Sunday, 10 March 2013 12:09 |
केदार प्रसाद मीणा आदिवासी क्या चाहता है, यह पता चलता है उनके लिखे साहित्य से। पीटर पॉल एक्का, केसी टुडु, वाहरू सोनवणे, रोज केर केट्टा, रामदयाल मुंडा, निर्मला पुतुल, रूपलाला बेदिया, वाल्टर भेंगरा, अनुज लुगुन, प्रभात, हरिराम मीणा, ज्योति लकला, वासवी, मंगल सिंह मुंडा आदि का साहित्य इन चिंताओं को कहीं प्रत्यक्ष, तो कहीं परोक्ष रूप से सामने रख रहा है। इस साहित्य में तीखी चीखें और बनावटी आक्रोश बहुत बेजा नहीं है, पर धीमी-सी कराहें, स्वाभिमान की रक्षा की चाहत और अपने अधिकारों की वकालत बहुत पुरजोर ढंग से सामने आ रही है। आदिवासियों का उनके समाज के भीतर जीवन सचमुच कैसे चलता है, पर्व-त्योहार मनाने, रीति-रिवाजों के पालन, घोटुल का अनुशासन और प्रेम करने के तरीके सचमुच कैसे हैं, समाज में आ रहे आंतरिक और बाहरी परिवर्तनों को वे किस रूप में ले रहे हैं, कैसी-कैसी खूबसूरत चीजें और कोमल भावनाएं इन परिवर्तनों से नष्ट हो रही हैं, दब रही हैं, स्त्री-पुरुष संबंधों की संरचना सचमुच कैसी है, क्या वहां कुछ नैतिक प्रतिमान भी है या कोई अनुशासन ही नहीं है जैसा कि मुख्यधारा का समाज अक्सर समझ लेता है, विस्थापित होना क्या जगह का छूटना भर है या कुछ और भी छूटता है, खुद आदिवासी जब उन्हें लूटते-बर्बाद करते हैं तब वे कैसा महसूस करते हैं आदि सवालों के जवाब वे अपने साहित्य के माध्यम से मुख्यधारा के समाज के सम्मुख रख रहे हैं। आदिवासी चाहते हैं कि विस्थापन जैसी ज्वलंत समस्याओं के साथ-साथ इन सब मुद्दों पर भी चर्चा हो, ताकि एक तो उनके सच्चे दोस्तों और सच्ची सहानुभूति की सही-सही पहचान हो सके और दूसरी बात आदिवासियों का सही मायने में विकास हो सके। अगर आदिवासियों के समाज, उनके साहित्य और उनकी इन चिंताओं को नहीं समझा गया तो आदिवासी साहित्य की व्याख्या भी गैर-आदिवासी बुद्धिजीवी नहीं कर सकेंगे। फिर उनके लिए 'दिकू' का अर्थ 'वे' नहीं, बल्कि दिक्कत पैदा करने वाला ही बना रहेगा और 'बिटिया मूरमू' का अर्थ बेटी मूरमू ही बनता रहेगा। यह पता भी नहीं चलेगा कि 'मूरमू' कोई नाम नहीं, बल्कि संथालों का एक गोत्र है। आदिवासी साहित्य को समझने-व्याख्यायित करने के सिद्धांत उनके समाज को समझे बगैर तैयार हो नहीं सकते। आदिवासियों के हक की संपूर्ण लड़ाई इस साहित्य को समझे बिना नहीं जीती जा सकती। इसकी उपेक्षा कर किया जाने वाला संघर्ष अधूरा होगा और जो जीता जाएगा वह बेमानी। वह नई विसंगतियों से भरा होगा। लोकतांत्रिक और बहुसांस्कृतिक देश के लिए खतरनाक होगा। उसके लिए फिर लड़ना पड़ेगा या तब तक लड़ने के लिए आदिवासी नहीं बचेगा। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/40537-2013-03-10-06-40-32 |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Sunday, March 10, 2013
सृजन की कसौटी
सृजन की कसौटी
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