदद से एक हत्याकांड रचा था। इसमें 4 किसान मारे गए थे। इसकी जांच के लिए एक आयोग भी बना, जिसने 1976 में अपनी रिपोर्ट जारी की और इसे मुठभेड़ बताकर पुलिस को निर्दोष साबित कर दिया। शासक वर्ग की इतनी तीखी प्रक्रिया के बावजूद संघर्ष तेज होता ही गया और 1980 का दषक संघर्षों के उफान का दषक साबित हुआ। तत्कालीन गया जिले के जहानाबाद में संघर्षों का व्यापक उभार देखा गया। सामंती उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाकू संघर्ष संगठित किए गए। गैर मजरुआ जमीन पर कब्जे का अभियान शुरू हो गया। जैसे ही संघर्ष शुरू हुआ शासक वर्ग ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। संघर्ष की तीव्रता को देखते हुए शासक वर्ग ने तीखा दमन अभियान चलाया।
जहानाबाद के इलाके में 1985 की शुरुआत में ही 'ऑपरेषन ब्लैक पैंथर' नामक एक बर्बर अभियान चलाया गया था। इसके लिए राज्य स्तर पर एक टास्कफोर्स गठित किया गया था। दिसंबर 1985 तक 'ऑपरेशन ब्लैक पैंथर' का पहला दौर समाप्त हुआ। इसके संचालन के लिए गठित टास्क फार्स की बैठक मार्च, 1986 में की गई। इसमें शामिल केंद्रीय गृह मंत्री अरुण नेहरू (तत्कालीन गृहमंत्री) और महेंद्र सिंह (निजी सेनाओं का संरक्षक और कांग्रेस एमपी) समेत सरकारी अधिकारी शामिल थे। इसने तुरंत ही दूसरे दौर के दमन अभियान की शुरुआत की घोषणा की। बिहार सरकार के मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि नक्सलवादियों को तुरंत ही नेस्तनाबूद कर दिया जाएगा। इस तरह उत्पीड़ित जनता के ऊपर दमन का सरकारी फैसला असल में सामंती ताकतों से सलाह मशविरे के साथ ही हो रहा था। अप्रैल, 1986 में सरकारी बलों को सुसज्जित करने और कमांडो तैनात करने की घोषणा की गई। जहानाबाद का संघर्ष इन तमाम सरकारी साजिशों के बावजूद तेज होता गया। ईपीडब्ल्यू में अपनी रिपोर्ट में नीलांजना दत्ता लिखती है कि '1986 की शुरुआत तक इस क्षेत्र में मजदूरों-किसानों के संगठन मजदूर किसान संग्राम समिति ने कुर्मी जमींदारों की निजी सेना भूमि सेना को परास्त कर दिया था। इसने पूरे बिहार के समक्ष प्रतिरोध का उदाहरण प्रस्तुत किया था। अब सामंतों में आतंक था और इस तरह राजसत्ता ने दमन के नए तरीकों पर काम करना शुरू कर दिया'। भूमिसेना के खात्मे के बाद ही ब्रह्मर्षि सेना और लोरिक सेना को संगठित किया गया। लेकिन जनता के संघर्ष के बल पर तमाम निजी सेनाएं धराशायी हो गयीं। नीलांजना दत्ता की रिर्पोट के अनुसार 'तत्कालीन मजदूर किसान संग्राम समिति ने 5 मार्च से 3 अप्रैल तक निजी सेनाओं और पुलिस के हमले के बावजूद बड़े पैमाने पर जन गोलबंदी की। यह सेनाओं को डराने के लिए पर्याप्त था और अब सीधे सत्ता उनकी मदद में आयी। पूरे तंत्र को दमन के अनुरूप बनाया गया। तत्कालिन एसडीओ, ब्यास जी ने इन सेनाओं की मदद करने से इन्कार किया तो उनका तबादला कर दिया गया। एक नए पदस्थापित पुलिस अधिकारी वीर नायायण को भी निजी सेना से सहयोग नहीं करने की वजह से बदल दिया गया। इसके बाद तुरंत जहानाबाद को पुलिस जिला घोषित कर दिया गया। 16 अप्रैल, 1986 को जहानाबाद में बीएमपी के पूर्व कमांडेंट सीआर कासवान, जो भूमिहार जाति का था को एसपी स्तर के अधिकारी के बतौर पदस्थापित किया गया। इसके बाद 19 अप्रैल, 1986 को तत्कालीन पार्टी युनिटी के करीबी माने जाने वाले मजदूर किसान संग्राम समिति की खुली सभा को घेरकर सीआर कासवान के निर्देशन में अरवल में गोलियां चलायीं। दरअसल यह जनता को आतंकित करने के लिए सरकार के निर्देशन में रचा गया हत्याकांड था। एक रिपोर्ट बताती है, ''कई लोगों को संदेह है कि यह एक उच्च स्तर की सरकारी साजिश थी। एसपी (सीआईडी) एससी झा ने इस घटना के जांचोपरांत पुलिस के डीजी और गृह सचिव को 5 मई को एक चिट्ठी लिखी। उन्होंने आरोप लगाया कि रामाश्रय प्रसाद सिंह (बिहार के मंत्री), महेंद्र प्रसाद (सांसद, राज्य सभा), जगदीष शर्मा और रामजतन सिन्हा (दोनों कांग्रेस के विधायक) और सीपीआई के एक अन्य विधायक आरपी सिंह पटना-गया-जहानाबाद के इलाके में अपने राजनीतिक हितों के लिए जातीय तनाव और हिंसा प्रोत्साहित कर रहे है।'' इसके बाद तुरंत इस अधिकारी का तबादला कर दिया गया और 26 मई को सरकार द्वारा उन्हें एक कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। इसके बाद सरकारी आदेश पर एक कनीय अधिकारी को उनकी जगह दे दी गई। इतना ही नहीं जब अरवल के तत्कालिन डीएम ने अरवल हत्याकांड की न्यायिक जांच हेतु मुख्यमंत्री को लिखा तो डीएम को अरवल के स्थिति की रिपोर्ट भेजने से रोक दिया गया। ये तमाम तथ्य इन जनसंहारों के पीछे की साजिष और शासक वर्ग द्वारा प्रोत्साहन को स्पष्ट करते हैं।
आनंद चक्रवती इस पूरी परिघटना की व्याख्या इन शब्दों में करते है, 'दरअसल ये तमाम सामंती निजी गिरोह राजसत्ता के ही मजबूत औजार थे। शासक वर्ग और राज्य के बीच अलगाव बर्जुआ तंत्र का चरित्र है और बिहार में यह हासिल होने से काफी दूर है। यहां जमींदार न केवल शासक वर्ग हैं बल्कि अपने आदेशों को मनवाने के लिए राज्य मशीनरी पर काबिज हैं। वे राज्य का हिस्सा हैं या फिर उसका विस्तार हैं। बिहार में राज्य मशीनरी में न केवल आधिकारिक तंत्र शामिल है, बल्कि जमींदारों और उनके हथियारबंद गिरोहों के गैर आधिकारिक औजार है'। इस तरह तमाम तथ्यों को ध्यान में रखा जाए तो इन तमाम जनसंहारों को जनता के संघर्षों को कुचलने के लिए शासक वर्गों ने अपनेे मुखौटे संगठनों के जरिए अंजाम दिया।
निजी सेनाओं के खिलाफ प्रतिरोध
भोजपुर और जहानाबाद में कई निजी सेनाएं बनीं। खासकर जहानाबाद-पटना के इलाके में तो एक के बाद एक निजी सेनाओं की बाढ़ सी आ गयी। जहां भी निजी सेनाएं बनी हों उन्होंने जहानाबाद को ही अपना आतंक का क्षेत्र बनाया। भूमि सेना बनी तो पुनपुन में लेकिन उसने जहानाबाद में भारी आतंक मचाया हालांकि जहानाबाद भूमि सेना के लिए कब्रगाह भी साबित हुआ। अगस्त, 1994 में रणवीर सेना का गठन भोजपुर में किया गया लेकिन वहां से चारा-पानी लेकर इसने लगभग 3 साल के भीतर ही सोन पार करके जहानाबाद के इलाके में आतंक मचाना शुरू कर दिया। दरअसल निजी सेनाओं के गठन और उसके मजबूत बनने की पूरी प्रकिया को ऐतिहासिक संदर्भ में समझना जरूरी है। निजी सेनाएं बनती हैं हमेशा जातीय आधार पर लेकिन प्रतिरोध की ताकतें इन सेनाओं में अपने संघर्ष के दौर में उसका वर्गीय स्तर पर विभाजन कर उसे कमजोर करती हैं और फिर उसे प्रतिरोध के बूते नष्ट करती है। रणवीर सेना ने भोजपुर में आधार बनाते हुए मध्य बिहार के इलाकों में अपने हमले तेज किए। यहां लिबरेशन ने रणवीर सेना के खिलाफ मजबूत प्रतिरोध खड़ा करने के बजाए अपने संसदीय हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी नीतियां तय कीं। इसने अपने लड़ाकू आधार को अपने संसदीय राजनीति के अनुरूप वोट बैंक के रूप में ढाल लिया था।
जहानाबाद में लड़ाकू जनसंघर्षों और प्रतिरोध की बदौलत 1985 के अंत तक भूमि सेना का खात्मा हो गया। ऐसे में शासक वर्गों ने सीधे हमले की योजना बनायी और इसे अरवल में अंजाम दिया। अरवल जनसंहार ने सामंतवाद विरोधी संघर्षों में नए आयाम विकसित कर दिए। अब संघर्ष के अनुभवों ने यह साफ कर दिया था कि सामंतवाद विरोधी संघर्ष को एक मुकाम पर पहुंचाने के लिए संघर्ष का विस्तार राजसत्ता के खिलाफ संघर्ष तक करना होगा। इस तरह जहानाबाद जिले में शुरु हुए आंदोलन ने न्याय और मुक्ति की आकांक्षाओं को सामंतवाद विरोधी संघर्षों के जरिए राजसत्ता के खिलाफ लड़ाई तक विकसित किया।
अब बिहार में लड़ाई के दो मॉडल सामने थे। भोजपुर में कार्यरत लिबरेशन ने जहां समझौते के मॉडल को सामने रखा वहीं जहानाबाद में संघर्षरत पार्टी युनिटी ने संघर्ष का विस्तार राजसत्ता के खिलाफ संघर्ष तक किया। ये दोनों मॉडल आज भी अपने-अपने तरीके से कार्यरत हैं। भोजपुर में रणवीर सेना ने जब तीखा हमला शुरू किया तब लिबरेशन ने तीखे हमले के प्रतिरोध के बजाए समझौते का रास्ता आख्तियार किया। बथानी टोला जनसंहार के बाद जारी केंद्रीय कमिटी के पर्चे में लिबरेशन का कहना है, 'हम हमेशा शांति के पक्ष में रहे हैं। शांति पसंद लोगों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए हमने शांति के पहल की शुरुआत की। बिहटा में किसान महासभा द्वारा आयोजित स्वामी सहजानंद सरस्वती के जन्मदिन के अवसर पर हमने शांति वार्ता शुरू की। श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा और श्री ललितेश्वर शाही सहित भूमिहार जाति के कुछ आदरणीय महानुभावों नें इसमें हिस्सा लिया। हमारी तरफ से केंद्रीय कमिटी सदस्य और पूर्व राज्य सचिव कॉ. पवन शर्मा उपस्थित थे। वार्ता काफी सकारात्मक रही। इसके दो दिन बाद पार्टी के महासचिव ने आरा में संवाददाता सम्मेलन में शांति के लिए एक अपील जारी किया। इस अपील को अखबारों ने काफी महत्व भी दिया। तमाम शांति पसंद लोगों ने इसका स्वागत किया। हमें रणवीर सेना की तरफ से सकारात्मक जवाब की आशा थी। इसके बाद हमने एक मित्र के जरिए, जो मध्यस्थता कर रहा था, रणवीर सेना को एक संदेश भेजा कि रणवीर सेना भी ऐसा ही करे। रणवीर सेना की प्रतिकिया काफी निराशाजनक थी। इस तरह शांति की हमारी कोशिशें विफल हो गयी थीं। हमारी आशा थी कि प्रशासन भी हमारी मदद करेगा। हमने जून, 1996 में दर्जनों जन बैठकों के जरिए शांति अभियान की शुरुआत की। जल्दी ही पांच गांवों में रणवीर सेना और हमारे संगठनों के लोगों के बीच अंतर्विरोधों को सुलझा लिया गया।' इस तरह लिबरेशन की रणवीर सेना के साथ समझौतों की कोशिशों ने रणवीर सेना को प्रोत्साहित किया और फिर सोन के इस तरफ जहानाबाद में रणवीर सेना ने अपनी कार्रवाइयां शुरु कीं।
निजी सेनाओं और सामंती उत्पीड़न से मुक्ति तथा न्याय का सवाल सीधे तौर पर सामंती उत्पीड़न और इन निजी सेनाओं के चरित्र से जुड़ा हुआ है। यहां तमाम तथ्य दिखाते हैं कि ये तमाम निजी सेनाएं शासक वर्गों द्वारा शोषित-उत्पीड़ित जनता के संघर्ष को कुचलने के लिए दमन का एक मुखौटा मात्र था। जब इन मुखौटों से भी शासक वर्ग सामंतों की रक्षा में विफल होने लगा तब उसने सीधे जनता पर हमला शुरू किया। इस तरह शासक वर्गों के एक औजार के रूप में इन निजी सेनाओं को समझे बगैर इसके खिलाफ प्रतिरोध का सवाल महज दिवास्वप्न पर ही खत्म होगा। आज शासक वर्ग सामंतवाद विरोधी संघर्षों को कुचलने के लिए और ज्यादा बर्बर और दमनकारी रुख अपना रहा है। अब निजी सेनाओं की जगह खुफिया गिरोहों और ग्रामीण स्तर पर एसपीओ ने ले ली है। ऐसे में वर्तमान दौर में जनता के न्याय, पहचान और मुक्ति का संघर्ष सीधे तौर पर राजसत्ता विरोधी संघर्षों से सीधे तौर पर जुड़ गया है।
जनसंहार और न्याय
बाथे जनसंहार के आरोपियों के बरी होने के बाद शासक वर्ग द्वारा न्याय के संहार पर बहस काफी तेज है। शायद विगत में भोजपुर में इसके पहले यही बहस बथानी नरसंहार के आरोपियों के बारे में भी हो रही थी। हाइकोर्ट हमें यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि इस हत्याकांड के आरोपियों के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं थे। कुछ लोग हमें समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि निचली अदालत ने तो ठीक ही फैसला दिया था सारा दोष हाईकोर्ट का है। हर कोई अपनी सुविधा के अनुसार अपने तर्क बना रहा है। इस फैसले के जरिए न्यायालय अपने वर्गीय चरित्र को ही और ज्यादा स्पष्ट कर रही है। यदि हत्याकांड के आरोपी हत्या में शामिल नहीं थे तब फिर हत्यारों को ढूंढ़ने का जिम्मा किसका है? जहां तक निचली अदालत के फैसले के सही ठहराए जाने का मामला है तो यह प्रचारित करने वाले लोग भी इस साजिश में बराबर के हिस्सेदार हैं। बाथे हत्याकांड के बारे में पूरी तरह साफ है कि इसकी योजना भोजपुर में बनायी गयी थी। उस समय तक रणवीर सेना जहानाबाद में इस स्तर के हमले के लिए जरूरी आधार नहीं बना पाया था। बल्कि यह जनसंहार रणवीर सेना के जहानाबाद तक के विस्तार की ही कोशिश थी। इस हत्याकांड का संचालन करने वाले रणवीर सेना के मुख्य सरगना भी भोजपुर के ही थे। बाथे के कानूनी मामलों के जानकारों का कहना है कि इस हत्याकांड में 19 आरोपी भोजपुर से थे। इन तमाम आरोपियों के खिलाफ निचली अदालत में गवाहियां बदलवायी गयीं और इस तरह निचली अदालत ने भोजपुर के रणवीर सेना से जुड़े तमाम सरगनाओं को बरी कर दिया। यह संयोग नहीं हो सकता कि भोजपुर के तमाम सरगना रिहा हो जायें। शायद यह विगत दिनों में भोजपुर में किए गए समझौते का कर्ज चुकता किया गया था। इसीलिए निचली अदालत के फैसले को इतना न्यायोचित ठहराया जा रहा है।
निचली अदालत या फिर उच्च न्यायालय द्वारा आरोपियों का बरी किया जाना कोई आष्चर्यजनक और नयी बात नहीं हैं। अरवल जनसंहार के आरोपियों का क्या हुआ? तमाम नरसंहार के आरोपी ऐसे ही बरी किए गए क्योंकि ये तमाम घटनायें तो शासक वर्गों के आतंक का ही विस्तार थीं। लेकिन जो सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है वो यह है कि क्या बथानी या फिर बाथे के आरोपियों को सजा मिल जाने भर से इन जनसंहार में मारे गए लोगों के साथ न्याय हो जाएगा? क्या 1976 से लेकर 2001 तक मारे गए 700 लोगों के साथ न्याय महज हत्यारों को सजा मिलने भर से हो जाएगा? सबके न्याय के अपने-अपने पैमाने हैं। हर कोई न्याय को अपनी सुविधा के अनुसार विश्लेषित करता है। लेकिन मेहनतकश उत्पीड़ित जनता के लिए न्याय का सपना उनके जीवन के सवालों से जुड़ा हुआ है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी बन जाता है कि आखिर उन मुद्दों और सवालों का क्या हुआ जिसके लिए उन्हें सामंतों या फिर पुलिस के हाथों अपनी जान गंवानी पड़ी? आखिर उस संघर्ष का क्या हुआ जिसके लिए हजारों लोगों ने अपनी कुर्बानियां दीं?
ऐतिहासिक रूप से यह साफ है कि ये जनसंहार इसलिए रचे गए क्योंकि गरीबों ने इज्जत, पहचान और न्याय के लिए संघर्ष के साथ खुद को जोड़ा। इसलिए इज्जत, पहचान और न्याय के लिए मुकम्मल संघर्ष ही मारे गए लोगों के साथ न्याय होगा। जनता ने संघर्ष का रास्ता इसलिए आख्तियार किया क्योंकि संविधान और न्यायालय उन्हें न्याय नहीं दे पाए। ऐसे में इस संघर्ष की वजह से मारे गए लोगों के हत्यारों को सजा भी जाहिर तौर पर न्यायालय नहीं दे सकती। इस न्याय का सवाल भी जनता के संघर्षों से ही जुड़ा हुआ है। मसला सामंती प्रभुत्व के खात्मे, इज्जत, पहचान और जीवन का है। इसे जनसंहार के आरोपियों की सजा भर तक समेट देना न केवल उन मारे गए लोगों के साथ अन्याय होगा, बल्कि धोखाधड़ी भी। कुछ लोग नरसंहार के आरोपियों की सजा के लिए एसआइटी के गठन की मांग कर रहे है। दरअसल इन घिसे-पीटे तरीकों का दौर कब का खत्म हो गया। क्या चबरी गोलीकांड के हत्यारों को आयोग के जरिए कोई सजा हुई? अरवल जनसंहार के बाद भी एक 'पीपुल्स ट्रिब्यूनल' का गठन हुआ। इसने तमाम लोगों की गवाहियां लीं। अरवल जनसंहार के हत्यारों का क्या हुआ? उन्हें दंडित करने के बजाए प्रोत्साहित किया गया। इसके अलावा यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि जनता के न्याय की आकांक्षाएं समझौतों के जरिए पूरी नहीं की जा सकतीं। रणवीर सेना के बर्बर होने के बाद भोजपुर में शांति कायम करने के नाम पर गांव-गांव में शांति समितियां गठित की गईं। किसी से छिपी हुई बात नहीं है कि किस कीमत पर भोजपुर में शांति स्थापित की गयी। इन शांति समितियों ने केवल न्यायालय में चल रहे मामलों को वापस लेने के समझौते किए। इतना ही नहीं रणवीर सेना के सरगना ब्रह्मेश्वर सिंह ने अपने बरी होने की घटना को सही बताते हुए एक वरिष्ठ पत्रकार को यह बताया कि 'आज जो लोग न्याय का हल्ला मचा रहे हैं उनसे क्यों नहीं पुछते कि दनवार बिहटा के (सहार का एक जमींदार) ज्वाला सिंह की हत्या में आरोपित एक पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य को कैसे रिहा कराया गया है।' अब इन तमाम मामलों को कोर्ट से बाहर कैसे मैनेज किया गया है यह तो मैनेज कराने वाले जानें, लेकिन इतना तो तय है कि इन समझौतों से जनता की न्याय की आकांक्षाओं को कभी हासिल नहीं किया जा सकता। शासक वर्ग के जन आंदोलनों पर दमन का तर्क शुरू से ही रहा है कि इन्हें संघर्ष के बजाए सरकार के साथ मिल-बैठकर संविधान सम्मत फैसला करना चाहिए। लेकिन जनता के न्याय का सवाल इन सब भ्रमों से पहले ही पार पा चुका था, ऐसे में शांति के सरकारी तरीके इन आंदोलनों के आत्मसमर्पण के ही बराबर थे। न्याय की सारी आंकाक्षाओं का रास्ता संघर्षों के रास्ते से ही होकर गुजरता है। तमाम मारे गए लोगों के लिए न्याय का सवाल सामंती प्रभुत्व के खात्मे और इससे भी अधिक राजसत्ता के सवाल के साथ जुड़ा हुआ है। इसके बिना न्याय और मुक्ति की सारी आकांक्षाएं महज संसदीय राजनीति का एक खिलौना बनकर रह जाएंगी।
सितंबर 1996 में रणवीर सेना द्वारा बथानी जनसंहार के बाद सहार से लिबरेशन के तत्कालीन विधायक रामनरेश राम सहित इनके कई नेता बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के इस्तीफे और आरा के डीएम-एसपी के निलंबन के सवाल पर पटना में अनशन पर बैठ गए। उस समय मुख्यमंत्री ने जनता के गुस्से को शांत करने के लिए महज डीएम-एसपी का स्थानांतरण कर दिया। इसके अलावा राजस्व विभाग द्वारा एक आम जांच की घोषणा हो गयी। इसे लिबरेशन ने अपनी जीत बताते हुए बंद का आह्वान वापस ले लिया। अब बंद की जगह पटना में एक विजय जुलूस निकाला गया। इस तरह लिबरेशन ने एक वीभत्स जनसंहार के खिलाफ उभरे जनाक्रोश को एक लड़ाकू दिशा देने के बजाए प्रतिरोध के टोकनिज्म का एक नया रास्ता निकाल लिया। यदि उस समय अधिकारियों का स्थानांतरण ही लिबरेशन की जीत थी फिर बथानी का फैसला उसके लिए व्यथित करने वाली बात कैसे बन गया? हालांकि इस घटना के बाद बथानी के दौरे पर आये तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सीपीआई के इंद्रजीत गुप्त ने इसे राज्य में पुलिस प्रशासन की पूरी तरह विफलता बताया। बिहार सरकार के तत्कालीन डीजी ने खुलेआम स्वीकार किया कि पुलिस इस वीभत्स हत्याकांड को रोक सकती थी। अब पता नहीं ऐसे वीभत्स हत्याकांड में महज अधिकारियों का स्थानांतरण ही जनता की जीत किस तरह मान लिया गया! आज फिर कुछ लोग न्याय की तमाम आकांक्षाओं को एसआइटी और निचली-उपरी अदालतों की बहस में उलझाकर इस पूरे तंत्र को कठघरे में खड़ा होने से बचाना चाहते हैं। जनता ने तमाम आयोगों और न्यायिक फैसलों का हस्र देख लिया है। इन घिसे-पिटे तरीको के जरिए कोई जनता की न्याय की आकांक्षाओं को भले ही बहला-फुसला ले लेकिन इन्हें न्याय नहीं मिल सकता। भारत की शोषित-उत्पीड़ित जनता की न्याय और मुक्ति की आकांक्षा को समझौते की राजनीति ने एकदम शुरू से ही दिवास्वप्न में तब्दील कर दिया। लेकिन 1970 के दषक में तमाम बेड़ियों और समझौते की राजनीति के विभ्रमों को तोड़ती हुई जनता ने संघर्ष और कुर्बानियों का नया रास्ता पकड़ा। तमाम तरह के दमन और हत्या की राजनीति द्वारा प्रतिरोध को खत्म करने की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं। अब समझौते की राजनीति बेनकाब हो गयी थी। सवाल महज बाथे में मारे गए लोगों के साथ न्याय का नहीं है बल्कि सवाल संघर्ष के दौरान कुर्बान हुए जगदीश मास्टर, रामेश्वर, बुटन, कृष्णा सिंह समेत अरवल, बाथे, शंकरबीघा के तमाम लोगों के साथ का है। जाहिर तौर पर बाथे के लोगों के न्याय का सवाल भी उन तमाम कुर्बान हुए लोगों के न्याय के साथ जुड़ी हुई है।
शासक वर्ग आज सामंतवाद विरोधी संघर्षों को कुचलने के लिए और ज्यादा बर्बर और दमनकारी रुख अपना रहा है। अब निजी सेनाओं की जगह हत्यारे गिरोहों (विजिलांते गैंग्स) और ग्रामीण स्तर पर एसपीओ ने ले ली है। वर्तमान में संघर्ष को कुचलने के लिए सरकार का आंदोलन विरोधी औजार विषेष तरह की खुफिया पुलिस बन गयी है। ऐसे में वर्तमान दौर में जनता के न्याय, पहचान और मुक्ति का संघर्ष सीधे तौर से राजसत्ता विरोधी संघर्षों के साथ जुड़ गया है। राजसत्ता के खिलाफ संघर्षों को बिना व्यापक किए जनता के न्याय और मुक्ति का सवाल खयाली पुलाव और लोकप्रिय प्रचार का महज एक औजार बनकर रह जाएगा। वर्तमान में शासक वर्ग ने अपने तंत्र को बचाए रखने के लिए जब नए तरीके इजाद किए है तब सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों को भी नए तरीके के संगठन और संघर्ष का स्वरूप विकसित करना होगा। इतिहास गवाह है कि जनता के न्याय और मुक्ति की आकांक्षाओं को सैनिक और विद्रोह विरोधी कार्रवाइयों से खत्म नहीं किया जा सका है। आने वाली पीढ़ियां हमसे यह सवाल करेंगी कि क्यो खून से पानी के लाल होने के बाद भी सोन ऐसे ही बहती रही। निष्पक्ष रहने का दिखावा करना भी एक तरह की पक्षधरता ही है।
मेहनतकशों ने अपने संघर्षों के बदौलत इतिहास की दिशा बदल दी है। सोन को भी अपनी पक्षधरता साफ करनी होगी। इसे भी अपनी निष्ठुरता छोड़नी ही होगी अन्यथा यह भी इतिहास में विलीन हो जाएगी। इतिहास में ऐसा ही हुआ है और यही दुनिया के विकास का विज्ञान भी है। आज न सही लेकिन कल यह होकर रहेगा। ऐसे में उन मुद्दों के लिए, जिनकी वजह से इन हत्याकांडों को अंजाम दिया गया, संघर्ष तेज करना ही बाथे समेत तमाम जनरंहारों में सामंतों और पुलिस द्वारा मारे गए लोगों के लिए इंसाफ हासिल करने तरफ बढ़ाया गया कदम होगा।
संदर्भः-
1 भोजपुरः बिहार में नक्सलवादी आंदोलन, कल्याण मुखर्जी
2 ईपीडब्ल्यू, निलांजना दत्ता
3 ईपीडब्ल्यू, अरविंद सिन्हा
4 ईपीडब्ल्यू, आनंद चक्रवर्ती
5 बिहाइन्ड द किलिंग्स इन बिहार, पीयूडीआर की रिपोर्ट
6 भाकपा माले लिबरेशन की केंद्रीय कमेटी द्वारा बथानी नरसंहार के बाद जारी पर्चा
7 अरवल जनसंहार की एपीडीआर द्वारा रिपोर्ट
Shankar Guha Niyogi and Chhattisgarh Mukti Morcha Documents Archive at Sanhati »
emailfacebooktwitter
- See more at: http://sanhati.com/#sthash.tYvyltP4.dpuf
LATEST
जल संगठन गतिविधियां
जल संगठन गतिविधियां
जैव विविधता एवं जल प्रबंधन का पाठ पढ़ाता एक विद्यालय
किसानों ने एनटीपीसी के साथ वार्ता से किया इंकार
प्रस्ताव बनाकर कहा कि जिलाधिकारी के नीचे किसी से नहीं करेंगे बात
पांच साल बाद मेजा ऊर्जा निगम सलैया कला व सलैया खुर्द पर अब काम कराना चाहता है जिसका किसान विरोध कर रहे हैं। इसी तरह मेजा ऊर्जा निगम को दी गई सात गाँवों की 685 हेक्टेयर ज़मीन के मुआवज़े व नौकरी देने के मामले को लेकर प्रभावित सभी किसान मज़दूर बिजली उत्पादन कम्पनी का बहिष्कार कर रहे हैं। किसानों ने कहा कि उनके साथ धोखा हुआ है इसलिए वह शुरू से ही सरकार, प्रशासन व कम्पनी का विरोध कर रहे हैं। उनकी मांग है कि भूमि अधिग्रहण की कानूनी प्रक्रिया की पारदर्शिता उजागर हो।इलाहाबाद जनपद में मेजा तहसील के कोहड़ार में स्थापित की जाने वाली विद्युत उत्पादन ईकाई मेजा ऊर्जा निगम संयुक्त उपक्रम एनटीपीसी के लिए ली गई ज़मीन के मामले में भूमि अधिग्रहण कानून को ताक पर रखा गया। अधिग्रहण की कानूनी प्रक्रियाओं में पारदर्शिता नहीं बरती गई। किसानों से उनकी ज़मीन जबरन छीनी जा रही है। मुआवजा तय करते समय उनसे राय नहीं ली गई। मुआवजा राशि सर्किल रेट से भी कम दर पर दी गई। नौकरी देने का वायदा तत्कालीन जिलाधिकारी व एनटीपीसी प्रबंधन ने किया था किंतु उसे भी पूरा नहीं किया गया।
आगामी कार्यक्रम
जॉब / नौकरी
रेडियो पर पानी की बातें
MOST READ ARTICLES
सबसे ज्यादा पढ़े गये
खासम-खास
चाल से खुशहाल
सबसे पहले लोगों ने अखरोट के पौधों की एक नर्सरी बनाई। इन पौधों की बिक्री प्रारंभ हुई। वहीं के गाँवों से वहीं की संस्था को पौधों की बिक्री से कुछ आमदनी होने लगी। यह राशि फिर वहीं लगने जा रही थी। एक के बाद एक शिविर लगते गए और धीरे-धीरे उजड़े वन क्षेत्रों में वनीकरण होने लगा। इन्हीं शिविरों में हुई बातचीत से यह निर्णय भी सामने आया कि हर गांव में अपना वन बने। वह सघन भी बने ताकि ईंधन, चारे आदि के लिए महिलाओं को सुविधा मिल सके। इस तरह हर शिविर के बाद उन गाँवों में महिलाओं के अपने नए संगठन उभरकर आए, ये 'महिला मंगल दल' कहलाए ये महिला दल कागजी नहीं थे।ढौंड गांव के पंचायत भवन में छोटी-छोटी लड़कियां नाच रही थीं। उनके गीत के बोल थे :ठंडो पाणी मेरा पहाड़ मा, ना जा स्वामी परदेसा। ये बोल सामने बैठे पूरे गांव को बरसात की झड़ी में भी बांधे हुए थे। भीगती दर्शकों में ऐसी कई युवा और अधेड़ महिलाएं थीं जिनके पति और बेटे अपने जीवन के कई बसंत 'परदेस' में ही बिता रहे हैं। ऐसे वृद्ध भी इस कार्यक्रम को देख रहे थे जिन्होंने अपने जीवन का बड़ा भाग 'परदेस' की सेवा में लगाया है और भीगी दरी पर वे छोटे बच्चे-बच्चियां भी थे, जिन्हें शायद कल परदेस चले जाना है। एक गीत पहाड़ों के इन गाँवों से लोगों का पलायन भला कैसे रोक पाएगा? लेकिन गीत गाने वाली टुकड़ी गीत गाती जाती है। आज ढौंड गांव में है तो कल डुलमोट गांव में, फिर जंद्रिया में, भरनों में, उफरैंखाल में। यह केवल सांस्कृतिक आयोजन नहीं है। इसमें कुछ गायक हैं, नर्तक हैं, एक हारमोनियम, ढोलक है तो सैकड़ों कुदाल-फावड़े भी हैं जो हर गांव में कुछ ऐसा काम कर रहे हैं कि वहां बरसकर तेजी से बह जाने वाला पानी वहां कुछ थम सके, तेजी से बह जाने वाली मिट्टी वहीं रुक सके और इन गाँवों में उजड़ गए वन, उजड़ गई खेती फिर से संवर सके।
Content
केन नदी को प्रदूषित कर रहे बांदा शहर के तीन नाले
मगर शहर को इसी केन नदी से जलापूर्ति करने वाले प्राकृतिक स्रोत में तीन गंदे नाले पेयजल को जहरीला बना रहे हैं। निम्नी नाला, पंकज नाला और करिया नाला का सीवर युक्त पानी बिना जल शोधन प्रक्रिया, वाटर ट्रीटमेंट के खुले रूप में केन में गिरता है।
जीएम फूड : जहरीली थाली
देशी बीजों की खेती
छोटे किसान तकनीक से ले सकते हैं भरपूर फसल
एक गांव ऐसा तत्काल प्लेटफार्म देने वाला नेटवर्क इंटीग्रेटर है जहां सेवा प्रदाता दक्षिण एशिया तथा अफ्रीका के अल्प-सेवित उपभोक्ता सेवा बाजारों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं 'वनफार्म' एक ब्रांडेड सेवा पैकेज है जो छोटे एवं सीमांत किसानों के लिए बड़ा आश्वासन देता है तथा इसके सेवा एवं व्यवसाय मॉडल अन्य चैनल सहभागियों में, मोबाइल नेटवर्क ऑपरेटरों में अपनी पहुंच बना कर एवं सहभागी बनकर एक मोबाइल महत्व समर्पित से सेवा के रूप में सेवाओं के विस्तार की धारणीय संभावना बनाते हैं। भारत विश्व में सबसे तेजी से फैलने वाला मोबाइल फोन का बाजार बनने जा रहा है।
सभी परिसम्पत्तियों में से भूमि का किसी भी परिवार से लंबे समय से अंतरंग संबंध रहा है, चाहे वह निवास हो, खाद्य हो या जीविका, भूमि से इनके संबंध मजबूत हुए हैं। भूमि से किसानों का पुराना संबंध है और भारतीय समाज में इसे बहुमूल्य माना गया है। किसान कार्य-बल का सबसे बड़ा वर्ग है। 70% से अधिक किसान बड़े पैमाने पर स्व-रोज़गाररत हैं, जो भारत में 1.2 बिलियन से भी अधिक लोगों को खाद्य-सुरक्षा देते हैं। तथापि, नई सहस्त्राब्दि में, एक वर्धमान सार्वभौमिक बाजार स्थान के साथ ही भूमि भोजन दाता के साथ अंतरंग संबंध आयदाता के रूप में परिवर्तित हो रहे हैं। यह परिवर्तन सार्वभौमिक आर्थिक बलों द्वारा प्रेरित है, जिसका खेतों तथा छोटे किसानों पर व्यवस्थित तथा दूरगामी प्रभाव है।भारत में 70% से भी अधिक किसान 0.7 एकड़ से भी कम भूमि के स्वामी हैं, इसलिए विश्व की तुलना में भारत में छोटे तथा सीमांत किसानों की संख्या सबसे अधिक है।
नर्मदा के घाट पर
रसिन बांध से किसानों को पानी नहीं, होता है मछली पालन
उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के मातहत बने चौधरी चरण सिंह रसिन बांध परियोजना की कुल लागत 7635.80 लाख रुपया है, जिसमें बुंदेलखंड पैकेज के अंतर्गत 2280 लाख रुपए पैकेज का हिस्सा है, शेष अन्य धनराशि अन्य बांध परियोजनाओं के मद से खर्च की गई है। बांध की कुल लंबाई 260 किमी है और बांध की जलधारण क्षमता 16.23 मी. घनमीटर है।
यमुना के बंधन
प्रयास
कचरे का पूर्ण प्रबंधन ही पर्यावरण को बेहतर ढंग से सुरक्षित रखता है
नोटिस बोर्ड
नोटिस बोर्ड
मैंग्रोव के कुछ भारतीय नाम सुझाएं
मित्रों आप से अपेक्षा है कि अपनी-अपनी बोलियों और भाषाओं में मैंग्रोव के कुछ भारतीय नाम हमें बताएं और भेजें।
रमेश कुमार
ईमेल : ramesh@indiawaterportal.org
फोन : 09811236709
निमंत्रण : उत्तराखंड बाढ़ की असलियत
समय : 4.30 से 6.30 बजे तक
स्थान : कमरा न. - 308, आई एस आई, 10 इंस्टीट्यूशनल एरिया, सांई बाबा मंदिर के पीछे, लोधी रोड, नई दिल्ली।
जून, 2013 में उत्तराखंड बाढ़ के बारे में आप सभी जानते हैं। प्रचारित किया गया कि यह बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा थी जबकि यह पूर्ण सत्य नहीं है। प्राकृतिक आपदा का परिमाण कार्यरत और निर्माणाधीन बांधों के कारण बहुत बड़ा है। विष्णुप्रयाग और श्रीनगर बांध जैसे उदाहरण अलकनंदा घाटी और अस्सीगंगा बांध परियोजनाएं व मनेरी भाली चरण-2 दूसरे अन्य बुरे उदाहरण भागीरथीघाटी में हमारे सामने हैं। इन सभी बांध परियोजनाओं के क्षेत्रों में स्थिति खराब है
No comments:
Post a Comment