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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, March 11, 2013

नाबालिग बच्चियों की अकल्पनीय कथा

8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

सिमरन की इस जिंदगी का सच जानने के लिए अगर इसके ठिकाने की तरफ रुख किया गया तो ऐसी सच्चाई से वास्ता पड़ता है कि अब तक समेटी गई सारी संवेदना तार-तार हो गयी. सिमरन और और उसकी बहिन शिवांगी रिक्शा चलाती हैं. सिर्फ रिक्शा ही नहीं खींचती, बल्कि लावारिश लाशों को ठिकाने लगाने का काम करती हैं...

हरिशंकर शाही


दिल्ली में हुए बलात्कार कांड पर देश की बेटियों के पक्ष काफी आवाजें बुलंद हुई थी. देश के तकरीबन हर शहर व कस्बे से लोगों के जागने का शोर उठा था.लेकिन क्या ऐसे जोश के अलावा हम अपने आसपास की बेटियों की परिस्थितियों पर गौर करते हैं. दामिनी के ही जनपद बलिया के पड़ोसी जिले देवरिया में रहने वाली 14 साल की सिमरन भी एक बेटी ही है, जिसे लाशों को ठिकाने लगाने का काम करके रोज़ी-रोटी का जुगाड़ करना पड़ता है.

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रिक्शा चलाती सिमरन

देवरिया शहर का रेलवे स्टेशन हो या बस स्टेशन या फिर शहर के अन्य दूसरे गली-मुहल्ले यह सब उतने ही सामान्य लगते हैं जितने की हर शहर के होते हैं. उतना ही सामान्य है इस शहर में सवारियों को ढोकर पैसे कमाने वाले साइकिल रिक्शे. लेकिन इस सामान्य से नज़ारे के बीच एक रिक्शा ऐसा भी दिखता है जिसको खींचने वाले का मुस्कुराता चेहरा देर तक असामान्य और सोचने पर मजबूर कर देता है.

यह रिक्शा है नाबालिग सिमरन का, जिसे वह खुद चलाती है. सिमरन किसी मजदूर क्रांति से निकली नायिका नहीं है. और न ही किसी आंदोलन की प्रणेता है. यह 14 की लड़की बड़ी ही अच्छी मुस्कान और तन्मयता से रिक्शा चलाती हुई नज़र आती है. क्योंकि उसे पता है कि इस चलते हुए रिक्शे से आ रही कमाई ही उसके और उसके परिवार की रोज़ी-रोटी का जरिया है.

सिमरन की इस जिंदगी का सच जानने के लिए अगर इसके ठिकाने की तरफ रुख किया जाए, तो ऐसी सच्चाई से वास्ता पड़ता है कि अब तक की समेटी गई सारी संवेदना तार-तार हो जायेगी. देवरिया में गोरखपुर ओवरब्रिज के नीचे शहर से बहने वाले कुरना नाले के बगल में फैली हुई अस्थायी झोपड़ों की बस्तियां जो शहर से निकाली गई गंदगी के ढेर पर मौजूद है. यही वह पता है जहाँ सिमरन अपनी माँ किरण और 10छोटी बहन शिवांगी के साथ रहती है. इसका पिता रामू करीब 8 सालों से लापता है. तब से यही बस्ती इनका ठिकाना और नियति है. यह परिवार व इसकी बेटियाँ अपने पिता के नहीं, माँ के ही नाम से पहचानी जाती हैं. कहने के एक लिए अस्थायी झोपडा इनका घर है, लेकिन इस घर को देखने के बाद घर से सम्बंधित सारी कल्पनायें ध्वस्त हो जाती हैं.

अगर बात सिर्फ यहीं तक रहती, तो ठीक होता और इसे इस परिवार के लिए लोगों की उपेक्षा का एक हिस्सा मानकर चुप हो जाया जाए. मगर एक कठोर सच्चाई और भी है. इस परिवार के बारे में पूछने पर पता चलता है कि इनकी जीविका का कोई ठोस साधन नहीं है. इस परिवार की दोनों बच्चियां सिमरन और शिवांगी शहर में रिक्शा चलाती हैं. सिर्फ रिक्शा ही नहीं खींचती, बल्कि अपने रिक्शों में इन्हें जिले में मिलने वाली लावारिश लाशों को ठिकाने लगाने का काम करना होता है.

गौरतलब है कि लाशों को ठिकाना लगाने का काम इन्हें पुलिस वाले सौंपते हैं. लावारिश लाशों को यह परिवार कुरना नाले में बहा देता है या फिर गड्ढा खोदकर दफना देता है. हालाँकि जिले में मिलने वाली लावारिश लाशों का अंतिम संस्कार कराने का जिम्मा पुलिस प्रशासन का होता है, लेकिन प्रशासन जब वारिश वाले जिन्दा व्यक्तियों पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाता तो लावारिश मुर्दों पर कितना ध्यान देगा समझना बहुत मुश्किल नहीं है. पुलिस कम खर्च और डांट-डपट के साथ यह काम इन बच्चियों और इसके परिवार से करवाती है.

सिमरन और उसकी बहन ने स्कूल का मुंह नहीं देखा है। इन्हें तो यह भी पता नहीं है कि सरकार जैसी कोई चीज़ होती है। अगर सरकार होती है तो कहाँ रहती है. इन्हें तो बस सिपाही जी के डंडे और बेगारी के बारे में ही पता है. दलित समुदाय से होने के कारण इस परिवार की सामाजिक उपेक्षा तो एक बड़ा सच है ही, साथ ही जो लोग समाज में अब भेदभाव खत्म हो गया है कहते हैं उन्हें इन परिवारों के हाल देखने चाहिए.

ऐसा नहीं है कि यह हाल सिर्फ एक सिमरन या उसके परिवार का है, देवरिया शहर के कई इलाकों में ऐसे न जाने कितने परिवार ये दंश झेलने को मजबूर हैं। ये परिवार कहीं दूर दराज़ या पडोसी राज्य बिहार से यहाँ मजदूरी करने आ गए हैं. ऐसे परिवारों में माँ बाप के साथ या यतीम बच्चों को मजदूरी के लिए कबाड बीनने रिक्शा चलाने या फिर इसी तरह लाश उठाने जैसे कामों को करते हुए पाया जा सकता है.

जिले के प्रबुद्ध समाजसेवी शमीम इकबाल कहते हैं "बिहार झारखंड से आकर यहाँ रह रहे परिवारों के बच्चों के सामने जीवन यापन की बड़ी समस्या है. इन्हें कबाड बीनने से लेकर लाशों के दाह जैसे कार्य करने पड़ रहे हैं. यह लीगल करप्शन है कि इन्हें संविधान प्रदत्त अधिकार भी प्राप्त नहीं है." शमीम इस तरह के सैकड़ों बच्चों की मांगों को लेकर कई बार कई समितियों का दरवाज़ा खटखटा चुके हैं, लेकिन कहीं कोई खास पहल नहीं दिखती है.

देवरिया में बच्चों का परिवार यापन में इस तरह जुटना जहाँ हमारी सरकारों की सारी योजनाओं की सफलता में एक प्रश्नचिन्ह लगाता है. वहीँ लाशों के दाह के काम में जबरिया या मजदूरी के कारण शामिल होते रहने की इस व्यवस्था व्यथा ने स्थानीय प्रशासन और लोगों के संवेदनहीन होने की मुनादी कर दी है. सिमरन की और से एक सवाल यह भी उठता है क्या वह भी इस देश की बेटी नहीं है? अगर तो उसके लिए खामोशी क्यों?

harishankar-shahiहरिशंकर शाही युवा पत्रकार हैं.

http://www.janjwar.com/janjwar-special/27-janjwar-special/3765-nabalig-bachhiyon-kee-aklpneey-katha-story-by-harishankar-shahi

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