नेपाल के हर जिले के नाम में दर्ज एक इतिहास
राणा शाही के शासन में सुब्बा व्यवस्था थी. सुब्बा का मतलब सूबेदार से था. वह राणा के प्रति ही वफादार रहता था. सुब्बा उतना ही निरंकुश था, जितना राणा. उसके लगाए करों की to सीमा यह थी कि उसने व्यक्तियों पर पत्नी कर लगाया हुआ था. यदि किसी की पत्नी गोरी होती, तो उसे पचास पैसे और यदि काली होती तो पच्चीस पैसे कर के रूप में देने होते थे...
प्रेम पुनेठा
हर जिले का और हर नाम का एक इतिहास होता है और यह इतिहास उसे एक अर्थ देता है. यह अर्थ हर काल में बदलता है और हर काल में लोग इसमें अपनी भावनाओं और विचारों का रंग भरते हैं. इतिहास में राज्यों की सीमाएं बदलती हैं, लेकिन समय की तली में कुछ ऐसा रह जाता है, जो बताता है कि आज की सीमाएं कभी ऐसी नहीं थी और इस जगह के इतिहास से दूसरी जगह का इतिहास भी जुड़ा हुआ है.
ऐसा ही इतिहास और अर्थ नेपाल के दो जिलों कंचनपुर और कैलाली का भी है, जहां नेपाल चुनाव में यात्रा के दौरान हम गए. उत्तराखंड के चंपावत उधमसिंह नगर से कंचनपुर और उत्तर प्रदेश के पीलीभीत और लखीमपुर खीरी से कैलाली जिला लगा हुआ है. ये दोनों जिले नेपाल के सुदूर पश्चिमांचल के हिस्से रहे हैं, लेकिन जब से नेपाल में संघीयता मुद्दा प्रमुख राजनीतिक एजेंडा बना है तब से ये दोनों जिले व्यापक चर्चा में हैं.
संघीयता में नाम और भूगोल को लेकर जो विवाद नेपाल के तीन प्रमुख दलों के बीच चल रहा है, उसमें सबसे ज्यादा विवाद इन्हीं दो जिलों को लेकर है. पर्वतीय मूल के लोग इन दो जिलों को सुदूर पश्चिमांचल का ही हिस्सा बनाए रखना चाहते हैं, तो थारू इसे थरूवात का. थारुओं की एक शासा राना थारू इसे स्वायत्त प्रदेश बनाने के पक्षधर हैं और मधेसी पार्टियां एक मधेस एक प्रदेश के तहत इसे मधेस प्रदेश का हिस्सा बनाना चाहते हैं.
कंचनपुर और कैलाली जिलों का नाम राजा और रानी के नाम पर रखा गया है. कंचनपुर जिले के सबसे पश्चिमी छोर पर एक जगह है बरम देव. यह टनकपुर के बिल्कुल सामने काली नदी के दूसरी ओर बसा है. लगभग यही वह जगह है, जहां से काली अपने नए नाम शारदा से मैदान में उतरती है
बरम देव ब्रिटिश शासनकाल में उत्तर भारत में लकड़ी की सबसे बड़ी मंडियों में से एक थी. पुराना बरम देव और पुराना टनकपुर वर्तमान जगह से तीन किमी उत्तर की ओर बसे हुए थे. लगभग 100 साल पहले आए बड़े भूस्खलन ने दोनों जगहों की भौगालिक स्थिति बदल दी. वहां रहने वाले लोगों को दूसरी जगह बसना पड़ा.
टनकपुर को बसाने में एक अंग्रेज की बड़ी भूमिका थी, तो उनके नाम पर ही शहर को यह नाम दिया गया, लेकिन नेपाल में यह जगह बरम देव ही रही. बरम देव कत्यूरी शासक माना जाता है. बरम देव स्थान से तीन किमी उत्तर की ओर एक स्थान पर बड़े भवन का खंडहर है.
स्थानीय लोग कहते हैं कि यह बरम देव का महल था और इसमें 52 दरवाजे थे. इनमें से अधिकांश अब नष्ट हो चुके हैं, लेकिन महल के भग्नावशेष अभी भी मौजूद हैं. बरम देव के पुत्र का नाम कंचन देव था और उसी के नाम पर इस जिले का नाम कंचनपुर रखा गया. कंचन देव की पत्नी का नाम कैलाली था. उसके नाम पर कैलाली जिला है.
भारत में अधिकतर जिलों के नाम उनके मुख्यालय के नाम पर हैं, लेकिन नेपाल में जिले का नाम और मुख्यालय अलग-अलग हैं. जैसे कंचनपुर जिले का मुख्यालय महेंद्रनगर है, तो कैलाली जिले का मुख्यालय धनगढ़ी. राजशाही के दौर में जब इस कस्बे का विस्तार होने लगा और यहां सड़क पहुंची, तो इसे राजा महेंद्र के नाम पर इस शहर को महेंद्रनगर कहा जाने लगा.
राजतंत्र के बाद लोकतंत्र की आहट होने पर जब यहां नगरपालिका बनाई गयी, तो उसे भीम दत्त नगर पालिका का नाम दिया गया. भीम दत्त पंत एक किसान नेता थे. वे कंचनपुर के पड़ोसी जिले डंडेलधुरा के रहने वाले थे. 1950 के दशक में राणा शाही का दौर था. राणा शाही के शासन में सुब्बा व्यवस्था थी. सुब्बा का मतलब सूबेदार से था. सुब्बा की नियुक्ति काठमांडू से होती थी और वह राणा के प्रति ही वफादार रहता था.
सुब्बा उतना ही निरंकुश और अत्याचारी था, जितना की राणा. तब सुब्बा धनगढ़ी से कुछ दूर बलौरी में बैठता था. सुब्बा का नाम जय देव था और वह बहुत ही अत्याचारी था. उसके लगाए करों से किसानों की हालत दयनीय हो गयी थी. उसके अत्याचार की सीमा यह थी कि उसने व्यक्तियों पर पत्नी कर लगाया हुआ था. यदि किसी व्यक्ति की पत्नी गोरी होती, तो उसे पचास पैसे कर के रूप में देने होते. यदि पत्नी काली होती तो पच्चीस पैसे कर के रूप में देने होते थे.
भीम दत्त पंत ने किसानों को संगठित कर सुब्बा के खिलाफ आंदोलन चलाया. उन्होंने अपने आंदोलन के लिए कम्युनिस्टों की भी मदद लेनी चाही, लेकिन वे सफल नहीं हुए. अंत में भीम दत्त ने सुब्बा जयदेव को पकड़ लिया और उसे बोरे में बंद कर नदी में बहा कर उसका अंत कर दिया. भीम दत्त पंत का यह कार्य सीधे राणा शाही को चुनौती थी. काठमांडू में बैठे राणाओं ने भीम दत्त को राजद्रोही घोषित कर मौत की सजा का ऐलान कर दिया.
भीम दत्त को पकड़ने का काम नेपाली सेना को सौंपा गया, लेकिन नेपाली सेना भीम दत्त को पकड़ नहीं पायी. भीम दत्त को पकड़ने के लिए राणाओं ने भारत से सहायता मांगी. नेपाली सेना ने भारतीय सेना की सहायता से भीम दत्त पंत को पकड़ लिया. भीम दत्त का सिर धड़ से अलग कर दिया गया और चौराहे पर सिर लटका दिया गया. इस किसान नेता के नाम पर ही महेंद्रनगर को भीम दत्त नगर पालिका कहा जाता है. महेंद्र नगर के मुख्य चौराहे पर भीम दत्त पंत की मूर्ति लगी है.
(प्रेम पुनेठा शार्क देशों के जानकार हैं.)
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