सूरजपाल चौहान जनसत्ता 10 मार्च, 2013: हिंदी में दलित साहित्य को लेकर शुरू से ही देश के बड़े आदमियों द्वारा समय-समय पर बड़ी-बड़ी बातें कही जाती रही हैं। ये बड़े आदमी आखिर हैं कौन? इसके बारे में जानना और इनकी पहचान करना बहुत जरूरी है। आरंभ से ही ये बड़े आदमी हिंदी के दलित साहित्य को लेकर परेशान रहे हैं। ये हमेशा से इसी तिकड़म में लगे हुए हैं कि हिंदी के दलित लेखन को कैसे भोथरा किया जाए। शुरू-शुरू में तो इन बड़े आदमियों ने हिंदी के दलित लेखन को बहुत दिनों तक मुंशी प्रेमचंद का डर दिखा कर उनके डंडे से पीटना जारी रखा। आज भी ये राग-पाखंडी अलापने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह कहते नहीं थक रहे हैं कि मुंशी प्रेमचंद ही हिंदी दलित साहित्य के सबसे पहले और सबसे बड़े लेखक हैं। इनके अनुसार हिंदी के दलित लेखन में प्रेमचंद से बड़ा लेखक कोई हो ही नहीं सकता। हद तो तब हो जाती है कि ये जबर्दस्ती प्रेमचंद की दलित लेखकों का प्रेरणा स्रोत और आदर्श तक कह डालते हैं। इनके सुर में सुर मिलाते कुछ दलित बुद्धिजीवी भी मिल जाएंगे। शायद, वे भी इन बड़ों की जमात में सम्मिलित होना चाहते हैं। भला हो कमलेश्वर का कि उन्होंने दिल्ली के एक साहित्यिक कार्यक्रम में इन बड़े आदमियों को फटकार लगाते हुए कहा था- 'आखिर, कब तक हिंदी के दलित लेखन को प्रेमचंद का डर दिखाया जाता रहेगा, कब तक इन्हें प्रेमचंद के डंडे से पीटा जाता रहेगा। हिंदी के दलित लेखन को ये बड़े आदमी अपने पैरों पर कब खड़ा होने देंगे।' कबीर के चिंतन को लेकर ये क्या करने पर तुले हैं। सबके सब गड्डमड्ड करने में लगे हैं। तरह-तरह की पुस्तकें लिख कर और इन पुस्तकों द्वारा अफवाहें फैला कर कबीर के मिशन को भ्रमित करने से बाज नहीं आ रहे। कबीर की वाणी को प्रक्षिप्त और किंवदंतियों से घेर कर अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं। इन्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अब दाल गलने वाली नहीं है। चर्चित दलित लेखक और चिंतक धर्मवीर ने अपनी पुस्तक 'कबीर खसम खुशी क्यों होय' में ऐसे ही बड़े आदमियों की अच्छी खबर ली है। आज से लगभग दस-बारह साल पहले भी इन बड़े आदमियों ने हिंदी के दलित साहित्य को लेकर एक नया शिगूफा छोड़ा था। दलित और गैर-दलित मंचों से पूरे देश में इनके द्वारा एक ही राग अलापा गया- 'हिंदी दलित लेखन की कलम मराठी के दलित लेखन से आई है।' इनके इस कथन से हिंदी के कई दलित लेखक भ्रमित होकर इनकी बातों में उलझ कर रह गए थे और बहुत दिनों तक इनके सुर में सुर मिला कर इनके साथ उठते-बैठते रहे। लेकिन शीघ्र ही दलित लेखकों को इनकी इस षड्यंत्रकारी चाल का भान हो गया और वे छिटक कर इनसे दूर हो गए। जबकि यह प्रमाणित है कि हिंदी के दलित लेखन की अपनी एक अलग पृष्ठभूमि रही है। साथ ही मराठी के दलित लेखन से इसकी पहचान भी अलग है। लेकिन बड़े आदमियों ने तरह-तरह के कु-तर्क गढ़ कर इसे आगे बढ़ने से रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दरअसल, इनका काम हिंदी दलित लेखन को उलझाना भर रह गया है। यह भी बड़ी दुखदायी बात है कि अब भी कुछ चाटुकार और छपास के भूखे दलित लेखक इन बड़े आदमियों का हुक्का भरने को तत्पर रहते हैं। गलती इनकी भी नहीं है। इन तथाकथित बड़े आदमियों को गुलाम पालने और इन गुलामों को गुलामी करने की आदत जो है। आखिर यह लत छूटते-छूटते ही छूटेगी। दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम की बात है। प्रो. तुलसीराम की आत्मकथा का लोकार्पण करते हुए एक बड़े लिक्खाड़ ने हिंदी दलित साहित्य की पंद्रह-बीस आत्मकथाओं को मटियामेट करते हुए कहा था- 'हिंदी के दलित लेखन में अब तक मात्र सवा आत्मकथा आई है।' लीजिए, हो गया काम! इसके बाद क्या हुआ? उनके ऐसा कहते ही कुछ दलित लेखकों में भी भरी सभाओं में ऐसा कहने की होड़-सी लग गई है, जो आज भी जारी है। धर्मवीर ने अपनी नई पुस्तक 'कबीर: खसम खुशी क्यों होय' में स्पष्ट लिखा है कि 'ऐसे बड़े आदमियों के बारे में जान कर दुख नहीं, खुशी प्रकट करनी चाहिए कि इनकी कथनी और करनी का भेद ज्ञात हो रहा है। अच्छा हो रहा है कि इनके साहित्यिक अपराध खुल कर सामने आ रहे हैं।' http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/40538-2013-03-10-06-42-02 |
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