नारायण मेघाजी लोखंडे को
जरा याद कीजिये
क्रांतिकारी
बहुजन मित्रों
जय जय जय
जय हो चिदंबरम
जय जय जय
जय हो जायनवादी
आक्रामक विध्वंसक
कारपोरेट राज
अंध धर्मोन्मादी
पलाश विश्वास
जय जय जय
जय हो चिदंबरम
जय जय जय
जय हो जायनवादी
आक्रामक विध्वंसक
कारपोरेट राज
अंध धर्मोन्मादी
मसउद अख्तर जी को धन्यवाद नारायणजी मेघाजी लोखंडे की याद दिलाने के लिए। देश के बहिस्कृत मूक बहुजन कृषि समाज के स्वयंभू मुक्तिदाता उनका नाम उच्चारण तक नहीं करते। वोट बैंक और चुनावी समीकरण न हो तो यह देश अंबेडकर को भी भूल जायेगा किसी दिन। बंगाल में भूमि सुधार को पहली बार राजनीतिक मुद्दा बानाने वाले और दो राष्ट्रीयता के सिद्धांत पर देश बंटवारे की राजनीति करने वाले मुस्लिम लीग को रोकने वाले धर्म निरपेक्ष नेता फजलुल हक को कोई याद नहीं करता क्योंकि उनका नाम लेने पर वोट नहीं मिलते। नारायण मेघा जी लोखंडे को सवर्ण वर्चस्वावादी वामपंथी नेतृत्व के शिकंजे में फंसे मजूर आंदोलन के लोग भी याद नहीं करते। सरकार और मालिकों के साथ सौदेबाजी और समझौता करके देश में जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता की अखंड लूट नरसंहार अभियान में सक्रिय सहयोग करने वाले 1991 से जनसंहारमूलक आर्थिक सुधार,अबाध विदेशी पूंजी निवेश,हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश, अनवरत विनिवेश, छंटनी और निजीकरण, कार्यस्थितियों और श्रम कानूनों का दफा रफा, प्राकृतिक संसाधनों को विदेशी हाथों में सौंपने के राष्ट्रद्रोही कृत्य,उत्पादन प्रणाली और आजीविका के साथ ग्रामीण भारत को ध्वस्त करने के एजंडे,सर्वव्यापी प्रोमोटर बिल्डर माफिया राज,कालाधन का वर्चस्व,भ्रष्टाचार के दलदल,अर्थव्यवस्था विदेशी संस्थागत निवेशकों को सुपुर्दगी के आलम में संगठित असंगठित क्षेत्रों के श्रमिक संगठनों के सुतीव्र प्रतिरोध का हम इंतजार करते ही रह गये।डा. बीआर अंबेडकर ने पहले श्रमिक दल ही बनाया था और ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों को मजदूरों का दुश्मम घोषित किया था,जातिव्यवस्था के शिकार भारतीय कृषि समाज के देवमंडल को इसका स्मरण भी नहीं है।
इतिहास के हवाले से भारत के मुसलमानों के साथ जो सलूक सत्तावर्ग कर रहा है, वही घृणा सवर्णों और खासतौर पर ब्राहमणों के खिलाफ बहुजन राजनीति की एक मात्र पूंजी हैं। दोनों दृष्चिकोण हिटलर और मुसोलिनी के नाजीवाद का पर्याय है। धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और भारत का बहुजन आंदोलन इस आत्मघाती दुश्चक्र में फंसकर कारपोरेट साम्राज्यवाद के फासीवादी यंत्र बन गये हैं, जो किसी भी बिंदु पर साम्राज्यवाद,जायनवाद, सामंतवाद या ब्राह्मणवाद के विरुद्ध नहीं है। नतीजतन भारत में सत्तावर्ग निनानब्वे फीसद जन गण के विरुद्ध साम्राज्यवादी जायनवादी साम्राज्यवादी सामंती ब्राह्मणी मनुस्मृति वर्चस्ववादी युद्ध जारी रखे हुए हैं। मजदूर संगठनों को इस तिलिस्म को तोड़ने में आगे आना चाहिए था, लेकिन साम्यवादी समाजवादी विश्वासघात के कारण ऐसा नहीं हो सका। किसान, मजदूर, महिला, युवा, छात्र, संस्कृतिकर्मी और पेशेवर जो सामाजिक शक्तियां हैं, संगठित और असंगठित उनकी तरफ से कोई पहल हुई नहीं है। दूसरी तरफ मुसलमानों के सफाये, सिखों के संहार और अनुसूचितों के वध की नींव पर हिंदू साम्राज्यवाद के शिकंजे में फंस रहा है देश। संविधान, लोकतंत्र और कानून का राज भारतीय लोक गणराज्य में कहीं नहीं है।
बहुजन मूलनिवासी आंदोलन भी ब्राह्मण विदेशी है,बहुजन हजारों साल से गुलाम हैं, के श्लोक वाक्य के अलावा जाति उन्मूलन की दिशा में एककदम भी आगे बढ़ने के बजाय सत्ता में भागेदारी और कारपोरेट पूंजी में अपने अपने हिस्से को सुरक्षित करने के लिए जाति व्यवस्था को निरंतर मजबूत देते जा रहे हैं। शूद्र जातियां एक दूसरे के खिलाफ लामबंद हैं और मनुस्मृति को कायम रखने के लिए ब्राह्मणों और सवर्णों के बजाय महापुरुषों,साधु संतों और पुरखों का नाम जापने वाले हिटलरी अलोकतांत्रिक धनपशु बहुजन मसीहा ंसप्रदाय कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं।
बाबासाहेब के रास्ते पर ही समता और सामाजिक न्याय की स्थापना लोकतांत्रिक संवैधानिक तरीके से कानून के राज केतहत संभव है। अस्पृश्यता अभ्यासक्रम है जिसे निरंतर अभ्यास के सांस्कृतिक आंदोलन से ही जोड़ा जा सकता है।
हम जब ऐसा लिख रहे हैं, जाहिर हैं कि हमारे क्रांतिकारी मित्र और बहुजन समाज के अपने लोग हमें विचलन के लिए बख्शेंगे नहीं। न हमारे क्रांतिकारी मित्र मानेंगे और न अंबेडकरवादी कैडरवृंद कि सही मायने में शोषणहीन वर्गविहीन सामाजिक न्याय और समता पर आधारित समाज के लक्ष्य और उसके माध्यम में कोई अंतर्विरोध नहीं है।जरुरत है ईमानदार और प्रतिबद्ध पहल की।
हम हस्तक्षेप के आभारी हैं कि मार्क्सवाद और अंबेडकरी विचारधारा को भारतीय मजदूर आंदोलन में प्रयोग करने वाले भारत के प्रथम श्रमिक नेता नारायण मेघा जी लोखंडे पर मसऊद अख्तर लोखंडे का यह आलेख छापा है। तो जाति विमर्श के बहाने जो इतना वैमनस्य का वातावरण देश भर में तैयार करके रंगबिरंगे कारपोरेट राजनीति के लोग देश में धर्मोन्माद कारपोरेट वध संस्कृति का वर्चस्व का.म कर रहे हैं,उसके विरुद्ध इस विचार को आगे बढ़ाने के लिए भी कुछ करें तमाम विद्वत प्रतिबद्ध जन,तो इस अनंत गैस चैंबर से मुक्तिमार्ग की संधान हो सकें।
वरना
फिर वहीं हाल
फिर अगले साल
फिर अगले साल
जनादेश अब कारपोरेट हैं
सारे विकल्प कारपोरेट हैं
जय जय जय
जय हो चिदंबरम
जय जय जय
जय हो जायनवादी
आक्रामक विध्वंसक
कारपोरेट राज
अंध धर्मोन्मादी
हम राजनीति ौर विचारधारा की औकात कालाधन,विदेशी पूंजी और नरसंहार के वर्चस्व के इस जनविरोधी कारपोरेट समय में खूब देख चुके हैं। रक्त की विशुद्धता और विचारधारा की विशुद्धता दोनों जनसरोकारों के लिए,जन हित के लिए और मुक्तिमकामी जनता के लिए सिरे से अप्रासंगिक हैं। यही नही, दोनों फासीवादी जायनवादी मानस का चरमोत्कर्ष भी है। इस विभ्रम और अंधभक्ति, धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता और जाति वर्चस्व के चतुर्भुज में युद्धबंदी देश में चिदंबरम संप्रदाय का राजनीति रंग बदलते रहने के बावजूद हर हाल में विजय अभियान अखंड है। देश बचाने के लिए, संविधान बचाने के लिए, भारतीय नागरिकों और उनके मानवाधिकार नागरिक अधिकार बचाने के लिए,जल जंगल जमीन आजीविका प्रकृति और पर्यावरण बचाने के लिए क्या हम अपने बंद दिमाग के दरवाजे औरखिड़कियां खोलने के लिए तैयार हैं,इसपर भारत का वर्तमान और भविष्य निर्भर है, निर्भर है भावी पीढ़ियों का अस्तित्व।
ध्यान रहें, कि अब सिर्फ किसान ही आत्महत्या नहीं कर रहे हैं, रोबोट भी आत्महत्या करने लगे हैं। सपने तो मर ही चुके हैं। जनआकांक्षाएं जनसुनवाई और जनभागेदारी, जनप्रतिनिधित्व और जनसमाज के तरह अब मृत है।
सिंहद्वार पर दस्तक बहुत तेज है
जाग सको तो जाग जाओ भइया
सत्ता के जलसंहार के विरुद्ध
आवाज अभी जिंदा है और
घर फूक सको आपणा तो
साथ आ जाओ भइया
हमारे श्रमिक नेता : नारायण मेघाजी लोखंडे (1848-1897)
मसऊद अख्तर
नारायण मेघाजी लोखंडे
नारायण मेघाजी लोखंडे को भारतीय श्रम आन्दोलन का जनक कहा जा सकता है। भारत में श्रम आन्दोलन के जनक, महात्मा ज्योतिबा फूले के अनुयायी, नारायण मेघाजी लोखंडे का जन्म 1848 में तत्कालीन विदर्भ के पुणे जिले के कन्हेरसर में एक गरीब फूलमाली जाति के साधारण परिवार में हुआ था। कालान्तर में उनका परिवार आजीविका के लिये थाणे आ गया। यहीं से लोखंडे ने मेट्रिक की परीक्षा पास की। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वह उच्च शिक्षा जारी न रख सके और गुजर-बसर के लिये उन्होंने आरम्भ में रेलवे के डाक विभाग में नौकरी कर ली। बाद में वह बॉम्बे टेक्सटाइल मिल में स्टोर कीपर के रूप में कुछ समय तक कार्य किया। यहीं पर लोखंडे जी को श्रमिकों की दयनीय स्थिति को करीब से देखने, समझने, महसूस करने और इस सम्बन्ध में विचार करने का अवसर मिला। और वे कामगारों की तमाम समस्याओं से अवगत हुये व खुद भी बहुत करीब से उसे महसूस किया। इसी समय से श्रमिकों की दशाओं और उनके कारणों को समझने की दिशा में उनकी रूचि जाग्रत हुयी। उन्होंने सन् 1880 में 'दीन बंधु' नामक जर्नल के सम्पादन का दायित्व ग्रहण किया और उसे वो अपनी मृत्यु तक सन 1897 तक अनवरत् निभाते रहे। वह उस जर्नल में प्रकाशित होने वाले अपने तेज़स्वी लेखों के माध्यम से मालिकों द्वारा श्रमिकों के शोषणका प्रभावपूर्ण तरीके से चित्रण करना व उसकी आलोचना और उनकी कार्य परिस्थितियों में बदलाव का समर्थन किया करते थे। समाज के उपेक्षित, असुरक्षित व असंगठित वर्गों को संगठित करने का अभियान उन्होंने यहीं से प्रारम्भ किया जो जीवन पर्यन्त चलता रहा। सन् 1884 में 'बॉम्बे हैंड्स एसोसिएशन' नाम से भारत में उन्होंने प्रथम ट्रेड यूनियन की स्थापना की और इसके अध्यक्ष भी रहे।
1881 में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने मजदूरों की माँग व दबाव के चलते कारखाना अधिनियम बनाया लेकिन मजदूर इस अधिनियम से संतुष्ट नहीं थे। अंग्रेजी सरकार को 1884 में इस अधिनियम में सुधार के लिये जाँच आयोग नियुक्त करना पड़ा। इसी वर्ष लोखंडे जी ने 'बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन' की स्थापना की। ज्ञात हो कि सत्रहवी-अठारहवीं सदी में भारत अपनी बेहतरीन टेक्सटाइल के लिये पाश्चात्य दुनिया में प्रसिद्ध था। बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन ने सितम्बर 1884 में प्रथम श्रमिक आम सभा आयोजित की। इस सभा में लगभग साढ़े पाँच हज़ार श्रमिकों ने हिस्सा लिया। सभा के अन्त में एक प्रस्ताव पास किया गया जिसमें मुख्यतः पाँच माँगें रखी गयी थीं :-
रविवार को साप्ताहिक छुट्टी हो।
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भोजन करने के लिये छुट्टी दी जाये।
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काम के घंटे निश्चित हों।
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काम के समय किसी तरह की दुर्घटना हो जाने की स्थिति में कामगार को सवेतन छुट्टी दी जाये; और
दुर्घटना के कारण किसी श्रमिक की मृत्यु हो जाने की स्थिति में उसके आश्रितों को पेंशन मिले।
मसऊद अख्तर। लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
इसके बाद उपरोक्त सभी बातों को शामिल करते हुये एक याचिका तैयार की गयी जिस पर 5500 श्रमिकों ने हस्ताक्षर किये थे और इसे फैक्ट्री कमीशन के सामने प्रस्तुत किया गया। इस याचिका के माध्यम से प्रस्तुत माँगों का फैक्ट्री मालिकों ने विरोध किया और अंग्रेजी सरकार भी इसकी अनदेखी करती रही। विवश होकर लोखंडे जी जगह-जगह आम सभाओं के माध्यम से उपरोक्त माँगों को मनवाने के लिये दबाव बनाते रहे। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण आम सभा अप्रैल, 1890 में बॉम्बे के रेसकोर्स मैदान में आयोजित की गयी जिसमें दस हज़ार से अधिक श्रमिकों ने हिस्सा लिया, तथा अनेक महत्वपूर्ण भाषण हुये जिनमें से कई महिला कामगारों ने दिये। अंततः लोखंडे जी को उपरोक्त माँगों को पाने के लिये हड़ताल का सहारा लेना पड़ा। मजदूरों की इस हड़ताल के आगे मालिकों को हार माननी पड़ी और सभी कामगार क्षेत्रों में साप्ताहिक अवकाश की घोषणा हुयी। इसके तुरन्त बाद सरकार ने एक फैक्ट्री श्रम आयोग का गठन किया जिसमें श्रमिकों का प्रतिनिधित्व लोखंडे जी ने किया। इस आयोग की सिफारिश पर श्रमिकों के काम के घंटे तय हुये। आयोग ने कामगारों को भोजन की छुट्टी देने का भी निर्णय लिया, लेकिन मालिकों ने आयोग की इस सिफारिश को अस्वीकार कर दिया। जब श्रम आयोग की सिफारिश की स्वीकृति में विलम्ब होने लगा तो 1894 में लोखंडे जी ने इसके लिये फिर से संघर्ष शुरू किया। इस संघर्ष में महिला कर्मचारियों ने भी भाग लिया। लोखंडे जी के सतत् प्रयासों का लाभ यह मिला कि श्रमिकों को रविवार को साप्ताहिक अवकाश, आधे घंटे का भोजनावकाश और काम के समय में कमी की बात मान ली गयी।
इस दौरान लोखंडे जी ने महसूस किया कि श्रमिकों के निजी जीवन में व्याप्त दुर्व्यसनों एवं दुराचार को दूर किये बिना उनकी स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता है। अतः उन्होंने इस दिशा में भी प्रचार और आन्दोलनों के माध्यम से प्रयास किये। लोखंडे जी के व्यक्तित्व का एक विशेष पहलू जिसकी वजह से अन्य श्रमिक नेताओं की तुलना में वह अपनी अलग ही पहचान रखते हैं, वह यह था कि वह उन गैर मजदूरों, जो किसी भी प्रकार के भेदभाव के शिकार थे, के कल्याण के प्रति भी उतने ही प्रतिबद्ध थे जितने कि मजदूरों के कल्याण के प्रति। उन्होंने महिलाओं, विशेषतः विधवाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों व समाज के अन्य कमजोर तबके के हितों के लिये संघर्ष को नेतृत्व प्रदान किया। लोखंडे जी का व्यापक सामाजिक सरोकार उस उमंग और उत्साह से स्पष्ट झलकता था जिससे कि वह 'दीन बन्धु' का सम्पादन करते थे। उन्होंने मार्च, 1890 में महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों से आये नाइयों की एक सभा आयोजित की जिसमें यह प्रस्ताव पारित किया गया कि विधवाओं के सिर मुंडवाने की प्रथा एक बर्बर प्रथा है। अतः इसमें कोई भी नाई शामिल नहीं होगा। उन्होंने 1893 के साम्प्रदायिक दंगों के तुरन्त पश्चात हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के बीच आपसी सद्भाव और एकता को पुनर्स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने बम्बई के प्रसिद्ध एलिजाबेथ गार्डन (जिसका वर्तमान नाम जीजामाता बाई बगीचा) में मजदूरों की एकात्म परिषद का आयोजन किया, जिसमें सभी धर्मों और पंथों के लगभग साठ हज़ार मजदूरों ने भाग लिया। राष्ट्रीय एकात्मता का भाव जगाने के लिये लोखंडे जी का यह प्रयास अप्रतिम था। इसी प्रकार वर्ष 1896 में बम्बई में प्लेग की महामारी के दौरान लोखंडे जी ने प्लेग प्रभावित लोगों की मिशनरी भाव से सेवा की और उसी समय एक चिकित्सालय की स्थापना भी की। परन्तु दुर्भाग्यवश प्लेग की इस महामारी से लोगों को बचाने की अपनी इस लड़ाई में वो प्लेग की चपेट में आ गये और पाँच फ़रवरी 1897 को उनका देहांत प्लेग के ही वजह से हो गया।
विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों में लोखंडे जी के सक्रिय योगदान को मान्यता प्रदान करते हुये उन्हें'जस्टिस ऑफ़ पीस' की उपाधि प्रदान की गयी। मई 2005 में लोखंडे जी की स्मृति में भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकट जरी किया गया। इस अवसर पर डाक टिकट जारी करते हुये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लोखंडे जी के व्यक्तित्व को अनुकरणीय बताते हुये आज के दौर के श्रमिक नेताओं से अनुरोध किया कि वे सामाजिक बदलाव लाने व लोगों के सशक्तिकरण के लिये लोखंडे जी के दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करें। साथ ही उन्होंने कहा कि मार्क्स और एंजिल्स ने श्रमिक वर्ग को सामजिक क्रान्ति के अग्रदूत की उपाधि इसलिये दी क्योंकि उन्होंने पाया कि उस समय श्रमिक वर्ग समाज का सामाजिक और राजनीतिक रूप से सर्वाधिक जागरूक वर्ग था। आगे उन्होंने लोखंडे जी से प्रेरणा ले ट्रेड यूनियन आन्दोलन की शक्ति का प्रयोग समाज को आगे बढ़ाने के लिये करने का आह्वान किया जिससे कि हमारे देश के लोगों में देश-प्रेम व सभी लोगों के कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता जाग्रत हो।
यद्यपि लोखंडे वर्तमान भारतीय ट्रेड यूनियन नेता के तौर पर उतना जाना-पहचाना नाम नहीं है, जबकि उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों बाद ही उनकी एक छोटी सी जीवनी प्रकाशित हुयी थी, परन्तु वह जीवनी आज आसानी से उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में मराठी लेखक मनोहर कदम जी ने उनकी जीवनी मराठी में लिखी है जो कि बेहतर ढंग से उनके जीवन व कार्यों से हमें परिचित कराती है।
संगीनों के साये में 'लोकतंत्र' का महापर्व
जल-जंगल-जमीन की लूट, ऑपरेशन ग्रीनहंट, माओवादी बताकर फर्जी इनकांउटर व जेलों में हजारों आदिवासियों को बंद रखना और महिलाओं का जवानों द्वारा बलात्कार किसी भी पार्टी का चुनावी मुद्दा नहीं रहा है. खासकर दो राष्ट्रीय पार्टियां तो लोगों को बरगलाने के सिवा कुछ नहीं कर रही हैं...
सुनील कुमार
छत्तीसगढ़ के 18 सीटों पर करीब 67 प्रतिशत मतदान होने की खबर आ रही है. इसे देश का मुख्य मीडिया, छत्तीसगढ़ सरकार व भारत का शासक वर्ग एक जीत के रूप में देख रहे हैं. सभी अखबारों में बुलेट पर भारी बैलट शीर्षक से खबरें बनाई गई हैं. इसे लोकतंत्र की जीत माना जा रहा है और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत के रूप में देखा जा रहा है.
27 सितम्बर, 2013 के सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद पहली बार देश में नोटा (उम्मीदवारों को नकारने का) बटन का प्रयोग किया गया है. क्या सचमुच यह लोकतंत्र में लोगों की जीत है या नोटा का प्रभाव है या सरकारी आंकड़ों का खेल है?
27 सितम्बर, 2013 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि सभी ईवीएम मशीन में गुलाबी रंग का नोटा बटन लगाया जाये और लोगों को इसके लिए जागरूक किया जाये, लेकिन सरकार ने इस काम को पूरा नहीं किया गया.
दंतेवाड़ा के कट्टेकल्यान के मतदान अधिकारी मुन्ना रमयणम से जब बीबीसी संवादाता ने नोटा बटन में विषय बात की, तो वे नोटा बटन को लेकर अनभिज्ञ थे. उन्होंने बताया कि जब इलेक्शन ड्यूटी की ट्रेनिंग दी जा रही थी, उस समय भी नोटा को लेकर कुछ नहीं बताया गया.
मुन्ना रमायणम स्थानीय निवासी हैं और वो गोंडी भाषा के जानकार भी हैं वो अच्छे से बस्तर के आदिवासियों को गोंडी में समझा सकते थे, जो कि बाहरी लोगों के लिए समझाना आसान काम नहीं है. लेकिन जब उनको ही नोटा के विषय में मालूम नहीं है, तो वो कैसे बतायेंगे लोगों को. क्या यह सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का उल्लंघन नहीं है. क्या शासन-प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का मजाक नहीं उड़ा रहे हैं. क्या उन पर कोर्ट की अवमानना का केस हो सकता है?
माओवादी चुनाव बहिष्कार के साथ-साथ गांव-गांव जाकर ईवीएम मशीन के द्वारा नोटा के बारे में बता रहे थे. ईवीएम मशीन कम होने के कारण वे गत्ते का प्रयोग कर लोगों को नोटा के लिए जागरूक कर रहे थे. हो सकता है कि माओवादियों के इस रणनीति के तहत भी वोट का प्रतिशत बढ़ा हो.
लोकतंत्र में लोगों को अपने मन से मतदान करना होता है, लेकिन छत्तीसगढ़ के चुनाव में देखा गया कि किस तरह भारी फोर्स लगाकर चुनाव कराया गया. आलम यह रहा कि अबूझमाड़ में बारह हजार मतदाताओं के लिए बीस हजार जवानों को लगाया गया है. बस्तर व राजनेदगांव में चुनाव के लिए सीआरपीएफ और राज्य सशस्त्र पुलिस की 560 कम्पनियां तैनात की जा रही हैं, जबकि पहले से 33 सुरक्षा बलों की बटालियन तैनात है.
18 सीटों के 'लोकतंत्र' का महापर्व संपन्न कराने के लिए लगभग 56 हजार हथियारंबद जवानों को उतारा गया है. इसके अलावा 19 हेलिकाप्टर को लगाया गया है. सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, आईटीबीपी और 10 राज्यों की आर्म्ड फोर्सेज के आला अधिकारियों का ज्वांइट ग्रुप बनाया गया है, जो हर दो घंटे पर समीक्षा कर कर रहा है. क्या यह तैयारी किसी 'लोकतंत्र' के चुनाव जैसा है या लड़ाई जैसा?
इन जवानों को स्कूलों, हॉस्टलों व आश्रमों में ठहराया गया है. इन इलाकों में चुनाव होने तक स्कूल बंद रखने की घोषणा की गई है. यह सुप्रीम कोर्ट के 18 जनवरी, 2011 के आदेश के खिलाफ है, जिसमें छत्तीसगढ़ सरकार से सुरक्षा बलों को स्कूलों, हॉस्टलों और आश्रमों से हटाने को कहा गया था.
पुलिस महानिदेशक रामनिवास के अनुसार 'सुरक्षा बलों को स्कूलों में ठहराने का निर्णय हमने चुनाव आयोग की सहमति के बाद लिया है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है. हमने केंद्रीय चुनाव आयोग से इसके लिए अनुमति मांगी थी और उनकी सहमति के बाद ही हमने सुरक्षा बलों को स्कूलों में ठहराया है.' कानून के जानकारों के अनुसार यह सीधे-सीधे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है.
बीजापुर के 243 मतदान केन्द्रों में से 104 मतदान केन्द्रों को अतिसंवेदनशील तथा 139 मतदान केन्द्रों को संवेदनशील माना गया है. 167 मतदान केन्द्रों को भीतरी इलाके से यह कहकर हटा दिया गया कि वहां मतदानकर्मियों का पहुंचना मुश्किल है. अगर यहां के मतदाताओं को वोट डालना है, तो उनको 40 से 60 किलोमीटर का सफर तय करके वोट डालना पड़ेगा.
सवाल यह है कि जिस सरकार को जनता टैक्स देती है, उसी जनता तक पहुंचने के लिए सरकार के पास संसाधन नहीं हैं. तो क्या वह गरीब मतदाता जो अपने जीविका के लिए जूझ रहा है इतनी दूर पहुंच कर अपने मतों का इस्तेमाल कर सकेगा? क्या लोगों को इस 'लोकतंत्र' में कोई जगह है? लोगों को इस तंत्र से दूर भगाने में सरकार की सभी मशीनरी शामिल है.
संगीनों के साए में प्रचार हुआ और संगीनों के साए में मतदान भी हो गया. सड़कों पर चलना दूभर है जगह-जगह नाकाबंदी व चेकिंग की जा रही है. सड़कों से छोटे और बड़े वाहन भी गायब हैं. सभी वाहनों को जब्त कर चुनाव कार्यों में लगा दिया गया है. जो भी गाडि़यां जब्त हैं, उनके ड्राइवर एक तरह से बंधक बने हुए हैं. वे अपने वाहन मालिकों, घरों पर फोन से संपर्क नहीं कर सकते.
उनके पास खाने, रहने को कुछ नहीं है. वे अपने गाडि़यों में ही बीस दिनों से सो रहे हैं. ड्राइवरों का कहना है कि उन्हें सीधे सड़क से पकड़ लिया गया. मालिक से मिलने का मौका ही नहीं मिला. यहां न एटीएम है न ही मोबाइल का नेटवर्क और न ही यहां आया जा सकता है. प्रशासनिक अधिकारियों से खर्च मांगने पर कहते हैं कि वाहन मालिक से पैसा मांगो. मालिक भी पैसा भिजवाए तो कैसे, इस बीहड़ में पैसे लेकर कौन आएगा?
ये ड्राइवर अपनी घडि़यों तथा स्टेपनी (एक्सट्रा टायर) को बेचकर खाने का जुगाड़ कर रहे हैं. इस बात को छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त ट्रांसपोर्ट कमिश्नर डी. रविशंकर भी मान रहे हैं कि उनके विभाग के पास इस तरह की शिकायतें मिल रही हैं. उन्होंने कहा 'हमने यह साफ निर्देश दिए हैं कि जिले के स्तर पर कलक्टर और एसपी इन ड्राइवरों के खाने-रहने और सुरक्षा की व्यवस्था करें. मगर इसके बावजूद हमें शिकायतें मिल रही है. हमने फिर प्रशासनिक अधिकारियों को लिखा है.'
किसी भी संसदीय राजनीतिक पार्टी के पास जनता का कोई मुद्दा नहीं रह गया है. जल-जंगल-जमीन की लूट, ऑपरेशन ग्रीनहंट, माओवादी बताकर फर्जी इनकांउटर व जेलों में बंद हजारों आदिवासियों को बंद रखना और महिलाओं के साथ जवानों द्वारा बलात्कार किसी भी पार्टी का चुनावी मुद्दा नहीं रहा है. खासकर दो राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां जो लोगों को बरगलाने के सिवा और कुछ नहीं कर रही हैं.
जहां छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने दर्भा घटना में मारे गये कांग्रेसी नेताओं को भुनाने की कोशिश की, वहीं भाजपा के पास केन्द्र में कांग्रेस सरकार को कोसने के अलावा और कुछ नहीं बचा है. जिस सलवा जुडूम में दोनों पार्टियों की सहभागिता रही है और करीब 650 गांवों के करीब दो लाख आदिवासियों को उजाड़ दिया गया, वह किसी भी पार्टी के लिए चुनावी मुद्दा ही नहीं बन पाया. वह आदिवासी कहां गये-किस हालत में हैं, उनकी आज तक न तो छत्तीसगढ़ सरकार, न केन्द्र सरकार और न ही किसी संसदीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा खबर ली गई.
आंध्र प्रदेश के खम्म जिले में छत्तीसगढ़ से पलायन करके आए मुरिया और माडि़या आदिवासियों की दो सौ से ज्यादा बस्तियां हैं. उनके प्रधान पदम पेंटा कहते हैं कि जब वे लोग सुकमा के सुदूर इलाकों में रहा करते थे, तो वहां कभी कोई सरकारी अधिकारी या नेता उनका हाल-चाल पूछने उनके गांव नहीं आया और न ही यहां कभी कोई अधिकारी, मंत्री या नेता आये.
वे कहते हैं कि वहां भी हमारा कोई नहीं था, यहां भी हमारा कोई नहीं है. इस इलाके में पलायन करके आये लोगों की संख्या एक लाख से ज्यादा हो सकती है क्योंकि कोई सर्वे अभी तक नहीं हुआ है. गांव के बुजुर्गों का कहना है कि उनके बच्चों की शिक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है. कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने बच्चों को पढ़ाने के लिए पहल की, तो आंध्र प्रदेश सरकार के फरमान से वह काम बंद हो गया.
क्या इस तरह के संगीनों के साये में 'लोकतंत्र' के महापर्व को मनाकर हम लोगों को जोड़ पायेंगे या 'लोक' को गायबकर तंत्र की ही रक्षा करते रहेंगे? मतदान के प्रतिशत बढ़ने का कारण कुछ भी हो उससे क्या आम लोगों को लाभ मिलेगा? क्या स्कूल से वंचित बच्चों के शिक्षा पूरी हो पायेगी? क्या उन ट्रक चालकों को न्याय मिल पायेगा, जो बीस दिन से भूखे-प्यासे सरकार की ड्यूटी बजा रहे हैं. क्या कोई न्यायपालिका, मानवाधिकार आयोग इनकी खोज-खबर करेगी?सुनील कुमार मजदूरों के मसले पर सक्रिय हैं.
Modi on Rampage: Reckless Abuse of History
Ram Puniyani
History is not just the past. It is a potent weapon for various political agendas in the present. It can be clearly seen in the use of history in rise of Hindu-Muslim rightwing in India. As far as presently dominant Hindu national politics is concerned, this abuse of history can be seen in the type and period of History used. When Meenaxipuram, conversions of dalits to Islam took place in 1981, the message taken up was that of Islam's spreading in India as a 'threat'. With the rise of Ram Temple movement, the indication was towards the Muslim kings' destroying Hindu temples and insulting Hindu religion. The Babri demolition and consequent violence had the underlying propaganda of temple destructions by Muslim kings. At the same time a slogan came up 'Muslaman ka do hi sthan: Kabristhan ya Pakistan (only two places for Muslims: Pakistan or graveyard), asserting that India is meant only for Hindus. As we move a bit more towards Gujarat carnage 2002 we see the projection of 'terrorism' and Muslims on one hand and the projection of Miyan Musharraf as the symbol of Indian Muslims. In Maharashtra Shivaji was projected in various ways to show the tyranny of Muslim kings. Currently serials like Bharat ka mahan Saput Rana Pratap, and Jodha Akbar also give the same message.
Lately the present history, history of Modern India is under the chopping block of communal forces. On one hand the projection of Sardar Patel, with emphasis on his being anti-Nehru and the other various conjectures of this period are being dished out. It is being asserted that Congress 'facilitated Partition' (Narendra Modi while talking in Kheda in Gujarat). This is a very motivated statement. As a matter of fact the two major leaders who were handling the negotiations at that time, on behalf of Congress, were Pundit Jawaharlal Nehru and Sardar Patel. Mr. Jaswant Singh's book on Jinnah, taking one sided view blames Nehru-Patel for partition. It was banned by Modi in Gujarat, as he won't brook any criticism of Sardar Patel. Here with a forked tongue, two things are being said at the same time, Patel eulogized for his contribution and Congress being blamed for partition, unmindful of the fact that it was Nehru-Patel duo, which was acting together on the issue of India's partition.
That way the tragedy of India's partition is like a big canvass, and most of the commentators look at the part of the canvass which suits their politics and put all the focus on that. This focusing on one part of canvass, selective historiography, is due to the motives and political understanding of these commentators. Seeing the whole process will tell us a different tale. The partition tragedy cannot be located just in the final phase when the negotiations between British rulers, Muslim League and Congress were going on. Partition process was the culmination of a long process, which began with the aftermath of anti-British revolution in 1857. The first factor in the process of division was the British decision to implement the policy of 'Divide and rule", thereby to introduce communal historiography. The second major factor was the persistence of feudal classes despite the beginning of industrialization and modern education. These feudal elements, the declining classes, felt threatened by the rising, nascent democratic nationalism, as represented in the formation of various organizations of industrialists, workers and educated classes and the formation of Indian National Congress. These declining classes, Hindus and Muslims landlord-kings, were together in the beginning. One major step in the direction to break them along religious lines was Lord Elphinstone's encouragement to Muslim landlords, Nawabs, and to recognize them as representatives of Muslims. This led to formation of Muslim League in 1906. In tandem with this Punjab Hindu Sabha came up in 1909, Hindu Mahasabha in 1915 and RSS in 1925. These communal organizations started getting support from section of educated elite apart from some upper castes and traditional traders. These communal organizations were against democratic nationalism and articulated religious nationalism.
The third and major theoretical expression for partition comes from the ideologue of Hindu Mahsasabha, Vinayak Damodar Savarkar, who said that there are two nations in the country, the Hindu nation and Muslim nation. The separate country for Muslims was articulated by Chowdhary Rahmat Ali in 1930, Pakistan. This got politically consolidated in 1940 with Jinnah's demand for a separate country in the form of Pakistan (West and East). Fourth important step in the direction was the fact that the demand of Pakistan suited the designs of British colonialist's long term plan to have a base in South Asia. As Communism, Soviet block was progressing and inspiring leaders of many national movements, like China Vietnam in particular, colonialists wanted to counter this by having a political base in South Asia. In India, Soviet Union inspired the communist and socialist movement. People of the caliber of Nehru, Jaya Prakash Narayan and others were with Congress Socialist Party, an in-house organization within Congress. Seeing the influence of socialist ideology on the major leaders of national movement, the colonialists and imperialists were keen that India should not remain united. There keenness of partition encouraged the demand of Pakistan.
Congress at this point of time found itself in a trap. On one side the stalwarts of National movement, Gandhi and Mualana Azad were opposed to the partition in the deeper political way. Nehru and Patel; experienced the blockades put up by the Muslim League in interim government. The choice before this duo was either to go on with a Cripps mission plan, which gave very little power to the center, or to go for partition and have a strong Center in India. The calculation of Nehru was that without the centralized economy; country cannot progress. The Bombay plan, economic blueprint of industrialists, wanted the state to provide for heavy industries, as industrialists realized that they are not capable for setting up large industries. This was parallel to the vision of Nehru, who envisaged land reforms and industrialization to take India forward. Sardar Patel had the vision of the strong center so he was also not for the loose federation of states as provisioned by Cripps mission.
To blame Congress of facilitating India's partition is nowhere close to the truth. But the way History, even the modern Indian history, is being bulldozed for the political convenience, and the eagerness to grab power come what may, sacrificing the truth, is not a big deal for the communal politicians.
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response only to ram.puniyani@gmail.com
Glorifying Communalists, Insulting
Freedom fighters
Nation Demands an Apology Mr Modi
Subhash Gatade
'Though this be madness yet there is method in it'
- 'Hamlett', Shakespeare
I.
Subhash gatade is a well known journalist, left-wing thinker and human rights activist. He has been writing for the popular media and a variety of journals and websites on issues of history and politics, human right violations and state repression, communalism and caste, violence against dalits and minorities, religious sectarianism and neo-liberalism, and a host of other issues that analyse and hold a mirror to South asian society in the past three decades. He is an important chronicler of our times, whose writings are as much a comment on the mainstream media in this region as on the issues he writes about. Subhash Gatade is very well known despite having been published very little in the mainstream media, and is highly respected by scholars and social activists. He writes in both English and Hindi, which makes his role as public intellectual very significant. He edits Sandhan, a Hindi journal, and is author of Pahad Se Uncha Admi, a book on Dasrath Majhi for children, and Nathuram Godse's Heirs: The Menace of Terrorism in India.
What would be your take if one fine morning, you get up and find name of a great freedom fighter getting replaced by someone who had collaborated with the colonialists, who had opposed people's anti-colonial upsurge and whose world view was contrary to the very idea of the Republic we live today. You would immediately seek an apology from the person who has openly insulted the memory of a great freedom fighter.
Thanks to a pliant media, the manner in which the issue of Modi's bad mouthing a great freedom fighter like Shyamaji Krishna Verma – by replacing him with a communalist namely Shyama Prasad Mukherjee in his speech – has got reduced to the 'slip of tongue' realm and nobody has tried either to scrutinise this mixing or ask Modi to tender an unconditional apology.
To recap, it may be mentioned that Modi had gone to inaugurate a hospital in Gujarat and got embroiled in this controversy during this speech. In the said speech he claimed that Shyama Prasad Mukherjee, was a 'great son of Gujarat and had built India house in London' He also claimed that this 'great son of Gujarat was in regular dialogue with Vivekanandand Dayanand Saraswati' and in his usual penchant for taking credits 'it was his good fortune to be able to bring back the ashthi (ashes) of Mukherjee from Geneva in 2003.'
The fact of the matter was that he was referring to Shyamaji Krishna Verma, a great nationalist (born 4 th October 1857) from Gujarat who was a lawyer, journalist who had gone to London, developed the India house (1902) which later became the living space for many Indian freedom fighters, started an English monthly, 'The Indian Sociologist' an organ of political, social and religious reform. History books tell us that Shyamji had died in Geneva in 1930.
Shyama Prasad Mukherjee, a Hindutva leader initially associated with Hindu Mahasabha and later shifting his allegiance to RSS to form Bharatiya Jansangh, also happened to be part of the first cabinet of Nehru formed after independence and also had served in a cabinet led by Muslim League in early 40′s. It need be underlined here that it was the period when there was tremendous ferment in the country and the 'Quit India movement' had been launched to oust the Britishers. Hindu Mahasabha was colloborating with the Britishers then and Savarkar was holding meetings in different parts of the country to support Britain's war efforts, it had no qualms in forming this coalition government in Bengal. On the one hand the 'Quit India' call reverberated throughout India but Hindu Mahasabha as well as Muslim League were enjoying fruits of power.
Supporters of Narendra Modi claimed that the said speech – which showed his complete ignorance about the important milestone in the trajectory of his own organization, the formation of Bhartiya Jansangh, the first mass political platform launched by RSS itself, – was just slip of tongue and not much should be read into it. If for arguments sake one agrees with the contention then immediately the next question arises about his string of speeches where he had made outrageous, false claims and even after being pointed out by critics the factual mistakes in his presentation did not deem it necessary to correct them and make necessary amends.
A sample of his completely false claims would be in order
- Nehru did not even attend Patel's funeral – despite proof to the contrary
-Alexander had come to Bihar and was defeated by Biharis – despite the obvious fact that Alexander never crossed the Ganges
- Placing Taxila in Bihar although it is in Pakistan
- Claiming that Chandragupta Maurya the legendary King belonged to the Gupta dynasty.
- China spends 20 % of GDP on education whereas Xinhua, the official news agency of China tells that it is around 3.75 % of GDP
What one is concerned here not just slip of tongue here and there – which can happen with anyone – in fact it is a new genre of speech which is on the one hand (according to observers) 'entertaining' and 'captivating' but if one digs further one finds it is built on sheer fiction, to say the least. And there is no spontaneity involved here leading to 'slip of tongue', everything is deliberate, presented before the masses in a packaged form for wider consumption to serve the larger agenda based on exclusion and hate.
The fascist style of political speech may be summarised in 3 words: affirmation, repetition and contagion. They spread lies and practice deceit as a matter of habit. Truth is whatever is convenient for serving their interests. More than anything else, it is the onslaught on the human mind that is the most dangerous feature of totalitarian politics – of any variety. The RSS in power will abolish truth completely. Modi's lies are a foretaste.
(http://dilipsimeon.blogspot.in/2013/11/modi-says-congress-committed-sin-of.html )
In fact, it would not be off the mark if one says that Modi has slowly metamorphosed into 'P N Oak' of Indian politics. It need be mentioned here that P N Oak was a very popular 'historian' in Hindutva circles who claimed that 'that Christianity and Islam are both derivatives of Hinduism, or that the Catholic Vatican, Kaaba and the Taj Mahal were once Hindu temples to Shiva'. Variously described as 'crackpot' or 'mythistorian' by critics his petition to the Supreme Court to declare Taj Mahal a shiva temple (Tejomahalya) were summarily rejected by the courts with a comment 'he had a "bee in his bonnet" that's why this petition.
The manner in which Modi has tried to appropriate Patel makes it very clear that he has grasped his P N Oak well.
II
Three months before his death Sardar Patel said " Our leader is Pandit Jawaharlal Nehru. Bapu appointed him his heir and successor during his lifetime and even declared it. It is the duty of the soldiers of Bapu that they abide by his orders. One who does not accept this order by heart would prove a sinner before god. I am not a disloyal soldier. For me it is unimportant what my place is. I only know that I am that very place where Bapu asked me to stand" – 2 nd October 1950, Indore
(Translated from original hindi, Purnahuti, Chaturth Khand, Page 465, Pyarelal, Navjeevan Prakashan, Ahmedabad)
An important characteristics of these Modispeaks is that in its hurry to belittle the Congress or stigmatise his adversaries, Modi has done a grave injustice to Patel's persona and abused history to no end. In fact it would be better to put it this way that NaMo has carved out a Patel which suits his politics but is unrecognisable to anyone outside the Parivar.
"Sardar Patel is no more a symbol of pride for the Gujaratis. Today, Modi has reduced him to a symbol of victimhood of Nehru dynasty and an unfulfilled desire" (http://www.truthofgujarat.com/vicitimization-sardar-vallabhbhai-patel ).On the one hand he euologises Patel, claims that India's future would have been different if he would have become the first PM of India, tries to create a false adversarial relation between him and Nehru and simultaneously in the same breath 'abuses' him. Perhaps if wiser sense would have prevailed he would not have held Congress responsible for partition or for being instrumental in changing the history and geography of the subcontinent knowing fully well that Patel was part of the triumvirate apart from Gandhi and Nehru, which played a key role before and after Partition.
Definitely Modi would not like to remember at this juncture his government's move to ban a book by Jaswant Singh 'Jinnah: India – Partition – Independence' for 'questioning the role of Sardar Patel during the partition of India as well as his patriotic spirit.' which was 'an attempt to tarnish the image of Patel who is considered the architect of modern united India.' (2009) The ban was later lifted by the Gujarat high courts. Why did Modi felt infuriated with this book because it placed facts – which were already available in public domain – about the role of these national leaders during that period and their slowly accepting the impending partition of the country. If Jaswant Singh could be removed from the Party for 'questioning the core beliefs of the Party' on this issue itself , then similarly should not the high priests of Hindutva reprimand Modi himself for targeting Patel (who formed the core of Congress leadership).
In fact Modi in particular and RSS in general is faced with two kinds of problems
One the RSS did not participate in the anti-British struggle for independence as an organisation nor encouraged its activities to work for independence. There are instances when it tried to discourage its activists in participating in the struggle and made derogatory remarks about great freedom fighters.
Secondly, ideologues of Hindutva were the first to declare that Hindus are a separate nation. Sample their hero V.D Savarkar's declaration on August 15, 1943: "I have no quarrel with Mr Jinnah's two-nation theory. We Hindus are a nation by ourselves and it is a historical fact that Hindus and Muslims are two nations" (Indian Annual Register 1943 vol.2 p.10).
To get over this absence of any real hero of the masses who owned allegiance with their exclusivist ideology, they are engaged in appropriating leaders from the anti-colonial movement- showing their alleged proximity to their worldview.
In light of their attempts to portray Patel as opposed to Nehru, it would be opportune to read Sardar Patel himself in a book titled "Nehru Abhinandan Granth – A birthday book'. The book was released in 1949, to mark diamond jubilee birth celebrations of Pt Nehru, recognising Pt Nehru's credentials as idol of the nation, hero of the masses and leader of the people and also addressing Nehru as a person who is willing to seek and ready to take any advice, contrary to the impressions created by some interested persons. Patel writes:
"Jawaharlal and I have been fellow members of the Congress, soldiers in the struggle for freedom, ..This familiarity, nearness, intimacy and brotherly affection make it difficult for me to sum up for public appreciation, but then, the idol of the masses, the leader of the people, the Prime minister of the country and the hero of the masses, whose noble record and great achievements are an open book, hardly needs any commendation from me."
.."As one older in years it has been my privilege to tender advice to him on the manifold problems with which we have been faced in both administrative and organisational fields. I have found him willing to seek and ready to take it. Contrary to the impressions created by some interested persons and eagerly accepted in credulous circles, we have worked together as lifelong friends and colleagues, adjusting ourselves to each other's point of view as the occasion demanded and valuing each other's advice as only those who have confidence in each other can".
He further writes "in the fitness of things that in the twilight preceding the dawn of independence, he should have been our leading light and that when India was faced with crisis after crisis, following the achievement of our freedom, he should have been the upholder of our faith and the leader of our legions. No one knows better than myself how much he has laboured for his country in the last two years of our difficult existence. I have seen him age quickly during that period on account of the worries of the high office that he holds and the tremendous reponsibilities that he wields."
Of course, Modi cannot be held solely responsible for denigrating 'own' heroes. For someone who has been a Swayamsevak since his teens, where you are fed with all sorts of rubbish ideas as part of Baudhik can you expect something better. In fact, anyone conversant with Sangh history can vouch that there is nothing new as far as 'abusing' own heroes is concerned if it helps present a sanitised image of RSS. As an aside one can look at how RSS had no qualms in denigrating Savarkar himself to 'prove' its innocence in the assassination of Mahatma Gandhi.
The assassination of Mahatma Gandhi by Nathuram Godse, a Hindu fanatic and the alleged role played by RSS in it is still debated. Few years back when some fresh facts emerged to buttress the case, RSS had issued press statement denying any culpability in this killing and in the process itself maligned Savarkar – a key ideologue of the project of Hindutva.
The Rashtriya Swayamsevak Sangh today denied that it had anything to do with the assassination of Mahatma Gandhi and as "proof" of its innocence circulated a copy of a letter written by Sardar Vallabhbhai Patel to Jawaharlal Nehru just 28 days after the murder. However, it seems that the RSS overlooked the fact that the same letter blamed V.D. Savarkar for hatching the conspiracy and "seeing it through" while emphasising that "the assassination was welcomed by those of the RSS and the [Hindu] Mahasabha."
(RSS releases `proof' of its innocence, By Neena Vyas, 17 th August 2004,http://www.hindu.com/2004/08/18/stories/2004081805151100.htm )
III
That day Delhi caught Punjab's infection. "I will not tolerate Delhi becoming another Lahore," Vallabhbhai declared in Nehru's and Mountbatten's presence. He publicly threatened partisan officials with punishment, and at his instructions orders to shoot rioters at sight were issued on September 7.Four Hindu rioters were shot dead at the railway station in Old Delhi.
(P.428, Patel : A Life, Rajmohan Gandhi, Navjeevan Publishing House, Ahmedabad)
Whatever might be the claims of his cheerleaders – who felt happy when NaMo talked of 'Hindus and Muslims uniting together to fight poverty' or 'Pahle Shauchalay aur Phir Devalay' (Toilets first, Temples later) – the core of his 'divisive, prejudice deepening politics' is not going to go away easily. It would be too much to expect that one fine morning NaMo would be able to undertake a Kafkasquean metamorphosis and do away with what his biographer Nilanjan Mukhopadhyay calls 'myopic view of history, an exaggerated notion in his abilities and disdain for viewpoint of the 'other'.'
For someone who is in a hurry to reach the topmost post in the country – any sort of 'unlearning' seems impossible.
A beginning can only be made if he tenders an unconditional apology for the carnage in 2002 and opens himself for a legal scrutiny of his alleged acts of omission and commission during that tumultuous period.
<a href="http://www.hastakshep.com/english/opinion/2013/11/14/glorifying-communalists-insulting-freedom-fighters">Glorifying Communalists, Insulting Freedom fighters</a>
वो दस दिन जब दुनिया हिल उठी
विभोर मिश्राइंदौर। "वो मौसम रूस के लिये सदी का सबसे सर्द मौसम था। जर्मनी से हर मोर्चे पर लगातार मिल रही हार, बिना बिजली, खाने और बग़ैर छत के लोग सिर्फ मरने के लिये जी रहे थे, और अन्त में मर रहे थे। लाखों गरीब किसानों की मौत के साथ वो साल बीता।"
1916 इतिहास के पन्नों में कुछ इसी तरह दर्ज़ है। यही हालात ज़मीन बने 1917 के रूसी इंक़लाब की। मौका था अक्टूबर क्रांति की 96वीं वर्षगांठ का और जगह थी इंदौर में एमपीबीओए का दफ्तर।
7 नवम्बर को मनाये जाने वाले रूसी क्रांति दिवस को अक्टूबर क्रांति दिवस कहने पर अनेक लोगों को अचरज लगता है। दरअसल 1917 में रूस में जूलियन कैलेंडर प्रचलित था जिसके मुताबिक रूसी क्रांति 25 अक्टूबर को हुयी थी। सारी दुनिया में प्रचलित मौजूदाग्रेगोरियन कैलेंडर, जिसे हम लोग भी इस्तेमाल करते हैं, के मुताबिक उस दिन 7 नवम्बर की तारीख़ थी। इस दिन को दुनिया भर में सर्वहारा की ऐतिहासिक जीत के रूप में मनाया जाता है।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में पूँजीवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण नयी पीढ़ी के लोगों को सर्वहारा की इस महान क्रांति के इतिहास से वंचित रखा जा रहा है। यह कोई हज़ारों साल पहले की नहीं बल्कि सिर्फ़ 96 वर्ष पहले की ही घटना है जब आम लोगों ने पहले रूस को और फिर सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया था। सन् 1917 में हुयी वहबोल्शेविक क्रांति दुनिया के अनेक देशों के इंकलाबियों के लिए प्रेरणा बनी। सन्दर्भ केन्द्र ने इंदौर में इस बार 7 नवम्बर 2013 को रूसी क्रांति की सालगिरह पर उस क्रांति के गौरवशाली इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में जानने-समझने को उत्सुक युवाओं के साथ पूरे दिन की एक कार्यशाला की, और रूस में हुयी क्रांति के बारे में, क्रांति के बाद बने सोवियत संघ के बारे में, वहाँ हुये परिवर्तनों के बारे में विस्तार से जानने – समझने की कोशिश की। कार्यशाला में क्रांति को एक विज्ञान के रूप में समझने की कोशिश के साथ ही उन महान मज़दूरों, किसानों और इंकलाबियों को याद किया गया जिन्होंने दुनिया भर में इस यक़ीन को हमेशा के लिए पुख्ता किया कि यह दुनिया आम लोगों द्वारा बदली जा सकती है और पूँजीवाद कितना भी ताकतवर हो, वह भीतर से न केवल खुद खोखला होता है बल्कि मुनाफ़े की हवस में दुनिया को भी खोखला करता जाता है।
समाजवाद और पूँजीवाद क्या हैं? इस बुनियादी प्रश्न पर कॉमरेड जया मेहता के परिचयात्मक संक्षिप्त वक्तव्य के बाद रूसी क्रांति के पूर्व की परिस्थितियों का विवेचन किया गया जो 1917 की क्रांति का आधार बनीं। उन्होंने बाकुनिन के अराजकतावाद से लेकर पोपुलिस्ट नरोदनिकोंके बारे में बताया जो ज़ार के शासन को राजनीतिक हत्याओं द्वारा ख़त्म करना चाहते थे लेकिन उसके बाद के समाज को लेकर स्पष्ट नहीं थे।
सन 1861 में रूस में ग़ुलाम किसानों को कथित आज़ादी देने वाले कानून से लेकर 1870 में पेरिस कम्यून से होते हुये लेनिन के भाई की नरोदनिक गुट के साथ ज़ार को बम से उड़ाने की साज़िश, गिरफ्तारी और हत्या के वाकये से होते हुये उन्नीसवीं सदी के अन्त में नए मार्क्सवादी समूह के उभार के बारे में जानकारी दी। उन्होंने बताया कि 1900 के पहले तक लेनिन भी विभिन्न राजनीतिक विचारों वाले गुटों के हिस्सा थे। सन् 1902 में उनके पर्चे "हमें क्या करना चाहिए" से खड़ी हुयी बहस ने उनकी पार्टी के भीतर विभाजन कर दिया। लेनिन की पार्टी को ज़्यादा वोट मिलने के कारण वह कहलायी बोल्शेविक और जिनके मत कम थे, वे कहलाये मेन्शेविक। सन् 1903 से 1905 की असफल क्रांति से होते हुये पहले विश्वयुद्ध और फिर फरवरी 1917 की क्रांति और अक्टूबर में हुयी समाजवादी क्रांति तक के इतिहास, उस समय के रूसी समाज और आर्थिक परिवर्तनों के बारे में विस्तार से बात हुयी।
चर्चा को संचालित करते हुये कॉमरेड विनीत तिवारी ने भागीदारों को उस वक़्त के मतभेदों और ट्राटस्की, प्लेखानोव, वेरा जासुलिश आदि क्रांतिकारियों और उनकी बहसों के मुद्दों को भी बताया।
पृष्ठभूमि स्पष्ट करने के बाद रूसी क्रांति के आंखों देखे गवाह रहे अमेरिकी पत्रकार जॉन रीड की किताब पर बनी फ़िल्म "वो दस दिन जब दुनिया हिल उठी" का प्रदर्शन किया गया। यह फ़िल्म विश्व के महान फ़िल्मकार आईजेन्स्टाइन के सहयोगी रहे ग्रिगोरी अलेक्सांद्रोव ने बनायी थी और इसमें पहले विश्व युद्ध और 1917 के दौर के कुछ ऑरिजिनल फुटेज का इस्तेमाल किया गया है। हिंदी में यह फ़िल्म सन्दर्भ केन्द्र द्वारा डब की गयी है और अब तक इसके देश-विदेश में सैकड़ों प्रदर्शन हो चुके हैं। फ़िल्म में बताया गया कि सन् 1861 में रूस से मज़दूर प्रथा खत्म होने के बाद लाखों किसान खेत छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने लगे, बद से बदतरी की ओर। चौड़ी सडकों और आलीशान इमारतों के चकाचौंध भरे शहर के पीछे बसी बस्तियों में मज़दूरों की ज़िन्दगी किसी लिहाज़ से ग़ुलाम किसानों से बेहतर नहीं थी। ज़ार के खिलाफ आवाज़ उठना शुरू हो रही थी। और साथ ही क्रूर सशस्त्र दमन भी। इसी दौरान सन् 1887 में एक युवा छात्र नेता को ज़ार के खिलाफ़ षड्यंत्र के आरोप में फाँसी दे दी गयी। उसका नाम था अलेक्ज़ेंडर उल्यानोव। वह तब सत्रह के हुये व्लादिमिर उल्यानोविच 'लेनिन' का बड़ा भाई था। लेनिन ने बाद में मार्क्स को पढ़ना शुरु किया और जाना कि ज़र को मारने से ज़्यादा ज़रूरी इस व्यवस्था को बदलना है जो ज़ार को असीमित शक्तियों का मालिक बनती है। ज़ारशाही के खिलाफ संघर्षरत लेनिन को पहली बार 1895 में गिरफ्तार किया गया। 1904 में जापान से मिली हार और सैंट पीटर्सबर्ग की भयानक सर्दियों के अगले साल पहली बड़ी हड़ताल हुयी जिसमें 30 लाख से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। जिसे ज़ार द्वारा कुछ रियायत देने के वादे के साथ दबा दिया गया। बिगड़ते माहौल के बीच दूसरी हडताल साईबेरिया की सोना खदानों के मज़दूरों ने 1912 में और 1917 तक आते-आते ज़ारशाही के अन्त के साथ ही क्रांति की कवायद तेज़ हो गयी। अक्टूबर 1917 में बोल्शेविक पार्टी ने लगभग बिना खून-खराबे के सत्ता हासिल की।
फ़िल्म के उपरान्त हुयी चर्चा में भागीदारों के सवालों का जवाब देते हुये कॉमरेड जया मेहता, कॉमरेड विनीत तिवारी और कॉमरेड अभय नेमा ने रूसी क्रांति के बाद बनी रूस के भीतर की गृहयुद्ध की परिस्थियों, एक पिछड़े और सामन्ती देश में समाजवादी क्रांति करने की मुश्किलों, लेनिन द्वारा अपनाई गयी नयी आर्थिक नीति (नेप), कृषि से सरप्लस का उद्योगों के भीतर स्थानान्तरण, सम्पत्ति के सामाजिकीकरण, एक नए मनुष्य के निर्माण की कोशिश, वैश्विक आर्थिक मंदी, फ़ासीवाद के उभार और दूसरे विश्वयुद्ध की परिस्थितियों से लेकर सोवियत संघ के विघटन के कारणों व् मौजूदा हालात पर भी बात की। सवाल-जवाब के दौरान हिंसा से समाजवाद का सम्बन्ध जोड़ने वाले पूँजीवादी मीडिया की साज़िशों और सर्वहारा की तानाशाही का अर्थ भी स्पष्ट किया गया और रूसी क्रांति का दुनिया के बाकी देशों के लिये महत्त्व भी रेखांकित किया गया।
कॉमरेड जया मेहता ने पूर्व समाजवादी देशों की योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था और उससे सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले बदलावों के बारे में विस्तार से बताया। समाजवादी जर्मनी और बर्लिन की दीवार टूटने के बाद एकीकरण से पूँजीवादी चँगुल में आये जर्मनी- दोनों के फर्क को स्पष्ट करते हुये उन्होंने कहा कि समाजवाद में उपभोक्ता वस्तुएं ज़यादा नहीं थीं लेकिन ज़रूरी चीज़ें सभी के लिये थीं। नब्बे फीसदी से ज़यादा औरतें रोज़गार में थीं। उन्हें सम्मान, सुरक्षा और रोज़गार देना ही नहीं, बल्कि उनके बच्चों को पौष्टिक खाना, अच्छी शिक्षा, खेल के अवसर देना, बुज़ुर्गों की देखभाल करना भी राज्य की ज़िम्मेदारी थी। यह स्थिति पूंजीवाद कभी नहीं कर सकता क्योंकि उसका निज़ाम ही शोषण के आधार पर चलता है। लेकिन जो समर्थ हैं, उन्हें लगता है कि हम पूँजीवादी व्यवस्था में ज़्यादा कमायेंगे और ज़यादा सुख से रहेंगे क्योंकि हमारे पास अधिक योग्यता है, तो वे पूँजीवाद के प्रति आकृष्ट होते हैं। इस आकर्षण को ज़बरदस्ती नहीं रोका जा सकता। इसीलिये लेनिन ने अंतर्राष्ट्रीयतावाद की बात की थी ताकि पूरी दुनिया के लोगों में समाजवादी मानसिकता का निर्माण हो सके।
कॉमरेड अभय नेमा ने अपनी पुस्तक लेनिन का अंश सुनाते हुये सोवियत संघ की उपलब्धियों की चर्चा की और बताया कि वहाँ शोषितों के पक्ष में 1917 की क्रांति के तुरन्त बाद इतनी चीज़ें हुयी थीं जिनके लिये हम आज भी लड़ रहे हैं और किसी पूँजीवादी देश में ऐसे प्रगतिशील कार्यक्रमों को लागू करने का माद्दा नहीं है।
अंत में क्यूबा, वेनेज़ुएला, निकारागुआ, बोलीविया, इक्वेडोर, नेपाल आदि देशों से होते हुये बात हिंदुस्तान तक आयी। सवाल उठा कि क्या हिंदुस्तान जैसे देश में रूस जैसी क्रांति हो सकती है? वक्ताओं ने जवाब में कहा कि हिंदुस्तान में हिंदुस्तान के किस्म की ही क्रांति होगी, न रूस जैसी और न चीन या क्यूबा जैसी। लेकिन क्रांति ज़रूर हो सकती है। जब रूस कि जनता ने रूस के भीतर क्रांति की तो कौन सोचता था कि रूस जैसे पिछड़े, अनपढ़ और गरीब लोगों के देश में क्रांति हो सकती है। हो सकती है तो कितने दिन टिक सकती है। लेकिन क्रांति रूस के लोगों ने मुमकिन की और उसे आगे भी बढ़ाया। रूस की क्रांति यही सिखाती है कि जब तक दुनिया के किसी भी हिस्से में पूँजीवाद, शोषण और गैर बराबरी है तब तक वहाँ क्रांति ज़रूर हो सकती है, और उसे मुमकिन करना क्रांतिकारी शक्तियों की ज़िम्मेदारी है।
इस कार्यशाला में भागीदारी की पंखुडी मिश्रा, सारिका श्रीवास्तव, जया मेहता, आस्था तिवारी, समीक्षा दुबे, रुचिता श्रीवास्तव, अभय नेमा, विभोर मिश्रा, हेमंत चौहान, केसरी सिह, तौफीक़ होमी, राज लोगरे, सुरेश डूडवे, सुरेश सोनी और विनीत तिवारी ने। रूसी क्रांति की याद से उपजी ऊर्जा और वैचारिक ऊष्मा से भरे प्रतिभागियों ने चाहा कि वे दुनिया के बाकी देशों में हुयी क्रांतियों के बारे में भी जानने-समझने और सोचने के लिए जल्द फिर मिलेंगे।
http://www.hastakshep.com/hindi-news/
Dalit boy slapped with slippers in Karuvapulam school- The Hindu
Man abandons dalit wife, new born child to live with family; authorities force him to accept them with
full honour- Daily Bhaskar
Paramakudi firing: Clean chit to police- Frontline
http://www.frontline.in/the-nation/paramakudi-firing-clean-chit-to-police/article5338975.ece
'Depute para-military force in dalit dominated areas'- The Times Of India
Congress develops database to help it win Dalit voters and 84 reserved seats - The Economic Times
Honour killing: Man, sons shoot 19-yr-old daughter- The India Express
http://www.indianexpress.com/news/honour-killing-man-sons-shoot-19yrold-daughter/1194800/
Cabinet clears changes in SC/ST Act despite Sharad Pawar, Ajit Singh objections-The Indian Express
No One Killed Them- EPW
http://www.epw.in/editorials/no-one-killed-them.html
The Hindu
Dalit boy slapped with slippers in Karuvapulam school
He called his friend, but the call divert facility took it to his teacher's mobile phone
When Ramesh (name changed) bought a new phone last week, he did not realise that an unexpected technical glitch would trigger a caste-dictated backlash from his teacher at a government higher secondary school here.
An innocuous call to his friend Kumar (name changed) to exchange his new number on the night of November 7 went to his teacher due to call divert facility. The unexpected technical glitch and the ensuing friendly banter by an unaware Ramesh did not go down well with the teacher P. Arul, a temporary hand appointed by the Parent-Teachers' Association to teach "draughtsman civil" for Ramesh's vocational stream in Class 12 at Nadesanar Government Higher Secondary School at Ayakaranpulam in Vedaranyam.
For the two Dalit boys, despite their apologies, the backlash came in the form of public slap with slippers on the school premises the following morning. The boys were summoned by the teacher, pulled up by their collars, and slapped with slippers outside their classroom.
A staff member of the school, on condition of anonymity, told The Hindu that the incident took place on Friday morning, outside the class. There were a number of witnesses to it. "However, no one has lodged a complaint."
If suo motu action is initiated by the school against the teacher, it would lead to insinuations, the staff source said. According to the school head, Seethalakshmi, the incident was not brought to her knowledge. "I was away for the headmasters' meeting at the Collectorate. Nobody brought it to my notice and I have not received any complaint"
When The Hindu visited Ramesh and his parents in their thatched dwelling unit in Karuvapulam, they preferred not to pursue the matter.
A visibly upset Ramesh has not attended school since the incident. For Kumar, with no father and a mentally unstable mother, there is no recourse. He continues to attend school. Kumar could not be reached by The Hindu.
The Chief Education Officer, Ramakrishnan, said a Deputy Education Officer had been deputed to the school to hold an enquiry.
In a late evening development, an oral enquiry was conducted by the DEO at the school. Sharing the proceedings of the enquiry, the staff source present at the time said oral testimonies, including that of the teacher's and Kumar's, were taken. However, a written statement was not recorded.
Daily Bhaskar
Man abandons dalit wife, new born child to live with family; authorities force him to accept them with
full honour
Jhajjar: A woman has approached authorities as her husband abandoned her. The couple had married against the wish of their parents and had been living separately. She recently gave birth to a child.
Resident of Sonipat's Kadauli resident Kavita was born in a dalit family. She married Govind who belonged to upper caste family. Families of the couple chucked them out of their houses. Govind shifted in a small room along with Kavita.
After marriage Kavita never went to her in-laws house. They quarreled when she demanded to live in Mukesh's parental house. One day he left her even when he knew that she was pregnant with her baby.
Last month, with the fear of law Mukesh reconciled with her. However, after the woman withdrew her complaint he again abandoned her.
On Monday, authorities decided to arrest Mukesh. This time he and his family promised in written that they would accept her as their daughter-in-law with full honour and would take care of the child.
Frontline
Paramakudi firing: Clean chit to police
http://www.frontline.in/the-nation/paramakudi-firing-clean-chit-to-police/article5338975.ece
THE Justice Sampath Commission of Inquiry appointed by the Tamil Nadu government to inquire into the police firing at Paramakudi in Ramanathapuram district on September 11, 2011, in which six Dalits were killed and several others injured, has virtually given the police a clean chit. Dalits had gathered in large numbers at Paramakudi to pay homage to their icon and freedom fighter, Immanuel Sekaran, on his 54th death anniversary. Sekaran was murdered by some caste Hindus on September 11, 1957.
The All India Anna Dravida Munnetra Kazhagam government ordered the judicial probe by Justice K. Sampath, a retired judge of the Madras High Court, on September 13, 2011. The commission submitted its report to the government on May 7, 2013. The report, in two volumes, tabled in the State Assembly only on October 30, claimed that the police action was "absolutely warranted to maintain peace and restore normalcy". Listing out the factors and circumstances that "gave rise to the opening of fire and subsequent law and order disturbances", the report said the detention of Tamizhaga Makkal Munnetra Kazhagam leader John Pandian, who was scheduled to visit Paramakudi to pay homage at the memorial of Sekaran, had sparked protests by Dalits.
Following intelligence reports that Pandian also had plans to visit Pacheri, a Dalit hamlet near Paramakudi, where a Dalit boy, Palanikumar, had been brutally murdered by caste Hindus two days before Sekaran's death anniversary, the police wanted to "play it safe" in order to ensure law and order, according to the report. The commission also said that Pandian's supporters staged a "road-roko" in the town, preventing followers of Puthiya Tamizhagam leader K. Krishnasamy from proceeding to Sekaran's memorial.
Dubbing the view that the law enforcers had a bias against Dalits a "myth", the commission said, "It was the Dalits already fuming over the murder of Palanikumar who had triggered off the violence despite repeated persuasion by police…. If the firing had not been resorted to, the consequences would have been disastrous…. It was more a case of self-defence by the police." Had the police not resorted to firing to quell the "savage mob", the violence would have "fanned the flames of caste clashes not only in that area but in other southern districts as well".
Although the probe panel absolved the police of any excesses, it said the conduct of some of them after the riots were quelled was "disgraceful and at variance with the prescription of the Police Standing Orders, as could be seen from the fact that several rioters were beaten up after they were rounded up". The commission called for "more intensive investigation" into the death of one of the victims, Theerpukani. It also recommended a further inquiry into the "undue delay" in sending S. Vellaichamy, another victim, to a hospital in Madurai, that too without an attendant.
Interestingly, the State government, which has accepted most of the commission's findings, has rejected the "disparaging remarks made about the police in the aftermath of the riots". It has also decided against accepting the panel's recommendations relating to prohibition and freebies.
The timing of the tabling the report has also disturbed human rights organisations and Dalit groups. The Tamil Nadu Untouchability Eradication Front has dubbed the report an "attempt to protect the erring police personnel". A statement issued by its president, P. Sampath, and general secretary, K. Samuel Raj, said the affected people and human rights organisations had moved the Madras High Court, seeking a probe by the CBI. The State government hastily ordered the judicial probe even as a CBI investigation was under way. The government was criticised for tabling the report in the Assembly after much delay. The general secretary of Thyagi Immanuel Peravai, P. Chandrabose, said Dalit organisations were not surprised at the outcome of the probe. Various judicial inquiries ordered by successive State governments in the past, including the ones relating to the Keezhvenmani massacre of 1968, the Kodiyankulam rampage of 1995 and the Thamiraparani tragedy of 1999, had absolved the police and other government personnel of guilt, he added.
Dalit organisations have staged protests in different parts of the State objecting to the findings of the Sampath Commission.
S. Dorairaj
The Times Of India
'Depute para-military force in dalit dominated areas'
AJMER: Center for Dalit Rights on Wednesday demanded that the district administration should depute para- military force in the regions that have a high concentration of dalits. The centre alleged that during elections, dalit voters in these pockets are threatened to vote in favour of a particular candidate.
"There are cases in which certain leaders forced dalits to stay at home on the day of voting. Also, there have been instances when dalits were not allowed to enter the polling booth in an area dominated by the upper castes," said Meetha Lal Jatav, coordinator of Dalit Election Watch, a unit under the Centre for Dalit Rights.
The center also demanded to close circuit cameras on polling station in these sensitive areas. "Most of the dalit women face problem on the day of voting and therefore the arrangements will help them for free and fair voting. The center has also started election watch in the state and a control room is established in Jaipur. "We are demanding to bond anti social elements of these sensitive regions who came to threat dalits for voting in favor of certain candidates" Ramesh Bansal, coordinator of the center.
The Economic Times
Congress develops database to help it win Dalit voters and 84 reserved seats
NEW DELHI: Congress is employing a multipronged approach to woo Dalit voters ahead of 2014 general elections.
The party has decided to focus mainly on 11 states including Uttar Pradesh that have the most reserved seats, besides identifying the reasons for the party's successive defeats in these segments and picking Scheduled Caste candidates well in advance.
The party has identified the states that have more than three reserved constituencies each, K Raju, head of Congress' Scheduled Castes department told ET. "We are developing a database on what have been the issues in these constituencies, who were the candidates, the factors why the party has not done well and the general moorings in the parliamentary segments. This will help us in selecting better candidates," said Raju, a former bureaucrat who was hand-picked by Congress vicepresident Rahul Gandhi to head the department that had been nearly defunct.
The database will include constituency-wise details of prospective candidates, electoral pattern over the past three elections, socio-political groups active in the constituency, electoral issues and reasons for the party's defeats.
In all, there are 84 parliamentary constituencies across the country reserved for Scheduled Castes. Of these, 72 are in the states that the party has decided to concentrate on - Uttar Pradesh (17), Andhra Pradesh (7), Bihar (6), Karnataka (5), Madhya Pradesh (4), Maharashtra (5), West Bengal (10), Odisha (3), Punjab (4), Rajasthan (4) and Tamil Nadu (7).
Congress won just 24 of these 72 seats in 2009, drawing a blank in states including West Bengal and Odisha.
In the crucial Hindi heartland, where it has lost considerable clout over the past five years, it held two reserved seats in Uttar Pradesh, one in Bihar and two in Madhya Pradesh. Apart from early selection of candidates, the party has decided to depute Dalit ministers from the Centre for special rallies to these constituencies.
A panel of Dalit ministers and senior Congress leaders - including Home Minister Sushil Kumar Shinde, Mallikarjuna Kharge - has been drawn up.
The India Express
Honour killing: Man, sons shoot 19-yr-old daughter
http://www.indianexpress.com/news/honour-killing-man-sons-shoot-19yrold-daughter/1194800/
A 19-year-old girl of Thakur community was shot by her father and two brothers when they found a Dalit youth in her room at their house in Etmadpur police station area of Agra Monday night. The accused allegedly pumped five bullets in the girl's body.
The victim's father, Ashok Sikarwar, initially tried to frame the youth for the murder.
However, after preliminary investigation found his involvement in the murder, Sikarwar was arrested and produced before court Tuesday. Two of Sikarwar's sons, Sachin and Vipin, were also found to be involved and are absconding, said Etmadpur police station station officer (SO) Amit Kumar.
The SO said Sher Singh (25) of Chaugan village, who was allegedly having an affair with Ruchi (19) of the same village, reportedly entered the girl's house and went to her room Monday night. Ruchi's father woke up, called his sons and went inside the girl's room. As the girl ran outside, the father and sons are said to have fired at the girl with a licensed revolver and country-made weapons, killing her on the spot.
Sher Singh, however, bolted the door from inside. When he did not open the door, the girl's family locked the door from outside and raised an alarm. Locals rushed to the house and were told that dacoits had shot the girl and one of them was locked inside the room.
"A police team reached and took Sher Singh in custody," said the SO. During questioning, Sher Singh revealed that the girl's father and her two brothers had killed her. The girl's father was brought to the police station where he confessed to his crime.
The Indian Express
Cabinet clears changes in SC/ST Act despite Sharad Pawar, Ajit Singh objections
Despite opposition from two senior ministers, the cabinet on Wednesdaycleared amendments to the Scheduled Caste and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, including one that makes mere knowledge of SC/ST status of the victim sufficient to establish guilt.
Civil Aviation Minister Ajit Singh of RLD and Agriculture Minister Sharad Pawar of NCP held that with misuse of the POA Actincreasing, the amendments may make matter worse. Singh said there are increasing instances of a lower caste person being used as a pawn in a fight between two upper castes. Social Justice and Empowerment Minister Kumari Selja insisted all states have been taken on board and the amendments need to be adopted without further delay.
The primary change is that mere knowledge of perpetrator of an atrocity that the person targeted belongs to a scheduled caste or tribe is enough to make him/her guilty. The ministry's stand is there are many instances where police have refused to register a case as the complainant at the time of lodging it, could not prove his/her caste identity.
Among the atrocities listed are preventing those from SC/STs from filing election nomination or forcing them to withdraw,social/economic boycott, preventing them from using common property like tubewells or preventing them from entering a place of worship, destruction of crops sown by SC/STs or filing counter cases to force withdrawal of complaints.
The amendments provide for dedicated courts and special public prosecutors. Each trial has to be completed in two months from filing chargesheet with delays being reported to the High Court. Offenders can be fined up to Rs 1 lakh.
The Cabinet also approved the health ministry proposal to start a BSc (community health) programme for creation of a mid-level health cadre. The BSc (community health) proposal was moved by the ministry even after an unequivocal no from a standing committee. The ministry, to quell protests, put in a caveat that states that do not want to start the programme can opt out.
EPW
No One Killed Them
http://www.epw.in/editorials/no-one-killed-them.html
The acquittal of the Laxmanpur-Bathe accused is a shocking miscarriage of justice.
The Patna High Court's decision on 9 October 2013, setting free all the 26 men who had been convicted by a sessions court for the Laxmanpur-Bathe massacre reflects on the poor state of the justice-dispensing mechanism in the country. There will be no justice then for the deaths of the 58 who were murdered in 1997.
Notwithstanding the legality or otherwise of the grounds on which the division bench arrived at its decision (it found that the prosecution witnesses on whom the sessions judge had based his verdict to convict the accused were unreliable), it has yet again shaken the faith of the poor in the republic and on the principle of constitutional democracy. In doing so, the Patna High Court simply repeated its April 2012 decision in the Bathani Tola case (21 dalits were murdered in similar circumstances in 1996). This has added to the instances of the higher judiciary contributing to the process whereby the "wretched of the earth" (to borrow Frantz Fanon's evocative book title) are led to the path of vengeance rather than that of justice. The acquittals of the accused in the Laxmanpur-Bathe and Bathani Tola cases are not unprecedented. They follow a pattern.
The Jabalpur Bench of the Madhya Pradesh High Court had delivered a similar verdict in the case of the murder of the trade union leader Shankar Guha Niyogi, who was shot dead on 28 September 1991 in Bhilai by an assassin allegedly hired by some industrialists. In June 1997, the trial court at Durg found evidence of the involvement of at least five industrialists from Bhilai in a conspiracy to murder Niyogi and sentenced them to life imprisonment. The assassin hired to murder Niyogi was sentenced to death. In June 1998, the Madhya Pradesh High Court reversed this judgment, acquitting all the accused. Both the Central Bureau of Investigation and the Chhattisgarh Mukti Morcha appealed against the acquittal in the Supreme Court. In 2005, the apex court upheld the high court verdict but sent the assassin to life imprisonment. Though political discourse in the Dalli Rajhara region was predominantly within the ambit of constitutional democracy during Niyogi's lifetime, it had begun to turn elsewhere by the time the Supreme Court bench upheld the high court verdict.
The massacre of 58 persons (all from the oppressed and marginalised sections of society), on the night of 30 November-1 December 1997 in Laxmanpur-Bathe by armed marauders of the upper-caste Ranveer Sena was not an isolated incident. The private militia, set up by the landowning classes, predominantly the Bhumihars, to "deal" with increasingly assertive poor peasants and landless agricultural labourers, had carried out such terror attacks elsewhere. The Bihar Land Reforms Act, 1950 has remained a pious wish, notwithstanding the rhetoric that marked its passage in the state assembly as well as during the vote on the Constitution (First Amendment) Act, 1951, which added the Ninth Schedule to the Constitution. Even where the law is enforced, its scope has been restricted to the economic empowerment of the peasantry. Those like the hapless inhabitants of Laxmanpur-Bathe were left to live at the mercy of the lords of the land, who considered it beneath their dignity to till it but enjoyed lording over the minds and bodies of the tillers and workers.
The course of history has, however, witnessed the wretched assert their rights time and again. The process began in Bihar in the 1980s under the Communist Party of India (Marxist-Leninist)'s leadership. The Ranveer Sena was created by the forces of the status quo against this assertion. The oppressed were left to live and tend the fields as long as they accepted the supremacy of their exploiters, but were attacked if they sought change. The massacre in Laxmanpur-Bathe has to be seen against this backdrop. It was plainly an attack on the constitutional scheme on which the Indian state and its machinery, including the police and the civil administration, stands. The Ranveer Sena ought to have been viewed from this perspective and dealt with appropriately. The Patna High Court failed to do so, just as it did in the Bathani Tola case.
There is an appeal against the high court verdict in the Supreme Court, where an appeal against the high court decision on the Bathani Tola massacre is pending since it was admitted in July 2012. The highest court of justice cannot restrict the scope of this case to a mere question of procedure. Justice is best ensured by taking recourse to the principle of the due process of law. The apex court cannot shy away from adopting this principle in cases involving the rights of the socially and economically oppressed, when it has done so in a chain of other cases. The Court has held that the consequence of an act had to be taken into account while dispensing justice, which is the principle of the due process of law. In the Laxmanpur-Bathe and Bathani Tola cases, the consequence of the Patna High Court's decisions can only be a loss of faith in constitutional democracy among those affected and those whose lives are similar to those of the murdered.
बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल!
रूस की अक्टूबर क्रान्ति की 96वीं वर्षगांठ पर
बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल!
अक्टूबर की तूफानी हवाओं को फिर ललकारो!!/! 7 नवम्बर वह दिन है जब मज़दूरों ने सम्राटों, रौबदार मंत्रियों, अकड़ू अफसरों के ऐय्याशी के अड्डों को नष्ट कर दिया। मज़दूरों ने पार्टी के नेतृत्व में संगठित होकर अपने फौलादी लोहमुष्ठ से पूँजी के जटिल ताने-बाने को चकनाचूर कर दिया। इस तारीख़ से जुड़ी कहानी हर मज़दूर की कहानी है जो हमें जाननी ही होगी। रूस देश में 7 नवम्बर 1917, (पुराने कलेण्डर के हिसाब से 25 अक्टूबर) को मज़दूरों ने पूँजीपतियों की सरकार को उखाड़ फेंका और पूरे देश में कायम किया मज़दूर राज! फाँसी और लाठी की मुनाफाखोर अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया गया। अक्टूबर क्रान्ति ने दुनिया के मज़दूरों को मुक्ति का रास्ता दिखाया। अक्टूबर क्रान्ति के बाद बने सोवियत रूस में मज़दूरों की पंचायतें ही पुलिस, कोर्ट-कचहरी यानि राजकाज के काम देखती थीं और फैक्टरी, खेतों यानि उत्पादन को संचालित कर रही थीं। यह वह देश है जहाँ न तो कोई बच्चा कुपोषित था, न वेश्यावृत्ति, न अशिक्षा और न ही मज़दूर सड़कों पर सोते थे। यह वह देश था जहाँ सबके रहने के लिए घर था। फैक्टरियों में कोई मालिक नहीं था। यह कोई शेखचिल्ली का सपना नहीं मज़दूरों की वह कहानी है जिसे मज़दूरों ने कामयाब कर दिखाया था। यह कैसे हुआ? यह न कोई टीवी बतायेगा और न ही कोई रेडियो और न ही स्कूल की किताब बतायेगी। यह गाथा हम बतायेंगे क्योंकि इतिहास की इस शिक्षा को जानकर ही हम आने वाले इतिहास को बदल सकते हैं।
मजदूरों के पास पाने के लिए सारी दुनिया
और खोने के लिए केवल अपनी बेड़ियाँ होती हैं!
आज से करीब 120 साल पहले रूस में क्रान्ति के बीज क्रान्तिकालीन यूरोप से पड़े। क्रान्ति का तूफान यूरोप से गुजरता हुआ रूस तक पहुँच गया। इस समय रूसी समाज बेहद पिछड़ा था। रूस का राजा जार सबसे बडा ज़मींदार था। रूस में बहुसंख्यक मेहनतकश किसान आबादी भुखमरी, कुपोषण और बीमारियों से ग्रस्त थी। ज़ार और उसकी विराट राजशाही किसानों को जमकर लूटती थी। रूस के मुख्य शहरों में ओद्योगीकरण हो रहा था। फैक्टरियाँ भी मज़दूरों के लिए नरक थीं और रूसी पूँजीपति मज़दूरो को मन-मर्जी पर खटाते थे। परन्तु जहाँ दमन-उत्पीड़न होता है वहीं विद्रोह पैदा होता है! मज़दूरों ने अपने सामूहिक हथियार हड़ताल का जमकर प्रयोग करना शुरू किया। क्रान्तिकारी नेता लेनिन के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने फैक्टरियों की हालत पर पर्चे, हड़ताल के पर्चे और ट्रेड यूनियन संघर्ष चलाया व मज़दूर अध्ययन मण्डल संगठित किये। लेनिन और अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर मज़दूर अखबार 'इस्क्रा' (चिंगारी) निकालना शुरू किया जिसने पूरे मज़दूर आन्दोलन को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। इसी अखबार ने मज़दूर वर्ग की इस्पाती बोल्शेविक पार्टी की नींव रखी। बोल्शेविक पार्टी ने मज़दूर अखबार प्राव्दा (सत्य) भी निकाला। संघर्षों में लगातार डटे रहने के कारण मज़दूर और गरीब किसान बोल्शेविकों के साथ जुड़ते चले गए। राजनीतिक हड़तालों, प्रदर्शनों ने जो कि सीधे बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में चल रहे थे जार सरकार की चूलें हिला दी। ओद्योगिक मज़दूरों की यूनियनों, गाँवों और शहरों में खडे़ जन-दुर्ग, क्रान्तिकारी पंचायतें (सोवियतें) मिलकर जार की पुलिस और शासन का सामना कर रहे थे। पहला विश्व युद्ध छिड़ने पर बोल्शेविकों ने सैनिको के बीच इस साम्राज्यवादी युद्ध के खिलाफ़ जमकर पर्चे बांटे और रोटी, ज़मीन और शान्ति के नारे के साथ समस्त रूस को एकताबद्ध किया। आखिरकार फरवरी, 1917 में ज़ार का तख्ता पलट दिया गया पर उसकी जगह सत्ता पर पूँजीपतियों के प्रतिनिधि और मज़दूर वर्ग के गद्दार मेन्शेविक पार्टी के नेता बैठ गये। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पंचायतों ने बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में एकजुट होकर 7 नवम्बर (25 अक्टूबर) 1917 को पूँजीपतियों की सरकार का भी तख्ता पलट दिया। पेत्रोग्राद शहर में युद्धपोत अव्रोरा के तोप की गड़गड़ाहट ने इतिहास की पहली सचेतन सर्वहारा क्रान्ति कि घोषणा की! तोप के निशाने और मज़दूरों की बगावत के सामने राजा के महल में छिपे पूँजीपतियो की सरकार के नेता घुटने टेक चुके थे। मज़दूर वर्ग के नारों की हुँकार पूरी दुनिया में गूँज उठी। पूँजीपतियों के ''स्वर्ग पर धावा'' बोला गया और उसे जीत लिया गया। मज़दूर वर्ग ने इतिहास की करवट बदल दी। रूस में मज़दूर वर्ग की जीत दुनिया भर के शोषितों की जीत थी और शासको-लुटेरों की हार।
मज़दूरों, गरीब किसानों की सरकार !
पूरे देश में फैक्टरियों, खेतों, सैन्य व अन्य सरकारी दफ्तरों पर क्रान्तिकारी पंचायतों (सोवियतों) द्वारा कब्जा कर लिया गया। बहस बाजी के अड्डों, संसदीय संस्थाओं को ध्वस्त कर सही मायने में जनता का जनवाद कायम हुआ। अब खेतों में पैदा हो रहा अनाज, फैक्टरियों में बन रहे कपड़े, जूते, बर्तन यानि ज़रूरत के सभी सामान के उत्पादन का निर्णय और उत्पादों का बँटवारा पहली बार सबको उनकी मेहनत के हिसाब से होने लगा। मज़दूरों ने सत्ता को संभाला और इस सोच को पूरी तरह गलत साबित किया कि बिना निजी मालिकों के, समाज नहीं चल सकता! काम चला नहीं, बल्कि दौड़ा और अद्भुत और चमत्कारी रफ्तार से दौड़ा!! उत्पादन और विकास के सारे रिकॉर्ड छोटे पड़ गए ! व्यापारियों, सट्टेबाजों, नौकरशाहों, भूस्वामियों की व्यवस्था को खारिज कर खान मज़दूरों, फैक्टरी मज़दूरों, खेतिहर किसानों की सरकार ने मानव इतिहास में पहली बार देश से कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी, वेश्यावृत्ति को खत्म कर दिया। उत्पादन और विज्ञान व सांस्कृतिक प्रगति में भी 1917 से 20 साल पहले बेहद पिछड़ा रूस (आज के भारत से भी पिछड़ा) दुनिया की महाशक्ति बन गया! यह सब जनता के सामूहिक मालिकाने (यानि मेहनतकशों की राज्यसत्ता के अन्तर्गत राष्ट्रीयकरण) और खेती का सामूहिकीकरण करके (यानि खेतो में काम करने वाले सभी किसानों के सामूहिक फॉर्म खड़े करके) हासिल किया गया। जिस समय पूरी पूँजीवादी दुनिया महामन्दी में डूबी हुई थी उस समय रूसी अर्थव्यवस्था छलाँगे मारते हुए आगे बढ़ रही थी! सन् 1940 में दूसरे विश्व युद्ध में जब पूरे विश्व को जर्मन फासीवाद तबाह कर रहा था तब भी सोवियत रूस कि जनता ने अकूत कुर्बानियाँ देकर पूरे विश्व को फासीवाद के खतरे से मुक्ति दिलायी थी। इस युद्ध में हिटलर की 254 में से 200 सैन्य डिवीजनों से अकेला सोवियत रूस मुकाबला कर रहा था और ब्रिटेन, अमरीका और फ्रांस इस युद्ध के दर्शक बने बैठे थे। इस प्रकार मज़दूर राज ने दिखाया कि जनता की ताकत बड़े से बड़े चमत्कार कर सकती है। अक्टूबर क्रान्ति की तोपों के धमाकों ने दुनिया भर के मज़दूरों को लुटेरों की सत्ता के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी और कईं देशो में मज़दूरों ने पूँजीपतियों की सत्ता उखाड़ कर अपनी सत्ता भी कायम की। परन्तु मालिक और लुटेरे हर-हमेशा मज़दूर सत्ता के ख़िलाफ षड़यंत्र करते हैं और अपना खोया ''स्वर्ग'' वापस चाहते हैं। इन्हीं षड़यंत्रों के चलते सोवियत रूस की मज़दूर सरकार पर वापस पूँजीपतियों ने कब्जा जमा लिया और मेहनतकशों की गर्दन पर फिर से मुनाफे के जुवे को टिका कर अपनी तिजोरियाँ भरनी शुरू कर दीं।
बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल
अक्टूबर क्रान्ति के बीज नयी क्रान्तियो को जन्म देंगे!
आज मज़दूर वर्ग पर पूँजी की ताकत चौतरफा हमला कर रही है, मज़दूरों के संघर्षों को पुलिस की लाठियों और गोलियों से दबा दिया जाता है। मज़दूर वर्ग का प्रतिरोध छिटपुट और बिखरा हुआ है। परन्तु मज़दूरों के गुस्से से फूटने वाला विद्रोह इस पूँजीवादी व्यवस्था को खत्म नहीं कर सकता है! जब तक कि मज़दूर क्रान्ति के विज्ञान को नहीं समझ लेते हैं उनकी जिन्दगी की हालत नहीं बदल सकती है। हमें अक्टूबर क्रान्ति से सीखना होगा! अक्टूबर क्रान्ति से सीख लेने का मतलब क्या है? अक्टूबर क्रान्ति की शिक्षाएँ क्या हैं? अक्टूबर क्रान्ति की सबसे बुनियादी शिक्षा यह है कि हमें आज देश स्तर पर एक क्रान्तिकारी पार्टी खड़ी करनी होगी जो हर शोषण, दमन और उत्पीड़न के खिलाफ मज़दूरों को संगठित करे। दूसरी, सबसे जरूरी शिक्षा यह है कि मज़दूरों की पार्टी बोल्शेविक पार्टी जैसी अनुशासित हो जो क्रान्ति के विज्ञान से डिगे बिना मज़दूर वर्ग को एकजुट करे। इसके लिए जरूरी है कि हमें आज मज़दूर वर्ग की तमाम गद्दार पार्टियों भाकपा, माकपा, भाकपा (माले) के सही चरित्र को पहचानना होगा। साथ ही हमें बोल्शेविक पार्टी द्वारा क्रान्ति पूर्व जनता से जुड़ने के तरीकों को भी समझना होगा। ट्रेड यूनियन के संघर्षो से लेकर जनवादी अधिकार के मुद्दों पर मेहनतकश जनता को संगठित करना होगा। उन कारणों को भी जानना होगा जिनकी वजह से सोवियत रूस के महान प्रयोग के बावजूद वहाँ पूँजीवाद की फिर से स्थापना हो गयी। यही वे शिक्षाएँ हैं जिन्हें ध्यान में रखकर ही मज़दूर वर्ग फिर से पूँजीवाद के जंगल राज में क्रान्तियों के दावानल भड़का कर इसे खत्म कर सकता है। हम मज़दूर वर्ग के शौर्य को फिर ललकारते हैं जो अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण रचेंगे। हम अक्टूबर क्रान्ति के सच्चे वंशजो को ललकारते हैं कि वे नयी शुरुआत करने के लिए उठ खड़े हों।
बिगुल मज़दूर दस्ता
9873358124 (वज़ीरपुर), 9540436262 (गुड़गाँव), 8750045975 (पीरागढ़ी)
सम्पर्क- बी- 100, मुकुन्द विहार, करावलनगर, दिल्ली – 01164623928
mazdoorbigul.net, bigul@rediffmail.com
बिगुल मजदूर दस्ता की ओर से योगेश के द्वारा जारी
Frontline
CRIMINAL JUSTICE-Caste and carnage
http://www.frontline.in/the-nation/caste-and-carnage/article5338781.ece?homepage=true
The series of five cases of mass murder from Bihar must wake India up to the need to strengthen its capacity to deal with the criminal justice aftermath of caste and communal conflicts. By G. MOHAN GOPAL
DOES the caste of the victim or the accused play a role in the operation of our criminal justice system? Is our criminal justice system casteist? These deeply troubling questions have been brought back to the front line of national debate by the acquittal of 26 persons, all belonging to privileged castes, of the charge of murder of 53 Dalits and five poor boatmen belonging to disadvantaged castes (15 men, 27 women and 16 children) in Laxmanpur Bathe in Bihar on December 1, 1997. Many have received the decision with great consternation.
That the perpetrators of the massacre are yet to be brought to justice 16 years after the crime is unforgivable. It is also a matter of deep shame that no one is being held accountable for the failure to find and bring to justice the killers of the innocent Dalit villagers.
The October 9 decision of the Patna High Court is not an isolated one—it was in fact the fourth in a series of similar decisions by the High Court since 2012. In each of them, persons belonging to privileged castes were acquitted of the charges of murdering Dalits. In April 2012, the High Court acquitted 23 persons belonging to privileged castes accused of perpetrating the notorious massacre of 21 Dalits at Bathani Tola in Bhojpur district in 1996. In March 2013, the High Court acquitted 11 persons belonging to privileged castes accused in the horrific Nagari Bazar carnage case involving the killing of 11 Dalits in 1997. In July 2013, the High Court acquitted nine of 10 accused in the Miyapur massacre where 32 Dalits were killed in 2000. All these killings are attributed to the Ranvir Sena, the private army of landlords belonging to privileged castes.
Were the accused acquitted because they belonged to privileged castes?
The High Court's decision to acquit in the Laxmanpur Bathe case is justified in meticulous detail. After analysing the evidence of each witness, the High Court concludes that "prosecution witnesses are unreliable". The judgment shows how the police investigation was irreparably botched. There was considerable delay in the dispatch of the first information report (FIR). Evidence was given years after the event. When the police first arrived on the scene of the carnage, they saw overwhelming evidence that a group of 100-150 persons had come to the village from across the river, carried out the massacre and returned across the river after killing five boatmen to prevent them from identifying them.
The evidence of the arrival and departure of the mob included footprints and blood marks on both sides of the river, as well as blood in the boat that was left on the northern side of the river along with the corpses of the five murdered boatmen, three on the southern side of the river and two on the northern side. For the first several hours, the police focus was on catching the assailants from the adjoining areas on the northern side of the river. Police officers on the northern side of the river were duly informed.
When the political pressure mounted with the visit of the then Chief Minister, the police had to "produce" the murderers. The attention suddenly turned to a much easier target—local villagers of the privileged caste. The trail on the northern side of the river was quickly dropped and forgotten. Within about a week of the tragedy, the initial investigating officer was replaced because of concerns about the quality of the investigation.
The High Court judgment says that "the prosecution had no clue about the identity of the [accused] until 3 December 1997 5 p.m. as by then the investigation had not begun as per the evidence of prosecution witness.
The investigation began only after arrival of the Chief Minister on 3 December 1997 at 5 p.m. From the evidence of the [investigating officer] it appears that the first arrest was made at 5-25pm…". The police had cracked the case within 25 minutes of the arrival of the then Chief Minister!
It appears that it would have been a travesty of justice to convict and sentence the accused to death when there are serious doubts about the evidence against them. It is precisely such a travesty that has befallen Krishna Mochi and three other Dalits (Dharmendra Singh aka Dharu Singh, Nanhe Lal Mochi and Bir Kuer Paswan), now on death row awaiting the outcome of a mercy plea to the President. They were convicted and sentenced to death in 2001 for the 1991 massacre of some 35 persons belonging to privileged castes in Bara, Gaya district. The Supreme Court upheld the conviction and the death sentence imposed on them by the TADA—Terrorist and Disruptive Activities (Prevention) Act—court in 2002 by a majority decision of two judges to one. The senior judge in the three-judge Bench, Justice M.B. Shah, dissented. He said:
"…[T]his case illustrates how faulty, delayed, casual, unscientific investigation and lapse of long period in trial affects the administration of justice, which in turn certainly shakes the public confidence in the system. Is it not possible for the authorities to find out ways and means for speedy, efficient, scientific investigation in at least heinous brutal carnage and for trying the case within few months of occurrence? If this is not done, it is of no use to complain that accused are not punished in such cases. In any case, for deciding such criminal case, it is the bounden duty of the court to appreciate the evidence brought on record, as it is, in accordance with established law without being influenced by the allegations levelled by the prosecuting agency or by the incident."
There is no material to suggest that the accused in the Laxmanpur Bathe case were acquitted because of their caste. The opposite appears to be the case—they may have been framed because of their caste. Under the circumstances, any call for conviction and execution of the accused in Laxmanpur Bathe notwithstanding the weak evidence against them will unwittingly justify the conviction and death sentence imposed on the Dalit accused in the Krishna Mochi case based on equally weak evidence.
The Laxmanpur Bathe judgment suggests that the real culprits—the privileged in society who were behind the massacre and their henchmen who carried it out—have escaped with impunity. They have been able to escape because of their power and influence. Equally, those who were killed and those who were incarcerated and later acquitted have suffered because of their powerlessness. The power—and the powerlessness—come from the inextricably intertwined sources of caste and class. To that extent, caste certainly has an influence on the operation of the criminal justice system. The main focus of the operation of the power of class and caste is the investigative process. Once that is compromised or customised, the leeway for the court is quite limited.
Judges, prosecutors and the police cannot but be influenced subconsciously by the attitudes and beliefs that they come to acquire as members of society. Justice Benjamin N. Cardozo, the renowned American judge and jurist, famously wrote on this issue:
"There is in each of us a stream of tendency, whether you choose to call it philosophy or not, which gives coherence and direction to thought and action. Judges cannot escape that current any more than other mortals. All their lives, forces which they do not recognise and cannot name have been tugging at them—inherited instincts, traditional beliefs, acquired convictions; and the resultant is an outlook on life, a conception of social needs.... In this mental background every problem finds it setting. We may try to see things as objectively as we please. Nonetheless, we can never see them with any eyes except our own" (The Nature of the Judicial Process, 1921, pages 12-13).
The extra vehemence in the language of a judgment when privileged caste members are attacked may well point to subconscious differences in attitudes towards attacks on Dalits as well as on privileged castes. In the Krishna Mochi case, the Supreme Court says, "The crime in the present case is not only ghastly, but also enormous in proportion as 35 persons, all of whom belonged to one community, were massacred. Thus, after taking into consideration the balance sheet of aggravating and mitigating circumstances, in which 35 persons have been deprived of their lives by the accused persons who were thirsty of their blood, I have no doubt in holding that culpability of the accused persons assumes the proportion of extreme depravity that a special reason can legitimately be said to exist within the meaning of Section 354(3) of the Code of Criminal Procedure [CrPC] in the case on hand and it would be mockery of justice if extreme penalty of death is not imposed."
The Dalit accused may also be suffering the consequences of a new criminal jurisprudence that has emerged in India that extols the interests of the community and the victim, emphasises the importance of convicting and punishing the accused, and decries strict protection of the rights of the accused. Reflecting this new jurisprudence, the majority judgment in the Krishna Mochi case justifies the conviction of and death sentence against Krishna Mochi and four other Dalits in spite of the serious lacunae in the evidence on the following grounds:
"…. Justice cannot be made sterile on the plea that it is better to let hundred guilty escape than punish an innocent. Letting guilty escape is not doing justice, according to law.…[The Court]… has to disperse the suspicious cloud and dust out the smear of dust as all these things clog the very truth. So long as chaff, cloud and dust remains, the criminals are clothed with this protective layer to receive the benefit of doubt. So it is a solemn duty of the courts, not to merely conclude and leave the case the moment suspicions are created. It is onerous duty of the court, within permissible limit to find out the truth. It means, on the one hand, no innocent man should be punished but on the other hand to see no person committing an offence should get scot-free."
A similar sentiment has been expressed in a large number of judgments of the Supreme Court and High Courts. In August, 2012, for example, the Supreme Court of India said inDayal Singh & Ors vs State Of Uttaranchal: "Where our criminal justice system provides safeguards of fair trial and innocent till proven guilty to an accused, there it also contemplates that a criminal trial is meant for doing justice to all, the accused, the society and a fair chance to prove to the prosecution. Then alone can law and order be maintained. The courts do not merely discharge the function to ensure that no innocent man is punished, but also that a guilty man does not escape. Both are public duties of the judge."
What is not clear is, logically and legally, how can a person be acquitted in the judicial process (and "escape"), but still be considered "guilty" by the judge? In such a situation, under what law and according to what standards has the judge found him/her "guilty" if he/she is acquitted under the law? Is there then a "trial within the trial" going on in our courts—with determination of guilt by the judge according to his or her own personal judgment independent of the law as one trial, and the second trial being under the law by the court?
The new pro-conviction philosophy adversely affects marginalised sections because they do not have the capacity to engage lawyers qualified to defend their interests.
This new philosophy runs counter to the stated goals of the law. The first objective of the criminal justice system (as set out in the statement of objects and reasons of the first CrPC enacted by independent India (1973)) is that "an accused person should get a fair trial in accordance with accepted principles of natural justice". The third objective is to "ensure fair deal to the poorer sections of the community" (sic).
We need to develop a dedicated institutional framework to deal quickly and in a sensitive manner with justice in the context of social struggles and other complex criminal cases. A special agency for investigation of these cases is urgently needed.
The series of five cases of mass murder from Bihar must wake India up to the need to strengthen its capacity to effectively deal with the criminal justice aftermath of social conflict across caste and communal lines.
Professor G. Mohan Gopal is former Director, National Judicial Academy, Bhopal, and former Director, National Law School of India University, Bangalore.
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