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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, March 9, 2013

दो पाटों के बीच

दो पाटों के बीच

Wednesday, 06 March 2013 11:23

बनवारी 
जनसत्ता 6 मार्च, 2013: वित्तमंत्री चिदंबरम के पास इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं था कि वे भविष्य के बारे में थोड़े आशावान दिखते हुए एक मुनीमी बजट प्रस्तुत कर दें। उनके सामने दो चुनौतियां थीं और दोनों ही एक-सी गंभीर। पहली चुनौती आर्थिक संकट थी, जिसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नजरअंदाज करना नहीं चाहते थे। यह संकट आर्थिक वृद्धि दर में भारी गिरावट की आशंका से आरंभ हुआ था। वित्तीय वर्ष के उत्तरार्द्ध में यह भी स्पष्ट हो गया कि कच्चे तेल और सोने के भारी आयात के कारण राजकोषीय घाटा बहुत बढ़ गया है। यह आशंका भी व्यक्त की गई कि अगर खर्च पर तुरंत लगाम नहीं लगाई गई तो बजट घाटा भी हाथ के बाहर हो जाएगा। 
इस सबके बीच अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की धमकी मिलने लगी कि भारत की साख घटाई जा सकती है। अगर ऐसा होता तो विदेशी निवेश और कर्ज और कठिन हो गया होता। इस धमकी से डरी सरकार ने अनुदान में कटौती करने के लिए पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ाए और दूसरे कई खर्चों पर रोक लगा कर बजट घाटा सकल घरेलू उत्पादन के 5.2 प्रतिशत पर रोक लिया, जबकि उसके 5.7 प्रतिशत तक होने की आशंका हो गई थी। इस बजट घाटे को अगले वर्ष पांच प्रतिशत के नीचे रखने के घोषित संकल्प के कारण वित्तमंत्री के पास उद्योग-व्यापार या कमजोर वर्गों के लिए रियायतों का पिटारा खोलने की कोई गुंजाइश नहीं थी।
चिदंबरम के सामने दूसरी चुनौती कांग्रेस का राजनीतिक भविष्य थी। अगले वर्ष आम चुनाव होने हैं और उनकी सरकार के पास बजट के द्वारा मतदाताओं को लुभाने का यह अंतिम अवसर था। आम मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए सरकार अमीरों पर कर बढ़ा सकती थी, निचले स्तर पर कर कम कर सकती थी और जन कल्याणकारी योजनाओं की संख्या और राशि बढ़ा सकती थी। लेकिन इस सबके लिए अतिरिक्त साधन चाहिए और उन्हें जुटा पाने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। अमेरिका और यूरोप की मंदी अभी टली नहीं है, इसलिए देशी निवेशकों को नाराज नहीं किया जा सकता था। 
भारत में विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए खुदरा और बीमा क्षेत्र खोलने के बावजूद कोई बहुत उत्साहवर्धक स्थिति नहीं दिख रही। अगर आर्थिक विकास की दर में कोई उछाल नहीं आता तो सरकार के राजस्व में किसी बड़ी वृद्धि की आशा नहीं की जा सकती। साधनों की इस किल्लत ने सरकार के हाथ बांध दिए और वित्तमंत्री ने अपनी पार्टी की चुनावी संभावनाएं बढ़ाने वाली घोषणाएं करने से परहेज किया। अब अर्थव्यवस्था और पार्टी, दोनों भगवान भरोसे हैं। बेचारे चिदंबरम कर भी क्या सकते थे?
पर भारतीय अर्थव्यवस्था के सुधार के पुरोधा मनमोहन सिंह और वित्त व्यवस्था में सुधार के पुरोधा चिदंबरम के रहते ये संकट के बादल कैसे घिर आए? सरकार की तरफ से अब तक इसका एक ही उत्तर दिया जाता रहा है कि अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्था में आई मंदी ने हमारे निर्यात को हानि पहुंचाई है। विदेशी पूंजी निवेश में भी पिछले वर्षों के मुकाबले कमी आई है। इस सबने भारत की अर्थव्यवस्था की चाल मंदी कर दी। 
इस बीच अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम ऊंचे बने रहे और घरेलू बाजार में तेल की बढ़ती मांग के कारण हमारा आयात बिल बढ़ता गया, क्योंकि भारत अधिकांशत: आयातित तेल पर ही निर्भर है। दूसरी तरफ, निवेश के दूसरे विकल्पों के आकर्षक न रहने के कारण लोगों ने सोने में निवेश बढ़ाया और सोने का आयात भी काफी बढ़ गया। इससे न केवल राजकोषीय घाटा बढ़ा, रुपए पर भी दबाव आ गया, क्योंकि निर्यात की तुलना में आयात अधिक होने के कारण विदेशी मुद्रा की मांग बढ़ गई।
दरअसल, ये सब सामयिक कारण हैं और निश्चय ही ऐसे कारण हैं जिन पर भारत सरकार का कोई नियंत्रण नहीं हो सकता था। लेकिन क्या सचमुच भारत के विकास की कहानी में भारत सरकार की भूमिका इतनी कम रह गई है? अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भारत के लिए ही नहीं, उन सभी देशों के लिए बदली हैं जो भारत की तरह आर्थिक विकास की सीढ़ियां चढ़ने में लगे हैं। लेकिन उनमें से किसी देश के नेताओं के हाथ-पैर इस तरह फूले हुए दिखाई नहीं दे रहे, जैसे भारतीय नेताओं के।
सरकार के इस संकट ने हमारे आर्थिक सुधारों की वास्तविकता सामने ला दी है। यह मुहावरा काफी दिन से चलन में है और हमारे राजनेताओं से लगाकर सरकारी और गैर-सरकारी सभी आर्थिक विशेषज्ञ इसका इस धड़ल्ले से उपयोग करते हैं कि लगता है उसके बारे में एक राष्ट्रीय सहमति है। जो लोग आर्थिक विशेषज्ञों की इस दुनिया से बाहर हैं वे आर्थिक सुधार का अर्थ यही लगाएंगे कि उनका संबंध अर्थव्यवस्था में सुधार संबंधी किन्हीं नियमों से है। 
अर्थव्यवस्था में सुधार की नीतियां तो सभी देशों की अलग-अलग ही होंगी, जो उन देशों की अपनी आर्थिक परिस्थितियों पर निर्भर करेंगी। मगर आर्थिक सुधार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार में लाया जाने वाला एक मुहावरा है और उसका एक ही अर्थ है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय पूंजी, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विश्व बाजार के लिए खोलना। 

विकासशील देशों को अपने आर्थिक जीवन में गतिशीलता लाने के लिए और अपने त्वरित औद्योगिक विकास के लिए इन अंतरराष्ट्रीय शक्तियों का सहयोग लेना पड़ता है। लेकिन कोई भी देश आंख मूंद कर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक शक्तियों को अपने घेरे में नहीं घुसा सकता। विरोधाभास देखिए कि जो विकसित देश विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को अपने दरवाजे खोलने की नसीहत देते रहते हैं वे अपने दरवाजों पर दस तरह के पहरे बैठाने में कोई संकोच नहीं करते।
अगर हमारे राजनेताओं और आर्थिक विशेषज्ञों में अपना और अपने देश का थोड़ा भी गौरव होता तो वे आर्थिक सुधार जैसी छद्म शब्दावली का न प्रयोग करते और न अपनी आर्थिक नीतियों की समीक्षा करने वाली अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ बिरादरी को करने देते। लेकिन हमारे यहां तो यह मुहावरा कुछ ऐसे स्वयंसिद्ध प्रत्यय की तरह व्यवहार में लाया जा रहा है कि उसके श्रेयस्कर होने में किसी तरह के संदेह की कोई गुंजाइश ही न हो। आर्थिक सुधारों को लागू करने में सरकार में हिचकिचाहट हो ऐसा नहीं है। लेकिन यह मुहावरा अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों द्वारा इतनी आक्रामकता के साथ प्रचारित किया जाता है कि थोड़ा-सा विदेशी दबाव पड़ते ही हम हथियार डाल देते हैं। 
याद कीजिए कि नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व-काल में जब भारत में आर्थिक सुधारों के इस तथाकथित दौर का आरंभ हुआ था तो रेटिंग एजेंसियों ने भारत की वित्तीय साख गिरा कर ही यह दबाव पैदा किया था। उस समय किसी को यह समझ में नहीं आया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था की सामान्य स्थिति के बावजूद भारत की रेटिंग क्यों कम की गई और यह दबाव क्यों पैदा किया गया। तब से हम रेटिंग के इस मायाजाल में फंसते ही गए हैं।
यह कहना मुश्किल है कि आर्थिक प्रगति के दौर में देश के साधारण लोगों का आर्थिक जीवन पहले से सुगम हो रहा है या दुर्गम। अधिकतर लोगों के लिए जीवन की कुछ स्थितियां सुधर रही हैं तो कुछ बिगड़ रही हैं और यह तय कर पाना कठिन है कि उनके आर्थिक जीवन की यह दिशा आश्वस्तिकारक है या नहीं। यह बात साधारण लोगों के बारे में ही नहीं, सरकार के बारे में भी उतनी ही सही है। 
शुरू के दिनों में हम विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के कर्ज से दबे थे और उनके अनेक सुझाव निर्देश का काम करते थे। फिर वह समय आया जब भारत को विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के कर्ज की आवश्यकता ही नहीं रही। मनमोहन सिंह इस पर गर्व करते हुए कहते रहे कि हम अब कर्ज लेने नहीं देने की स्थिति में आ गए हैं। लेकिन इस नई स्थिति में हम पर बाहरी दबाव समाप्त नहीं हुआ, उसका स्वरूप बदल गया। अब हम विदेशी निवेशकों और विदेशी बाजार के दबाव में रहते हैं और इसीलिए उन रेटिंग एजेंसियों का भूत हमें डराता रहता है, जिनकी अपनी साख आज काफी संदिग्ध हो गई है क्योंकि पैसे के लालच में उन्होंने जान-बूझ कर गलत रेटिंग की।
ऐसा नहीं कि पिछले दिनों हमारी अर्थव्यवस्था में कुछ सकारात्मक न हुआ हो। बिहार और मध्यप्रदेश ने कृषि के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है। इसका श्रेय केवल स्थानीय नेतृत्व को जाता है। इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री अपने समाज से जुड़े हैं और अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में अधिक साफ-सुथरे रहे हैं। इसी तरह गुजरात ने उद्योग-व्यापार में वैसी ही उपलब्धि दिखाई है। 
नरेंद्र मोदी को इसका श्रेय भी मिला है। ये सभी नेता आधुनिक विधाओं में निष्णात होते हुए भी उस पश्चिमपरस्त भद्रलोक का हिस्सा नहीं हैं जो हमारी राष्ट्रीय राजनीति और सत्ता प्रतिष्ठान में छाया हुआ है। जो हिंदी क्षेत्र आरंभिक दौर में पिछड़े दिख रहे थे, धीरे-धीरे पहल उनके हाथ में पहुंच रही है। विदेशी शासन के दौरान इन्हीं क्षेत्रों के भौतिक जीवन की सबसे अधिक क्षति हुई थी। हमारे राष्ट्रीय प्रतिष्ठान ने उनकी इस क्षति की पूर्ति करने में रुचि लेने के बजाय उनका सदा उपहास ही किया। लेकिन अब वे अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़ रहे हैं।
धीरे-धीरे पहल राज्यस्तरीय नेतृत्व के हाथ में जा रही है। अभी इससे हमारे राष्ट्रीय प्रतिष्ठान को कोई खतरा दिखाई नहीं दे रहा। लेकिन कांग्रेस या भाजपा के नेतृत्व वाले शासन में अपनी प्रभुता के बने रहने का जो भ्रम इस प्रतिष्ठान ने पाल रखा है, वह बहुत दिन नहीं टिकेगा। राष्ट्रीय दलों की संगठनात्मक स्थिति ज्यों-ज्यों कमजोर होगी, उनका दिल्लीवासी नेतृत्व साधनों को चुनाव जीतने के लिए स्थानीय समाज के साथ बांटने और राज्यस्तरीय नेतृत्व को महत्त्व देने के लिए विवश होगा। 
इससे स्थानीय नेतृत्व की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ेगी और इंडिया भारत की तरफ खिसकने के लिए विवश हो जाएगा। अब तक का अनुभव यह भ्रम पैदा करता है कि देशज समाज पश्चिमी तंत्र का अंगभूत होता चला जा रहा है। लेकिन यह संक्रमण का काल है और अभी इंडिया का मुलम्मा उतरा नहीं है। पर मनमोहन सिंह ने यह मुलम्मा उतारने की नींव जरूर डाल दी है। इसका श्रेय उन्हें जरूर मिलेगा। बेचारे चिदंबरम तो दो पाटों में फंस गए हैं। वरना वे किसी गिनती में नहीं आते।

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