Monday, 04 March 2013 11:50 |
अरविंद मोहन यह नगा पीपुल्स फ्रंट का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है। दूसरी ओर, पिछली बार की तेईस सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस इस बार महजआठ सीटों पर सिमट गई। रिओ नगालैंड के दिग्गज नेता जमीर के शिष्य हैं। इस बार की जीत के साथ वे उन जैसी हस्ती बन गए लगते हैं। वे पहले भाजपा की अगुआई वाले राजग के साथ थे, मगर राजग में बने रहने में उन्हें कोई भविष्य नजर नहीं आया और वे उससे अलग हो गए। असम को छोड़ कर भाजपा आज भी पूर्वोत्तर में अपनी पैठ नहीं बना पाई है। कांग्रेस चाहे तो इस बात पर राहत महसूस कर सकती है कि उसने अपने दम पर मेघालय जीता ही नहीं है, वहां उसकी सीटें पहले से बढ़ गई हैं। उसे साठ सदस्यों वाली विधानसभा में उनतीस सीटें मिली हैं, जो कि पिछली बार की सीटों से चार ज्यादा हैं। वह बहुमत से दो सीट पीछे रह गई। पर उसके सहयोगी दलों को बारह सीटें मिली हैं, लिहाजा अगली सरकार बनने में उसे कोई दिक्कत नहीं होगी। मुकुल संगमा मेघालय के पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल चैन से पूरा किया है। पर इससे भी बड़ी उपलब्धि यह मानी जा रही है कि उन्होंने पीए संगमा के प्रभाव वाली गारो पहाड़ियों की चौबीस में से तेरह सीटों पर कांग्रेस को सफलता दिलाई है। इसी के चलते कई राजनीतिक पंडित इसे कांग्रेस की जीत की जगह मुकुल संगमा की जीत और पीए संगमा की हार मान रहे हैं। पीए संगमा हार कर भी हार मानने को तैयार नहीं हैं- राष्ट्रपति चुनाव की तरह। वे इसे धनबल और बाहुबल की जीत बताने से भी नहीं चूके। उनकी नवगठित पार्टी सिर्फ दो सीट जीत सकी और पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश किए गए उनके सुपुत्र कोनार्ड अपनी विधानसभा सीट भी नहीं जीत सके। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव इसलिए भी महत्त्वपूर्ण थे कि इस साल नौ विधानसभा चुनावों की शुरुआत इनके साथ ही हो रही थी। फिर अगले साल लोकसभा के चुनाव होने हैं। इसलिए इनके संकेत महत्त्वपूर्ण हैं। कांग्रेस के लिए तो बहुत साफ दिख रहा है कि अगर उसे राज्यों में मजबूती से जमना है तो क्षेत्रीय सूरमा भी खडेÞ करने होंगे। एकमात्र मेघालय में उसके पास ऐसा नेता था तो उसने चुनाव जितवा दिया। बाकी जगह उसे मुंह की खानी पड़ी। इससे जाहिर है कि अगले आम चुनाव की राह उसके लिए आसान नहीं होगी। अलबत्ता कांग्रेस तो इतना कर भी गई और आलोचना सुनने जैसी हालत में भी है। पर भाजपा और कथित राष्ट्रीय राजनीति करने वालों की तो मौजूदगी भी नहीं दिखी। अगर उनकी भागीदारी इतनी दूर-दूर की होगी तो उनका पूर्वोत्तर से क्या जुड़ाव होगा! यही सवाल मीडिया और कथित सिविल सोसाइटी से भी पूछा जा सकता है। साफ है कि पूर्वोत्तर के चुनावों ने जितने सवालों का जवाब दिया है उससे ज्यादा सवाल खडेÞ कर दिए हैं। और मुल्क का ध्यान उन सवालों पर है, यह भी नहीं दिखता। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/40087-2013-03-04-06-21-31 |
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Saturday, March 9, 2013
पूर्वोत्तर की चुनावी इबारत
पूर्वोत्तर की चुनावी इबारत
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