महज जाति विमर्श तक सीमाबद्ध नहीं है अंबेडकर विचारधारा या आंदोलन
पलाश विश्वास
Came across this pix. Didn't know whether to laugh or cry. What is the devotee doing .... i mean what exactly is his 'object' of veneration? And why ....?
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India Today
Severe cyclone Helen to hit Andhra Pradesh coast tomorrow night
http://indiatoday.intoday.in/story/cyclone-helen-andhra-pradesh-deep-depression-ongole-bay-of-bengal/1/325677.html
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लगातार देशभर के साथियों और मित्रों से विचार विमर्श जारी है। सबसे बड़ी खबर है कि नई दिल्ली में बामसेफ प्रभारी जगदीशजी ने सूचना दी है कि राजधानी में हमारे कार्यकर्ताओं ने पटना सम्मेलन के तैयारी में बस्तियों में दो सौ से ज्यादा बैठके कर ली हैं। लोगों ने टिकट बना लिये हैं।
मुंबई और नागपुर के अलावा महाराष्ट्र से भी ऐसी खबरें आ रही हैं।बाकी राज्यों में भी तैयारियां जोरों पर हैं।
बंगाल में हम सिरे से पिछड़ गये हैं क्योंकि यहां अंबेडकरवादी संगठनों और सक्रिय कार्यकर्ताओं में परस्परविरोधी विरोध इतना तीखा है कि लोग आपस में बात तक करने को तैयार नहीं हैं।साथ बैठने की बात तो दूर रही।हालांकि उनमें से सभी लोग राष्ट्रीय स्तर पर हमारे साथ हैं। अजब अंतर्विरोध है कि राष्ट्रीय मंच पर सब सात नजर आयेंगे लेकिन अपने घर में साथ बैठने का व्यायाम से परहेज है। धड़ों और गुटों की बैठकें करना बेमानी है।इसलिए जबतक बंगाल में लोगों को साथ बैठने की आदत नहीं बन जाती,हम यहां कोई दौड़ भाग नहीं कर पा रहे हैं।
आदिवासियों के ज्यादातर संगठन हमारे साथ हैं। हम उन्हें नेतृत्व में लाना चाहते हैं। वैसे ताराराम मेहना जाति से भील हैं लेकिन अबकी बार एकीकृत बामसेफ में उनका अध्यक्ष बनना असंभव है। नये संविधान के मुताबिक दो साल का ही कार्यकाल होगा सभी पदाधिकारियों का।बामसेफ अध्यक्ष बतौर मेहना के दो साल पूरे हो गये हैं।
अब एकीकृत बामसेफ का नया अध्यक्ष चुना जायेगा।
लेकिन आदिवासियों की पूरी भागेदारी हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है।
आर्थिक समस्याओं की वजह से दूरदराज के इलाकों से कितने आदिवासी प्रतिनिधि आ पायेंगे,इसके बारे में अभी अनिश्चितता बनी हुई है। लेकिन उनकी भागेदारी ही अंबेडकरी आंदोलन की नयी शुरुआत के लिए सबसे महत्वपूर्ण होने जा रही है।
खासतौर पर जब अपने अपने इलाकों में आदिवासी समुदायों के लोग लोकतांत्रिक, नागरिक मानवाधिकार के लिए लड़ रहे हैं,संविधान लागू करने की मांग लड़ रहे हैं,कानून का राज मांग रहे हैं,जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली की वजह से उनका वजूद ही संकट में है,तो उनको मुख्यधारा में ले आना हमारे लिए शायद सबसे बड़ी चुनौती है।
समस्या यह है कि अंबेडकर के बाद अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन के झंडेवरदार जो लोग हैं,उन्होंने जाति विमर्श और जाति अस्मिता में अंबेडकर को कैद कर दिया है।जबकि हकीकत यह है कि अंबेडकर आंदोलन और उनकी विचारधारा जाति में सीमाबद्ध है ही नहीं। वह तो भारत के अलावा विश्वभर के वंचित तबकों का मुक्तिमार्ग है और समाज को न्याय,समता और लोकतंत्र के मूल्यों के आधार पर पुनर्गठित करने का मार्गदर्शन है।
गैर अंबेडकरी लोग भी अंबेडकर का मूल्याकन जाति पहचान और जाति विमर्श के आधार पर करते हैं,इसके बावजूद कि भारतीय संविधान के निर्माता हैं डा. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर, लेकिन लोक गणराज्य भारत में डा. बीआर अंबेडकर वोट मशीन में तब्दील कर दिया गया है।
गांधी,लोहिया और मार्क्स के नाम वोट नहीं मिल सकते ,इसीलिए सभी दलों के लिए,सभी संगठनों के लिए अंबेडकर का नाम जपना भारत के सत्ता संघर्ष में अपना अपना हिसाब समझने के लिए अनिवार्य है।
अंबेडकर विचारधारा में निःसंदेह जाति उन्मूलन का एजंडा प्रस्थानबिंदू है। उसका प्रयोग लेकिन जाति वर्चस्व को निरंकुश बनाने के लिए ही किया जा रहा है।
संसाधनों और अवसरों के समान बंटवारे का दर्शन सिरे से लापता है।
जिनके कब्जे में सारे संसाधन हैं,सारे अवसर हैं,उन्हीके एकाधिकारवादी वर्चस्व को बनाये रखने के लिए लोकतांत्रिक प्रणाली ,कानून का राज और संविधान की रोजाना हत्या की जा रही है और अंबेडकर के नाम सिर्फ धंधा,कारोबार और सत्ता की भागेदारी है।
पूरे भारत के विश्वनेता हैं अंबेडकर,ऐसा मूलनिवासी बहुजन भी नहीं मान रहे हैं।
उत्तरआधुनिक बाजार में आदिवासी इलाकों को अनंत वधस्थल बना दिया गया है,लिकन उन इलाकों में न अंबेडकरी आंदोलन है और न अंबेडकरी विचारधारा।शहरी गंदी बस्तियों में और खासकर अनुसूचितअस्पृश्यजातियों के इलाकों में बडे़ पैमाने पर अंबेडकर की मूर्तियां हैं,अंबेडकरी संगठन है,लेकिन अंबेडकरी विचारधारा और आंदोलन वहां भी नहीं है।
भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था में समता और न्याय के सिद्धांतों के मुताबिक जो बदलाव होने चाहिए,उस संदर्भ में भारतीय विद्वतजन गांधी ,लोहिया, मार्क्स,गोवलकर, हिटलर,मुसोलिनी,देरिदा,फुको, मार्क्स, लेनिन से लेकर माओ और अमेरिकी राष्ट्रपतियों की विचारधारा पर भी गंभीर चिंतन मनन करते हैं,लेकिन अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन की चर्चा महज जाति विमर्श तक सीमित है।
समता और शोषणविहीन वर्ग विहीन समाज के लिए जाति उन्मूलन जितना जरुरी है,उतने ही जरुरी हैं बच्चों,स्त्रियों,श्रमिकों और कर्मचारियों,युवाओं के हक हकूक के सवाल और उनसे ज्यादा जरुरी हैं जल जंगल जमीन नागरिकता और आजीविका के हक हकूक,जिन्हें उत्तरआधुनिक धर्मेन्मादी जायनवादी मुक्त बाजार मनुस्मृति व्यवस्था ने भारतीय उत्पादन प्रणाली और अर्थ व्यवस्था के साथ तहस नहस कर दिया है।
सबसे जरुरी है लोकतंत्र ताकि वंचित समुदायों को आवाज उठाने और अपने हक हकूक की लड़ाई जारी रखने के लोकतांत्रिक अधिकार मिलें।
सबसे जरुरी हैं कि आदिवासियों को संविधान की पांचवी और छढी अनुसूचियों के हक हकूक लौटाना,जिसका लगातार उल्लंघन हो रहा है।उनका वनाधिकार,उनकी जमीन से निकलने वाले खनिज पर उनका अधिकार।स्वायत्ताता के उनके अधिकार।जो आदिवासी बहुल राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ समेत बारतभर के सलवाजुड़ुम में समाहित हैं।
सबसे जरुरी है, हिमालय और प्राकृतिक संसाधनों से धनी मध्यभारत,अंडमान निकाबोर द्वीपसमूह,पूर्वोत्तर,दंडकारण्य,कच्छ,समुद्र तटवर्ती इलकों और देश के दूसरे हिस्सों में पर्कृति और मनुष्य, जीवचक्र संरक्षण के लिए देश बेचो अभियान पर अंकुश और पर्यावरण की बहाली।
सबसे ज्यादा जरुरी है सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार अधिनियम और ऐसे तमाम जनविरोधी कानून,सेज महासेज,आर्थिक सुधार,हरित क्रांति के नाम पर खेती पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का राज,परमाणु ऊर्जा के बहाने महाविधंवस को दावत देकर भरातीयउपमहाद्वीप को अशांत परामाणु युद्धकेंद्र में तब्दील करने की महासाजिश का अंत।
सबसे जरुरी है कि आदिवासी अस्पृश्य भूगोल में युद्ध परिस्थितियां खत्म करके मूलनिवासी बहुजन बिरादरी में उनका वाजिब ओहदा दिलाना ताकि भारत की निनानब्वे फीसद जनता गोलबंद हो सकें।
इन कार्यों के लिए आप अंबेडकर के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते क्योंकि आपकी मुख्य समस्या जाति है और जाति प्रश्नों का उत्तर अंबेडकर विमर्श के अलावा अन्यत्र मुकम्मल मिलेगा ही नहीं।
सामाजिक समूहों की समस्याओं को ,अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के बारे में अंबेडकर केविचार ऊभारतीय परिस्थितियों के माफिक हैं ,आप उनसे सहमत हो सकते हैं और नहीं भी।
उन्होंने सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर आर्थिक बातें की है,पारपारिक अर्थशास्त्रियों की तरह पद्धतिगत विशुद्ध अवधारणाओं में नहीं।
आर्थिक सिद्धातों के संदर्भ में भारतीय संदर्भों के विवेचन में खासकर असमता और अन्याय पर आधारित उत्पीड़न,शोषण और दमन आधारित वर्ण वर्चस्व की नस्ली राष्ट्रव्यवस्था में भारतीय आर्थिक पहेलियां बिना अंबेडकर के सुलझायी जा सकती हैं,कम से कम मैं यह नहीं मानता।
हालांकि मैं कोई अर्थ शास्त्री नहीं हूं और फतवावाजी करने लायक समाजशास्त्री या विद्वतजन भी नहीं।
लेकिन हम अपने निजी जीवन के, जो संयोगवश संपूर्ण भारतीय भूगोल को स्पर्श करता है,अनुभवों के आधार पर यह तो कह ही सकता हूं कि कोई भी भारतीय विमर्श अंबेडकर के बिना अधूरा है।
सवर्ण हो या मूलनिवासी बहुजन,सबके लिए अंबेडकर प्रस्थानबिंदू हैं।
अगर हम इस अवस्थान को लोकतांत्रिक ढंग से मानने को तैयार हैं,तो समस्याओं के समाधान में कामयाब हो या न हो,आर्थिक अश्वमेध के विरुद्ध भारतीयजनता को गोलबंद करने में कामयाब जरुर होंगे।
इसी सिलसिले में हमें आप सबका सहयोग चाहिए।
इस संदर्भ में हम लोग यथासंभव देशभर में विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय कार्यकर्ताओं से निरंतर संवाद कर रहे हैं।
हम राष्ट्रीय सम्मेलन से पहले हम यथा संभव सभी नये पुराने सक्रिय निष्क्रिय पूर्णकालिक अंशकालिक और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं,सभी सामाजिक और पेशेवर समूहों,विभिन्न सेक्टरों के कर्मचारियों अधिकारियों,विशेषज्ञों,चिंतकों,संस्कृतिकर्मियों के साथ व्यक्तिगत और सामूहिक विचारमंतन की प्रक्रिया में हैं।
पटना सम्मेलन में एकीकृत बामसेफ के नये संविधान को विचार विमर्श के बाद लागू करना है,नयी कार्यकारिणी का गठन और पदाधिकारियों करना है,संगठन के कामकाज के लिएजरुरी खर्चचलाने के उपाय खोजने हैं और आंदोलन को व्यक्तितांत्रिक तानाशाही शिकंजे से निकालकर संस्थागत लोकतांत्रिक रुप देना है।
लेकिन यह इस सम्मलेन का मुख्य ध्येय नहीं है।
इस सम्मेलन के जरिये राष्ट्रव्यापी जनांदोलन,भारतीय जनता की गोलबंदी और आंदोलन की दिशा तय करने का कार्यभार है।
बाकायदा कार्य योजना तैयार करने और उसको समयबद्ध से लागू करने का कार्यक्रम तय करना इस सम्मलेन का मुख्य उत्तरदायित्व है
मुश्किल यह है कि भारतीय जनता की बहुसंख्य आबादी जो समाज,राजनीति और अर्थव्यवस्था के खुले बाजार से बाहर हैं,धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के शिकार हैं।
ऐसा इसलिए संभव हुआ कि वंचित समुदायों के जनसमूहों में गौतम बुद्ध और अंबेडकर की पूजा तो बेहद लोकप्रिय है,लेकिन गौतम बुद्ध की रक्तहीन सामाजिक क्रांति,उनके शील और उसकी प्रतिक्रिया में हुई प्रतिक्रांति के बारे में समय्क कोई धारणा नहीं है।अंबेडकर विचारधारा का उनके लिए एकमात्र प्रासंगिकता आरक्षण है।
आरक्षण और आरक्षण विरोध के नाम पर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की तर्ज पर देश का ध्रूवीकरण अंबेडकर के वास्तविक एजंडा और जायनवादी वैश्विक उत्तराधुनिक युद्धक व्यवस्था के बारे में व्यापक जनसमूहों में व्याप्त अज्ञानता का राजनीतिक इस्तेमाल है।
दिक्कत यह है कि शिक्षा के अभूतपूर्व प्रसार का सिर्फ बाजार के विस्तार के नजरिये से ही हो रहा है।शिक्षा,विज्ञान और तकनीक एकमुखी उपभोक्तावाद और सांस्कृतिक भाषिक राष्ट्रिक अवक्षय की सर्वोत्तम वाहक हैं।
इसलिए शिक्षा का अधिकार हासिल करने के बावजूद समूची भारतीय जनता लोकतांत्रिक प्रणाली में समुचित हिस्सेदारी से वंचित है।
उनके लोकतांत्रिक अधिकार का अवसान उनके ही वध के लिए होने वाले जनादेश के निर्माण और रंगबिरंगी कारपोरेट राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं के प्रक्षपण स्थल बनने तक सीमाबद्ध है।
सूचना महाविस्फोट से उन्हें कोई सूचना नहीं मिलती।
डिग्रियां जो पहले कम से कम नौकरियां और रोजगार देती थीं,अब सिरे से अप्रासंगिक हो गयी हैं।
जातियां तो सिर्फ शूद्रों की हैं और शूद्र कृषि आजीविका से जुड़े लोग हैं और भारतीयकृषि ही मुक्त बाजार के निशाने पर हैं, इस समीकरण को समझना भारतीय जनमानस के लिए फिलहाल असंभव है।
क्योंकि जाति विमर्श का अभिमुख जाति अस्मिता के प्रस्थानबिंदु से लेकर जातियों के राजनीतिकरण तक सीमाबद्ध है।
समता या न्याय या आर्थिक सशक्तीकरण तो क्या अंधविश्वास,कुसंस्कार,कुपोषण,कुप्रथा, मंत्र तंत्र यंत्र ज्योतिष जादू टोटका से पिछड़े जनसमूहों को मुक्त कराने का कोई मकसद ही नहीं है।
राजकाज धार्मिक है और कर्मकांड आधारित राजनीति और अर्थव्यवस्था बहुजनों और मूलनिवासियों को और ज्यादा सघन अंधकार की ओर धकेल रही हैं।
राजकीय धर्मनिरपेक्ष राजकीय धर्म संस्कृति,त्योहार और उत्सव बाजार की वाणिज्यिक रणनीति है।
आधुनिक ज्ञान विज्ञान से बुरीतरह वंचित है सीमांत सारे समुदाय वंचित, अछूत, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक।
एक तो आर्थिक दुर्बलता की वजह से अतिशय धर्म निरभरता अस्तित्वरक्षक किट,दूसरा धर्म का राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक राजकीयसर्वव्यापी तंत्र,धर्मोन्मादी मकड़जाल से और आर्थिक समामाजिक गैस चैंबर से बाहर निकलने की कोई राह नहीं है।
जो आदिवासी समाज समतामूलक मूल्यों पर आधारित है, वहां टोटम और टोटकों की बहार है,डायनप्रथा है।
दूसरा यह कि मुक्त बाजार अज्ञानता फैलाने,और ज्ञान को मनेरंजन के तिलिस्म में कैद करने के कारोबार का सबसे बड़ा प्रायोजक है।बाजार के आइकन ही सामाजिक आचरण दुराचार के वाहक नियंत्रक हैं।
इसलिए आधुनिक ज्ञान विज्ञान से परिचित वर्ण वर्चस्व को असवर्णों की ओर से वास्तविक परिप्रेक्ष्य में कोई चुनौती है ही नहीं।
सत्ता बदल जाने से हालात बदलते नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार में करीब दो दशकों से ब्राह्मण सत्ता से बाहर हैं लेकिन ब्राह्मणवाद और धर्मोन्माद के शिकंजे में अब भी सबसे बुरी तरह फंसी हुई है गायपट्टी।
जाहिर है कि ब्राह्मण को सत्ता से बेदखल करने की राजनीतिक क्रांति से ही समता और सामाजिक न्याय की स्थापना हो नहीं रही है।
दरअसल गौतम बुद्ध ने राजनीतिक भाषा का प्रयोग ही नहीं किया है और राजनीति में होते हुए भी डा. अंबेडकर सामाजिक संपूर्ण क्रांति के उद्गोषक थे,ऐसा देश के मूलनिवासी बहुजनों को अभीतक किसीने समझाने का प्रयत्न नहीं किया।
राजनीतिक परिवर्तन नहीं,सामाजिक आर्थिक क्रांति के बिना हालात नहीं बदलेंगे,ऐसा अंबेडकरवाद के नाम पर दुकानें चला रहे लोग कहने के हाल में नहीं हैं।
जो पहले कहते रहे,वे कारपोरेट राजनीति के सिपाहसालार हो गये और सत्ता उनके लिए बहुजनों मूलनिवासियों की आजादी हो गयी है।
अब हालत देखिये,करोड़ों की संख्या में कुंभमेले,गंगासागर मेले और दूसरे धार्मिक आयोजनों में शामिल लोग निश्चय ही मात्र भूदेवता वर्ग के नहीं हैं और सवर्ण भी इनमें अल्पसंख्यक हैं।
आर्थिक सामाजिक राजनीतिक उत्पीड़न से निजात पाने के लिए तीर्थ परिक्रमा करने वाले लोग भी सारे के सारे ब्राह्मण नहीं हैं।
तंत्र मंत्र टोटका तो पढञे लिखे सवर्मों से ज्यादा अबढ़ बहुजनों का संबल है।
बाबाओं तांत्रिकों ज्योतिषियों के तिलिस्म में फंसे हुए भी बहुजन मूलनिवासी लोग ही सबसे ज्यादा।
यज्ञ,हवन, धार्मिक कर्मकांड में अनुसचित ही सबसे कट्टर।
कोई पढ़ा लिखा ब्राह्मण जनेऊ धारण न करें तोकोई अजूबा नहीं है।
ब्राह्मणकन्या का शूद्र घराने में या अहिंदू संप्रदाय में विवाह भी आम है।
आनर किलिंग में कौन लोग लगे हैं,ध्यान दीजिये।
गोत्र को लेकर खाप पंचायतों की फतवेबाजी भी ब्राह्मण नहीं कर रहे हैं।
स्त्री विरोधी विचार सबमें समान प्रचलित है।वहां शिक्षा अशिक्षा से कोई फर्क नहीं पड़ता।
संस्कारों को ,वर्ण वर्चस्व की व्यवस्था को बचाते हुए क्रांति के सौदागर हर दिशा में चप्पे चप्पे पर मौजूद हैं और उनकी वाचालता का शोर इतना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक खतरे में हैं।
वंचित समूहों को संबोधित कौन लोग कर रहे हैं और सत्ता से उनका कितना गहरा संबंध है और सत्ता की ओर से उनका कितना विरोध है,कितना दमन हो रहा है उनका ,सत्ता उन्हें किस हद तक रोकती है,इस समीकरण पर ध्यान दें तो समूचा परिदृश्य परिष्कार हो जायेगा।
भारतीय जनता को कूपमंडूक बनाये रखने वालों, मसीहा, तांत्रिकों, ज्योतिषियों, कापालिकों, औघड़ों,बाजीगरों,विदूषकों और बापूओं से सत्ता को कोई तकलीफ नहीं है।
जबकि सामाजिक क्रांति के हर स्वर चाहे कबीर हों,तुकाराम हों,चैतन्य महाप्रभु हों या अन्य कोई कुचलने में सत्ता कोताही नहीं बरतती।
सत्ता के खिलाफ गंभीर चुनौती खड़े करने वाले लोग हमेशा राष्ट्रद्रोह के अपऱाध में गिरप्तार होते हैं,जेल में सड़ा दिये जाते हैं या मार दिये जाते रहे हैं।
आदिवासी और किसान विद्रोहों के नायकों ,स्वतंत्रता संग्रामियों में से किसी को बख्शा नहीं है सत्ता ने।
लेकिन मजे की बात तो यह है कि देश भर में तमाम कायदे कानून को ताक पर रखकर गली गली में आजादी की दुकानें खूब चल रही हैं और सत्ता का उनपर कोई अंकुश नहीं है।
घृणा के खुले कारोबार से अंततः जनसमुदायों में वैमनस्य ही उत्पन्न होता है,हाथ कुछ नहीं लगता।
इससे अंततः सत्ता ही मजबूत होती है।
आइये, हाथ बढ़ाइये।
इस तिलिस्म के महातिमिर से बाहर निकलने की राह खोजें हम लोग मिलबैठकर ताकि फिर सुबह होने का इंतजार किया जा सकें।
सिंहद्वार पर दस्तक बहुत तेज है
जाग सको,तो जाग जाओ भइया
Himanshu Kumar
5 minutes ago near Delhi
छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले के एक आदिवासी पति पत्नी को पुलिस की गश्ती पार्टी ने पकड़ लिया। महिला पांच माह की गर्भवती थी।
पति को छोड़ दिया गया लेकिन पुलिस वाले महिला पर चार फ़र्ज़ी मामले बना कर जेल में डालने लगे।
वो महिला रोने गिड़गिड़ाने लगी कि मुझे इस हालत में जेल में मत डालो। तो पुलिस अधिकारी ने कहा कि तेरी इस समस्या का इलाज अभी कर देता हूँ।
पुलिस अधिकारी ने उस आदिवासी महिला से कहा कि अभी तेरे पेट में दो लात मारूंगा तो तेरा पेट का बच्चा अभी यहीं निकल कर गिर जाएगा और तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा।
वो आदिवासी महिला डर कर ख़ामोश हो गयी।
अब वो महिला दो महीने से जगदलपुर जेल में कैद है।
Satyendra Murli
साथियों, अम्बेड़कर-गांधी कार्टून मामले में आज मुझे जमानत मिल गई है...6 जून 2012 को राजस्थान की कांग्रेस सरकार द्वारा मेरे ऊपर थोपे गए निराधार केस को कोर्ट में चुनौती दी गई...ऊपरी अदालत ने रिट जारी नहीं की...इसके बाद, कोर्ट ने केस को खारिज करने से इंकार कर दिया...फिर, गिरफ्तारी वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रेफर कर दिया गया, जबकि मेरे मामले में तो पहले से ही पुलिस कमिश्नर शामिल थे...फिर, कोर्ट ने जमानत याचिका को भी नहीं माना और सुनवाई के लिए केस निचली अदालत में भेज दिया...निचली अदालत ने जमानत याचिका खारिज कर दी...हम फिर से उच्च न्यायालय गए...आखिरकार 17 महिनों के बाद आज 19 नवंबर 2013 को मुझे जमानत मिल ही गई...संघर्ष जारी है...परिजनों के साथ-साथ संघर्ष के साथियों को मेरा क्रांतिकारी जय भीम!
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Himanshu Kumar
सोनी सोरी जब रायपुर जेल में थी तो एक बार जेल में एक बार एक महिला मजिस्ट्रेट साहिबा का दौरा आयोजित किया गया .
जेल अधिकारियों द्वारा कैदियों से बताया गया कि देखिये शासन आप का कितना ख्याल रखता है . आप लोगों से मिलने मजिस्ट्रेट साहब खुद जेल में आ रही हैं और देखो वो कितनी दयालु हैं .
मजिस्ट्रेट साहिबा जेल आयीं, सोनी सोरी ने उनसे कहा कि मैं आपको अपने साथ हुई प्रतारणा के बारे में बताना चाहती हूँ .
सोनी की पूरी बात सुनने के बाद मजिस्ट्रेट साहिबा ने सोनी सोरी से कहा कि तुमने पिछले जनम में कुछ बुरे काम किये होंगे जो तुम्हारे साथ इस जनम में ये सब हुआ है . अब इसमें हम क्या कर सकते हैं ?
देखा बिलकुल ईश्वरीय न्याय चल रहा है छत्तीसगढ़ में . सच भी है ईश्वर की मर्जी के सामने मनुष्य क्या कर सकता है ?
जब भारत हिंदू राष्ट्र बन जायेगा तब इसी तरह सबका न्याय ईश्वर के दंडविधान के अनुरूप ही किया जायेगा .
सोनी की प्रतारणा पुलिस अधिकारी ने असल में तो ईशवर की प्रेरणा से ही करी थी . इसलिए आप सब भी ईश्वर की मर्जी के का विरोध मत कीजिये .
जय हे जय हे जय हे , जय जय जय जय हे .
Like · · Share · 1382630 · 3 hours ago ·
Saving Niyamgiri hill bigger than writing book, winning Booker Prize: Arundhati Roy - Hindustan...
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Feroze Mithiborwala
Who said that Narendra Dabholkar is dead?! A sreet play by Viyarthi Bharti being performed in Saphale, near Bombay.
" Kon Mhanto Dabhollkar Gele " ya vidyarthi bharati sanskrutil kala machache pathnaaty @ safalaa
Like · · Share · 2 · 2 hours ago ·
Feroze Mithiborwala
Mod's-Snoopgate. Read this bit of the transcript and share widely! It was never about any protection.
Pranlal Soni creates a Soni-Gate for Narendra Modi
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Panini Anand
ना ना ना ना अन्ना
चोरी हो गया गन्ना
तुम शादी की घोड़ी बन गए
और वो बन गया बन्ना.
ना ना ना ना अन्ना
सेठ हुआ बहुधन्ना
टोपी तो नीलाम हो गई
सत्ता बनी तमन्ना.
ना ना ना ना अन्ना
खोल किवाड़ा, आया जाड़ा
भेड़ें चर गईं तेरा बाड़ा
बैठ के चूसो गन्ना
ना ना ना ना अन्ना.
Sahebrao Salunke
सचीनला भारतरत्न कश्यासाठी ????
वाचा & शेअर करा !!!
तेंडुलकरला निरोप देतानां मुंबई ढसाढसा रडली....???
पन करकरे, कामठे, साळसकर यांनी छातीवर गोळ्या झेलुन तीन कोटी मुंबईकरानां सुरक्षीत ठेवले....
तेव्हा किती मुंबईकर रडले व तात्काळ किती पुरस्कार या शुर मर्दानां दिले ????...Continue Reading
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Vallabh Pandey
राजनैतिक दल अपनी रैलियों में लोगों को झूठे प्रलोभन और सब्जबाग देकर जुटाते हैं, यही हाल कुछ तथाकथित सामाजिक संस्थाओं का भी है …जल्द ही समय आयेगा जब इनके प्रति आम जनता का असंतोष असहनीय हो जाएगा फिर …:( किसी की बेचारगी का नाजायज लाभ लेना नैतिक रूप से बंद होना चाहिए।
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Himanshu Kumar shared Shajan C Kumar's photo.
छत्तीसगढ़ सरकार का कहना है कि लिंगा कोड़ोपी झूठ बोलता है।सरकार के मुताबिक तो असल में लिंगा कोड़ोपी किसी भी पत्रकारिता संस्थान में पढ़ा ही नहीं था। सरकार का यह भी कहना है कि लिंगा कोड़ोपी खुद को जिस इंस्टीट्यूट में पत्रकारिता का पढ़ा हुआ बताता है उस इंस्टीट्यूट का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है। . अंकित गर्ग लिंगा कोड़ोपी को प्रताड़ित करते समय कह रहा था कि जिस इंस्टीट्यूट का तू नाम ले रहा है वो तो उग्रवादियों को ट्रेनिंग देता है.
ये समूह चित्र लिंगा कोड़ोपी के पत्रकारिता के संस्थान का है। चित्र में लिंगा कोड़ोपी बैठे हुए पंक्ति में बाएं से छठवां हैं ।
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Rajiv Nayan Bahuguna
उट्ठो ग्यानी खेत संभालो --१२
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अये ग्यानी , अपने रक्त - वर्ण की शुद्धता और श्रेष्टता पर दर्प न कर . जाने कब - कहाँ मिश्रण हो गया हो , जो तुझे ज्ञात भी नहीं , सुन . एक बार गांधी जी की बकरी का उद्दीपन काल आया तो आश्रम परिसर में चरते एक बकरे ने उससे सेक्स कर लिया . बड़ा कोहराम मचा . ब्रह्मचर्य व्रती के आश्रम में सेक्स ? मालूम किया गया तो पता चला की बकरा किसी मुसलमान का है . कोढ़ में खाज . साम्प्रदायिक दंगे की नौबत आ गयी . मामला महात्मा तक पंहुचा . चतुर साधू ने जवाब दिया - जब बकरी को कोई दिक्क़त नहीं तो तुम्हे क्यों है ? और तुम सब जबरदस्ती के ब्रह्मचारी हो , इसी लिए अपना काम धाम छोड़ कर बकरी का सेक्स देख रहे थे . लेकिन बापू बकरा मुसलमान का था , सो बकरा खुद भी मुसलमान हुआ न ? एक सुजान ने शंका व्यक्त की - बापू अब इस बकरी की संतान भी मुसमान होगी न ? गांधी जी बोले - बकरी का स्वामी मैं हूँ , इस लिए उसके मेमने भी हिन्दू - वैष्णव होंगे . बकरी गाभिन हुयी . उसने तीन प्यारे मेमने जने . गांधी जी को निरंतर दूध मिलता रहा , और ई मस्स्लिम बकरे के हिन्दू मेमने भी मस्त रहे , आगे चल कर उन मेमनों ने सेक्स के मामले में हिन्दू - मुस्लिम का कोई भेद न बरता . अये ग्यानी , इस कथा की गिरह बाँध ले , तेरी डाई बिटीज़ क्योर हो जायेगी
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सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी दिल्ली में
Soni Sori and her nephew Lingaram Kodopi in Delhi (4 photos)
Soni Sori and her nephew Lingaram Kodopi, at a fountain near Parliament house at Raisina Hills after coming from Chhattisgarh, in New Delhi on 17/11/2013. The Supreme Court on Tuesday granted interim bail to Soni Sori, a tribal school teacher of Dantewada, and her relative, journalist Lingaram Kodopi, who are facing trial on the charge of having helped to arrange 'protection money' payoffs from steel giant Essar to Maoists in Chhattisgarh the apex court has ordered Sori and Kodopi not to enter the Chhattisgarh border till the next hearing. Ms. Sori, 38, and Mr. Kodopi have been in jail for the past two years, facing multiple criminal charges, ranging from manslaughter to criminal conspiracy. Ms. Sori is alleged to have been tortured in police custody and is still suffering from multiple injuries. Mr. Kodopi, who played a decisive role in exposing the massacre of villagers at Tadmetla in Bijapur district, claims his life and career have been ruined. Exclusive Photo by Shaillendra Pandey/Patika
Himanshu Kumar shared Puneet Bedi's photo.
कल सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी से मिलने कुछ दोस्त जमा हुए थे
soni with dubeji the lawyer friend.
कल सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी से मिलने कुछ दोस्त जमा हुए थे
SONI SORI in a pensive mood
कल सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी से मिलने कुछ दोस्त जमा हुए थे
LINGA ANd SONI
कल सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी से मिलने कुछ दोस्त जमा हुए थे
Soni smiled finally breaking the sombre atmosphere, she knew she was amongst friends.
Himanshu Kumar shared Puneet Bedi's photo.
कल सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी से मिलने कुछ दोस्त जमा हुए थे
Himanshuji in conference with Linga !
Himanshu Kumar
सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी दिल्ली में मेरे घर में ठहरे हुए हैं . अभी कुछ देर पहले दिल्ली पुलिस की टीम मेरे दिल्ली वाले घर में घुस कर बैठ गयी .
उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की प्रति दिखाई और सोनी सोरी की पूरी कहानी सुनाने के बाद वो लोग अभी अभी वापिस गए हैं .
शाम को जाकर थाने में सर्वोच्च नयायालय के आदेश की प्रतिलिपि देकर आनी होगी .
अंत में आया हुआ अधिकारी फोन पर अपने अधिकारी से कह रहा था कि नहीं सर वो वाला मामला नहीं है कुछ और ही सच्चाई है .
पता नहीं इन पुलिस वालों को क्या सच्चाई बता कर मेरे घर भेजा गया .
Himanshu Kumar
सोनी सोरी के मेरे घर पर ठहरने के बाद से दिल्ली पुलिस का स्थानीय थाना लगातार मेरे मकान मालिक को थाने में आने के लिए फोन पर फोन कर रहे हैं . अभी मैं और मेरे मकान मालिक थाने जा रहे हैं .
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Himanshu Kumar
आदरणीय रमन सिंह जी ,
मैने इससे पिछले पत्र में आपको बताया ही था कि हमारी संस्था के साथियों ने सलवा जुडुम द्वारा जलाकर नष्ट कर दिये गये सैकड़ो गांवों में से दो को फिर से बसाने का काम शुरु किया है ।
दिनांक 05.07.2008 को इनमें से एक नेन्ड्रा गांव में अपने साथी कार्यकर्ताओं के साथ गया था मेरे सामने लगभग डेढ़ सौ आदिवासी स्त्री-पुरुष और बच्चे बैठे थे उनके कपड़े तार - तार हो चुके थे क्यों कि उन्हें बाज़ार आने की अनुमति नहीं है वहां उनका कत्ल कर दिया जायेगा । ज्यादातर लोग कुपोषित थे क्यों कि तीन वर्षो से उनके खेत जला दिये जा रहे हैं ।
मैंने उन लोगों से पूछा हम आपके लिये सबसे पहले क्या कर सकते हैं ? एक बूढ़ा खड़ा हुआ और उसने कहा दो साल पहले मेरी बारह साल की लड़की को सलवा जुडुम वाले पकड़ कर कैम्प में ले गये थे मेरी बेटी अभी भी वहाँ है ,क्या आप मेरी बेटी मुझे वापिस दिलवा सकते हैं ?
मेरे मन में आज़ादी के साठ साल बाद प्रश्न उठ रहा था कि इस 'जन गण मन का अधिनायक' क्या यही हैं ? भारत के संविधान के पहले पन्ने पर अंकित ''हम भारत के लोग'' में क्या ये लोग भी शामिल हैं ?
इस व्यक्ति की बेटी को बाप से छीनने वाले कोई असामाजिक तत्व नहीं है बल्कि वो राज्य सत्ता समर्थित कायवाही के तहत छीनी गई है ।
मेरी भी बारह साल की बेटी हैं ,मैं सोचने लगा कि क्या उसे भी मुझसे कोई इस तरह छीन कर खुलेआम ज़बरदस्ती शिविर में रख सकता है । इतना सोचने मा़त्र से ही मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा उस क्षण भारत के संविधान नें मुझे भीतरी शक्ति दी और आश्वस्त किया कि मेरे साथ ऐसा इस लिये नहीं हो सकता क्योंकि मैं भारत के संविधान को समझता हूँ और मेरी उस तक पहुँच भी है ।
लेकिन बस्तर के इस आदिवासी की पहुँच संविधान तक नहीं हैं ये बात हम सब जानते हैं इसलिये हम खुले आम उससे उसकी बेटी को छीन कर सरकारी सलवा जुडुम शिविर में रखने की जुर्रुत कर पा रहे हैं ।
मैंने नेन्ड्रा गांव में लोगों से कहा कि हमारी संस्था कोशिश करेगी कि आपको अपने घरों को फिर से बनाने के लिये खपरे आदि की मद्द करें । गांव के युवकों नें मुझे जो उत्तर दिया उससे मेरा सर आत्मसम्मान से उठ गया उसने कहा ''धन्यवाद ,हमारे लिये ये ताड़ के पत्ते काफी हैं ,आप बस हमारे साथ रहिये । ताकि सरकार हमें मार ना डाले . बस्तर का आदिवासी आज भी मुझ जैसे शहरी से कोई खैरात नहीं चाहता बस वो इतना चाहता है कि उसे हमें जिन्दा रहने दें ।
मैनें लोगों से कहा आप खेती करना शुरु कीजिये लोगों नें कहा सलवा जुडुम और र्फोस फिर से हमारी फसल जला देगी । मैंने आश्वस्त किया कि हमारी संस्था के कार्यकर्ता आपके साथ रहेंगे और अगर सलवा जुडुम वाले आयेंगे तो हमारे साथी उनसे बात करेंगे । हँलाकि मैं आज भी भीतर से डरा हुआ हूँ कि वास्तव में अगर सलवा जुडुम के हुजूम नें फिर से उस गांव पर हमला बोला और हमारे कार्यकर्ताओं की हत्या कर ही दी तो भारत का संविधान वहाँ उन्हें कहाँ बचाने जायेगा ।
रमन सिंह जी होना तो ये चाहिये था कि जनता पर नक्सली हमला करते तो आप उन्हें बचाते ,पर हो ये रहा हैं कि गांवो में रह रही जनता को ये महसूस हो रहा है कि सरकार उन पर हमला कर रही है और नक्सली उन्हें बचा रहे हैं । मैं नही जानता ये स्थिति राष्ट्र के लिये कितनी फायदेमंद है ,शायद आप ज्यादा अच्छे से समझते हो 'मेरी बुद्धि तो कुछ समझ नहीं पा रही हैं ।
हमारे साथी कोशिश कर रहे हैं कि स्कूल चल पड़े ;आंगनबाड़ी खुल जाये ;राशन दुकान से राशन मिलने लगे ,लोग देश और व्यवस्था को फिर से प्यार और विश्वास से देखने लगे लेकिन सरकार के ही लोग ऐसा नहीं होने दे रहे हैं क्यों ,समझ में नही आता ।
और सबसे बड़ी चीज़ जो हमें परेशान करती है वो है हर बात में सरकार और प्रशासन द्वारा झूठ बोलना ।
सरकार ने स्कूल खुद बंद किये ,आंगन बाड़ी ,स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का जुडूम और र्फोस के लोगों ने अन्दरुनी गांवो में जाना बन्द करवा दिया , और कहा गया कि इस गांव के लोग सलवा जुडुम में नही आये हैं ,इसलिये ये नक्सली है इसलिये इनको कुछ नही मिलना चाहिये और झूठ बोला जाता है कि नक्सली गांव में काम नहीं करने देते ।
आप बता सकते हैं नक्सलियों नें कितने आंगन बाड़ी कार्यकर्ता ,स्वास्थ कार्यकर्ता या शिक्षिकों को मारा हैं ? विशेषतः अपने कर्तव्य पालन करते हुए ? मेरे पास आपके प्रशासन का लिखित जवाब हैं एक को भी नहीं । फिर भी स्कूल आंगन बाड़ी हैण्डपम्प स्वास्थ राशन दन्तेवाड़ा के सैकड़ों गांवो में लाखो लोगो के लिये क्या सोच कर बन्द किया गया ? शायद आपको आपके सलाहकारों नें समझाया होगा कि इससे नक्सली भूखे मर जायेंगे और नक्सल वाद खत्म हो जायेगा । लेकिन हुआ कुछ और ही ।
पहले नक्सलवादी कुछ गांवो तक ही सिमटे हुए थे और अब सरकार ही कुछ कस्बों तक सिमट गयी हैं ।
सच बताइये आपको नहीं लगता बस्तर में गांवो को जला कर लोगों की हत्या करके आप कुछ भी हासिल नहीं कर पाये ।
और मजे की बात ये है कि अक्ल की कहने वालों को आपके चाटुकार और आपके पालतू नेता प्रतिपक्ष तुरन्त नक्सली समर्थक कहने लगते हैं । सारे बुद्धिजीवी स्वतन्त्र पत्रकार ,सामाजिक कार्यकर्ता ,मानवधिकारवादी ,सब नक्सली, और राशन का चावल डकारने वाले ,बैल वितरण में दलाली खाने वाले ,ठेकेदारी और ट्रांसफर में रिश्वत खाने वाले सब देश भक्त और पार्टीभक्त बन बैठे हैं ।
रमन सिंह जी मेरे परिवार के अनेकों सदंस्यों ने इस देश की आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया था और पेंशन भी ठुकरा दी । मेरे पिता आचार्य विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में तीस वर्ष झोला लेकर घूमे और आज भी मुझे बस्तर के आदिवासियों के बीच काम करते हुए देखते हैं और मुझे बताते हैं कि मैं बिल्कुल सत्य मार्ग पर हूँ इसलिये मुझे अब किसी और के प्रमाण पत्र की ज़रुरत नहीं हैं । इसलिये बस्तर में जो बड़े पूँजीपतियों के कहने से सलवा जुडुम के मार्फत आप गांव खाली करवाने की मुहिम चलवा रहे हैं और जिसमें पुलिस आपकी लठैत की भूमिका निभा रही है उसे मैं अपने जिन्दा रहते या जेल के बाहर - रहते तो पूरा होने नहीं दुँगा । यह मेरा आपसे वादा हैं ।
मैं आपके द्वारा खाली कराये गये सारे गांवो को दोबारा बसाने निकल पड़ा हूँ मैं सलवा जुडुम नाम के इस सबसे बड़े औेद्यौगिक विस्थापन षडयन्त्र को विफल कर रहा हूँ ,गांधी के सत्याग्रही के नाते अपने हर कदम की पूरी सूचना आपको देता रहूँगा ।
हिमांशु कुमार
कंवलनार -दंतेवाड़ा
५/७ २००८
Aaj Tak
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Iqbal Soofi via Srinivas Kakkilaya
We Shouldn't Fall Into Trap of Modi or Rahul: Arundhati Roy
बाई ग ! तू या जातीत उगाच जन्म घेतला ...तू उपाशीपोटी राहून देशासाठी अनेक पदके आणली तू गरिबीत खितपत पडली तरी देशासाठी धावत राहिली ... बाई ग ...तुझ्या या त्यागाला देशसेवेला तुझी जात आडवी आली ...तू जर त्यांच्या जातीची असती ना तर कधीचाच तुला भारतरत्न मिळाला असता पण काय करणार तू त्यांच्या जातीत जन्माला आली नाही .....
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The Economic Times
B-schools think out of syllabus; get innovative http://ow.ly/qXvqY
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गंगा सहाय मीणा with Omprakash Valmiki
ओमप्रकाश वाल्मीकि के साथ हिंदी साहित्य का एक युग खत्म हो गया जिसका प्रधान स्वर जाति आधारित शोषण की प्रस्तुति और उसका प्रतिरोध रहा. 2005 में 'जूठन' पर लिखे मेरे लघु शोध-प्रबंध का निष्कर्ष था- 'जूठन' दलित चेतना के निर्माण की प्रक्रिया का जीवंत दस्तावेज है. इतना गंभीर, सुलझा, स्पष्टवक्ता, सहज और उदार दलित चिंतक मिलना मुश्किल है. ओमप्रकाश वाल्मीकि का जाना सच में पूरे साहित्य की अपूरणीय क्षति है.
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जनज्वार डॉटकॉम with Dilip C Mandal and 49 others
भारत में क्लिनिकल ट्रायल का कारोबार करीब एक अरब डॉलर का हो गया है, किंतु मरीजों मरीजों को मौत के मुआवजे के नाम पर केवल खानपूर्ति की जाती रही है. ऐसे मौत में पोस्टमार्टम भी होता है, तो उसकी रिपोर्ट ऐसे बनाई जाती है, जिससे दवाओं के प्रयोग की काली हकीकत नहीं होती...http://www.janjwar.com/society/1-society/4517-gareeb-kee-deh-par-maut-ka-tryal-for-janjwar-by-sanjay-swdesh
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Browse: Home / मंच : पाबना में दलित उत्पीड़न
मंच : पाबना में दलित उत्पीड़न
Author: समयांतर डैस्क Edition : June 2013
फैक्ट फाइंडिंग कमेटी की रिपोर्ट
हरियाणा प्रदेश के कैथल जिले के गांव पबनावा की दलित बस्ती पर गांव के ही दबंगों द्वारा हमले की खबर के आधार पर दिल्ली के विभिन्न प्रगतिशील, जनवादी एवं क्रांतिकारी संगठनों ने हमले का सच जानने के लिए एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम का गठन किया। टीम में जाति उन्मूलन आंदोलन के संयोजक जे.पी. नरेला, ए न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया के महासचिव अरुण मांझी और मजदूर नेता के.के. नियोगी शामिल थे।
फैक्ट फाइंडिंग टीम करीब दोपहर दो बजे पबनावा की दलित बस्ती के गेट के पास पहुंचीं! वहां करीब 15-20 पुलिस वाले दलित बस्ती के प्रवेश द्वार पर मौजूद थे। कई तो चारपाई पर लेटे आराम फरमा थे तो, कई अलसाए बैठे थे। लग ही नहीं रहा था कि इतनी बड़ी घटना के बाद ये पुलिस कर्मी दलित बस्ती की सुरक्षा की ड्यूटी परहैं। उन्होंने हमसे यह भी नहीं पूछा कि आप लोग कौन हैं और कहां से आए हैं।
हमले की शिकार दलित बस्ती के लगभग हर घर का टीम ने मुआयना किया। बस्ती के ज्यादातर मकान खाली पड़े थे। चंद मकानों में इक्का-दुक्का पुरुष व महिला मौजूद थे। मुआवने के साथ-साथ टीम ने जो भी लोग दलित बस्ती में मौजूद थे उनसे घटना के संबंध में पूछताछ की और जानकारी ली। करीब दस लोगों का साक्षात्कार लिया।
पृष्ठभूमि: इस पबनावा गांव के सूर्यकांत नामक 21 वर्षीय युवक ने, जो पास के ही एक शहर में छोटी-मोटी नौकरी करता है और चमार जाति से संबंधित है, इनके पिता महेंद्र पाल जो कि एक ईंट भ_ा मजदूर हैं और गरीबी रेखा के नीचे (बी.पी.एल.) के दायरे में आते हैं, ने मीना नामक 19 वर्षीय युवती, सुपुत्री पृथ्वीसिंह, जो कि रोड़ जाति से संबंधित है, और गरीब किसान की श्रेणी में आते हैं, से 8 अप्रैल 2013 को चंडीगढ़ हाई कोर्ट में विवाह कर लिया। हाई कोर्ट में इसलिए कि डिस्ट्रीक्ट कोर्ट में उनको अपनी जान का खतरा था। इस अंतर्जातीय विवाह के बदले 13 अप्रैल 2013, शनिवार, रात करीब नौ बजे चमार समुदाय की बस्ती परहमला बोला गया। करीब 125 मकानों के दरवाजे तोड़े, घरों का सामान तोडफ़ोड़ डाला, कई घरों के टेलिवीजन, फ्रिज तोड़ डाले, लगभग 10 मोटरसाइकलें तोड़ दीं। नरेश कुमार, सुपुत्र कलीराम, ने बताया कि उनके घर का टेलीविजन व डे्रसिंग टेबल तो तोड़ा ही, साथ ही करीब 29, 000 रुपए भी लूटकर ले गए। दर्शनसिंह ने बताया कि उनके गैस सिलेंडर में आग लगाकर उनके मकान में विस्फोट करने का प्रयास किया, ताकि विस्फोट के बाद घर का कोई भी सदस्य बच न पाए। घरों में लगी पानी की टंकियां तोड़ डालीं, नल तोड़ दिए गए, बस्ती में कई परचून की दुकानदारी कर रहे लोगों के दुकानों का सामान उठा ले गए और बाकी सामान तोडफ़ोड़ दिया गया। हमले के दौरान तीन लोगों को गंभीर चोटें आईं और रोहतक के सिविल अस्पताल में उनको भर्ती कराया गया।
पुलिस प्रशासन की भूमिका: दलित बस्ती में मौजूद दर्शन सिंह नामक युवक से जब पूछा गया कि क्या हमले की आशंका आपको थी। जवाब में उन्होंने बताया कि दिनांक 13 अप्रैल, 2013 को रोड़ जाति के समुदाय की दोपहर में एक पंचायत हुई थी, जिसमें करबी 500 लोग मौजूद थे। उसी में दलित बस्ती पर हमले का निर्णय लिया गया था।
दर्शनसिंह ने बताया कि मैने करीब ढाई बजे दोपहर ढ़ाड़ां गांव के थाना प्रभारी एवं डी.एस.पी. कार्यालय में फोन कर हमले की आशंका की सूचना दी। दूसरी बार मैंने करीब सायं छह बजे पुन: फोन किया। उधर से जवाब मिला कि हम पुलिस कर्मी सुरक्षा हेतु भेज रहे हैं। तीसरी बार करीब साढ़े आठ बजे रात को मैंने थाना प्रभारी, ढ़ाड़ां एवं डी.एस.पी. कार्यालय को फोन किया। दिनांक 13 अप्रैल, 2013 को ही फोन पर पुलिस वालों ने बताया कि दलित बस्ती के ही एक व्यक्ति बलवंत सिंह का भी इस संबंध में फोन आया था। उसके बाद करीब 15-20 पुलिस कर्मी दलित बस्ती से दूर घूमते दिखाई दिए। जैसे वे दलित बस्ती की सुरक्षा के लिए नहीं, कोई सैर-सपाटा करने आए थे। फिर रात नौ बजे पुलिस की मौजूगदी में ही दलित बस्ती पर हमला शुरू हुआ। दर्शन सिंह के अनुसार घटना पुलिस प्रशासन, स्थानीय राजनीतिज्ञ के गठजोड़ की शह पर ही घटित हुई।
इस घटना के बाद गांव ढ़ाड़ां के थाना प्रभारी ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 के तहत मामला दर्ज कर करीब 22 लोगों को गिरफ्तार किया। प्राथमिक रिपोर्ट में कुल 52 व्यक्ति नामजद हैं। 30 व्यक्ति अभी फरार हैं। एफ.आई.आर. में धारा 148/149/333/452/427/307/395/332/353/186/120बी लगाई गई है। एफ.आई.आर. नम्बर 39, दिनांक 14 अप्रैल 2013, पी.एस. ढ़ाड़ां, जिला कैथल, थाना प्रभारी विक्रम सिंह ने मामला दर्ज किया।
एफ.आई.आर. में बताया गया है कि चंदगीराम, पुत्र छज्जूराम, जाति चमार, गांव पबनावा, उम्र करीब 65 साल ने रिपोर्ट दर्ज की है कि इस अंतर्जातीय विवाह की सूचना के बाद रोड़ जाति के करीब 500-600 लोगों की 13 अप्रैल, 2013 को पबनावा गांव में एक पंचायत हुई। पंचायत में निर्णय लिया गया कि रोड़ बिरादरी की लड़की को चमार जाति का लड़का भगाकर ले गया है, जिसमें हमारी बिरादरी की नाक कट गई है। इसी रंजिश के कारण सारी पंचायत ने फैसला कर योजनाबद्ध तरीके से हमारे मकानों पर ताबड़तोड़ हमला कर दिया और वह हमें ढ़ेड, चमार, जल्लाद, कह रहे थे। हमला देशी कट्टे से लेकर लाठियों, डंडों, कुल्हाडिय़ों, तलवारों से किया गया है। उपरोक्त घटना और एफ.आई.आर. के बाद युवक एवं युवती दोनों हरियाणा पुलिस की सुरक्षा में हैं।
इसके बाद दलित समुदाय एवं युवक के परिवार पर दबाव डाला जाने लगा कि वे इन दोनों की शादी तुड़वाकर उनकी लड़की को उनके हवाले कर दें। किंतु चमार समुदाय ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। शिक्षामंत्री, हरियाणा सरकार श्रीमती गीता ने दलित परिवारों पर समझौते का भी दबाव डाला और कहा कि एक ही गांव में शादी करना ठीक नहीं होता है। घटना के पहले ही सुरक्षा कारणों की वजह से दलित परिवारों की ज्यादातर महिलाएं और बच्चे पबनावा गांव से हटाकर दूसरी जगह भेज दिए गए थे।
पबनावा गांव में गए जांच दल के एक सदस्य ने गांव के दलित समुदाय के एक व्यक्ति लक्ष्मीचंद से पूछा कि हरियाणा में दलित उत्पीडऩ की घटनाएं निरंतर क्यों हो रही है तो इस पर लक्ष्मीचंद का कहना है कि दबंग जातियों को कानून व्यवस्था का डर नहीं है और सरकार भी उन्हीं की है।
घटनाक्रम के बाद दलितों को कुछ राहत सामग्री, राशन इत्यादि सरकार की ओर से भेजी गई, लेकिन दलितों ने मांग की है कि जब तक सभी आरोपी गिरफ्तार नहीं कर लिए जाते हैं, हम लोग सरकार की कोई भी राहत मंजूर नहीं करेंगे। टीम जब तथ्यों की जानकारी जुटा रही थी, तभी सरकार की तरफ से दलितों के टूटे घरों के दरवाजे बनाने के लिए नाम लेते हुए कई कर्मचारी घर-घर जा रहे थे।
दलित बस्ती के दर्शनसिंह ने टीम को बताया कि हम रोड़ जाति के खेतों में मजदूरी करके गेहूं की फसल काटकर साल भर का अनाज जमा कर लेते हैं। पर अब हमारा नुकसान हो गया है। धान की खेती का समय आ रहा है। रोड़ जाति के लोगों के खेतों में अब हम काम नहीं कर पाएंगे, इसलिए भविष्य में खाने के भी लाले पडऩे वाले हैं। फिलहाल कुछ आने-जाने वाले संगठन, व एन.जी.ओ. वगैरह हम लोगों के खाने के लिए कुछ आर्थिक सहायता दे जाते हैं।
पबनावा की सामाजिक-आर्थिक स्थिति: पबनावा गांव की कुल आबादी लगभग 18, 000 के करीब है, मतदाता करीब 8, 000 हैं। इस आबादी में चमार जाति की आबादी 1, 200 है। बाल्मिकियों के घर 75-80 के करीब हैं, बाजीगर जाति के लगभग 30 परिवार हैं, नाइयों के लगभग 50 घर हैं, कुंहारों के 50 घर, बढ़ई 150 घर, ब्राह्मण करीब 100 घर, रोड़ जाति के करीब 200 घर और 50 घर मुसलमानों के हैं (साथ में एक मस्जिद भी है)। लगभग 20-20 एकड़ कृषि भूमि रोड़ जाति के दो परिवारों के पास है। बाकी मध्यम व छोटे किसान हैं। ग्रामसभा की लगभग 30 एकड़ जमीन है। दलित परिवारों में कुछ परिवारों के पास एक एकड़ के आसपास जमीन है, जिससे उनके खाने भर की भी पूर्ति नहीं हो पाती, इसलिए ज्यादातर दलित रोड़ जाति के खेतों में मजदूरी करते हैं। कई परिवार राजगिरी मिस्त्री का कार्य और कई अन्य किस्म की मजदूरी कर अपना गुजर-बसर करते हैं। करीब 17-18 दलित व्यक्ति छोटी-मोटी सरकारी नौकरी भी करते हैं। इनमें ज्यादातर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं। चमार जाति के लगभग 50 परिवार बी.पी.एल. में आते हैं। इनमें शिक्षा का स्तर कुल करीब 5-6 नौजवान इंटर कॉलेज की शिक्षा व 4-5 स्नातक की शिक्षा ले रहे हैं। कई दलित परिवार गाय-भैंस भी पालते हैं।
दलित उत्पीडऩ की घटनाएं : राज्य में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं पिछले डेढ़ दशकों से निरंतर बढ़ी हैं। हरियाणा में कांगे्रस की सरकार एक विशेष जाति की सरकार बनकर रह गई है। दूसरी तरफ, एक विशेष जाति के मध्ययुगीन बर्बर सामंती मूल्यों से ग्रसित खाप पंचायतें राज्य में निर्णायक भूमिका में मौजूद हैं। अंतर्जातीय विवाहों के विरोध में पिछले दिनों कई फैसले ये खाप पंचायतें सुना चुकी हैं और ताकत के दम पर जबरदस्ती लागू की भी करवा चुकी हैं। हुड्डा सरकार के शासनकाल में दलित उत्पीडऩ की कई घटनाएं घट चुकी हैं। जैसे कि
दुलिना कांड: इसमें 15 अक्टूर 2002 को झज्जर जिले में 5 दलितों की हत्या कर दी गई थी।
गोहाना कांड: सोनीपत जिले के गोहाना में 2007 में दलितों के घरों पर हमला कर उनके घरों का सामान तोडफ़ोड़ कर घरों में आग लगाई गई, फिर लारा नाम के दलित युवक को गोली मार दी गई।
दौलतपुर कांड: 15 फरवरी 2012 को उकलाना के दौलतपुर गांव में राजेश नाम के दलित युवक का हाथ इसलिए काट दिया गया कि उसने दबंगों से मटके से पानी पी लिया था।
पट्टी गांव कांड: सन् 2012 में पट्टी गांव के एक दलित युवक ने दबंग जाति के युवती से प्रेम विवाह कर लिया तो दबंगों की पंचायत ने दलित युवक का मुंह काला कर पूरे गांव में घुमाया और उसके पिता पर जुर्माना भी लगाया गया।
डाबड़ा कांड: 9 सितंबर, 2012 को नाबालिग दलित लड़की से सामूहिक बलात्कार से दुखी पिता ने आत्महत्या कर ली।
मिर्चपुर कांड: 19 अप्रैल 2010 के मिर्चपुर कांड में दलितों के 18 घरों में पेट्रोल और मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी गई थी जिसमें ताराचंद नाम के वाल्मिकी और उनकी अपाहिज बेटी सुमन को घर में ही जिंदा जला दिया गया था।
भगाना कांड: मई 2012 मे दबंगों ने सामूहिक ग्रामसभा की जमीन और दलितों के घरों के सामने के चबूतरे पर कब्जा जमा लिया था और दलितों के प्रतिरोध के बाद दबंगों ने पंचायत कर समस्त दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। 21 मई 2012 को करीब 70 दलित परिवारों को गांव से पलायन करना पड़ा।
मदीना कांड: रोहतक जिला के गांव मदीना में अप्रैल 2013 में दबंग जाति के व्यक्तियों द्वारा दो दलितों की हत्या कर दी गई।
इन सारी घटनाओं में राज्य मशीनरी ने संविधान में दर्ज दलितों के नागरिक अधिकारों की धज्जियां उड़ा दीं। पुलिस ने दबंग जातियों को शह दी कि वे दलित समुदाय के ऊपर खुले आम हमले करें। सामाजिक न्याय की अवधारणा की भी धज्जियां उड़ाईं और साथ में दुनिया के सबसे मजबूत, सबसे बड़े और सबसे महान लोकतंत्र की भी धज्जियां उड़ाईं। राज्य में चुनावी लोकतंत्र भी मृतप्राय है, क्योंकि दलित समुदाय वहां पर दबंगों के दबाव में वोट डालते हैं और आरक्षित सीटों पर दबंगों के इशारे पर ही जीतते हैं और उन्हीं की चाटुकारिता करते हैं। दलित समुदाय के कल्याण के लिए वे कुछ भी नहीं कर पाते। संविधान की रक्षा करने वाली हरियाणा पुलिस, प्रशासन एवं सरकार अपने घर-गांव से पलायन किए हुए दलितों की पुनर्वास में आज तक कुछ भी नहीं कर पाई है। मिचपुर और भगाना के दलित परिवार आज तक दर-ब-दर की ठोकरें खाते घूम रहे हैं।
http://www.samayantar.com/dalit-attrocities-in-pabna/
Browse: Home / सांप्रदायिकता : श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट का क्या होगा?
सांप्रदायिकता : श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट का क्या होगा?
Author: समयांतर डैस्क Edition : April 2013
खानमुंबई बम विस्फोटों के पूरे बीस साल बाद आखिरकार इसके आरोपियों को उनके खतरनाक अपराध की सजा मिल ही गई। लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में जो फैसला दिया, उससे एक बार फिर साबित हो गया कि इंसाफ कुछ समय के लिए टल भले ही जाए, लेकिन होगा सही। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने टाडा अदालत से मौत की सजा पाने वाले इस अपराध के मुख्य आरोपी याकूब अब्दुल रजाक मेमन की मौत की सजा को जहां बरकरार रखा, तो वहीं उम्र कैद की सजा पाने वाले 18 में से 16 मुजरिमों की आजीवन कैद की सजा को भी ज्यों का त्यों रखा। न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायमूर्ति डॉ. बलबीर सिंह चौहान की दो सदस्यीय खंडपीठ ने अलबत्ता 10 मुजरिमों पर नरमी बरतते हुए उनकी फांसी की सजा, उम्र कैद में बदल दी। गौरतलब है कि मुंबई बम धमाके के 179 आरोपियों ने टाडा अदालत द्वारा उन्हें सुनाई सजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी। इसी अपराध से जुड़े एक अन्य मामले में अदालत ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त को भी अवैध रूप से एके-56 रखने के आरोप में पांच साल की सजा सुनाई।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस हमले के लिए पड़ोसी देश पाकिस्तान, उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई और कुख्यात अपराधी दाऊद इब्राहिम को दोषी करार देते हुए कहा कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने गुनहगारों को ट्रेनिंग मुहैया करवाई, जिसका नतीजा मुंबई धमाका था। अदालत का कहना था कि भारत की व्यावसायिक राजधानी को निशाना बनाने की साजिश दाउद इब्राहिम ने टाईगर मेमन के साथ मिलकर तैयार की और इसे पाकिस्तानी अधिकारियों की मदद से अंजाम दिया गया। आरोपियों को पाकिस्तान ने ग्रीन चैनेल की सुविधाएं मुहैया करवाई। अदालत ने अपने फैसले में इस अपराध के लिए न सिर्फ पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी को जिम्मेदार ठहराया, बल्कि हमारी पुलिस व कस्टम व्यवस्था पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि पुलिस व कस्टम विभाग देश में हथियारों की तस्करी को रोकने में पूरी तरह से नाकाम रहे। यदि कस्टम और पुलिस अधिकारियों ने ठीक ढंग से अपनी जिम्मेदारी निभाई होती, तो न तो मुंबई में आरडीएक्स पहुंच पाता और न ही दूसरे घातक हथियार।
12 मार्च, 1993 हमारे देश के लिए वह काला दिन था, जब मुंबई में एक के बाद एक सिलेसिलेवार हुए 12 बम धमाकों में 257 लोगों की मौत हो गई और 713 लोग घायल हुए। इन भयानक धमाकों से उस वक्त 27 करोड़ रुपए की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था। बहरहाल, इन बम विस्फोटों के कुछ आरोपी जल्द ही कानून की गिरफ्त में आ गए। मुंबई सीरियल बम धमाकों की सुनवाई देश के इतिहास में सबसे लंबे समय तक यानी कुल 12 साल चली। मामले का ट्रायल 30 जून 1995 को शुरू हुआ था। घटना के करीब तेरह साल बाद 2006 में टाडा, यानी आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधि (निरोधक) अधिनियम के तहत गठित अदालत ने बम धमाकों में लिप्त लगभग सौ लोगों को दोषी माना और सजा सुनाई। जिनमें बारह को फांसी, बीस को उम्रकैद और सड़सठ को तीन से चौदह साल तक कैद की सजा दी गई थी। टाडा अदालत के इस फैसले पर कमोबेश सुप्रीम कोर्ट ने भी अब अपनी मुहर लगा दी है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कहा जा सकता है कि देर से ही सही, हमारी न्याय-व्यवस्था ने अपना काम पूरा कर दिया। बावजूद इसके कड़वी सच्चाई यह है कि पुलिस और हमारी जांच एजेंसियों के हाथ आज भी उस त्रासद घटना के असली साजिशकर्ताओं तक नहीं पहुंच पाए हैं। इस कांड के मुख्य सूत्रधार टाइगर मेमन और अंडरवल्र्ड डॉन दाऊद इब्राहिम दोनों पर कानून का शिकंजा कसा जाना बाकी है। एक तरह से देखें तो पीडि़तों या उनके परिवारों को अभी आंशिक न्याय ही मिल पाया है। पूरा न्याय तभी मिलेगा, जब ये दोनों मुजरिम कानून की गिरफ्त में होंगे।
मुंबई के इतिहास में एक और बड़ी घटना जिसे हमने और हमारी सरकारों ने पूरी तरह से बिसरा दिया, वह है 1992-93 के सांप्रदायिक दंगे। बम विस्फोटों के तीन महीने पहले पूरी मुंबई में सांप्रदायिक दंगे भी हुए, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे। जहां बम विस्फोट की घटना के बाद विशेष टाडा अदालत में इसकी सुनवाई हुई, वहीं उन दंगों के मामले में सरकार ने वैसी कोई सक्रियता नहीं दिखाई। अब जबकि मुंबई बम विस्फोटों पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया है। सभी आरोपियों को अदालत ने सजा सुना दी है, तब एक बार फिर मुंबई दंगा पीडि़तों ने श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट पर महाराष्ट्र सरकार से अमलदारी करने की मांग तेज कर दी है। मुंबई बम विस्फोटों पर मुस्तैदी से कार्रवाई और श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट जो कि 1998 में ही आ गई थी, उस पर सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं करना, क्या साबित करता है? रिपोर्ट को सरकारों द्वारा 15 साल से ठंडे बस्ते में डाल आखिर इंसाफ और कानून के किन तकाजों को पूरा किया जा रहा है? समझ से परे है। ऐसा लगता है मानो हमारे देश में दो कानून हैं जो आम लोगों के लिए अलग और फिरकापरस्तों के लिए बिल्कुल अलग हैं। दिसंबर 92 और जनवरी 93 में मुंबई में हुए भयानक दंगों के दागियों पर अभी तक कोई मुकदमा नहीं चलाया गया है। जबकि जस्टिस श्रीकृष्णा ने अपनी रिपोर्ट में सभी दोषियों को साफ-साफ तौर पर चिह्नित किया था। जांच के दौरान दंगों में उनकी संलिप्तता के ठोस सबूत हासिल हुए, फिर भी महाराष्ट्र सरकार अभी तक इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं दिखा पाई है। दोषियों को सजा दिलाने के लिए जो राजनीतिक इच्छाशक्ति होना चाहिए, वह सरकार में कहीं नजर नहीं आती।
गौरतलब है कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुंबई में मुसलमानों ने इस घटना का विरोध दर्ज करने के लिए एक रैली निकाली थी। शांतिपूर्ण ढंग से रैली निकाल रही जनता पर पुलिस ने अचानक फायरिंग कर दी। इस फायरिंग में डेढ़ दर्जन लोग मारे गए। घटना की प्रतिक्रिया में मुंबई में दंगे फैल गए। दंगों की कमान शिवसेना ने थाम ली और फिर राज्य में मार-काट का जो सिलसिला शुरू हुआ, यह तभी जाकर थमा जब मार्च में सीरियल बम विस्फोट हुए। बम विस्फोटों से सरकार की तंद्रा टूटती, तब तक दंगों में 2000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे। हजारों लोग जख्मी हुए और करोड़ों की जायदाद लूटकर तबाह कर दी गई। हजारों लोग इन दंगों में बेघर-बेरोजगार हो गए। दंगों की आग थमने के बाद जैसा कि सरकारें पहले भी करती आई हैं, दंगों की जांच के लिए पूर्व न्यायधीश जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा की अगुआई में एक जांच कमीशन बैठा दिया। जस्टिस श्रीकृष्णा ने कड़ी मेहनत और जांच के बाद अपनी रिपोर्ट 16 फरवरी 1998 को सौंप दी। राज्य में उस समय शिव सेना-भाजपा गठबंधन सरकार थी। मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने रिपोर्ट पर कोई कार्यवाही करना तो दूर, उसे हिंदू विरोधी बतलाकर ठंडे बस्ते में डाल दिया। इंसानियत विरोधी जोशी की इस करतूत से हालांकि उस समय पूरे देश में हंगामा तो हुआ, पर रिपोर्ट न तो सार्वजनिक हुई और न ही इस पर कोई कार्यवाही हुई। आखिरकार शिव सेना-बीजेपी सरकार के इस गैर जिम्मेदाराना रवैये के खिलाफ एक सामाजिक कार्यकर्ता आरिफ नसीम खान और मुंबई शहर के हजारों लोगों ने मिलकर 'श्रीकृष्णा कमीशन रिपोर्ट इंप्लीमेंटेशन एक्शन कमेटी' बनाई और हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर अपील की, श्रीकृष्णा कमीशन रिपोर्ट में जो लिखा गया है, उसे जनता को बताने की हिदायत सरकार को दी जाए। बहरहाल, हाईकोर्ट के आदेश पर ही यह रिपोर्ट सार्वजनिक हो पाई।
इसके बाद आरिफ नसीम खान और कमेटी इस रिपोर्ट पर अमल कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गए। अदालत ने याचिका की सुनवाई करते हुए महाराष्ट्र सरकार से श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट पर अभी तक क्या कार्यवाही हुई? इसका हलफनामा और जवाब दाखिल करने की हिदायत दी। महाराष्ट्र सरकार ने हलफनामा दाखिल करने में भी हीलाहवाली दिखलाई। जैसे-तैसे अदालत में यह हलफनामा दाखिल हुआ, तो उसमें भी सरकार ने जो दलील दी, वह बेहद गैरजिम्मेदाराना थी। तत्कालीन कांग्रेस, एनसीपी गठबंधन सरकार ने बड़ी बेहयाई से कहा कि अगर दंगों के मुजरिमों पर कार्यवाई की गई, तो शहर में तनाव फैल जाएगा और एक बार फिर सांप्रदायिक धुव्रीकरण तेज होगा। यानी दंगों के गुनहगार शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे और उनकी दंगाई सेना के खिलाफ सरकार कोई कार्यवाही करती है तो शहर की सुख-शांति में खलल पड़ेगा।
जस्टिस श्रीकृष्णा ने अपनी रिपोर्ट में दंगों के लिए शिवसेना चीफ बाल ठाकरे, उनके चहेते मनोहर जोशी, मधुकर सरपोद्दार, गजन कृतिकार, शिवसेना के प्रमुख अखबार सामना इसके अलावा एक और मराठी अखबार नवाकाल और 31 पुलिस वालों को जिम्मेदार करार देते हुए कहा था कि दंगों से संबंधित कम से कम 1371 मामले फिर से खोले जाएं और मुल्जिमों के खिलाफ मुकदमे चलवाकर सख्त कार्रवाई की जाए। रिपोर्ट में आयोग ने पुलिस की भूमिका को भी शक के दायरे में लिया है। आयोग का कहना था कि यदि पुलिस ने कानून के दायरे में काम किया होता, तो दंगों पर काबू पाया जा सकता था। रिपोर्ट में तमाम दोषी पाए गए पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की सिफारिश की गई थी। आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक दंगों का ज्यादातर मामला 15 दिसंबर 1992 और 5 जनवरी 1993 के बीच हुआ। लेकिन बड़े पैमाने पर दंगे 6 जनवरी 1993 से भड़के, जब संघ परिवार और शिव सेना ने बड़े पैमाने पर मुसलमानों के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू किया। और उस मुहिम में शिवसेना के प्रमुख पत्र सामना और नवाकाल अखबारों ने प्रमुख भूमिका निभाई। रिपोर्ट में खास तौर पर बाल ठाकरे, मनोहर जोशी और मधुकर सरपोद्दार का जिक्र किया गया था। जिन्होंने धार्मिक भावनाएं भड़काने में मुख्य भूमिका निभाई।
रिपोर्ट में सांप्रदायिक संगठनों, नेताओं की भूमिका का तो खुलासा हुआ ही है, साथ ही मुंबई पुलिस पर भी संगीन आरोप लगाए गए हैं। मुंबई दंगों में महाराष्ट्र पुलिस का सांप्रदायिक चेहरा खुलकर उजागर हुआ था। एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया, द पीपुल्स वरडिक्ट की रिपोर्टों ने उस समय खुलासा किया था कि दंगों में पुलिस की भूमिका काफी पक्षपातपूर्ण थी। मुंबई में पहले दौर के दंगे यानी दिसंबर 1992 में पुलिस गोलीबारी से ज्यादातर मुसलमान मारे गए थे। पोस्टमार्टम की रिपोर्टें दर्शाती हैं कि 250 लोगों में से 192 शख्स पुलिस गोलीबारी में मरे और उनमें से 95 फीसदी लोगों के पेट के ऊपर गोली लगी। पुलिस ने सीने पर गोलियां चलाई। जबकि उन्हें सख्त हिदायत है कि दंगा होने और जरूरत पडऩे पर फायरिंग जिस्म के निचले हिस्सों पर ही की जाए। जाहिर है पुलिस का इरादा दंगों को रोकने का न होकर कत्ले-आम करने का ज्यादा था। श्रीकृष्णा आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में मुंबई पुलिस पर संगीन आरोप लगाए थे। खुद मुंबई के तत्कालीन पुलिस आयुक्त आरडी त्यागी पर भी गैर जरूरी और बहुत अधिक गोलीबारी करने का इल्जाम है। दंगों के दौरान पुलिस कितनी वहशी हो गई थी, इसका अंदाजा चर्चित हरी मस्जिद मामले से लगाया जा सकता है। हरी मस्जिद में पुलिस की गोलीबारी से उस वक्त 6 बेगुनाह नमाजी मारे गए थे। जस्टिस श्रीकृष्णा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में हरी मस्जिद मामले में पुलिस को दोषी करार दिया था और दंगों के तमाम दोषी पाए गए पुलिस अधिकारियों और सिपाहियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की सिफारिश की थी। लेकिन अब तक सिर्फ एक पुलिस अफसर को बर्खास्त किया गया है।
दंगों के दौरान पुलिस की कार्यपद्धति से नाखुश जस्टिस श्रीकृष्णा ने रिपोर्ट में 25 सिफारिशें, तो राज्य पुलिस बल की कार्यक्षमता और छवि सुधारने पर ही केंद्रित की थीं। जस्टिस श्रीकृष्णा ने बाद में एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि "अगर पुलिस ने मामले के सही दस्तावेज तैयार किए होते, तो उसे यकीनी माना जा सकता था। लेकिन पुलिस रिपोर्ट और गवाहों के बयान में काफी विरोधाभास पाया गया। जाहिर है जब संरक्षक खुद ही भेदभाव से काम लें, तो हालात और भी खराब हो जाते हैं। जांच के दौरान महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से लेकर कांस्टेबल तक भेदभाव का शिकार नजर आया। लेकिन जो कुछ भी मैंने पाया अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ दर्ज किया।" रिपोर्ट में राज्य के नेताओं और पुलिस अधिकारियों के जरिए अलग-अलग आदेश किए जाने को भी दंगों की प्रमुख वजह बतलाया गया था। यानी रिपोर्ट सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाती है। यदि तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने सही समय पर कारगर कदम उठाए होते तो दंगों पर काबू पाया जा सकता था।
दंगों में शिव सेना की भूमिका खुलकर सामने आई थी। शिव सेना के मधुकर सरपोद्दार को दंगों के दौरान फौजियों ने एक जीप के साथ पकड़ा था। जीप में असलहो बरामद हुए। फौज ने तुरंत उन्हें पकड़कर मुंबई पुलिस के हवाले कर दिया। मगर पुलिस ने उन्हें थाने से ही छोड़ दिया। पुख्ता सबूत होने के बाद भी उनके खिलाफ टाडा तो क्या, आर्म्स एक्ट का मुकदमा भी दर्ज नहीं किया गया। जाहिर है जब सारी मुंबई दंगों की आग में जल रही थी, ऐसे में शिवसेना सांसद मधुकर सरपोद्दार का जुर्म काफी संगीन था और उन पर तुरंत कार्रवाई की जानी चाहिए थी लेकिन मुंबई पुलिस ने सरपोद्दार पर कोई कार्रवाई नहीं की। दूसरी ओर फिल्म अभिनेता संजय दत्त का मामला है, जिन्हें महज एक हथियार की बरामदगी पर टाडा अदालत ने छह साल और सुप्रीम कोर्ट ने पांच साल की सजा सुना दी। जबकि संजय दत्त ने किस हालात में अपने पास हथियार रखा इस बात पर कोर्ट ने कतई गौर नहीं किया। दंगों के दौरान संजय दत्त और उनके पिता सुनील दत्त को जो उस वक्त कांग्रेस के सांसद थे, बराबर धमकियां मिल रही थीं। दंगाई सुनील दत्त को मुसलमानों का हमदर्द मानते थे। वहीं पुलिस दंगाईयों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही थी। ऐसे हालात में संजय दत्त का अपने परिवार की सुरक्षा के लिए हथियार रखना, उन्हें दोषियों की कतार में ला देता है। वहीं दंगों के लिए हथियारों का जखीरा ले जाने वाले शिव सेना के नेता मधुकर सरपोद्दार पर मुंबई की एक अदालत ने सोलह साल बाद दंगों का दोषी ठहराते हुए सिर्फ एक साल की कैद और पांच हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई। जाहिर है एक ही जुर्म के लिए सरकार और अदालतें अलग-अलग सजाएं कर रहीं हैं।
दरअसल, हमारे देश में सरकारों ने सांप्रदायिक दंगों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। दंगों के आरोपियों को कभी कठोर सजाएं और जुर्माने नहीं हुए। जिसके चलते दंगाईयों को कानून का कोई डर नहीं सताता। फिर दोषियों को सजा दिलवाने में हमारी लचर कानून व्यवस्था भी आड़े आती है। दंगा पीडि़तों को सालों में जाकर इंसाफ मिल पाता है। दंगाईयों को सजा दिलवाना कितना मुश्किल है, यह महज एक उदाहरण मेरठ के हाशिमपुरा हत्याकांड से जाना जा सकता है। जिसमें मेरठ दंगे के दौरान पीएसी के जवानों ने 50 मुसलमानों को गिरफ्तार कर उनका कत्ल कर हिंडन नहर में बहा दिया था। मामला खुला तो केस कोर्ट में चला गया। मगर विडंबना की बात यह है कि घटना के ढाई दशक बाद भी आरोपी जेल की सलाखों के पीछे नहीं जा पाए हैं। 1984 के सिख विरोधी दंगों, बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उसके बाद हुए दंगे, 2002 के गुजरात में जघन्यतम दंगों के दोषियों पर कितनी कार्रवाई, कितनी सजाएं हुईं? सभी जानते हैं। यदि दंगाईयों पर धर्म-जाति से ऊपर उठकर कानून अपना काम करता तो देश के सामने एक अच्छा उदाहरण होता और दंगाई फिर कभी कानून तोडऩे से कतराते, मगर सरकारों की हीलाहवाली के चलते हमेशा आरोपी या तो सजा से बच जाते हैं, या फिर जब उनको कोई सजा सुनाई जाती है, तब तक बहुत देर हो जाती है।
कुल मिलाकर जस्टिस श्रीकृष्णा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में दागियों की साफ तौर पर निशानदेही की थी। जांच के दौरान दंगों में उनके शामिल होने के ठोस सबूत हासिल हुए थे। फिर भी महाराष्ट्र सरकार 15 साल से यह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाले हुए है। जब भी इस रिपोर्ट पर अमल करने की बात उठती है, सरकार दिखावे के लिए थोड़ी-बहुत कवायद करती है और उसके बाद फिर भूल जाती है। 2004 एवं 2009 के लोकसभा और उसके बाद में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी हर बार अपने चुनावी घोषणा पत्र में राज्य के मुसलमानों से वादा करती है कि वे दोबारा सत्ता में लौटे, तो श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट को लागू करेंगे। लेकिन 15 साल होने को आये, इस रिपोर्ट पर अमल करने की राह में दोनों ही पार्टियों ने कोई कारगर कदम नहीं उठाया है। दंगा पीडि़तों को इंसाफ और गुनहगारों को सजा मिले, यह कहीं से भी उनकी प्राथमिकता में नहीं। बल्कि अभी तक की उसकी जो कारगुजारियां रही हैं, वह गुनहगारों को सजा दिलवाने से ज्यादा उन्हें बचाने की है। ऐसे में आखिरी उम्मीद, देश की न्यायपालिका से ही जाकर बंधती है। मुंबई बम विस्फोटों के मामले में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट से पीडि़तों को इंसाफ मिला है, ठीक उसी तरह एक दिन दंगा पीडि़तों को भी इंसाफ मिलेगा।
http://www.samayantar.com/what-happened-to-shri-krishna-commission-report/
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महिला उत्पीडऩ : देश का शासक कौन है जनप्रतिनिधि या सेना
Author: समयांतर डैस्क Edition : April 2013
वाल्टर फर्नांडीसआखिर एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ने आधिकारिक रूप से वही कहा जिसे बहुत सारे लोग पहले से जानते थे। यहां तक कि सरकार सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) को कुछ मानवीय भी नहीं बना सकती क्योंकि सेना नहीं चाहती कि इसे लचीला बनाया जाए, निरस्त करने की बात तो भूल जाओ। छह फरवरी 2013 को रक्षा अध्ययन संस्थान में के. सुब्रमण्यम स्मारक व्याख्यान में पी. चिदंबरम ने कहा, "हम आगे नहीं बढ़ सकते क्योंकि इस पर आम सहमति नहीं है। वर्तमान और पूर्व सेना प्रमुखों ने कड़ा रुख अख्तियार कर रखा है कि कानून को संशोधित नहीं किया जाना चाहिए और वे नहीं चाहते कि सरकारी अध्यादेश वापस लिया जाए। सरकार एएफएसपीए को अधिक मानवीय कानून कैसे बना सकता है?" (द हिंदू, 7 फरवरी 2013)।
पहला सवाल जो इससे पैदा होता है : "भारत पर कौन शासन कर रहा है : चुने हुए प्रतिनिधि या सेना?" दूसरा सवाल यह है, "इस कानून को अधिक मानवीय बनाने के लिए इसमें बदलाव करने का सेना क्यों विरोध कर रही है?" जस्टिस वर्मा आयोग ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि वे सुरक्षा कर्मी जो किसी महिला का बलात्कार करते हैं उन पर वही कानून लागू होना चाहिए जो कि किसी अन्य नागरिक पर लागू होता है। दूसरों ने भी यही पक्ष रखा। सन् 2005 में जीवन रेड्डी आयोग ने कहा कि एएफएसपीए को निरस्त किया जाना चाहिए और जो जरूरी धाराएं हैं उन्हें अन्य कानूनों में शामिल किया जाना चाहिए। पूर्वोत्तर के लिए खुफिया ब्यूरो के पूर्व प्रमुख आरएन रवि ने प्रमाणिक तौर पर कहा कि क्षेत्र में शांति के लिए एएफएसपीए सबसे बड़ा अवरोधक है। पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई तो खुलेआम इस कानून के खिलाफ सामने आए थे। ये वक्तव्य भावनात्मक विस्फोट नहीं हैं। ये उन लोगों के बयान हैं जो व्यवस्था का हिस्सा रह चुके हैं और कानून की गति तथा सरकार के संचालन को जानते हैं।
लेकिन सेना इस बदलाव का भी विरोध कर रही है। उनकी इस सोच का क्या तार्किक आधार है कि सुरक्षाकर्मी जो मासूम महिलाओं का बलात्कार करते हैं वो देश की सुरक्षा के नाम पर दंड से मुक्त रहें? ये कानून किसकी सुरक्षा के लिए बनाया गया है, देश के लिए या वर्दी में अपराधियों के लिए? जब भी कानून में कुछ बदलाव का सुझाव दिया जाता है तो सेना इसका विरोध करती प्रतीत होती है और नागरिक सरकार उसके दबाव में झुक जाती है। उदाहरण के लिए, मणिपुर में इंफाल की रहने वाली 30 वर्षीय मनोरमा देवी की हत्या और कथित बलात्कार के मामले की जांच के लिए जीवन रेड्डी आयोग गठित किया गया था। मनोरमा देवी को असम राइफल्स ने गिरफ्तार किया था। आयोग ने सुझाव दिया कि कानून को निरस्त कर दिया जाना चाहिए और जो धाराएं जरूरी हैं उन्हें अन्य अखिल भारतीय कानूनों के साथ जोड़ दिया जाना चाहिए। सरकार ने रिपोर्ट प्रकाशित ही नहीं की। द हिंदू अखबार ने इसे 'अवैध' रूप से प्राप्त किया और अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर दिया। वर्मा आयोग की रिपोर्ट के बाद, जिसमें कहा गया है कि जिन सुरक्षाकर्मियों ने महिलाओं का बलात्कार किया है उन पर नागरिक कानून के तहत मुकदमा चलाया जाना चाहिए, केंद्रीय कानून मंत्री ने एनडीटीवी से एक साक्षात्कार में कहा कि इन सुझावों को लागू करने में दिक्कतें हैं। टीवी पर एक बहस के दौरान एक अन्य केंद्रीय मंत्री ने कहा कि इसकी धीमी कानूनी प्रक्रिया के कारण जनता नहीं जान पाती कि सेना द्वारा क्या सजा दी गई है। वे लगाए गए प्रतिबंधों या उठाए गए कानूनी कदम को स्पष्ट नहीं करते। रिकॉर्डों की छानबीन से पता चला है कि चंद ही मामलों की सुनवाई हुई है, किसी प्रकार की सजा तो बहुत दूर की बात है। उदाहरण के लिए, मनोरमा देवी के केस में कोई कदम नहीं उठाया गया। कोकराझार, असम में 23 दिसंबर 2005 को विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का एक दल एक ट्रेन के कंपार्टमेंट में चढ़ गया। उन्हें मालूम नहीं था कि इसमें हरियाणा के सशस्त्र सुरक्षा जवान यात्रा कर रहे थे। जवानों ने दरवाजा बंद किया और छेड़छाड़ करने की कोशिश की। विद्यार्थियों के शोर मचाने के कारण सतर्क हुए बोडो छात्र संघ ने रेलगाड़ी रुकवा दी और जवानों के खिलाफ कार्रवाई करने की कोशिश की। पुलिस ने छात्रों पर फायरिंग शुरू कर दी और चार छात्रों की मृत्यु हो गई। आज तक इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की गई। ऐसी कितनी ही घटनाओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें या तो रिपोर्ट ही दर्ज नहीं हुई या फिर मामला रफा-दफा कर दिया गया। असम में हाल में हुए एक मामले में स्थानीय लोगों ने एक जवान को पकड़ा और सेना ने वादा किया कि उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। उसे तीन महीने जेल में डाला गया। जम्मू -कश्मीर में लोग बहुत-सी महिलाओं के विषय में बताते हैं जिन्हें सशस्त्र बलों ने शीलभंग किया, किंतु किसी को सजा नहीं मिली। इसलिए वे महिलाएं शर्मिंदगी के भाव के साथ जी रही हैं। उनमें से कुछ ने वर्मा आयोग के सम्मुख प्रमाण प्रस्तुत किए। वर्मा आयोग के सुझाव उनके प्रमाणों पर ही आधारित हैं। यह भी बताया गया कि इसमें सेना का सम्मान शामिल है और देश की सुरक्षा को इस कानून की आवश्यकता है। बलात्कार के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं करना सेना के सम्मान को कैसे बचा सकता है?
यहां तक कि सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी एएफएसपीए पर सवाल किया जा सकता है। इस कानून को पूर्वोत्तर में 'आतंकवादी' समूहों के खिलाफ उपाय के तौर पर छह महीनों के लिए प्रयोगात्मक रूप में 1958 में बनाया गया था। सबसे पहले इसे नागालैंड में लागू किया गया। सन् 1980 में मणिपुर में, इसके बाद जम्मू-कश्मीर में और इन दशकों के दौरान पूर्वोत्तर के बहुत सारे क्षेत्रों में। जिसे छह महीनों के लिए बनाया गया था वह पांच दशकों से भी अधिक समय से बना हुआ है। सन् 1958 में पूर्वोत्तर में एक 'आतंकवादी' समूह था। मणिपुर में दो समूह थे जब राज्य को इस कानून के तहत लाया गया। आज मणिपुर में इस तरह के बीस समूह हैं। असम में पंद्रह से कम नहीं हैं। मेघालय में पांच हैं और अन्य राज्यों में बहुत सारे समूह हैं। कानून के बावजूद उग्रवादी समूहों के इस प्रसार की सेना क्या सफाई देगी? क्या उसने अपने उद्देश्य को पूरा किया?
यह भी बताया गया कि अगर इस कानून को निरस्त किया गया तो सेना पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर में नहीं रह पाएगी। यह एक झूठ है। सेना पूरे भारत में इस कानून के बिना ही तैनात है। जो इस कानून को रद्द करना चाहते हैं वे सेना को किसी क्षेत्र को छोडऩे के लिए नहीं कह रहे हैं। वे बस इतना चाहते हैं कि सशस्त्र बल देश की सेवा इस कानून के बिना, जो कि दुव्र्यवहार को बिना दंड के अनुमति प्रदान करता है, संविधान के तहत रहकर करें। यह कोई कारण तो नहीं है कि एक बलात्कारी या खूनी के लिए मात्र इस वजह से अलग कानून होना चाहिए क्योंकि वह सशस्त्र बलों से है। एक क्षण को मान लीजिए कि उन्होंने जितनी भी महिलाओं का बलात्कार किया है वे सब आतंकवादी हैं, तो उनका बलात्कार क्यों होना चाहिए? उनके साथ देश के कानून के तहत व्यवहार क्यों नहीं किया जा सकता? यह बर्ताव किसी भी प्रकार से सशस्त्र बलों के सम्मान या भारत की सुरक्षा में कोई इजाफा नहीं करता। वे केवल लोगों के सम्मान से जीने के अधिकार को खत्म करते हैं और इनको (ऐसे बर्तावों को) एक लोकतांत्रिक देश में किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।
देश के शासन के लिए नागरिकों का चुनाव किया जाता है। यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे यह सुनिश्चित करें कि सुरक्षा बल संविधान के तहत काम करें। पूर्वोत्तर और कश्मीर में जो समस्याएं हैं उनका समाधान राजनीतिक प्रक्रिया के जरिए ढूंढा जाना चाहिए, न कि एक ऐसे कानून के जरिए जो कि लोगों के जीवन और सम्मान के अधिकार का हनन करता है और फिर भी दंड से बचा रहता है। उन्हें विश्वास बहाली के उपायों (सीबीएम) को अपनाने की आवश्यकता है ताकि शांति और न्याय की ओर बढ़ा जा सके। और एएफएसपीए को निरस्त करने से अधिक उत्तम कौन-सा विश्वास बहाली का उपाय हो सकता है?
अनु.: उषा चौहान
http://www.samayantar.com/who-runs-our-country-army-or-elected-govt/
Sudha Rajeposted toPalash Biswas
20-11-2013
खुला प्रार्थना पत्र
----———सेवा में
महामहिम राष्ट्राध्यक्ष महोदय
भारत संघ।
राज्यपाल महोदय उत्तरप्रदेश
__________द्वारा---
प्रधानमंत्री महोदय
केंद्रीय कृषिमंत्री महोदय
कृषि राज्य मंत्री महोदय उत्तरप्रदेश
मुख्यमंत्री महोदय उत्तरप्रदेश
विषय --गन्ने की खेतों में खङी फसल
और मिलों की पेराई ना चालू करने की घोषणा ।और संकट में गेंहू की फसल भी और किसान की बरबादी के आसार
माननीय
!!!!!!!!!!!!!
हम सब पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसान । जो अधिकतर दुरूह यातायात वाले इलाकों में रहते हैं । जहाँ आज भी बिजली पानी सङक अस्पताल प्रसव केंद्र और कॉलेज डाकघर दूर ही होते हैं या नहीं होते । हम किसान अधिकतर कच्चे घरों में और कुछ मामूली पक्के परंतु अपर्याप्त सुविधा वाले घरों में रहते है । एक कृषक परिवार में औसत दस व्यक्ति शामिल होते हैं । और चार पशु । हमारी जमीने जंगलों में होती हैं जहाँ अक्सर हाथी साँप अजगर भेङिये नीलगाय लंगूर बंदर गुलदार और संरक्षित बाघ तक आ जाते है। जहाँ कीचङ है और काँटे है । ऐसी दुरूह जगहों पर हम सुबह सूर्योदय से पहले से जाकर रात होने तक हाङ तोङ पसीने से लथ पथ बारहों महीने हर मौसम में धूप वर्षा सरदी पाला ओंस गरमी लू शीतलहर सब को झेलते हुये काम करते हैं । पुरखों से मिली जमीनें बँटते बँटते अब छोटे छोटे टुकङे बचे हैं । बाढ़ और सूखा । औला और हिमपात की भी लङाई हम अकसर ही झेलते हैं।पहले हम साहूकारों से घर जेवर गिरवी रखकर लोन कर्ज सूद ब्याज पर लेते थे । फिर बैंक से कृषिभूमि गिरवी रखकर लोन कर्ज लेने लगे । करजे का चक्कर सा ही चलता है जो एक बार चलता है तो फिर कभी बंद ही नहीं होता । बाबा ने कर्जा लिया तो हम पोतों तक चक्रव्यूह जारी है ।पिछला ब्याज और मूलधन जमा करने के बाद हमारे पास बचता ही क्या है जो हम किसी दम पर अगली फसल बो ले??? इसलिये पिछला कर्ज जमा करके नया कर्ज उठाकर खेती करते रहना हमारी विवशता है। हमारा बैल कर्ज से आया और बीज भी कर्ज से आया खाद भी कर्ज से आयी और कीटनाशक दवाईयाँ भी । कृशि के करने के लिये तमाम हल खुरपे फावङे दराँती पंचा पचा थ्रेसर बखर पटेला नाल कुदाल गेंती गँडासा कुल्हाङी मूसर कोल्हू कंटर ओखली बिरबार बरमा सब्बल हँसिया पहसुल और इनकी पजाई धार धराई बेंट डलाई में लगता पैसा भी कर्ज से चलता है । हम लगातार कर्ज में ही रहते हैं । बहुत कम किसान ऐसे है जो ट्रेक्टर वाले हैं । सो भी एक ट्रैक्टर में पाँच से सात भाईयों तक का हिस्सा होता है। जो किसान होता है वह और कुछ भी नहीं हो पाता इस क्षेत्र की खेती कठिन है क्योंकि दुरगम जगहों पर खेत हैं जहाँ खेत के करीब तक बने हुये मार्ग नहीं है । हम किसानों में अकसर बोलचाल विवाद भी इसीलिये हो जाते है कि मेरे तेरे खेत से बैलगाङी या भैंसा बुग्गी क्यों निकाली । हम सब किसानों के पास तो भैंसा बुग्गी भी नहीं होती । वह भी करज् पर खरीदी जाती है और दस में से सात किसान बिना बैलगाङी वाले हें जो अपने पङौसी की बुग्गी बैलगाङी या ट्रैक्टर उधार के वादे पर चलाते है और जुताई निराई के हल बखर कल्टीवेटर थ्रेसर स्पेलर पर भी काम उधारी कर्जे से होता है । माननीय!!!!!! ★ये कर्ज हमें बनिया के राशन और दवाई पढ़ाई कपङा बरतन सब पर लेना होता है। ★ये कर्ज मिलता इस भरोसे विश्वास आशा उम्मीद पर है कि ★*फसल आते ही सबको ब्याज सहित कर्ज अदा कर दिया जायेगा। किसान कर्ज हर हाल में चुकायेगा ।बहिन के घर भातमायरा ससुराल में शादी । बेटी का ब्याह बेटे की फीस बीबी की दवाई पिता का इलाज माता का अंतिम संस्कार पङौस के जलसों का व्यवहार तोहफा और मकान की मरम्मत सब पेट की रोटी बदन की धोती सब इसी कर्जे से चलता है। एक शहरी नौकरीपेशा बँधी तनख्वाह वाला आदमी निश्चिंत होता है कि पहली ताऱीख को तनखाह मिलेगी और रिटायरमेंट पर पेंशन । हम किसान हर समय दुआ और डर के साथ रहते हैं हमारा भाग्य तो आधा मौसम और आधा कीङों मकोङों जानवरो मिलमालिकों नेता मंत्री और सरकारी गैर सरकारी बाबुओं के हाथों लिखा होता है । बीबी बच्चों बूढ़ो पशुओं समेत रात दिन हाङतोङ मेहनत करने के बाद। जब फसल पक कर खेत में खङी होती है तब हम सपरिवार सबकुछ भूलकर कटाई और मिल मंडी और काँटे तक पहुँचाने चोरों रिश्वतखोरों घटतौलियों जैसा कि खुद विगतवर्ष मुख्यमंत्री जी ने काँटा खुद तुलकर पकङा था । इन सबके बीच जूझते हैं क्योंकि महोदय हमारा धन सर्वस्व प्राण आत्मी जीवन तो पकी फसल के रूप में खुलेआम बिखरा रहता है । जिसे दुर्घटनाओं से बचाकर मिल पर पहुँचाकर हमारा मन शांत हो जाता है घङी भर को । तब भी ★हमारे माल का पैसा हमको तुरंत नहीं मिलता सरकार!! ★हमारा पैसा मिलवाले पूरा सत्र पेराई करते रहते है गन्ना हम ढो ढो कर मीलों दूर दराज से काँटों तक पहुँचाते है तौल क्लर्क घंटों खङा रखता है और अतिरिक्त तौल मारता है और वह अतिरिक्त तौल अपने खाते में पूलियाँ डलवाकर वसूलता है। बस यहीं तक ★हम अपनी फसल के मालिक रखवाले नौकर रहते हैं ★यहाँ से शुरू मिल वालों का चक्कर रहता है । वे लोग सबका मिलाकर अरबोंं रुपया बैंक में जमा रखते हैं जिसका करोङों रुपया ब्याज आता है और ये ब्याज किसान के लिये नहीं होता । वह तो मिल मालिक के लाभ में जाता है । हर पेमेंट रोककर देने से एक श्रंखला बनी रहती है जिसका ब्याज बराबर मिल वाले लेते रहते है मान लो एक किसान का औसतन तीन लाख एक साल बैंक में रहा तो अगले साल किसान के पेंमेंट दिया वह भी आठ दस किश्तों में अब किसान को एकमुश्त माल देते ही दाम मिलता तो यह ब्याज तीन लाख रुपया एक साल जमा रखने पर किसान को मिलता न??? सरकार? ★अब ये एक और भीषण संकट है कि रक़बे में अगर सब किसान गन्ना बो रहे हैं तो हमारी भी मजबूरी ही है कि गन्ना ही बोयें कियोंकि एक का खेत पच्चीस किसानों के बीचों बीच आ रहा होता है तो सात फीट उँची ईख के बीच मीलों दूर तक चलकर कोई अपने खेत तक कैसे हर दिन जाकर अलग तरह की फसल बोये ऱखवाली करे? इसलिये सब एक साथ बोते काटते है जंगलों में बिना हुजूम के औरतें ले कर बच्चे लेकर जाना भी खतरनाक है। हम सब ही अगर गन्ना बोना छोङ दें तो ही सब लोग बदल बदल कर फसल बो सकते हैं । हम भी बीमार होते है दर्द चोट घाव तकलीफें हमें भी होती हैं मगर हमें कोई सरकारी मेडिकल से दवा इलाज तो मिलना नहीं । ढुलाई नकद देनी होती है। मजदूरी दिन ढलते ही। ये पैसा आता है कर्ज से । सोचिये जरा हमारा पैसा मिलवालों के पास है औऱ वे कम से कम एक साल बाद देते है वह भी बिना ब्याज के जबकि हम सरकारी बैंक को ब्याज देते हैं साहूकार को ब्याज देते है बनिया औऱ सुनार को ब्याज देते हैं । तो मिल वाले जिस दिन काँटे पर गन्ना लेबें उसी दिन से जिस दिन पेंमेंट हमारे खाते में डालें तब तक का सरकारी बैंक रेट से ब्याज भी चुकाबें यही नियम बनाया जाये ।अब अगर खङी फसल पर मिल नहीं चली तो पक चुका गन्ना सूखने लगेगा । औऱ वजन कम होता जायेगा । गेंहूँ की फसल नहीं बोयेंगे तो भूखों मर जायेगे वही तो भरोसा है जिंदा रहने का । कि चलो मिल वाले जब तक पेमेंट नहीं देते तब तक खाना तो मिलेगा नमक रोटी माँड भात ये हाङ पेलने को कुछ पेट में तो चाहिये ही। ब्लैकमेलिंग है ये । क्योंकि लङकियों की शादियाँ तय हो चुकी हैं । बच्चों की परीक्षायें आने वाली हैं । हम पर हल बैल ट्रैक्टर खाद बीच कटाई नलाई सिंचाई इंजन डीजल यूरिया पोटाश फासफेट बोरिंग सबका कर्ज बढ़ रहा है। कहाँ से चुकायेगे??????????!?????? सरकारी बैंक तो एक नोटिस भेज देता है अगर कर्ज नहीं चुकाया तो जमीन कुर्की कर लेंगे?? मगर हम मिल वालों को कौन सा नोटिस भेजे कि पिछली रकम नहीं भेजी तो क्या कुरकी कर लेगें??? और मिल पेराई शुरू नहीं की तो बारह महीनों की आशा सपना उम्मीद जो कर्ज का कपङा पहने खङी है मर रही है पल पल क्या कर लेगें । अब तो खांडसारी गुङ रस के भी कोल्हू बंद पङे है वरना वहीं कुछ फसल बेचकर गेंहूँ तो बो लेते और मजदूरों ढुलाई वालो लङकी के ब्याह बहिन के भात बच्चों की फीस का कर्ज तो पटा लेते??? महोदय सियासत कोई करे इस इलाके का गन्ना किसान गरीबी सांप्रदायिकता और कर्ज से कतई नहीं बच पा रहा है । एक मास्टर क्लर्क और किसान के घर बारी बारी ।से जाईये अंदाजा लगाईये कि छोटे बङे सब कितनी मेहनत करते और क्या पहनते खाते देखते कैसे रहते हैं । एक भयंकर संकट मिलमालिकों ने किसानों के सामने खङा कर दिया है हम गंदे और कम पढ़े लिखे गरीब लोग न्याय की उम्मीद सुनवाई के इंतज़ार में हैं हमें नहीं पता कि सियासत क्या करेगी मिल और सरकार की मगर हम दहशत में हैं कि मिल नहीं चली तो क्या होगा पेमेंट नहीं मिला तो क्या होगा मँहगाई के हिसाब से लागत और अगली फसल के लिये बाज़िब दाम नहीं मिले तो क्या होगा ।
प्रार्थी समस्त अनपढ़ कम पढ़े लिखे ग्रामीण । और किसान मित्र भारतीय पश्चिमी उत्तरप्रदेश .
लेखिका सुधाराजे COPYRIGHT
©®™
SUDHA Raje
वास्ते कृषक ब्लॉक अल्हैपुर।उत्तरप्रदेश ।
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पाठकगण कृपया दरख्वास्त शेयर करते जायें ताकि किसानों के बारे में सबको पता चले
Feroze Mithiborwala
The Govt continues to target Reliance on the issue of the Krishna-Godavari Gas basin, by stopping the payment of $1.8 billion for 2012-13. This is not due to the fact that in the first place, Reliance was handed over the KG2BASIN on a free platter by the Govt, with much harm to our national exchequer. Its due to the fact that Mukesh Ambani has decided to support and fund Modi, as have many key and powerful corporates. The KG2BASIN should have been handed over to the NATIONAL PUBLIC SECTOR-ONGC & GAIL, but the Congress led Govt had chosen Reliance. There were massive kickbacks, petroleum ministers who challenged Reliance were changed overnight, the CM of Andhra, the late Rajshekar Reddy was murdered in a supposed helicopter crash. Its finally the Modi factor that has thrown up the possibility for the nationalisation of the KG2BASIN. Hopefully this will be the case.
Lenin Raghuvanshi
In the run up to assembly elections in the state of Madhya Pradesh, CRY- Child Rights and You and its state alliances, MPLSSM- Madhya Pradesh Lok Sangharsh Sajha Manch and Hifazat network, have released a white paper on the situation of children in the state.
The objective of this white paper is to highlight the gaps and create awareness among political parties and general public on the issues related to child rights so that these stakeholders give utmost important to children whose voices are rarely heard. CRY believes that elections are a crucial time for taking stock of our collective response to children's needs and for reaffirming or adjusting course to ensure we're doing the best we can to fulfill them.
http://mymplssm.blogspot.in/2013/11/blog-post_18.html
MPLSSM: प्रेस विज्ञप्ति - बाल अधिकार संगठनों द्वारा मध्यप्रदेष में बच्चों की स्थिति पर श्वेत...
मध्यप्रदेश लोक संघर्ष साझा मंच, Madhya Pradesh Lok Sangharsh Sajha Manch
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Shamshad Elahee Shams
देश की आजादी के बाद सबसे बड़े घपलो और घोटालों की सरकार द्वारा हजारो करोड़ रुपये के सट्टे के शिखर पर बैठे क्रिकेट "खेल" के एक खिलाड़ी को भारत रत्न देना उसकी तार्किक परिणिति है और मजबूरी भी. आप ऐसी व्यवस्था में मूल्यों की न तो उम्मीद रख सकते है, न ही उसके किसी स्वरूप के दर्शन होना संभव है. भारतीय पूंजी अब अपने नैतिक अवमूल्यन की परिकाष्ठा के अंतहीन सफर पर बेशर्मी के साथ चल पडी है..नरभक्षी मोदी की उम्मीदवारी, मुज़फ्फरनगर के दंगे, सुप्रीम कोर्ट के जज द्वारा महिला का यौन उत्पीडन, सचिन को नवरत्न (भारत रत्न) महज इसी प्रक्रिया की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं...
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H L Dusadh Dusadh
महिलाओं में उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिए :देना होगा सप्लाई में हिस्सेदारी
कल भारतीय इतिहास की सर्वाधिक सशक्त महिला इंदिरा गाँधी की ९६ वीं जयंती के दिन मुंबई में पीएम मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी ने भारतीय महिला बैंक (बीएमबी) की पहली शाखा का उद्घाटन किया.'महिला सशक्तिकरण,भारत का सशक्तिकरण 'की पंच लाइन के साथ शुरू हुआ महिला बैंक शहरी क्षेत्र में महिला उद्यमिता को बढ़ावा देने के साथ समाज के कमजोर वर्ग की महिलाओं को कम ब्याज दर पर क़र्ज़ देकर उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने पर ध्यान देगा.
मित्रों,अगर सरकार बीएमबी के द्वारा गरीब वर्ग की महिलाओं को कम ब्याज पर क़र्ज़ देकर उनमे उद्यमशीलता को बढ़ावा देने का मंसूबा पाल रही है तो उसके मंसूबों पर पानी फिरना तय है.कारण एक तो बैंकों से लोन पाने की प्रक्रिया काफी जटिल है.अगर अधिकारियों और दलालों को खुश कर किसी तरह लोन मिल भी जाये तथा उस पैसे से कोई छोटा-मोटा प्रोडक्शन का काम शुरू भी हो जाता तो असल समस्या सप्लाई में आएगी.दरअसल सरकार महिलाएं ही नहीं,दलित –आदिवासी-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में उद्यमशीलता को बढ़ावा देना चाहती है तो उसे इन वर्गों के लिए उनके उत्पाद की सप्लाई के लिए मार्किट सुनिश्चित करना होगा.अर्थात कानून बनाकर तमाम तरह की वस्तुओं की सप्लाई में इन वर्गों की हिस्सेदारी तय करनी होगी.क्योंकि भारत जैसे जातिवादी देश में सप्लाई पर सवर्ण पुरुषों का ८०-९०%कब्ज़ा है,वहां वंचित वर्गों की उद्यमशीलता में जीरो रहने का मुख्य कारण मार्किट में उनकी हिस्सेदारी तय न होना सबसे बड़ी समस्या है.यदि सप्लाई में इन वर्गों का शेयर तय हो जाय तो वे किसी न किसी न किसी तरह छोटा-मोटा उत्पादन का कार्य खुद ही शुरू कर लेंगे.बस उनके उत्पाद की खपत का कोई सुनिश्चित व्यवस्था हो जाय.अतः सरकार यदि गरीब वर्ग की महिलाओं के उद्यमिता को बढ़ावा देकर महिला सशक्तिकरण का लक्ष्य पाना चाहती है तो उसे सप्लाई में महिलाओं की हिस्सेदारी तय करने का ठोस उपाय करना होगा.बिना ऐसा किये बीएमबी महिला सशक्तिकरण के लिहाज़ से बस कागजों की शोभा बंक्कर रह जायेंगे.
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Status Update
By TaraChandra Tripathi
मूँछों की भूमि में
(1994-1998)
मेरे गुरु डा. विश्वंभरनाथ उपाध्याय इटावा के अधासी गाँव के निवासी थे। ठेठ ग्रामीण परिवेश में पलने के कारण उनमें अक्खड़पन था, तो हावी होने की प्रवृत्ति भी। आल्हा-ऊदल की भूमि का सत्व बारबार उनके वैचारिक धरातल पर छा जाता था। वे जब कभी भंग की गोली मुँह में रख कर मस्ती में आ जाते तो सस्वर आल्हखंड सुनाने लगते थे। बारबार सुनने से उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे भी याद हो गयीं। जब भी उपाध्याय जी याद आते हैं, स्मृति में उनकी गमक भरी आवाज में आल्हखंड गूँजने लगता है ।
जाकी लड़की सुन्दर देखें ता पर जाय धरें हथियार
फूँकि मढ़ैया दैं औरन की आपन लगन न देवें आग।
कल्ला कटिगे जिन घोड़न के भू पर गिरें करौंटा खाय।
कटि भुजदंडै रजपूतन की चेहरा कटे सिपाहिन क्यार।
आल्हखंड की भूमि बुन्देलखंड है। मैं इस क्षेत्र से अनेक बार गुजरा हूँ। भारत की एक मात्र साफ-सुथरी नदी चंबल के नीले और निर्मल जल में झलकते आकाश को देखा है। यह नदी जिन बीहड़ों से होकर गुजरती है, वह आज भी अभेद्य हैं। इन्हीं बीहड़ों में वे प्रतिशोधी उपजते हैं जिन्हें समाज दुर्दान्त दस्यु कहता है।
पुराण इसे राजा मुचकुन्द की भूमि कहते हैं। चंबल के तट पर उसका मंदिर है। मुचकुन्द एक परम शक्तिशाली राजा और एक ऐसा पौराणिक योद्धा है, जो देवासुर संग्राम में देवताओं की ओर से लड़ते-लड़ते इतना थक गया था कि उसने केवल महानिद्रा का वरदान माँगा। निवेदन किया कि जो भी उसे जगाने का प्रयास करे, वह उसके दृष्टिपात मात्र से भस्म हो जाय। कृष्ण के छल से वह एक बार जागा। जगाने वाला था जरासंध का सेनापति कालयवन। मुचकुन्द जागा। उसके दृष्टिपात मात्र से ही कालयवन भस्म हो गया। चंबल आज भी वहीं है। हर बार यहाँ मुचकुन्द जागते हैं। कभी उनका नाम मलखानसिंह होता है तो कभी ददुआ, कभी निर्भय गूजर, कभी मोहरसिंह कभी ....। फिर ये आज के नहीं हैं, बहुत पुराने हैं। हर्षवर्द्धन के राज्यकाल में चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग भी धौलपुर के पास ही लुटा था।
चंबल के लिए वे डकैत नहीं हैं, बागी हैं। बागी अर्थात् किसी सामाजिक या राजनीतिक उत्पीड़न के विरुद्ध शस्त्र उठाने वाले लोग। शास्त्र कुछ भी कहे, लोक में वे ऐसे वीर हैं, जो अपनी जान जोखिम में डाल कर बीहड़ का दुर्वह जीवन जीते हुए भी, उनके उत्पीड़न का प्रतिशोध लेते हैं। ऐसे लोग जो शरण में जाने पर समय-असमय उनकी सहायता करते हैं, निर्बल को नहीं सताते, शरणागत की रक्षा करते हैं, याचक को खाली हाथ नहीं लौटाते। भले ही बदलते युग के साथ इनके भी मूल्य बदले हैं, अपहरण, फिरौती, निरीहों की हत्या जैसे कांड करने, में भी ये पीछे नहीं हैं, फिर भी ग्रामसमाज पर इनका भारी दबदबा है। विश्वास है तो यह लोक है, विश्वासघात है तो परलोक दूर नहीं है। राजकीय अभिलेखों में दुर्दान्त दस्यु के रूप में दिखाई देने वाले ये लोग सामान्यतः अपने-अपने क्षेत्रों की लोककथाओं और लोकगाथाओं में नायक की भूमिका में ही दिखते हैं। फिर, इनके जन-प्रभाव को देख कर राजनीति भी इनकी शरण में चली जाती है। इसीलिए बिना सुदृढ़ दुर्ग के भी ये अदृश्य सदृढ़ दुर्गों में दिखाई देते है।
चंबल और उसकी अनेक सहायक नदियाँ अपने यत्र-तत्र झाड़ियों से लदे-फँदे, भूरे और मटमैले हजारों परतों में ढले कटे-फटे दीन-हीन खादरों के साथ आज भी वहीं है। न सड़कें हैं, न पुल, न कृषियोग उपयुक्त भूमि। जो है भी, उसके वितरण में भी भीषण असमानता है। हर बार किसी न किसी के पदाघात से यहाँ मुचकुन्द जागते हैं। कभी इन्हें, अपने प्रकोप से सूखा और अकाल जगाता है तो कभी अपनी मनमानी से न चूकने वाले स्थानीय प्रमुखों की दबंगई। अधिकतर जाति-समूहों के बीच आपसी रंजिश, अंधा और उत्पीडक पुलिस प्रशासन और लचर न्याय-व्यवस्था और अब राजनीतिक दलों का संरक्षण भी। परिणामतः हर साल इन बागियों की पौध चंबल में उगती रहती है। चंबल की सारी संस्कृति सशस्त्र प्रतिशोध की संस्कृति बन कर रह गयी है।
विश्व जिसे सामन्तवाद कहता है, उसका आरंभ भी इन्हीं बागियों के बीच द्वन्द्व से हुआ है। बागी या न्याय.व्यवस्था और प्रशासन को चुनौती देने वाला, मारधाड़, हत्या, अपहरण और लूटपाट से अपने तथाकथित शत्रुओं को त्रस्त करने वाला। अतीत में ऐसे ही बागियों ने अपने क्षेत्रीय गुट बना कर अपनी शक्ति और प्रभाव.क्षेत्र का विस्तार किया। इनमें से कुछ जन सामान्य के लिए आतंक के पर्याय भी रहे। जनसमुदायों ने शान्ति और सुरक्षा के लिए इनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया और प्रजा बन गये। जैसे-जैसे एक बागी दूसरे बागियों से अधिक शक्तिशाली होता गया, उसके प्रभाव के हिसाब से उसका नामकरण होता चला गया। ठाकुर, राजा, महाराजा, अधिराट, सम्राट् आदि-आदि। इतिहास बनता चला गया। अधिक सुविधा पाने और जनता पर भी अपना दबदबा बनाये रखने के लिए चाटुकार उनकी प्रशंसा करते चले गये, उन्हें धरती पर ईश्वर का अवतार ही नहीं, साक्षात् ईश्वर तक कहा जाने लगा।
सामन्त और चाटुकारों का एक गुट बन गया। जो अपनी तलवार के बल पर हावी था, वह ठाकुर और जो अपनी बुद्धि के बल पर हावी था, वह ब्राह्मण कहलाने लगा। हर देश और हर भाषा में इनके नाम भले ही अलगअलग हों, तात्विक दृष्टि से इनमें कोई अन्तर नहीं था। आज भी जो अपने बाहुबल पर हावी है, वह नेता और जो अपनी बुद्धि के बल पर हावी है, वह प्रशासक है। सत्ता का सारा खेल इन दोनों की सुविधा के लिए ही चलता रहता है। बागी या डकैत तो हमें साफ दिखाई देते हैं पर इन सफेदपोशों की वास्तविकता बहुत देर से समझ में आती है। भाषा और लोक इनकी वास्तविकता से परिचित न हों, ऐसा नहीं है। सामन्त शब्द का अर्थ ही उत्पीड़क है। तुलसी ने भी रावण को सामन्त कहा है। अंग्रेजी में 'फ्यू" शब्द का अर्थ ही द्वन्द्व है। परस्पर वर्चस्व या मूछों के लिए टक्कर।
राजस्थान में मेरी पैठ मुख्यतः धौलपुर, वनस्थली, अलवर तक ही रही है। अवसर पाकर जयपुर, अजमेर, पुष्कर भी गया हूँ । इनमें धौलपुर जलवायु की दृष्टि से सर्वाधिक उग्र है। जैसे उसकी इस उग्रता ने राजस्थान में अन्यत्र श्वेत.श्याम दिखाई देने वाले संगमर्मर को तपातपा कर यहाँ रतनार बना दिया हो। इतनी भीषण गर्मी, टूटीफूटी सड़कें, कीचड़ भरी नालियाँ, सड़कों के किनारे मलमूत्र त्याग करते बच्चे, घावों से भरी देह वाले श्वान और क्षयग्रस्त श्रमिक महिलाएँ। लगता था, कहाँ आ गये हम। क्या यही नरक है?
आम आदमी के इस नरक के किनारे शासकों के विलासभवन हैं, अनेक छतरियों से अलंकृत मानव निर्मित विशाल सरोवर हैं, मृगया हेतु मृगविहार हैं। जैसे एक ही स्थान पर स्वर्ग और नरक दोनों आमने हों। मानचित्र में भी इसकी अवस्थिति ऐसी लगती है कि जैसे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ने राजस्थान का गला पकड़ रखा हो। इधर आगरा का पागलखाना और उधर भिंड और मुरैना के दुर्दान्त दस्यु।
मेरी पुत्री कल्पना की नियुक्ति धौलपुर के राजकीय महाविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में हुई थी। एक तो उच्च शिक्षा, राजकीय पद और उस पर भी लोक सेवा आयोग द्वारा नियुक्ति...। मरकट मूँठ छाँड़ि नहिं दीन्ही, घरघर द्वार फिर्यो। बस में नींद के झौंके भी आते तो स्वप्न में फूलन देवी का क्रोध से तमतमाया हुआ चेहरा दिखता। गीत के बोल भी याद आते थे तो वे भी लता जी के 'खुश रहना देश के प्यारो अब हम तो सफर करते हैं।'
पहली बार वनस्थली से लगभग चार सौ कि.मी. की यात्रा कर साँझ ढले धौलपुर पहुँचा। बस में जब भी झपकी आती, कभी मलखानसिंह का चेहरा सामने आता तो कभी जग्गा डाकू का। कभी ऐसी ही फिल्मों में देखे उनके लोमहर्षक कांड दिखाई देते। कभी समाचार पत्रों में छपा उनका चित्र सामने आ जाता। फिर सोचता कहीं उच्च शिक्षा में नियुक्ति के लोभ में मैंने अपनी पुत्री की बलि तो नहीं दे दी है? कभीकभी दशरथ की तरह अपराध बोध भी सिर उठाने लगाता।
अतीत की खोज में अपने अंचल में भी बहुत भटका था। तब न 'भालु बाघ वृक केहरि नागा' का इतना भय था न बाद में तराई में पनपे आतंकवाद का। किसी भी गाँव में 'ठौ बा्स देला हो?'( रहने की जगह देंगे क्या?) अनुरोध करने पर किसी भी घर में आश्रय मिल जाता था। असन भी और आसन भी। लेकिन यह तो सर्वाधिक अपरिचित स्थान था। चिन्ता असन की उतनी नहीं थी जितनी कि आसन की। माया.मोह से मुक्त कर दिये जाने का डर अलग था।
संयोग से बस में बगल में बैठे सहयात्री धौलपुर के महाविद्यालय के कर्मियों को जानते थे। उनको उक्त विद्यालय के एक प्रवक्ता श्री राजेन्द्र कुमार शर्मा का घर भी ज्ञात था। उन्हीं से शर्मा जी का पता लिया और रात्रि में उनके दरवाजे पर जा खड़ा हुआ।
अनावृतं कपाटं द्वारं देहि।
धौलपुर में रात के अँधेरे में कोई दरवाजा खटखटाए, संशय तो होगा ही। न जाने किस वेश में निर्भय जी मिल जाँय। बहुत देर तक भीतर से ही वार्ता करते रहे। पूरी बात बताई। दरवाजे पर लगी जादुई आँख से निहारा। जब 'द्वार खड़ो द्विज दुर्बल दीन' के दर्शन हुए, तब जाकर द्वार खुला। फिर तो घर के ही नहीं दिल के भी दरवाजे भी खुल गये। आराम से ही नहीं रहा, कल्पना के लिए भी आवास और अभिभावक की व्यवस्था भी हो गयी। पतिपत्नी दोनों ही महाविद्यालय में भूगोल के प्रवक्ता थे। किराये पर उठाने के लिए आवास भी खाली था। महरी की ही नहीं, बाजार से सामान लाने की भी चिन्ता नहीं रही। आली री मैंने रामरतन धन पायो। लगा उदारता भले ही महानगरोें से चली गयी हो, कस्बों में अभी भी टिकी हुई है।
सुबह उठा। इच्छा हुई कि जाकर नगर के दर्शन कर लूँ। देवदारु का उत्तरीय और बाँज और बुराँस का हराभरा परिधान पहने शीतल नैनीताल से वनस्थली के गैरिक परिवेश से होते हुए धौलपुर पहुँचा था। दरवाजे से बाहर निकलते ही टूटी-फूटी ईंटों के खड़जों से जड़ी संकीर्ण गलियों, गंदी नालियों, सड़कों के किनारे मलमूत्र त्याग करते बच्चों, रोगों से मुंडित श्वान समूहों और मार्ग के बीच-बीच में पड़ने वाले गंधाते पोखरों को पार करते हुए जैसे-तैसे आवास पर लौटा। गर्मी ने अपना परिचय देना आरंभ किया तो एक और आघात लगा। भारत में तापमान का कीर्तिमान धौलपुर के ही नाम है। लगा धवलदेव को पुर बसाने के लिए कहीं और जगह नहीं मिली क्या? फिर सोचा उनका क्या, लाल संगमर्मर की इन पहाड़ियों के बीच में राजस्थान के अन्य नगरों की तरह ही तालाबों का निर्माण कर उसके पाश्र्व में या बीचों-बीच अपना महल बना लेने में उनका क्या जाता था। बेगार लेने में क्या कम थे?।
भौतिक रूप से अत्यधिक पिछड़ा होते हुए भी, यह नगर उतना असुरक्षित नहीं है, जितना कि लोग समझते हैं। बीहड़ निकट होने पर भी उतना भयावह नहीं है, जितना कि सुनीसुनाई कथाओं के आधार पर लगता है। मैंने अनुभव किया कि यहाँ धूप भले ही कितनी ही उग्र क्यों न हो, आम आदमी के व्यवहार में सरसता के साथसाथ राजपूती मर्यादा भी छिपी हुई थी। वह मर्यादा जो नारी का सम्मान करना जानती है, शरण में आये हुए व्यक्ति को आश्रय देती है। छल-छंद नहीं जानती। फिर राजपूतों की रीति , जैसे कह रही हो, भौहें टेढ़ी मत कीजिए और आराम से रहिए।
यह इतिहास का पागलपन मेरा पल्ला नहीं छोड़ता। मुझे फिर अपनी उलझन में फँसा देता है। मैं सोचने लगता हूँ.... राजपूत आर्यों के वंशज तो थे नहीं। परवर्ती युगों में भारत में प्रविष्ट प्रजातियों- शक, आभीर, गुर्जर, हूण आदि प्रजातियों के वंशज थे। भारत में प्रवेश करते समय वे भी तो मुसलमानों की तरह ही विदेशी थे। यह ठीक है कि उनका इस्लाम की तरह कोई जिहादी धर्म नहीं था, लेकिन तब भारतीय संस्कृति का पाचनतंत्र भी तो ठीक था। इसीलिए जो भी समूह आक्रान्ता बन कर आया, इसी का हो कर रह गया। राजपूतों के रूप में भारतीयता में आकंठ निमग्न इन आगंतुकों ने धर्मयुद्ध के मानदंडों को जितनी निष्ठा से अपनाया, उतना न राम ने अपनाया था न किसी अन्य मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय नरेश ने। राम छिप कर बालि को मार सकते थे लेकिन पृथ्वीराज के लिए तराइन के मैदान से भागती गोरी की सेना पर आक्रमण करना अधर्म था।
कभी-कभी लगता है कि राजपूत जीतने के लिए तो कभी युद्धभूमि में गये ही नहीं। उनका मुख्य लक्ष्य तो जैसे युद्ध भूमि में वीरगति प्राप्त करना था। अपनी पत्नियों को जौहर की अग्नि में झौंक कर वे मरजीवड़े जिन्दगी का मोह छोड़ कर वीरगति प्राप्त करने के लिए शत्रु सेना पर टूट पड़ते थे। ब्राह्मणों ने उनके मस्तिष्क में धर्मयुद्ध के सदियों पुराने आदर्श ऐसे ठूँस दिये थे कि वे इस युग में बारबार उनकी पराजय के कारण बने। लक्ष्मण साधनारत मेघनाद पर प्रहार कर सकते थे पर राजपूतों के लिए रात्रि में सोये हुए शत्रु पर आक्रमण वीरोचित नहीं था। पीठ दिखा कर युद्ध स्थल से भाग रहे शत्रु पर प्रहार करना अनैतिक था। यदि शत्रु त्राहि माम् कहता हुआ शरण में आ जाय, तो उसकी रक्षा करनी चाहिए....., 'वीर' शब्द के साथ जुडे़ इन बन्धनों से बँधे रहने और पहली विजय को ही अंतिम विजय मान कर निश्चिन्त हो जाने की आदतें ही उनके सर्वनाश का कारण नहीं बनी, अपितु आपस में मूँछों के टकराव ने भी उनको विदेशी आक्रान्ता के विरुद्ध एकजुट नहीं होने दिया। रही-सही कसर स्वामी के प्रति वफादारी के आदर्श ने पूरी कर दी। एक बार अधीनता स्वीकार कर ली तो इतने स्वामिभक्त हो गये, कि उनकी भारतीयता बहादुरशाह जफर के साथ ही मर गयी और वे पूरी तरह से अंग्रेजों के दास हो गये।
राजपूती मर्यादा धर्मयुद्ध में भले ही गरिमामय लगे पर इस मर्यादा के कारण ही राजपूत पराजित हुए और उनके पराजित होने के साथ-साथ भारत भी विदेशी आक्रान्ताओं की चपेट में आ गया। यही नहीं आक्रान्ताओं के ऐसे कोई मूल्य नहीं थे। परिणामतः राजपूतों की पराजय के साथ भारतीयों ने भीषण नर.संहार भी झेला।
राजस्थान आज भी भारत में सबसे सुरक्षित और शालीन प्रदेश है। अन्य प्रान्तों की अपेक्षा यहाँ महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना भी अधिक है। यह मैंने न केवल आम आदमी के व्यवहार में अपितु राजकीय कर्मचारियों के स्वभाव में भी देखा। अपनी पुत्री के कार्य से मैं अनेक बार उसके साथ राजस्थान के उच्च शिक्षा निदेशालय गया। मुझे उनका व्यवहार अपने प्रदेश के कर्मियों से सर्वथा भिन्न और शालीन लगा। काम को लंबित करने का रोग भी अधिक नहीं था। कुछ मामलों मे तो वे अनुकरणीय थे। साक्षात्कार के दिन ही शाम को अभ्यर्थियों के चयन की सूची प्रकाशित करने में वे पूरे भारत में अग्रणी थे।
महिलाओं के लिए उनमें विशेष आदर दिखाई देता है। अजमेर में कल्पना और मैं एक धर्मशाला में टिके। दूसरे दिन साक्षात्कार था। प्रातः उसे सेफ्टी पिन की आवश्यकता पड़ी। मैं दूकानदार के पास गया। उसने मना कर दिया लेकिन कल्पना के अनुरोध पर उसने सेफ्टीपिन निकाल कर दे दीं। मैंने दूकानदार से कहा कि जब मैंने निवेदन किया तो आपने मना कर दिया, पर मेरी पुत्री को तो आपने तत्काल दे दीं। बोला 'मन्नै कहा! कौण उठे, कौण दे, ये तो बाई आई तो मन्नै दे दियो''। मुझे लगा भले ही हम हिन्दुस्तानियों ने लक्ष्मीबाई, जोधाबाई, गांधी जी की माता पुतलीबाई से भी जुड़े 'बाई' शब्द को घरेलू नौकरानी बना डाला हो, राजस्थान ने अब भी उसके संभ्रान्त परिवार की महिला का गौरव अक्षुण्ण रखा है। (लेखक की पुस्तक ' महाद्वीपों के आर-पार' से)
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