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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, November 10, 2013

भारतीय साहित्य का महान कथाकार विजयदान देथा…

भारतीय साहित्य का महान कथाकार विजयदान देथा…

-उदय प्रकाश||

आज का दिन मेरे जीवन के सबसे दुखद और शोकग्रस्त दिनों में से एक है. समय भी कैसे-कैसे आकस्मिक खेल खेलता है. इसीलिए इसे 'नियति के व्यतिक्रम का कर्त्ता' कहा गया है.VIJAYDAN-DETHA
भारतीय साहित्य का वह महान कथाकार, जिसे मैं अपने पिता जैसा मानता था और जिसने किसीघने, छांह भरे बादल की तरह विपत्तियों और दुखों की तपती हुई लपटों के पलों में भी मेरे जीवन को शीतलता, स्नेह की नम बौछारें और किसी भी रचनाशील वैयक्तिकता के लिए प्राणवायु की तरह अनिवार्य गरिमा और शक्ति दी….
वह महान कथाकार, जिसका समूचा जीवन कठिनाइयों, संघर्षों, शोक और वियोगों से भरा रहा, जिसने चार वर्ष की आयु में सामंती हिंसा के शिकार बने अपने पिता का टुकड़ों में कटा शरीर देखा फिर भयावह आर्थिक संकटों के बीच अपने परिवार का संपोषण करता रहा, जिसने एक के बाद एक पुत्र, प्रपौत्र, पत्नी और परिजनों के आकस्मिक वियोग के आघात सहे….
वह अपूर्व साहित्यकार जिसका जीना, सांस लेना, चलना-फिरना सब कुछ शब्दों और वाक्यों की अनंत-अबूझ गलियों-पगडंडियों में निरंतर यात्राएं करते हुए बीता…
वह महानतम व्यक्तित्व जिसने वर्णव्यवस्था के विष से बजबजाते समाज की घृणा, उपेक्षा, षड़यंत्र और अपमानों के बीच सृजन के उन शिखरों को नापा, जिस तक पहुंचना तो दूर, तमाम सत्ता-पूंजी की ताकतों से लदे-पदे लेखकों की दृष्टि तक नहीं जा सकती …जो अपने जीते जी, जोधपुर से १०५ किलोमीटर दूर बोरुंदा गांव में रहते हुए, एक ऐसा पवित्र पाषाण बना, जिसे छूना हमारे समय के विभिन्न कलाओं के व्यक्तित्वों के लिए, किसी तीर्थ जैसा हो गया….मणिकौल, प्रकाश झा, अमोल पालेकर से लेकर कई फ़िल्मकार पैदल चल कर इस रचनाकार की ड्योढ़ी तक पहुंचे और उनकी कहानियों पर अंतरराष्ट्रीय ख्याति की फ़िल्में बनाईं.
वह कथाकार, जो राजस्थानी भाषा का भारतेंदु था, जिसने उस अन्यतम भाषा में आधुनिक गद्य और समकालीन चेतना की नींव डाली.
हमारे समय का वह वाल्मीकि या व्यास, जिसने राजस्थान की विलुप्त होती लोक गाथाओं की ऐसी पुनर्रचना की, जो अन्य किसी के लिए लगभग असंभव थी…
वही विजयदान देथा, जिन्हें सब प्यार और आदर के साथ 'विज्जी' कहते थे, आज अचानक अनुपस्थित हो गये. वे अपना एक मिथक रच कर विदा हुए हैं.
'काल का व्यतिक्रम' मैंने इसीलिए शुरू में कहा था, क्योंकि सुबह मैं 'मोहन दास' के जर्मन भाषा में अनूदित होने को लेकर आप सब दोस्तों के साथ खुश हो रहा था..और ..अब ..शब्द तक इस आघात में साथ छोड़ रहे हैं. असंख्य स्मृतियां हैं उनकी. सन १९८२-८३ से. साहित्य अकादमी के लिए उन पर एक वृत्त-चित्र भी मैंने निर्मित की थी. मैं पूरी ईमानदारी से आप सबके सामने यह कहना चाहता हूं कि मैंने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति समूची वस्तुपरकता और अनिवार्य समर्पण के साथ यह फ़िल्म बनाई थी -'बिज्जी'. अकादमी की आर्काइव्स में यह फ़िल्म होगी. कुछ साल पहले उनकी नौ कहानियों पर दूरदर्शन के लिए, १० लघु फिल्में भी निर्देशित-निर्मित की थीं, जो स्वयं उन्हें बहुर पसंद थीं….
..और हां, अभी तीन-चार साल पहले ही एक और छोटी-सी फिल्म, जिसकी कापी तक मेरे पास नहीं है -'आथर इन दि एज़ आफ़ मोबाइल्स', जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल के लिए, अंग्रेज़ी की सुप्रसिद्ध कथाकार नमिता गोखले जी के कहने पर. उनके ही कहने पर और मेरे आग्रह पर 'पेंगुइन इंडिया' ने विजयदान देथा का कथा संग्रह, क्रिस्टी मेरिल के अनुवाद में प्रकाशित की थी.
यहां जो कुछ भी मैं लिख रहा हूं, वह गहरे शोक से घिरे हुए लड़खड़ाते हुए कमज़ोर शब्द हैं…!
'बिज्जी' का जाना हम सबके बीच से और खासतौर पर मेरे रचनात्मक जीवन ही नहीं, असली ज़िंदगी के बीच से किसी ऐसी उपस्थिति का अचानक अनुपस्थित हो जाना है, जिसके बिना मैं अभी कुछ सोच नहीं पा रहा हूं….
उनके पुत्र महेंद्र देथा, कैलाश कबीर, भतीजे प्रकाश देथा, उनके साथी इसरार खान, भैरूंमल …और उनके समस्त परिजनों को इस दुख की घड़ी में सांत्वना …!



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