भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक बिरसा मुंडा को उनके जन्म दिवस पर सलाम!
Tribal activist Soni Sori, accused of having links with Maoists, released from jail
অরণ্যের অধিকার
Palash Biswas
आर्थिक सुधार नरमेध महा अश्वमेध अभियान में,विकास की कारपोरेट अंधी दौड़ में समूचा आदिवासी भूगोल युद्धबंदी है।इकलौती सोनी सोरी की रिहाई का मामला अब यह है नहीं।रिहा करने होंगे अस्पृश्यभूगोल के सारे कोने,रिहा करने होंगे सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून के तहत 1958 से जलसंहारसंस्कृति के वध स्थल इरोम शरिमिला की मानव जमीन के तमाम हिस्से। रिहा करने होंगे विस्थापन,बेदखली के शिकार जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता नागरिक और मानवाधिकार।
जब तक ऐसा नहीं होता,तब तक जारी रहेगा अनवरत जनयुद्ध।तब तक अमन चैन की बात जो करते हैं,वे दरअसल कारपोरेट मनुस्मृति जायनवादी वैश्विक जनसंहार व्यवस्था के गूर्गे हैं।
इस विध्वंस लीला में न मनुष्य सुरक्षित है और न प्रकृति। न पर्यावरण और न ही पर्यावरण और प्रकृति से सान्निध्य में बसे जनपद,उनके मनुष्यौक तमाम जीवजंतु।
Soni Sori, a tribal teacher, today walked out of jail, two years after she was arrested for allegedly helping Maoists, a charge that was contested by activists.
Ms Sori was released along with her nephew, journalist Lingaram Kodopi, after the Supreme Court on Tuesday granted them bail on condition that they would not visit Chhattisgarh while their case was being probed. The Chhattisgarh government had objected to their release but the top court pointed out that others accused in the case had been given bail.
36-year-old Sori and her activist-nephew Kodopi,25, were arrested in 2011 on charges of acting as Maoist conduits who had allegedly received protection money for the rebels from Essar Group in Chhattisgarh.
According to the police, Kodopi and BK Lala, a building contractor with Essar Steel Ltd, were kidnapped from a weekly market at Palnar village in Dantewada district of Chhattisgarh in September, 2011, with Rs.15 lakh in cash, which was allegedly meant to be paid to the Maoists.
Essar Steel Ltd General Manager DVCS Verma, too, was arrested in connection with the case, but was later granted bail.
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक बिरसा मुंडा को उनके जन्म दिवस पर सलाम!
बिरसा मुंडा
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बिरसा मुंडा | |
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जन्मस्थल : | |
मृत्युस्थल: | |
आन्दोलन: |
बिरसा मुंडा 19वीं सदी के एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे। उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन उलगुलान को अंजाम दिया। बिरसा कोमुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं।
अनुक्रम
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आरंभिक जीवन[संपादित करें]
सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म १५ नवंबर १८७५ को झारखंड प्रदेश मेंराँचीके उलीहातू गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आये। इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। १८९४ मेंमानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।
मुंडा विद्रोह का नेतृत्व[संपादित करें]
1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग "धरती बाबा" के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।
विद्रोह में भागीदारी और अन्त[संपादित करें]
बिरसा मुण्डा का राँची स्थित स्टेच्यू
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकरखूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।
जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये।
बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून 1900 को राँची कारागार मे लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ औरपश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।
बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी है।
यह भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
झारखंडी भाषा संस्कृति अखड़ा shared a link via Asur Nation-असुर दिसुम.
भूमि, भू-भाग और संसाधन, जिसे आदिवासी अपनी विरासत मानते हैं, को बचाने के लिए चल रहे संघर्षों का नेतृत्व करने वाले आदिवासियों को बड़े पैमाने पर राज्य प्रायोजित हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है, जिसमें पुलिस फायरिंग में हत्या, पुलिस यातना और फर्जी मुकदमों में फंसाकर जेल भेजना आम बात हो चुकी है। वहीं राज्य प्रायोजित हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने वालों को सरकार नक्सली, देशद्रोही, अलगाववादी, विकास विरोधी और न जाने कौन-कौन सा जामा पहनाकर प्रताड़ित करती है। झारखंड में 5000 लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाया जा रहा है और कई आंदोलनकारी जेल काट चुके हैं। झारखंड के कोईलकारो, काठीकुंड और ओड़िसा का कालिंगनगर पुलिस फायरिंग किसे याद नहीं है? इसी तरह फिलिपिंस के जंबाज आंदोलनकारी नेता मरकुस को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया गया। ये दर्दनाक अनुभव बताते हैं कि सरकारें किसी भी कीमत पर आदिवासियों से सबकुछ छिन लेना चाहती हैं और यह सब सिर्फ और सिर्फ उद्योगपतियों के हितों का साधने के लिए हो रहा है।
बिरसा मुंडा : साहस का एक नाम
हिन्दुस्तान की धरती पर समय-समय पर महान और साहसी लोगों ने जन्म लिया है. भारतभूमि पर ऐसे कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने बल पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे. ऐसे ही एक वीर थे बिरसा मुंडा. बिहार और झारखण्ड की धरती पर बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा अगर दिया जाता है तो उसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह भी है. मात्र 25 साल की उम्र में उन्होंने लोगों को एकत्रित कर एक ऐसे आंदोलन का संचालन किया जिसने देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान दिया. आदिवासी समाज में एकता लाकर उन्होंने देश में धर्मांतरण को रोका और दमन के खिलाफ आवाज उठाई.
बिरसा मुंडा का जीवन
बिरसा मुंडा (Birsa Munda) का जन्म 1875 में चलकद (वर्तमान झारखंड, भारत) में हुआ था. बिरसा के पिता सुगना मुंडा उलिहातु (झारखंड) के रहने वाले थे. माँ का नाम करमी (डीबर मुंडा की बड़ी लड़की जो अयुबहातुं के रहने वाले थे.) था. यह कभी बिहार का हिस्सा हुआ करता था पर अब यह क्षेत्र झारखंड में आ गया है. साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आए. सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था.
बिरसा मुंडा को अपनी भूमि, संस्कृति से गहरा लगाव था. जब वह अपने स्कूल में पढ़ते थे तब मुण्डाओं/मुंडा सरदारों की छिनी गई भूमि पर उन्हें दु:ख था या कह सकते हैं कि बिरसा मुण्डा आदिवासियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे तथा वे वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे.
ज्वाला की शुरूआत
उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे. लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बलिक ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा. उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया. फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए.
1886 से 1890 तक बिरसा का चाईबासा मिशन के साथ रहना उनके व्यक्तित्व का निर्माण काल था. यही वह दौर था जिसने बिरसा मुंडा के अंदर बदले और स्वाभिमान की ज्वाला पैदा कर दी. बिरसा मुंडा पर संथाल विद्रोह, चुआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा. अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी. उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे.
बिरसा मुंडा का संघर्ष
बिरसा मुंडा न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया. बिरसा ने गांव-गांव घूमकर लोगों को अपना संकल्प बताया. उन्होंने 'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज' (हमार देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका.
उनकी गतिविधियां अंग्रेज सरकार को रास नहीं आई और उन्हें 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी. लेकिन बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला. उन्हें उस इलाके के लोग "धरती बाबा" के नाम से पुकारा और पूजा करते थे. उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी.
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया. अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं. जनवरी 1900 में जहां बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे, डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी. अंत में स्वयं बिरसा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार हुए.
9 जून, 1900 को रांची कारागर में उनकी मौत हो गई. उनकी मौत से देश ने एक महान क्रांतिकारी को खो दिया जिसने अपने दम पर आदिवासी समाज को इकठ्ठा किया था.
बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है. उन्होंने वनवासियों और आदिवासियों को एकजुट कर उन्हें अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया. इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया. ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया .
अपने पच्चीस साल के छोटे जीवन में ही उन्होंने जो क्रांति पैदा की वह अतुलनीय है. बिरसा मुंडा धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे.(संकलनकर्ता-ASF टीम)
— with Arti Mishra, Bhavna Saroha, Anil Kumar Mcj, Anil Kumar, Priya K Rina, Rajesh Kumari, Ak Pankaj, Anuj Lugun, Dilip Khan, Sanjeev Chandan, Milind B Patil, Niraj Gujar Bsp Wardha, Govind Rajarwal Mainpura, Prafull Meshram, Rajneesh Kumar Ambedkar, Devanand Kumbhare, Sunil Kumar 'suman',Naresh Kumar Sahu, Suresh Nirala and Brijesh Kumar Yadav.
Tribal revolts in India before Indian independence
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Below is given a chronological record of tribal revolts in India before the independence from the British rule in the year 1947. The list covers those tribal uprisings that occurred during the period of British rule in India.
18th century[edit]
- 1774-79: Halba rebellion in Dongar (By Halba tribes in Bastar Chhattisgarh) against British armies and the Marathas.
- 1778: Revolt of the Pahariya Sardars of Chhotonagpur against the British Government.
- 1784-1785: Uprising of the Koli tribes in Maharashtra.
- 1789: Revolt of the Tamar of Chhotonagpur.
- 1794-1795: The Tamars revolted again.
- 1798: The revolt of the tribals against the sale of Panchet estate.
1800-1849[edit]
- 1801: The Tamars revolted again.
- 1807-1808 The tribal uprising in Chhotonagpur plateau region.
- 1809-1828 Revolt by the Bhils commenced that continued for about two decades.
- 1811 The revolt by the agrarian tribal communities started in the then Bihar.
- 1817 The agrarian tribal communities revolted again.
- 1820 The agrarian tribal communities revolted again.
- 1818 Revolt by the Koli tribal community in Maharastra.
- 1825 The Singpo tribal community torched an office of a British magazine.
- 1827 The Mishmi tribal community that resides in North-East India murdered British explorer and naturalist Wilcox
- 1828 The tribes residing in North-East India revolted against the British under the leadership of tribal chief Gomdhar Kanwar
- 1829 The Khashi tribal community revolted in North-East India.
- 1830 Teerut Singh,a tribal chief,with his tribes,annihilated a group of British generals and their soldiers stationed in an army establishment in North-East India.
- 1831-1832 The mass revolt by the Kol tribal community that sent its ripples over a wide area.
- 1832 The Munda tribal community revolted in Bihar.
- 1832-1833 The Kherwar tribal community revolted under the leadership of tribal chief Bhagirath in Bihar.
- 1835 The Dafla tribal community of North-East India did a string of raids in areas that were under the rule of British subjects.
- 1836 The Mishmi tribal community of North-East India murdered British botanist and naturalist Griffith on suspicion
- 1838 The Naik tribal community revolted in Western India.
- 1839 The Khampti tribal community killed British Government agent Adam White and subsequently annihilated 80 British public servants.
- 1842 The Gonds of Bastar attacked British Army Captain Blunt and his troops who were trying to encroach in their area.
- 1842 The Lushai tribal community of North-East India raided British territories of Arakan and Sylhet and defeated the British
- 1843 Nirang Phidu,chief of Singpo tribal community attacked a garrison of British Army suddenly and killed some army personnels.
- 1844 The Lushai of North-East India attacked British establishments in their neighboring areas to which the British responded by arresting Lushai chief Lal Sukla.
- 1846 The Bhil revolted against the British in Western India under leadership of Kuwar Jiva Vasavo.
- 1849 The Singpo tribal community attacked local feudal leaders who were subjects of British.
1850-1899[edit]
- 1850 The Kond tribe revolted in Orissa under leadership of chief Bisoi.
- 1855 The 'Great Rebellion'by the Santal community against the British in Eastern India
- 1857-1858 The Bhil revolted again under the leadership of Bhagoji Naik and Kajar Singh.
- 1860 The Lushai tribal people raided the then British Tripura and killed 186 British subjects.
- 1860-1862 The Synteng tribal people revolted in Jaintia Hills in North-East India.
- 1861 The Juang tribal community revolted in Haryana.
- 1862 The Koya tribal community revolted in Andhra against tribal landlords called 'Muttader' in tribal dialect.
- 1869-1870 The Santal people revolted at Dhanbad in Eastern India against a local monarch.The British mediated to settle dispute.
- 1879 The Naga tribal people revolted in North-Eastern India.
- 1880 The Koya revolted again at Malkangiri in Orissa under leadership of Tammandora.
- 1883 The Sentinelese tribal people of Andaman and Nicobar Islands in the Indian Ocean attacked the British.
- 1889 The mass agitation by the Munda against the British in Eastern India.
- 1891 The tribals of North-East India revolted against the British under leadership of Tikendraji Singh.
- 1892 The Lushai people revolted against the British repeatedly.
- 1895 The famous revolt by the Munda tribal community under leadership of Birsa Munda.Later,Birsa was arrested.
20th century[edit]
- 1911 The uprising of the tribal people of Bastar.
- 1913-1914 Tana Bhagat movement in Bihar
- 1913 samp sabha by guru govind & 1507 bhil people against british at mangadh hill
- 1920-1921 Tana Bhagat movement happened again.
- 1922 The Koya tribal community revolted at Rampa against the British under leadership of Alluri Sree Rama Raju.
- 1932 The Nagas revolted under leadership of Rani Guidallo in North-Eastern India.
- 1941 The Gond and the Kolam revolted in collaboration against British Government in the Adilabad district of the state of Andhra.
- 1942 Tribal revolt under leadership of Lakshmana Naik at Koraput in Orissa.
- 1942-1945 The tribes of Andaman and Nicobar islands revolted against occupation of their islands by Japanese troops during world war.
References[edit]
- Khan, Ismail. 1986. Indian tribe through the ages. Vikas publishing house, New Delhi.
- S. Gajrani. 2004. History, Religion and Culture of India: History, religion and culture of Central India Gyan Publishing House, India
মহাশ্বেতার সঙ্গে ইলিয়াসের সংলাপ: অরণ্যের অধিকার
লিখেছেনঃ বিপ্লব রহমান (তারিখঃ মঙ্গলবার, ১০/০৯/২০১৩ - ১৬:৫৪)
প্রায় এক যুগ আগে ভারতের বিশিষ্ট লেখিকা মহাশ্বেতা দেবীর সঙ্গে প্রয়াত লেখক আখতারুজ্জমান ইলিয়াসের একটি দীর্ঘ সংলাপ অনুষ্ঠিত হয়। এই অসমাপ্ত সংলাপে উঠে আসে মহাশ্বেতা দেবীর জীবন, কর্ম, সাহিত্য ও সংশ্লিষ্ট নানা ভাবনা। বাংলাদেশ লেখক শিবিরের সাহিত্য পত্রিকা 'তৃণমূল' এর পঞ্চম সংখ্যা, মার্চ ২০০১ সালে সংলাপটি প্রকাশিত হয়। পত্রিকাটি সম্পাদক আনু মুহাম্মদের অনুমতিক্রমে 'আখতারুজ্জামান ইলিয়াসের নেয়া মহাশ্বেতা দেবীর সাক্ষাৎকার' শীর্ষক লেখাটি সংক্ষিপ্ত আকারে ধারাবাহিকভাবে এই প্রথম আন্তর্জালে প্রকাশিত হচ্ছে। -- অনুলেখক]
০১. মহাশ্বেতা: ...আমার বিয়ে হয় কুড়ি, পরে একুশে, বিজন ভট্টাচার্যের সঙ্গে। গণনাট্য সংঘের প্রতিষ্ঠাতা, ফাউন্ডার অ্যাক্টর, নাট্যকার, গীতিকার, গায়ক। তখন, তার আগে ১৮ বছর বয়সে আসে ৫০ এর মহা মন্বন্তর। তখনই আমি যেটুকু দূর্িভক্ষের জন্য কাজ করি, তার ফলে কমিউনিস্ট পার্িট পরিচালিত আন্দোলনের সাথে আমার সেটুকু যোগাযোগ হয়। তারপর জীবনের বেশ কিছু পর্ব অন্যভাবে যায়। এখন ৬০ থেকে শুরু হয় কি ৬২ থেকে, তারপর ৭৫ সাল পর্যন্ত যে কারণেই হোক, আমি পালামৌ জেলায় বার বার যাই। এবং ইনসিডেন্টলি জানতে পারি ঘটনাবলির মধ্য দিয়ে...যা দেখতাম, বন্ডেড লেবার সিস্টেমের কথা জানতে পারি এবং তখন আমার আগ্রহ বন্ডেড লেবারে। তার স্ট্যাটেস্টিক্স গ্রহণ করা, তারপর নানা রকম হেনতেন করতে করতে গ্রামে গ্রামে ঘোরা। প্রায় পালামৌ জেলাই পায়ে হেঁটে ঘোরা হয়ে গেল। তার লড়াই, সে সব লিখেটিখে সেসব অন্যভাবে চললো।
সেই সময় আমি রাঁচি, মুন্ডা, বীরসা, ওরাং ওদের খুব কাছ থেকে দেখি। এবং ফিরে আসার পর কোন একটা সময় ৬৬/৬৭ সালে শান্তি চৌধুরি মারা গেছেন, ছবি করতেন, উনি বললেন, বীরসার ওপরে একটা ডকুমেন্টারি করবেন। বলে, সুরেশ সিং এর 'ডাস্ট স্টর্ম অ্যান্ড হ্যাঙিং মিস্ট'টা আমাকে পড়তে দিলেন। কুমার সুরেশ সিং এর এই বইটাকে পরে আমার অনুরোধে অক্সফোর্ড ইউনিভার্িসটি প্রেস অনেক রিভাইজ করেটরে 'বীরসা মুন্ডা অ্যান্ড হিজ রেবোলিয়ান' নামে ছাপাল।
তখন দেখি সুরেশ যেসব গানটান ব্যবহার করেছে, এসব আমি অনেকদিন আগে থেকেই সংগ্রহ করছি। করতে, করতে, করতে আবার বীরসা কান্ট্রিতে ফিরে এলাম। সত্যি কথা বলতে কি, রাঁচির মুন্ডাদের সঙ্গে আমার অত...আমি তাদের সঙ্গে জীবনে জীবন যোগ করা যতটা না হয়েছে...আমি একটা বন্ডেড লেবার অনুসন্ধান করছি। মুন্ডাদের মধ্যে বন্ডেড লেবার হয় না। ওঁরাওদের মধ্যে যাচ্ছি, ওদের মধ্যে বন্ডেড লেবার হয় না। অন্যান্য জায়গায় হয়, তা এইভাবে একটা গুরুত্ব না থাকলে আমি 'বীরসা মুন্ডা' লিখতে পারতাম না; লিখা প্রয়োজন মনে হয়েছিল।
সমস্ত বঞ্চনাটা দেখেছিলাম, সবকিছুই দেখেছিলাম। আর 'অরণ্যের অধিকার' লিখে মনে হলো, এটা সম্পূর্ণ হলো না। ওটাকে 'কাস্ট অ্যান্ড ক্লাস' না বলে আমি বলবো 'ট্রাইব অ্যান্ড কাস্ট', অবশ্যই ক্লাস; একসঙ্গে মিলিয়ে একটা জায়গায় আনা। যা হচ্ছিল, যা চোখে দেখেছিলাম, সেটাই আনার জন্য 'চোট্টি মুন্ডা' লেখা। কিন্তু ইতিহাসের এই ধারাবাহিকতাটা রেখেছিলাম। কেননা, বীরসা মুন্ডার যে তীর, সেটাই ধানি মুন্ডা বহন করছিল, সেটাই 'চোট্টি মুন্ডা'তে দিয়ে যায় ইতিহাসের ধারাবাহিকতা। এই লিখতে, লিখতে একটা সময় আসে নকশাল আন্দোলন, এল-গেল। তারপরে আমি যখন-তখন, আমাকে সব জায়গাতেই ডাকে, সিংভূমে গেছি, ঝাড়খণ্ড আন্দোলনের প্রথম স্টেজে ৭০ এর দশকে গেছি। বন্ডেড লেবার তো বটেই। বহু হেঁটেছি, বহু কিছু করেছি।
পালামৌ সম্পর্েক এটি বলা দরকার হবে যে, এরপরে বন্ডেড লেবার নিয়ে প্রচুর আন্দোলন করা, তাদের সংগঠিত করা, প্রথম বন্ডেড লেবার করা; তারপরের বছর অগ্নিবেশকে ওখানে নিয়ে যাই। এবং তার আগের বছরই আমরা শহরের ভেতর যারা কোনদিন ঢোকেনি, সেই বন্ডেড লেবার হাজার হাজার ঢুকিয়ে...তারা নিজের জীবন নিয়ে নিজেরা নাটক করে দেখায় গান্ধী ময়দানে এবং হাজার হাজার এই যে 'বন্দুয়া প্রথা নেহি চলেগা, যো বহেগা ওহি খায়েগা', 'যো বোহেগা, ওহি কাটেগা, বন্দুয়া প্রথা বন্দ কর'...এসব বলে শ্লোগান দিতে দিতে ডিসি কোর্ট ঘেরাও করে ট্রাকের ওপর (ওখানে ট্রাইব ডিস্ট্রিক্ট, কাজেই ডেপুটি কমিশনার হয়) লাফিয়ে ওঠে, অনেক চেঁচামেচি করে টরে।
তখন ওদের সংগঠন যখন গঠন করা হল, তারপর অগ্নিবেশ সেটাকে নিখিল ভারত বন্দুয়া মোর্চার সঙ্গে সংযুক্ত করে। তাতে খুব কাজ হয়নি। কেননা তার পরে পরে ৭৬/৭৭, পালামৌ চলে এল কৃষ্ণা সিং-এর পেছনে, নকশাল আন্দোলন চলে এল। নকশাল আন্দোলন যখন চলে এল, তখন এদের অবস্থা একটা হলো, আরেকটা মজার জিনিষ হলো, ডালটনগঞ্জ থেকে অমৃতসর পর্যন্ত একটা রেল লাইন হয়। অর্থাৎ ওরা ওই কাজ না করলেও পারে, ওরা অন্য জায়গায় কাজের জন্য চলে যেতে লাগল। উপরন্তু আমাদের এই মিছিল এবং এই ডেমোস্ট্রেশন মিটিং এর পরে ওরা বললো যে, এটা ঠিক হবে কি না? আমি বললাম, এটাই ঠিক হবে। ডিসিকে দিয়ে আমি বলিয়েছিলাম, ১৯৭৬ সালে এই প্রথা অ্যাবলিশ করা হয়েছে। বললো, হ্যাঁ। আমি বললাম, এই প্রথা তোমার এখানে এতো বেশী চলে যে, এখন এটা চিহ্নিত অ্যাজ এ বন্ডেড লেবার ডিস্ট্রিক্ট এবং অ্যাবাভ ফোর্িট থাউজেন্ড এবং ও বললো হ্যাঁ। আমি বললাম, ওরা যদি আর না করে, তোমরা লিগ্যালি কিছু করতে পারো? তখন চুপ করে আছে। আমি বললাম, লিগ্যালি কিছু করতে পারো? বললো, না।
এইটুকুন এর ওপর ভিত্তি করে ওরা বন্ডেড লেবার খাটা ছেড়ে দিয়ে অসম্ভব কষ্ট করেছিল। কেউ কেউ ফিরেও গিয়েছিল। নকশাল আন্দোলন চলে আসার পরে, তার চাপে... কৃষ্ণা সিং'কে যদিও মেরে ফেলে...কিন্তু নকশাল আন্দোলন ওখানে নানাভাবে চলতেই থাকে। যার ফলে ওদের জঙ্গল থেকে মহুয়া নেবার রাইট, তারপর নিজেদের জমি ধরে রাখার রাইট এবং কিছু কিছু জায়গায় বিক্ষোভ প্রতিবাদ প্রবল হতে থাকে। কাজেই আজকের পালামৌ আর সেই পালামৌ নেই।
যেটা দেখেছিলাম যে, দুই মন ধান গরমকালে বলদকে দিয়ে পাঠাবে না হাটে, একটা বন্ডেড লেবারের কাঁধে চাপিয়ে দিয়েছে গরুর গাড়ির জোয়াল। বলদ মরে গেলে দুহাজার টাকা নষ্ট। একটা মানুষ মরে গেলে অত ক্ষতি নেই। সেই জোয়ালটা চাপা পড়ে তার একদিকের কাঁধ বেঁকে যায়। এইগুলোর পরে তখনও আমি হাতে কলমে যে অত কাজ করছি, তা না।
কিন্তু সিংভূমে ডাক পড়ল, ঝাড়খণ্ড মুভমেন্টে ফায়ারিং হল, ৭৯ তে ফায়ারিং হল, ১১ জনের ডেথ ওরা অ্যাডমিট করলো। কমপেনসেশন দিল। কিন্তু ১১ জন মরেনি...তখন ওখানে গিয়ে ইনভেস্টিগেট করতে করতে ১৯টা নাম বের হল। ১৯টা নাম ইপিডাব্লিউডিতে ছাপিয়ে দিয়ে ইত্যাদি ইত্যাদি করে তারপরে যথেষ্ট...তখনকার আন্দোলনটা অন্যরকম ছিল। মেয়েদের একটা আলাদা জঙ্গল বাঁচাও আন্দোলনও ছিল। মেয়েরা প্রচুর তীর-ধনুক নিয়ে লড়তো।
তারপর সারেন্ডার ফরেস্টের ওপরে, যেখানে 'কোন' বিদ্রোহ হয়েছিল, সেখানে বটগাছের ওপরে মাচান করে জিনিষপত্র রাখে, কেননা হাতি আসে। ধানটান ওখানে রাখে। ওখানে দেখি ওয়ার্ল্ড ব্যাংকের ফিন্যান্স করা টিউবওয়েল, একটু ঝাঁকালেই জল পড়ে। কোনদিন ছিল না। আমি বললাম, এটা কী করে এখানে এল? ওরা বললো, ফায়ারিং-এর পর কিছুদিন চুপচাপ ছিল। তারপর ওরা প্রচুর করে দিয়েছে। সব জায়গাতেই আমি বলতাম, তোমাদের কি অধিকার আছে, সেটা জান। জলে অধিকার, বিদ্যুতে অধিকার, ওরা নিজেরাই চাইতো-টাইতো।
এরকম হেঁচড়-পেঁচড় করতে করতে ৭৯তে 'অরণ্যের অধিকার' অ্যাকাডেমি পুরস্কার পেল। তখন পশ্চিম বাংলার তিনটা ট্রাইবাল জেলা -- ঝাড়গ্রাম মহকুমা, মেদনীপুরের আর বাঁকুড়ার অনেকটা, আর পুরুলিয়ার এদিকটা...হাটে-বাজারে ঢোল-ডগর দিয়ে ওরা বললো, আমরা পুরস্কার পেয়েছি, আমাদের নাম ইতিহাসে উঠে গেছে, কাজেই এখন আর হাট চলতে পারে না। এবং তারা সব অনেক অনেক...চিঠি, ডেপুটেশন আমার কাছে...কাজেই এই পুরস্কারটা...কাজেই এই পুরস্কারটা, আমার বাবা মারা গিয়েছিলেন, নিতে দিল্লী যাইনি। ওরা এসে দিয়েছিলেন, মুন্ডারাও সেখানে অনেকে এসেছিল। কাজেই মুন্ডাদের সঙ্গে যুক্ত হলাম। ...
[চলবে]
অনুলিখন: বিপ্লব রহমান।
https://www.amarblog.com/index.php?q=Biplob-Rahman/posts/173445
অরণ্যের অধিকার ফেরাতে আশ্বাস মুখ্যমন্ত্রীর
Sep 26, 2013, 11.46AM IST
ঝিলম করঞ্জাই, দুর্গাপ্রসাদ মুখোপাধ্যায় ও অরূপকুমার পাল
এই সময়, বারিকুল ও শিলদা: দু'টাকা দরে চাল দেওয়ার ব্যবস্থা করে জঙ্গলমহলের আদিবাসীদের পক্ষে টেনেছেন আগেই৷ গত পঞ্চায়েত নির্বাচন আদিবাসীরা তৃণমূলকে ঢেলে ভোট দিয়েছেন৷ এ বার তাঁদের সমর্থন আরও নিশ্চিত করতে আদিবাসীদের হাতে জঙ্গলের অধিকার ফিরিয়ে দিতে চাইলেন মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দোপাধ্যায়৷ গত তিনদিন ধরে জঙ্গলমহলের তিন জেলা চলে ফেলেছেন তিনি৷ বুধবার এই অঞ্চল ছাড়ার আগে তাঁর ঘোষণা আদিবাসীদের উজ্জীবিত করবে সন্দেহ নেই৷
পুরুলিয়া, বাঁকুড়া ও পশ্চিম মেদিনীপুরে গত তিনদিনে দুু'শোরও বেশি নানা উন্নয়ন প্রকল্পের ঘোষণা করেছেন তিনি৷ কোনওটির শিলান্যাস করেছেন, কোনওটির উদ্বোধন করেছেন৷ কোনও প্রকল্পের কথা শুধু মাইকে বলেছেন৷ গরিব মানুষকে যে কোনও মূল্যে কাজ পাইয়ে দিতে চাপ দিয়েছেন জেলা প্রশাসনের কর্তাদের৷ এর সবই প্রায় আদিবাসী উন্নয়নের দিকে তাকিয়ে৷ আদিবাসীদের সঙ্গে জঙ্গলের ঘনিষ্ঠ সম্পর্কের কথাও অজানা নয় মমতার৷
আদিবাসীদের সেই আবেগকেই তিনি বুধবার উস্কে দিতে চেয়েছেন বাঁকুড়ার বারিকুল ও পশ্চিম মেদিনীপুরের শিলদার জনসভায়৷ তিনি বলেন, 'জঙ্গলটা আদিবাসীদেরই৷ তাই শেষ পর্যন্ত জঙ্গলের অধিকার তাঁদের হাতেই থাকা উচিত৷ সেখানকার উন্নতি এবং অগ্রগতির সমস্ত পরিকল্পনা এবং কাজকর্ম পরিচালনা করা উচিত আদিবাসীদেরই৷ কিন্ত্ত কেন্দ্রীয় সরকারের আইনে এ ব্যাপারে নানা বাধা আছে৷ তবু যতটা সম্ভব তাঁদের সেই অধিকার দিতে ব্যবস্থা নেবে রাজ্য সরকার৷'
মাওবাদী ভীতি সরিয়ে গত দেড় বছরে ক্রমশ স্বাভাবিক হয়েছে জঙ্গলমহল৷ অশান্তির বাতাবরণ দুর হওয়ায় তৃণমূল সরকারের উপর আদিবাসীদের ভরসা বেড়েছে৷ সেই বিশ্বাস আরও বাড়াতে চান মমতা৷ লোকসভা নির্বাচনের আগে জঙ্গলমহলের সব ক'টি আসনের দখল নিশ্চিত করা তাঁর পাখির চোখ৷ তাই মাওবাদীরে প্রতি একই সঙ্গে উপেক্ষা ও হুঁশিয়ারি ছিল মুখ্যমন্ত্রীর গলায়৷ শিলদার সভায় ব্যঙ্গের সুরে তিনি বলেন, 'দেখবেন, কেউ কেউ লুকিয়ে-চু্রিয়ে বদমাইশি করতে আসছে৷ আমার নাম নাকি বাবুরা এক নম্বরে রেখেছেন৷ আমি আপনাদের বলছি, একবার নয়, বার বার আসব, হাজার বার আসব, লক্ষ বার আসব বিনপুর, নয়াগ্রাম, লালগড়, বেলপাহাড়ি থেকে শুরু করে পুরুলিয়া, অযোধ্যা পাহাড়, বাঘমুনিণ্ডতে৷'
পুলিশকেও এই অঞ্চলে নির্ভয়ে কাজ করার জন্য উজ্জীবিত করেছেন মমতা বন্দোপাধ্যায়৷ শিলদার ইএফআর ক্যাম্পে হানা দিয়ে মাওবাদীরা ৩৫ জন জওয়ানকে গুলি করে মেরেছিলেন৷ সেই ঘটনার উল্লেখ করে শিলদার সভায় তিনি বলেন, 'আমি চাই, ওই জওয়ানদের স্মৃতিতে এখানে একটি কমিউনিটি ট্রেনিং সেন্টার গড়া হোক, যেখানে প্রশিক্ষণ পাবেন পুলিশকর্মীরা৷' ওই কমিউনিটি সেন্টার গড়ার জন্য সভামঞ্চেই ভাষণ দেওয়ার সময় পশ্চিম মেদিনীপুরের জেলাশাসক ও পশ্চিমাঞ্চলের আইজিকে উদ্দেশ্য করে মুখ্যমন্ত্রী বলেন, 'মুকুল রায়ের সাংসদ তহবিল থেকে ১০ লক্ষ টাকা দেওয়া হবে এ জন্য৷ আমি ফিরহাদকে বলে দিচ্ছি, পরশু দিনের মধ্যে ওই টাকা দিয়ে দেবেন৷'
মাওবাদীদের ফাঁদে পা দিয়ে বোমায় ২০০৫-এর ৯ মার্চ মারা গিয়েছিলেন বারিকুল থানার ওসি প্রবাল সেনগুপ্ত৷ তাঁর প্রতি সম্মান প্রদর্শনে বারিকুলের সভা
য় প্রবাল সেনগুপ্ত শিশুশিক্ষা কেন্দ্র গড়ার ঘোষণাও করেন মমতা৷ জঙ্গলমহলের কয়েকটি স্কুলের জন্য তাঁর সাংসদ তহবিল থেকে অর্থ দেওয়ার জন্য মুকুল রায়কে নির্দেশ দেন তিনি৷ উন্নয়নের কোনও সমস্যা যে তাঁর চোখ এড়ায় না, তাও ইঙ্গিতে বলেছেন তিনি৷
বাঁকুড়া-রাণীবাঁধ সড়কের কেচোন্দা ব্রিজের কাজ ২০০৬ থেকে থমকে আছে৷ কংসাবতী নদীতে বর্ষায় জল বাড়লে মানুষ ওই পথে যেতে পারেন না৷ মুখ্যমন্ত্রী বারিকুলের সভায় নিজেই জানালেন, 'অভিযোগ কানে আসায় ভোরবেলায় সেখানে গিয়েছিলাম৷ আগামীকাল থেকেই কাজ শুরু হয়ে যাবে৷' প্রশাসনিক আধিকারিকদের আরো বেশি সহিষ্ণু হতে নির্দেশ দিলেন৷ সাধারণ মানুষের অভিযোগের চিঠিপত্র যদি অসম্পূর্ণ থাকে, সেক্ষেত্রে পড়ে বুঝে নেওয়ার পরামর্শ দিলেন৷ এমনকি, কেউ যদি লিখতে না পারলে তাঁকে লিখতে সাহায্য করাটাও প্রশাসনিক দায়িত্বের মধ্যে পড়ে বলে স্মরণ করিয়ে দেন৷ মুখ্যমন্ত্রী বলেন, 'ওরা সকলে সে রকম ভাবে লিখতে পড়তে পারেন না, সেটা ভুলে গেলে চলবে না'৷
http://eisamay.indiatimes.com/state/returnning-forest-rights/articleshow/23088345.cms
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আদিবাসীদের 'বিরসা মুন্ডা দিবস' পালিত - সবুজবাংলাদেশ24
shobujbangladesh24.com/জাতীয়/74-nat006
১০ জুন, ২০১৩ - এসএস মিঠু , জয়পুরহাট থেকে : সাংবিধানিক স্বীকৃতি সহ ১৩দফা.
জয়পুরহাটে আদিবাসীদের 'বিরসা মুন্ডা দিবস' পালিত | Live Press24
livepress24.com/জয়পুরহাটে-আদিবাসীদের-ব/
এসএস মিঠু , জয়পুরহাট থেকে :: সাংবিধানিক স্বীকৃতি সহ ১৩দফা বাস্তবায়নের দাবিতে জয়পুরহাটে নানা আয়োজনে আদিবাসীদের মহানায়ক- 'বিরসা মুন্ডা' দিবস পালিত হয়েছে। রোববার (আজ) দুপুরে আদিবাসী ফাউন্ডেশনের সহযোগিতায় জয়পুরহাট জেলা আদিবাসী ভাষা,সংস্কৃতি ও ভূমি রক্ষা কমিটি এবং জেলা মুন্ডা ষ্টুডেণ্টস্ অ্যাসোসিয়েশনের যৌথ ...
বিরসা মুন্ডা সেন্ট্রাল জেল - Oneindia Bengali
৭ নভেম্বর, ২০১৩ - বিরসা মুন্ডা সেন্ট্রাল জেল News - Get List of Updates on বিরসা মুন্ডা সেন্ট্রাল জেল news, বিরসা মুন্ডা সেন্ট্রাল জেল breaking news and বিরসা মুন্ডা সেন্ট্রাল জেল current news on bengali.oneindia.in.
১১২ তম আদিবাসী নেতা বিরসা মুন্ডা দিবস... - বাংলাদেশের কন্ঠ - Facebook
১১২ তম আদিবাসী নেতা বিরসা মুন্ডা দিবস পালিত - http://bit.ly/O9tuEP.
'বিরসা মুন্ডা দিবস' পালিত - dinkal24.com
৯ জুন, ২০১৩ - এসএস মিঠু , জয়পুরহাট প্রতিনিধি:- সাংবিধানিক স্বীকৃতি সহ ১৩দফা বাস্তবায়নের দাবিতে জয়পুরহাটে নানা আয়োজনে আদিবাসীদের মহানায়ক- 'বিরসা মুন্ডা' দিবস পালিত হয়েছে। রোববার (আজ) দুুপুরে আদিবাসী ফাউন্ডেশনের সহযোগিতায় জয়পুরহাট জেলা আদিবাসী ভাষা,সংস্কৃতি ও ভূমি রক্ষা কমিটি এবং জেলা মুন্ডা ষ্টুডেণ্টস্ ...
রাঁচির রানওয়েতে ভেঙে পড়ল হেলিকপ্টার, রক্ষা সস্ত্রীক মুন্ডার
আজ দুপুরে রাঁচির বিরসা মুন্ডা বিমানবন্দরের রানওয়েতে প্রায় ২৫ ফুট উঁচু থেকে ভেঙে পড়ে হেলিকপ্টারটি। যান্ত্রিক গোলযোগেই এই দুর্ঘটনা বলে প্রাথমিক ভাবে মনে করা হচ্ছে। মুখ্যমন্ত্রী ও তাঁর স্ত্রী মীরা মুন্ডা ছাড়াও হেলিকপ্টারে ছিলেন মাজগাঁওয়ের বিজেপি বিধায়ক বড়কুঁয়র ঘাগরাই এবং মুখ্যমন্ত্রীর নিরাপত্তার দায়িত্বে থাকা পুলিশ ...
১১২ তম আদিবাসী নেতা বিরসা মুন্ডা দিবস পালিত - bdnationalnews.com
www.bdnationalnews.com/local.../১১২-তম-আদিবাসী-নেতা-বিরস...
১০ জুন, ২০১২ - পাবনা প্রতিনিধি, ১০ জুন (বিডিন্যাশনাল নিউজ ডটকম):- পাবনার চাটমোহর উপজেলার হান্ডিয়ালের বাঘলবাড়ি কৈ কমিউনিটি সেন্টারে ৯ জুন শনিবার আদিবাসী বিদ্রোহী নেতা বিরসা মুন্ডার ১১২ তম দিবস পালিত হয়েছে। তৎকালিন বৃটিশ শাষনামলে ভারত বর্ষের নাগপুরে মুন্ডা আদিবাসী গোষ্ঠী বসবাস করত। তখন ইংরেজ শাষক,জমিদার-মহাজন সকলেই ...
জয়পুরহাটে সাংবিধানিক স্বীকৃতি সহ ১৩দফা দাবিতে আদিবাসীদের 'বিরসা ...
৯ জুন, ২০১৩ - সাংবিধানিক স্বীকৃতি সহ ১৩দফা বাস্তবায়নের দাবিতে জয়পুরহাটে নানা আয়োজনে আদিবাসীদের মহানায়ক- 'বিরসা মুন্ডা' দিবস পালিত হয়েছে।রোববার (আজ) দুপুরে আদিবাসী ফাউন্ডেশনের সহযোগিতায় জয়পুরহাট জেলা আদিবাসী ভাষা,সংস্কৃতি ও ভূমি রক্ষা কমিটি এবং জেলা মুন্ডা ষ্টুডেণ্টস্ অ্যাসোসিয়েশনের যৌথ উদ্দ্যোগে ...
মেয়েবন্ধুরা নকশাল বিদ্রোহীদেরকে পুলিশের হাতে তুলে দিয়ে তাদেরকে ...
khabarsouthasia.com/bn/articles/apwi/articles/features/2013/.../feature-01
৮ আগস্ট, ২০১৩ - কুমার বলেছেন যে এই নকশালের কাছ থেকে দু'টি পিস্তল ও দু'টি গ্রেনেড বাজেয়াপ্ত করা হয়েছে, যিনি এখন রাঁচির বিরসা মুন্ডা কেন্দ্রীয় কারাগারে বসে বিচারের জন্য অপেক্ষা করছেন। মতি এখনো ... "আমি বিরসা মুন্ডা কারাগারে (রাঁচি) নিয়মিত গাঞ্জুজীর সাথে দেখা করি এবং আমরা এখনো একে অপরকে ভালোবাসি। তিনি কারাগার থেকে ...
জয়পুরহাটে ১৩ দফা দাবিতে 'বিরসা মুন্ডা দিবস' পালিত - ptbnews24.com ...
৯ জুন, ২০১৩ - পিটিবিনিউজ২৪. কম, জয়পুরহাট : সাংবিধানিক স্বীকৃতিসহ ১৩দফা.
NEWS
At least 6 elephants were killed by a train at Champramari Forest in Jalpaiguri yesterday evening.
वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं थी. 2001 में यह संख्या घटकर मात्र 234 रह गयीं. इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले पांच दशकों में भारत 1418 भाषाएं खो चुका है. यही नहीं भारत की 114 मुख्य भाषाओं में से 22 को ही संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल किया गया है...http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/important-articles/300-2012-04-23-13-06-14/4499-aadivasibahul-rajy-men-khatm-hoti-aadivasi-bhashayen-by-rajiv-for-janjwar
মহাকাব্যের অগ্রন্থিত কবিতা : মুক্তিযুদ্ধে আদিবাসী জাতিগোষ্ঠী
লিখেছেন: অতিথি লেখকবিভাগ: বাংলাদেশ, মানবাধিকার, মুক্তিযুদ্ধতারিখ: ৫ পৌষ ১৪১৮ (ডিসেম্বর ১৯, ২০১১) লেখককে বার্তা পাঠান
(মন্তব্য করুন অথবা পৃষ্ঠার নিচে যান)
লিখেছেনঃ চারু হক
গণহত্যার ইতিহাসে স্বল্পতম সময়ে সর্বাধিক মানুষ নিহত হয়েছে ১৯৭১ সালে পাকিস্তান কর্তৃক গণহত্যায়। কল্পনাকে ছাড়িয়ে যাওয়া এই নিষ্ঠুরতার শিকার হয়েছিল এদেশের আপামর জনসাধারণ; এদেশের বাঙালি ছাড়াও অর্ধশতাধিক জাতিগোষ্ঠীর মানুষ, যারা কখনো আদিবাসী, কখনো উপজাতি, কখনো ক্ষুদ্র নৃগোষ্ঠীসহ বিভিন্ন অভিধায় অভিহিত। অস্তিত্বে জড়িয়ে থাকা, চেতনায় মিশে থাকা প্রতিবাদের ভাষা দিয়ে ইতিহাসের অধ্যায়ে অধ্যায়ে সংগ্রামী মহাকাব্যের এ স্রষ্টারাই ভারতবর্ষে বিদেশী শাসকদের বিরুদ্ধে ১ম বিদ্রোহ করেছিল। সন্ন্যাসী বিদ্রোহ (১৭৬০- ১৮০০), গারো বিদ্রোহ (১৭৭৫-১৮০২), চাকমা বিদ্রোহ (১৭৮০-১৮০০), খাসি বিদ্রোহ (১৭৮৩), ময়মনসিংহের কৃষক বিদ্রোহ (১৮১২-১৮৩০), সাঁওতাল বিদ্রোহ (১৮৫৫-১৮৫৭), মুন্ডা বিদ্রোহ (১৮৫৭), তেভাগা বিদ্রোহ (১৯৪৬-১৯৪৭), টংক বিদ্রোহ, নাচোল বিদ্রোহ প্রভৃতির পথ ধরেই তাঁদের সমুখে আসে মুক্তিযুদ্ধ (১৯৭১)।
এ মুক্তিযুদ্ধে বৃহত্তর বাঙালি জাতির পাশাপাশি রক্ত ও জীবনের ঝুঁকি নিয়ে সনাতনসব অস্ত্রশস্ত্র নিয়ে আধুনিক মারণাস্ত্রে সজ্জিত সমরদক্ষ পাকিস্তানী সেনাদের সমুখে দাঁড়িয়েছে বাঙালি ছাড়াও অর্ধ-শতাধিক জাতিগোষ্ঠীর মানুষ- সাঁওতাল, চাকমা, মারমা, মুরং, ত্রিপুরা, গারো, হাজং প্রভৃতি।
উপমহাদেশের বিদ্রোহ-সংগ্রামের ইতিহাসে সমুজ্জ্বল সাঁওতালদের বাংলাদেশে বসতি উত্তরবঙ্গের বিস্তৃত অঞ্চলজুড়ে। উত্তরবঙ্গে পাকিস্তানীদের প্রধান ঘাঁটি রংপুর ক্যান্টনমেন্টে ছিল ২৩তম ব্রিগেড হেড-কোয়ার্টার। ২৩ মার্চ পাকিস্তানি লে. আব্বাসের মৃত্যুকে কেন্দ্র করে রংপুরসহ সমগ্র উত্তরবঙ্গে চরম উত্তেজনার সৃষ্টি হয়। হিন্দু বিবেচনা করে পার্শ্ববর্তী সাঁওতাল গ্রামগুলোতে চালায় অত্যাচারের স্টীমরোলার। এ পরিস্থিতিতে দা-কুড়াল, তীর-ধনুকের মতো আদিম অস্ত্রশস্ত্র নিয়ে রংপুর সেনানিবাস আক্রমণের মতো দুঃসাহসিক কাজে এগিয়ে আসে সাঁওতালরা। ২৮ মার্চ হাজার হাজার বিক্ষুব্ধ বাঙালি ও আদিবাসী সকাল ১১ টায় ক্যান্টনমেন্টের দিকে অগ্রসর হয়। গোপন চর মারফত আগেভাগেই ঘেরাও-এর কথা জেনে যাওয়া পাকিস্তানীরা রাতেই সেখানকার বাঙালি অফিসার ও সেনাদের বন্দি করে এবং ভারি অস্ত্রশস্ত্র নিয়ে হামলার প্রস্ততি নেয়। পদব্রজে সহস্র মানুষের অগ্রগামী স্রোত দেখে পাশবিক আক্রোশে গর্জে ওঠে তাদের অত্যাধুনিক আগ্নেয়াস্ত্র। শত শত বাঙালি ও আদিবাসীর রক্তে রক্ত-বর্ণ হয়ে যায় ঘাঘট নদীর জল। এদেশ ছেড়ে পালাতে বাধ্য হয় ৩০ হাজার সাঁওতাল। তিনশ'রও বেশি সাঁওতাল কেবল রংপুর থেকেই প্রত্যক্ষ মুক্তিযুদ্ধে অংশগ্রহণ করেন। দিনাজপুরের ওরাওঁ ও সাঁওতাল মিলে প্রায় ১০০০ জনের একটি বিশাল মুক্তিবাহিনী ঐ এলাকায় অত্যন্ত সাহসী ভূমিকা পালন করে। একইভাবে ময়মনসিংহ, টাঙ্গাইল, শেরপুর, নেত্রকোণার গারো-হাজং-কোচ-ডালু প্রভৃতি জনগোষ্ঠীর প্রায় ১৫০০ মানুষ মুক্তিযুদ্ধে অংশগ্রহণ করে। সাঁওতালদের মধ্যে মুক্তিযুদ্ধে অংশগ্রহণে অনুপ্রেরণা যোগান সাঁওতালনেতা সাগরাম মাঝি। গোদাগাড়ি রাজশাহীর বিশ্বনাথ টুডু ছিলেন প্লাটুন কমান্ডার। মক্তিযুদ্ধে অংশগ্রহণ করায় সাঁওতাল খ্রিষ্টান যাজক ফাদার লুকাশ মারান্ডিকে, রাজশাহীর কাশিঘুটুতে ১১ জনকে এবং রংপুরের উপকণ্ঠে ২০০ জন সাঁওতালকে নির্মমভাবে হত্যা করা হয়। নির্মম লৈঙ্গিক নির্যাতন করা হয় গোদাগাড়ির আদাড়পাড়া গ্রামের মালতী টুডুসহ বেশ কয়েকজন নারীকে।
মুক্তিযুদ্ধের প্রতিরোধপর্বেই মণিপুরী-অধ্যুষিত মৌলভিবাজারের ভানুগাছ, হবিগঞ্জের চুনারুঘাট, ছাতকের কোম্পানিগঞ্জ ও সিলেটে পাকসেনারা নৃশংসভাবে হত্যা করে নিরপরাধ ছাত্র, যুবা ও রাজনৈতিক ব্যক্তিবর্গকে। আদিম লালসার শিকার হয় অসংখ্য মণিপুরী নারী। ১২ আগস্ট মৌলভীবাজারের ভানুবিলের মণিপুরী বিষ্ণুপ্রিয়া ব্রাহ্মণ সার্বভৌম শর্মাকে হত্যা করা হয়। নিহত হন মাধবপুর গ্রামের গিরীন্দ্র সিংহ, গিরীন্দ্র সিংহ প্রমুখ। এভাবে মৌলভীবাজার, কুলাউড়া, বড়লেখা, চুনারুঘাট, মাধবপুর, বৈকুণ্ঠপুর, গোয়াইনঘাট, হবিগঞ্জের কমলগঞ্জ, শ্রীমঙ্গল, সিলেট সদর ও ফেঞ্চুগঞ্জ থানার ৮৩ টি বাগান এলাকার আদিবাসী চা-জনগোষ্ঠীর কমপক্ষে ৬০২ জনকে হত্যা করে। কামারছড়ায় পাকসেনাদের ক্যাম্পে বাংকার খনন ও জঙ্গল পরিষ্কার করার জন্যে পালাক্রমে স্বেচ্ছাশ্রমে বাধ্য করা হত ভানুবিলের প্রতিটি মণিপুরীকে। জঙ্গলে কাজ করতে গিয়ে জীবনের ঝুঁকি নিয়ে কৃষ্ণ কুমার সিংহ, কুলেশ্বর সিংহসহ বেশ কয়েকজন আদিবাসী যুবক পালিয়ে ভারত গিয়ে প্রশিক্ষণ নিয়ে মুক্তিযুদ্ধ করেছেন। কেবল গেরিলা ও সম্মুখযুদ্ধ নয়, শব্দশিল্প, চিত্রশিল্প, নৃত্যশিল্প প্রভৃতির মধ্যদিয়েও মুক্তিযুদ্ধ ও মুক্তিযোদ্ধাদের সর্বাত্মক সহায়তা করেছেন অনিতা সিংহ, সাধন সিংহ, বানী সিনহা প্রমুখ। নন্দেশ্বর সিংহ, বিজয় সিংহ প্রমুখ মুক্তিযোদ্ধা সংগঠক কয়েকশত মুক্তিসেনার বাহিনী গড়ে তুলতে অসীম ভূমিকা রাখেন।
বর্মিদের অত্যাচারে সবকিছু হারিয়ে এদেশে স্থিতু হয়েছিল রাখাইনরা। অভিজ্ঞতায় স্বাধীনতা হারানোর বেদনা, চেতনায় পরাধীনতা থেকে মুক্তির আকাঙ্ক্ষা। সেই আকাঙ্ক্ষার বশেই বাংলাদেশের মুক্তিযুদ্ধে কৃতিত্ব রাখেন অসংখ্য রাখাইন। তেমন কয়েকজন উল্লেখযোগ্য বীরযোদ্ধা- কক্সবাজারের উ-মংয়াইন, উ-ক্যহ্লাচিং, পটুয়াখালী-বরগুনার উ-উসিটমং, রামুর মংয়াইন, মহেশখালীর মংহ্লা প্রমুখ। মুক্তিযুদ্ধকালে রাখাইনদের কেউ কেউ নিজেদের 'চায়না বৌদ্ধ' পরিচয় দিয়ে রক্ষা পেলেও পাকিস্তানি নৃশংসতায় নিস্তব্ধ হয়ে গিয়েছিল অধিকাংশ রাখাইন জনপদ। মে মাসে মহেশখালীর ঠাকুরতলা বৌদ্ধ বিহারে পাকসেনারা অনুপ্রবেশ করে বিনা অপরাধে বিহারের মহাথেরো উ-তেজিন্দাসহ ছয় জনকে গুলি করে হত্যা করে। বৌদ্ধ বিহারের ৬২টি রৌপ্য মূর্তি লুণ্ঠন ও কয়েকটি শ্বেত পাথরের মূর্তি ধ্বংস করে। দক্ষিণ রাখাইন পাড়ার বৌদ্ধ বিহারের সেবায় নিয়োজিত তিনজন নিরপরাধ রাখাইনকে আগুণে পুড়ে হত্যা করে।
অন্যদিকে চাকমা রাজা ত্রিদিব রায় একাত্তরে পাকিস্তানীদের পক্ষ নিয়ে কাজ করায় সকল চাকমাদের ঢালাওভাবে পাকিস্তানের দালাল বলা হয়। পাকিস্তানপর্বে এদেরকে ভারতপন্থী, আবার '৭১ ও পরবর্তীপর্বে বলা হয় পাকিস্তানপন্থী। অথচ বাস্তবতা ভিন্ন রকম। ১৯৬০ সালে পাকিস্তান সরকার কাপ্তাই বাঁধ নির্মাণ করলে সবচেয়ে বেশি ক্ষতিগ্রস্ত হয় চাকমারা। ১ লক্ষ চাকমা পার্শ্ববর্তী বিভিন্ন দেশে আশ্রয় নিতে বাধ্য হয়। তাদের মধ্যে পাকসরকারের প্রতি ক্ষোভ ছিল সহজাত। তাই চাকমা রাজা ত্রিদিব রায় '৭১-এ পাকিস্তানের পক্ষ নিলেও চাকমা রাজ পরিবারের অন্যতম সদস্য কে. কে রায় মুক্তিযুদ্ধের সপক্ষে সর্বাত্মক সহযোগিতা ও সক্রিয় অংশগ্রহণ করেছেন। প্রখ্যাত চাকমা নেতা মানবেন্দ্র নারায়ন লারমার নেতৃত্বে সক্রিয় অংশগ্রহণে প্রস্তুতি নিয়েছিল অসংখ্য চাকমা ছাত্র ও যুবক। তাঁদের ভাষ্যমতে, পার্বত্য চট্টগ্রামের তদানীন্তন জেলা প্রশাসক এইচ.টি.ইমাম এবং স্থানীয় আওয়ামীলীগ নেতা সাইদুর রহমানের ষড়যন্ত্রে চাকমাদেরকে মুক্তিযুদ্ধে অংশগ্রহণ থেকে দূরে সরিয়ে রাখা হয়। এর অনেক প্রামাণ্য উদাহরণের মধ্যে উল্লেখ্য- রসময় চাকমা, তাতিন্দ্রলাল চাকমা প্রমুখ। প্রশিক্ষণের জন্য জীবনের ঝুঁকি নিয়ে ভারত গিয়েও বিফল মনোরথে ফিরে আসতে হয়েছিল তাঁদের। সঙ্গে ছিলেন আরও অনেক আদিবাসী তরুণ যুবক। যুদ্ধে অংশ নিতে না পেরে তাঁদের মধ্যে কেউ কেউ নিজেদের সনাতন অস্ত্রশস্ত্র নিয়ে সুযোগ বুঝে বিচ্ছিন্নভাবে পাকিস্তানীদের প্রতিরোধ করার চেষ্টা করেছেন এবং অন্যদিকে কেউ কেউ হতাশ হয়ে পাকিস্তানীদের ইন্ধনে রাজাকার বাহিনীতে নিযুক্ত হয়েছেন। অথচ পরবর্তী সময়ে এ কতিপয় চাকমা রাজাকারের জন্য নির্মম মাশুল দিতে হয়েছে আপামর চাকমা জনগোষ্ঠীকে।
মুক্তিযুদ্ধের বিজয়োত্তর অব্যাহতিকালেই মুক্তিযোদ্ধা নামধারী কতিপয় দল চাকমাপ্রধান কুকিছড়া, পানছড়ি, কানুনগোপাড়ায় নারী-পুরুষ নির্বিশেষে গণহত্যা ও লুটপাটের মহোৎসব চালায়। খাগড়াছড়ি মাটিরাঙ্গার আসালং, বড়বিল, তাইন্দ্যং এবং তবলছড়ি মৌড়ার গ্রামগুলো জ্বালিয়ে দেয়া হয়। মুক্তিযুদ্ধ শেষে যে দলটি মাটিরাঙ্গা হয়ে পার্বত্য চট্টগ্রামে প্রবেশ করে, সে দলটি পানছড়ি এবং দীঘিনালার বেশ কয়েকটি আদিবাসী গ্রাম জ্বালিয়ে দেয় এবং কিছুসংখ্যক আদিবাসীকে হত্যা করে। আবার বিভিন্ন প্রতিবন্ধকতা পেরিয়ে যেসকল চাকমা মুক্তিযুদ্ধ করেছেন তাঁদের প্রতি পরবর্তীতে শীতল আচরণ করা হয়। যুদ্ধকালীন বীরত্বের স্বীকৃতির রেকর্ড অনুযায়ী ৩ জন চাকমা মুক্তিযোদ্ধাকে বিধান মোতাবেক খেতাবে ভূষিত করার সিদ্ধান্ত নেয়া হলেও, পরবর্তীতে তা অকার্যকর রয়ে যায়।
খাগড়াছড়ি মং রাজা মং প্রু সেইন সক্রিয়ভাবে মুক্তিযুদ্ধে অংশগ্রহণ করেছেন। যুদ্ধকালে মানিকছড়ি রাজবাড়িতে আশ্রয়শিবির এবং ফিল্ড হাসপাতাল প্রতিষ্ঠা, মুজিবনগর সরকারকে অর্থ-সহায়তা ছাড়াও মুক্তিযোদ্ধাদেরকে নিজের কয়েকটি গাড়ি এবং ত্রিশটির বেশি আগ্নেয়াস্ত্র প্রদান করেছেন। এরপর তিনি ত্রিপুরার সাব্রুম এবং সেখান থেকে পরিবার-পরিজন নিয়ে রূপাইছড়ি শরণার্থী-শিবিরে অবস্থান গ্রহণ করেন। এ সময় তিনি মুক্তিযোদ্ধাদের অস্ত্র প্রশিক্ষণের কাজে নিয়োজিত হন। এরপর নিরাপত্তার খাতিরে ভারতীয় কর্তৃপক্ষ তাঁকে আগরতলায় পাঠিয়ে অনারারি কর্নেল উপাধি দেয়। এসময় তিনি আখাউড়া অপারেশনসহ বেশ কয়েকটি সফল অপারেশনে পুরোভাগে থেকে বীরত্বপূর্ণ যুদ্ধ করেন।
অথচ সংবিধানে আদিবাসী জনগোষ্ঠীর অস্তিত্ব অস্বীকার করার মতই মক্তিযুদ্ধে তাঁদের ত্যাগ ও অবদানকে উপেক্ষা করা হয়েছে। ইতিহাসবিদ ও গবেষকগণ এড়িয়ে গেছেন মুক্তিযুদ্ধের এ সাহসী উপাদানগুলো। মুক্তিযুদ্ধ গবেষণার আকড়গ্রন্থ বাংলাদেশ সরকার কর্তৃক প্রকাশিত ১৫ খন্ডের দলিলপত্রে উল্লেখ নেই এঁদের অবদানগাঁথা। এমনকি বাংলাদেশ ইতিহাস পরিষদ কর্তৃক শ্রেষ্ঠ ইতিহাস গ্রন্থের মর্যাদা লাভকারী মূলধারা '৭১ (মঈদুল হাসান) এও আদিবাসী মুক্তিযোদ্ধাদের বীরত্বপূর্ণ অবদান ঊপেক্ষিত।
লেখক পরিচিতি : বাংলা ভাষা ও সাহিত্য, সমাজবিজ্ঞান ও নৃবিজ্ঞানে স্নাতকোত্তর। পেশাগতভাবে গবেষক ও লেখক। প্রথম গ্রন্থ মুক্তিযুদ্ধে আদিবাসী (ঐতিহ্য ২০০৮)। পাশাপাশি আদিবাসী ও অন্যান্য প্রসঙ্গ নিয়ে আরও কিছু গ্রন্থ রচনার প্রয়াস পেয়েছেন। মুক্তিযুদ্ধ ও অন্যান্য প্রসঙ্গ নিয়ে কিছু গ্রন্থ প্রকাশিতব্য। প্রগতিশীল দৃষ্টিভঙ্গির অধিকারী লেখক আস্থা রাখেন গণতান্ত্রিক সমাজতন্ত্র ও উদার মানবতাবাদে।
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मुझे बिजली के झटके दिए गए थे: सोनी सोरी
गुरुवार, 14 नवंबर, 2013 को 19:47 IST तक के समाचार
सोनी सोरी छत्तीसगढ़ के बस्तर के एक स्कूल में शिक्षक थीं.
छत्तीसगढ़ के बस्तर के एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका, सोनी सोरी को सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम ज़मानत मिल गई है. सोनी सोरी को पांच अक्तूबर 2011 को क्राइम ब्रांच और छत्तीसगढ़ पुलिस के संयुक्त अभियान में दिल्ली से गिरफ़्तार किया गया था.
उनका मामला तब चर्चा में आया था जब अक्तूबर 2011 में कोलकाता के एक अस्पताल के डॉक्टरों की टीम ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी रिपोर्ट में कहा कि सोनी के शरीर में कुछ बाहरी चीज़ें पाई गईं.
अंतरिम ज़मानत मिलने के बाद सोनी सोरी ने बीबीसी संवाददाता विनीत खरे से बातचीत में कहा कि उन्हें राहत मिलने से आदिवासियों में भी उम्मीद जगी है.
आपने पुलिस पर किन अत्याचार के आरोप लगाए हैं?
मैंने पहले भी कहा है कि मुझे निर्वस्त्र किया गया. करंट छोड़ा गया. ये सच है मेरे साथ ऐसा हुआ था.
सोनी सोरी की गिरफ़्ताी के खिलाफ मानवाधिकार संगठन लंबे अरसे से प्रदर्शन कर रहे थे.
मैं एक आदिवासी हूं, मैंने सोचा था कि अपने लोगों को पढ़ा-लिखा कर आगे बढ़ाऊंगी. आज मेरे पास कई केस डाल दिए गए, कुछ में मैं बरी भी हो गई, इस केस में भी मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं बरी हो जाऊंगी.
इससे सिर्फ़ मेरी ही बर्बादी नहीं हुई, जिन बच्चों को मैं अपने आश्रम में पढ़ा रही थी उनका भी भविष्य अंधकार में है. कुछ बच्चे भाग गए हैं. जितना इलाके का विकास होना था वो नहीं हो पाया.
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की हालत पर काफी कुछ लिखा गया है, आप क्या सोचती हैं?
मुझे लगता है कि आदिवासियों को अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए. अगर अच्छी शिक्षा मिलेगी तो जो हो रहा है वो ख़त्म हो जाएगा. ताकि इन्हें अच्छे-बुरे की समझ आ सके. जब मैंने ग़लती ही नहीं की तो क्यों अत्याचार सहूं. इसके खिलाफ मैं लड़ी, बहुत दिक्कत हुई.
सब की मदद से मैंने लड़ाई को यहां तक पहुंचाया. सुप्रीम कोर्ट ने जो मुझे राहत दी है वो मेरे लिए ही नहीं है बल्कि आदिवासियों में भी विश्वास जगा है कि आज हमारे लिए और भी दरवाज़े हैं.
आप पर आरोप लगे कि आप माओवादियों की समर्थक हैं, क्या कहेंगी आप?
मैं कहती हूं कि ऐसा था तो मुझे गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया, वारंट बनाकर क्यों रखे गए. अगर मैं नक्सलियों की समर्थक होती तो अपने पिता को क्यों नहीं बचा पाई. आज मेरे तीनों भाई बिखरकर रह गए.
आपको पुलिस ने क्यों गिरफ़्तार किया?
मैं भी जानना चाहती हूं कि मुझे गिरफ़्तार क्यों किया गया.
याचिका में कहा गया था कि आपके शरीर में से पत्थर मिले, इसमें कितनी सच्चाई है?
वो मैं अभी नहीं बताऊंगी. ये बात मैं तब बताऊंगी जब मैं दिल्ली जाऊंगी. अभी मेरी मानसिक स्थिति ऐसी हो गई है. मुझसे पूछेंगे तो मुझे रोना आएगा.
अभी परिवार के बीच थोड़ा बोल पा रही हूं. अभी मेरे परिवार वालों ने मुझे घेर रखा है. अभी परिवार के सामने इस घटना को बताऊंगी तो परिवार को बहुत तकलीफ़ होगी.
ये नहीं पता कि परिवार के लोग कितना जानते हैं. गांव में रहते हैं. उन्हें तो ये देखकर डर लग रहा है कि इतनी पुलिस क्यों आई है.
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http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/11/131114_soni_sori_interview_torture_an.shtml
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Reuters
Raipur: Tribal teacher Soni Sori and her activist-nephew Lingaram Kodopi were released from Jagdalpur jail after the Supreme Court granted them bail following their arrest two years ago for allegedly receiving money on behalf of Maoists from a corporate house in Chhattisgarh.
"The Supreme Court gave conditional bail to Sori and Kodopi on November 12 and we received the order today (Thursday), after which which we released them," Jagdalpur Jail Superintendent Rajendra Gaikwad told PTI.
According to Bastar Additional Superintendent of Police S R Salaam, the duo were taken to Dantewada where they were given permission to spend 24 hours with their family, after which they will be taken to New Delhi on Friday where they have to report to the police station on a weekly basis.
The bail has been given on the condition that they would not visit Chhattisgarh while their case is being probed, Salaam said.
36-year-old tribal teacher Sori and her activist-nephew Kodopi (25) were arrested on charges of acting as conduits of protection money by paid by the Essar group to Maoists.
According to the police, on September 9, 2011, Kodopi and B K Lala, a building contractor with Essar Steel Ltd, were nabbed from a market at Palnar village in Dantewada district, along with Rs 15 lakh in cash, which was allegedly meant to be paid to the Maoists.
The police had claimed that the recovered cash was protection money allegedly originating from the Essar Group and Kodopi had received it on behalf of the Maoists. The police had also claimed Sori was also associated with Kodopi but she managed to flee from the spot.
Later, she was arrested on October 4, 2011, in New Delhi. Essar Steel General Manager DVCS Verma was also arrested in this connection.
However, the Dantewada district court had granted bail to Verma and Lala.
Surendra Grover
आश्चर्य हो रहा है कि राजस्थान के किसी अख़बार में टाटा स्टील में हुए विस्फोट की खबर ही नहीं....
Tribal activist Soni Sori, accused of having links with Maoists, released from jail
All India | Edited by Amit Chaturvedi (With PTI inputs) | Updated: November 14, 2013 13:25 IST
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क्या यीशु? – क्या यीशु भगवान हैं विद्वानों के सबूत
Raipur: Soni Sori, a tribal teacher, today walked out of jail, two years after she was arrested for allegedly helping Maoists, a charge that was contested by activists.
Ms Sori was released along with her nephew, journalist Lingaram Kodopi, after the Supreme Court on Tuesday granted them bail on condition that they would not visit Chhattisgarh while their case was being probed. The Chhattisgarh government had objected to their release but the top court pointed out that others accused in the case had been given bail.
36-year-old Sori and her activist-nephew Kodopi,25, were arrested in 2011 on charges of acting as Maoist conduits who had allegedly received protection money for the rebels from Essar Group in Chhattisgarh.
According to the police, Kodopi and BK Lala, a building contractor with Essar Steel Ltd, were kidnapped from a weekly market at Palnar village in Dantewada district of Chhattisgarh in September, 2011, with Rs.15 lakh in cash, which was allegedly meant to be paid to the Maoists.
Essar Steel Ltd General Manager DVCS Verma, too, was arrested in connection with the case, but was later granted bail.
Vidya Bhushan Rawat
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक बिरसा मुंडा को उनके जन्म दिवस पर सलाम। आज बिरसा के विचार और अधिक महत्वपूर्ण हो गए जब पूंजीवादी शक्तियों के हाथो आदिवासी संस्कृति, उनके संशाधन और अधिकार सब बिक रहे हैं. बिरसा की लड़ाई आदिवासी स्वायत्तता और आज़ादी के लड़ाई थी, आदिवासी संस्कृति और जल जंगल और जमीन पर हको के लड़ाई थी. उस ज़माने में बिरसा ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की तिकडमो को पहचाना और अपनी जमीन की आज़ादी का संघर्ष किया जो भारत के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है लेकिन आज ब्राह्मणादि इतिहासकारो ने उनके इस संघर्ष को इतिहास कि किताबो से गायब किया लेकिन बिरसा को उनके लोगो के दिलो से गायब नहीं कर पाये। आज बिरसा के संघर्ष और उनकी विचारधारा को सलाम करने का दिन है.
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[LARGE][LINK=/vividh/15795-2013-11-14-13-50-02.html]शिक्षिका सोनी सोरी और पत्रकार लिंगाराम जेल से रिहा, देखें शुरुआती तस्वीरें[/LINK] [/LARGE]
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Details Category: [LINK=/vividh.html]विविध[/LINK] Created on Thursday, 14 November 2013 19:20 Written by B4M
सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी और पत्रकार लिंगाराम को जमानत पर रिहा करने का जो आदेश दिया था, उस पर अमल करते हुए और औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद आज दोनों को जगदलपुर जेल से रिहा कर दिया गया. रिहाई के बाद सोनी सोरी को संवाददाताओं ने घेर लिया और सवालों की बौछार कर दी. पत्रकार लिंगाराम भी खुद को आजाद पाकर काफी खुश महसूस कर रहे थे.
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[B]फोटो सौजन्य से रवीश राज परमार [/B]
ज्ञात हो कि न्यायमूर्ति सुरिन्दर सिंह निज्जर और न्यायमूर्ति एफएम इब्राहीम कलीफुल्ला की सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने सोरी और लिंगाराम को जमानत पर रिहा करने का आदेश देने के साथ ही उन्हें इस मामले की जांच पूरी होने तक छत्तीसगढ़ राज्य में नहीं रहने का भी निर्देश दिया.
छत्तीसगढ़ सरकार के वकील अतुल झा ने दोनों की जमानत अर्जी का विरोध किया लेकिन न्यायालय ने कहा कि यदि किसी अन्य मामले में वे अभियुक्त नहीं हों तो उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया जाये. इन दोनों ने छत्तीसगढ उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ याचिका दायर की थी. उच्च न्यायालय ने आठ जुलाई को उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी थी.
[HR]
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Surendra Grover
गैस लीक होने से जमशेदपुर आज बन सकता था दूसरा भोपाल.. टाटा स्टील के LD2 प्लांट में भयंकर विस्फोट.. प्लांट की छत उड़ी... विस्फोट से पूरा जमशेदपुर कांप उठा..एक बारगी तो लगा कि भूकम्प आ गया.. अफवाहों का बाज़ार गर्म हुआ.. बारह से ज्यादा गंभीर घायल... सैंकड़ों मज़दूर घायल... करीब पन्द्रह मौतों की अपुष्ट खबर... टाटा स्टील ने कहा कि कोई मौत नहीं हुई... घायलों को प्लांट से मात्र तीन किलोमीटर दूर टाटा मेमोरियल अस्पताल पहुँचाने में पैंतालिस मिनट से अधिक लग गए... मीडिया में खबरें दबाने का खेल चालू..
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Samit Carr
His dreams for the people of India could not be fulfilled , still working and Adivasi (indigenous) people have been dying because of starvation & malnutrition, people are being displaced from their traditional rights of land water and forest, people have becoming chief source of labour power and victims of mining overburden and environmental degradation due to unchecked air and water pollution and for unsafe working conditions, getting them selves diseased of incurable lung diseases (that includes occupational diseases) and finally dying at their premature ages. More than 40 workers of two ramming mass (quartz grinding) units died, nearly 150 workers have been suffering from incurable lethal disease silicosis. Most of them are from tribe and local communities. Around 25-30 Lakh poor workers have been suffering from silicosis in Jharkhand.
Munda rebellion-এর চিত্র
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Birsa Munda is named with great respect as one of the freedom fighters in the .... for Bengali in 1979, is based on his life and the Munda Rebellion against the ...The Historical Blogs: The Munda rebellion (Birsa Munda)
১৫ জুলাই, ২০১০ - The Munda rebellion too is one of the most important tribal uprisings ...The Munda rebellion was led by a great Munda leader called Birsa ...what is munda revolt? - Smartindia.net.in
Munda, Birsa (ca. 1872–1900) - Blackwell Reference Online
Birsa was the leader of the Munda Rebellion, one of the significant tribal movements waged against colonial rule in India. Different estimates place his year of ...What is birsa munda revolt - WikiAnswers
it is the munda revolt for freedom from the colonial british government who had taken thier rights to their lands and made them pay heavy taxes and if they ...What are the Causes of the Munda Rebellion - WikiAnswers
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৪ দিন আগে - For decades, India's government has been locked in a struggle with rebels seeking to impose Maoism on the world's largest democracy.
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Birsa Munda
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Birsa Munda | |
---|---|
Birsa Munda, photograph in Roy | |
Born | 15 November 1875 Ulihatu, Khunti, India |
Died | 9 June 1900 Ranchi Jail [1] |
Birsa Munda ( बिरसा मुंडा ) pronunciation (help·info) (1875–1900) was an Indian tribal freedom fighter and a folk hero, who belonged to the Munda tribe, and was behind theMillenarian movement that rose in the tribal belt of modern day Bihar, and Jharkhandduring the British Raj, in the late 19th century, thereby making him an important figure in the history of the Indian independence movement.
His portrait hangs in the Central Hall of Indian Parliament, the only tribal leader to have been so honoured.[2]
Birsa Munda is named with great respect as one of the freedom fighters in the Indian struggle for independence against British colonialism. His achievements in the freedom struggle became even greater considering he accomplished this before his 25th year.
Contents
[hide]Early Childhood[edit]
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Birsa Munda was born on 15 November in the year 1875 on a Thursday and died on 9 June 1900 and hence was named after the day of his birth according to the then prevalent Munda custom. The folk songs reflect popular confusion and refer to both Ulihatu and Chalkad as his birthplace. Ulihatu was the birthplace of Sugana Munda, father of Birsa. The claim of Ulihatu rests on Birsa's elder brother Komta Munda living in the village and on his house which still exists albeit in a dilapidated condition.
Birsa's father, mother Karmi Hatu,[3] and younger brother, Pasna Munda, left Ulihatu and proceeded to Kurumbda near Birbanki in search of employment as labourers or crop-sharers (sajhadar) or ryots. At Kurmbda Birsa's elder brother, Komta, and his sister, Daskir, were born. From there the family moved to Bamba where Birsa's elder sister Champa was born followed by himself.
Soon after Birsa's birth, his family left Bamba. A quarrel between the Mundas and their ryots in which his father was involved as a witness was the immediate reason for proceeding to Chalkad, Sugana's mother's village, where they were granted refuge by Bir Singh, the Munda of the village. Birsa's birth ceremony was performed at Chalkad. As a Munda, he was very respectable in the society and also it was said that Birsa had the strength of 100 elephants as he was seen bending British rifles by his own hands and also he was seen tearing machines made by the British in the factories that they attacked.
After childhood[edit]
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Birsa Munda had a very nice and joyful childhood. He was a boy living with Britishers. Birsa's early years were spent with his parents at Chalkad. His early life could not have been very different from that of an average Munda child. Folklore refers to his rolling and playing in sand and dust with his friends, and his growing up strong and handsome in looks; he grazed sheep in the forest of Bohonda. When he grew up, he shared an interest in playing the flute, in which he became adept, and so movingly did he play that all living beings came out to listen to him. He went round with the tuila, the one-stringed instrument made from the pumpkin, in the hand and the flute strung to his waist. Exciting moments of his childhood were spent on the akhara (the village dancing ground). One of his ideal contemporaries and who went out with him, however, heard him speak of strange things.
Driven by poverty Birsa was taken to Ayubhatu, his maternal uncle's village. Komta Munda, his eldest brother, who was ten years of age, went to Kundi Bartoli, entered the service of a Munda, married and lived there for eight years, and then joined his father and younger brother at Chalkad. At Ayubhatu Birsa lived for two years. He went to school at Salga, run by one Jaipal Nag. He accompanied his mother's younger sister, Joni, who was fond of him, when she was married, to Khatanga, her new home. He came in contact with a pracharak who visited a few families in the village which had been converted to Christianity and attacked the old Munda order.
He remained so preoccupied with himself or his studies that he left the sheep and goat in his charge to graze in the fields covered with crops to the dismay of their owners. He was found no good for the job and was beaten by the owner of field. He left the village and went to his brother at Kundi Bartoli, and stayed with him for some time. From there he probably went to the German mission at Burju where he passed the lower primary examination. He also studied at Chaibasa at Gossner Evangelical Lutheran Mission school run by German missionaries. Birsa was a man mostly seen roaming in the forest and village of Chota Nagpur in Bihar. He died on June 9, 1900 in jail under mysterious circumstances.
The Formative Period (1886–1894)[edit]
Birsa's long stay at Chaibasa from 1886 to 1890 constituted a formative period of his life. The influence of Christianity shaped his own religion.[citation needed] This period was marked by the German and Roman Catholic Christian agitation. Chiabasa was not far for the centre of the Sardars' activities influenced Sugana Munda in withdrawing his son from the school. The sardars agitation in which Birsa was thus caught up put the stamp of its anti-missionary and anti-Government character on his mind.[citation needed] Soon after leaving Chaibasa in 1890 Birsa and his family gave up their membership of the German mission in line with the Sardar's movement against it.
He left Corbera in the wake of the mounting Sardar agitation. He participated in the agitation stemming form popular disaffection at the restrictions imposed upon the traditional rights of the Mundas in the protected forest, under the leadership of Gidiun of Piring in the Porhat area. During 1893-4 all waste lands in villages, the ownership of which was vested in the Government, were constituted into protected forests under the Indian Forest Act VII of 1882. In Singhbhum as in Palamau and Manbhum the forest settlement operations were launched and measures were taken to determine the rights of the forest-dwelling communities. Villages in forests were marked off in blocks of convenient size consisting not only of village sites but also cultivable and waste lands sufficient of the needs of villages. In 1894, Birsa had grown up into a strong and handsome young man, shrewd and intelligent. He was tall for a Munda, 5 feet and 4 inches, and could perform the feat of repairing the Dombari tank at Gorbera damaged by rains. His real appearance was extraordinary pleasant: his features were regular, his eyes bright and full of intelligence and his complexion much lighter than most of his people.
During the period he had a spell of experience typical of a young man of his age and looks. While on a sojourn in the neighbourhood of village Sankara in Singhbhum, he found suitable companion, presented her parents with jewels and explained to her his idea of marriage. Later, on his return form jail he did not find her faithful to him and left her. Another woman who served him at Chalkad was the sister of Mathias Munda. On his release form prison, the daughter of Mathura Muda of Koensar who was kept by Kali Munda, and the wife of Jaga Munda of Jiuri insisted on becoming wives of Birsa. He rebuked them and referred the wife of Jaga Munda to her husband. Another rather well-known woman who stayed with Birsa was Sali of Burudih.
Birsa stressed monogamy at a later stage in his life. Birsa rose form the lowest ranks of the peasants, the ryots, who unlike their namesakes elsewhere enjoyed far fewer rights in the Mundari khuntkatti system, while all privileges were monopolized by the members of the founding lineage the ryots were no better than crop-sharers. Birsa's own experience as a young boy, driven from place to place in search of employment, given him an insight into the agrarian question and forest matters; he was no passive spectator but an active participant in the movement going on in the neighbourhood.
The Making of a Prophet[edit]
Birsa's claim to be a messenger of God and the founder of a new religion sounded preposterous to the mission. There were also within his sect converts from Christianity, mostly Sardars. His simple system of offering was directed against the church which levied a tax. And the concept of one God appealed to his people who found his religion and economical relig healer, a miracle-worker, and a preacher spread, out of all proportion to the facts. The Mundas, Oraons, and Kharias flocked to Chalkad to see the new prophet and to be cured of their ills. Both the Oraon and Munda population up to Barwari and Chechari in Palamau became convinced Birsaities. Contemporary and later folk songs commemorate the tremendous impact of Birsa on his people, their joy and expectations at his advent. The name of Dharti Aba was on everybody's lips. A folk songs in Sadani showed that the first impact cut across the lines of caste Hindus and Muslims also flocked to the new Sun of religion. All roads led to Chalked.
Birsa Munda and his movement[edit]
The British colonial system intensified the transformation of the tribal agrarian system into feudal state. As the tribals with their primitive technology could not generate a surplus, non-tribal peasantry were invited by the chiefs in Chhotanagpur to settle on and cultivate the land. This led to the alienation of the lands held by the tribals. The new class of Thikadars were of a more rapacious kind and eager to make most of their possessions.
In 1856 the number of the Jagirdars stood at about 600, and they held from a village to 150 villages. By 1874, the authority of the old Munda or Oraon chiefs had been almost entirely effaced by that of the farmers, introduced by the superior landlord. In some villages the aborigines had completely lost their proprietary rights, and had been reduced to the position of farm labourers.
To the twin challenges of agrarian breakdown and culture change, Birsa along with the Munda responded through a series of revolts and uprisings under his leadership. The movement sought to assert rights of the Mundas as the real proprietors of the soil, and the expulsion of middlemen and the British. He was treacherously caught on 3 February 1900 and died in mysterious conditions on 9 June 1900 in Ranchi Jail. He didn't show any symptoms of cholera though British government declared that he died because of cholera. Though he lived for a very short span of 25 years, he aroused the mind-set of the tribals and mobilized them in a small town of Chotanagpur and was a terror to the British rulers. After his death the movement faded out. However, the movement was significant in at least two ways . First it forced the colonial government to introduce laws so that the land of the tribals could not be easily taken away by the dikus. Second it showed once again that the tribal people had the capacity to protest against injustice and express their anger against colonial rule. They did this in their own way, inventing their own rituals and symbols of struggle.
Birsa Munda in popular culture[edit]
His birth anniversary which falls on 15 November, is still celebrated by tribal people in as far as Mysore and Kodagu districts in Karnataka,[4] and official function takes place at his Samadhi Sthal, at Kokar Ranchi, the capital of Jharkhand.[5]
Today, there are a number of organizations, bodies and structures named after him, notably Birsa Munda Airport Ranchi, Birsa Institute of Technology Sindri, Birsa Munda Vanvasi Chattravas, Kanpur, Sidho Kanho Birsha University, Purulia, and Birsa Agricultural University. The war cry of Bihar Regiment is Birsa Munda Ki Jai (Victory to Birsa Munda).[6] In 2008, Hindi film based on the life of Birsa, Gandhi Se Pehle Gandhi was directed by Iqbal Durran based on his own novel by the same name.[7] Another Hindi film, "Ulgulan-Ek Kranti (The Revolution)" was made in 2004 by Ashok Saran, in which 500 Birsaits or followers of Birsa acted[8]
Ramon Magsaysay Award winner, writer-activist Mahasweta Devi's historical fiction, "Aranyer Adhikar" (Right to the Forest, 1977), a novel for which she won the Sahitya Akademi Award for Bengali in 1979, is based on his life and the Munda Rebellion against theBritish Raj in the late 19th century; she later wrote an abridged version Birsa Munda, specifically for young readers.[9]
Commemoration[edit]
He is commemorated in the names of the following institutions: Birsa Institute of Technology Sindri, Birsa Agricultural University, and the Sidho Kanho Birsha University. The Birsa Munda Athletics Stadium, Birsa Munda Airport,Birsa Institute Of Technical Education (B.I.T.E. Ramgarh), Birsa Munda Central Jail and the Birsa Seva Dal also pay homage to his name..
References[edit]
- ^ "THE 'ULGULAAN' OF 'DHARATI ABA' Birsa Munda". cipra.in. 2009. Retrieved 29 October 2012. "He was lodged in Ranchi jail, for trial along with his 482 followers where he died on 9 June 1900"
- ^ K S Singh, Birsa Munda and His Movement 1872-1901, 1983, 2002, Seagull Publication
- ^ Birsa Mumda commemorative postage stamp and biography India Post, 15 November 1988.
- ^ Tribals celebrate Birsa Munda birth anniversary Times of India, 18 November 2001.
- ^ Homage to Bhawan Birsa Munda on his Birth Anniversary at Ranchi Raj Bhavan (Jharkhand) Official website. 15 November 2008.
- ^ Bihar Regiment bharat-rakshak.com.
- ^ Film "Gandhi Se Pehle Gandhi "is on Birsa Munda bollywood-buzz.com.
- ^ Ulgulan-Ek Kranti (The Revolution)
- ^ Biography for Mahasweta Devi " Ramon Magsaysay Award Official website. "
- The Dust-storm and the Hanging Mist: A Study of Birsa Munda and His Movement in Chhotanagpur, 1874-1901, by Suresh Singh. Published by Firma K. L. Mukhopadhyay, 1966.
- Birsa Munda and His Movement 1874-1901: A Study of a Millenarian Movement in Chotanagpur, by Kumar Suresh Singh. Published by Oxford University Press, 1983.
- Birsa Munda, by A. H. Khan. Publications Division, Ministry of Information and Broadcasting, Government of India.[1]
- Capturing Birsa Munda: The Virtuality of a Colonial-era Photograph. Daniel J. Rycroft
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