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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, May 22, 2013

वे ऐसी जगह थे, जहां बैठकर धूप में छांव का अनुभव होता था

वे ऐसी जगह थे, जहां बैठकर धूप में छांव का अनुभव होता था


चिर-अखंड अपनापा

♦ ओम थानवी

नकी मृत्यु से दो रोज पहले ही कविवर केदारनाथ सिंह और गंगाप्रसाद विमल के साथ हाल पूछने सर्वप्रिय विहार के नर्सिंग होम गया था, जहां वे दो महीने से बिस्तर पर थे।

पहले जब-जब गया, बीमारी में भी उनसे कुछ हंसी-ठट्ठा कर आता था। उस रोज वे ही शायद इसके लिए तैयार न थे। हम चलने को हुए, तो मुझे इशारा कर पास बुलाया। मेरा हाथ अपने हाथ में लिया। एक अजीब-सी गरमाहट ने मुझे किसी आशंका में घेर लिया।

उन्होंने मेरी ओर कुछ गरदन मोड़ने का जतन किया, फिर कुछ मुस्कुराने का, और बोले – विजयमोहन सिंह जी कैसे हैं? मैंने कहा कि वर्धा से लौट आये हैं। अगली दफा हम साथ आएंगे।

मगर इसका मौका उन्होंने हमें नहीं दिया। इतवार को मैं लखनऊ में था। दोपहर डॉ अर्जुन देव का फोन आया कि बिक्रमजी चल बसे।

हम जब सयाने हो जाते हैं, तब मौत की खबर सदमे की तरह नहीं आती। बिक्रमजी तो वैसे भी एक वक्फे से बीमार थे। लेकिन उनकी मृत्यु की खबर सुनकर मैं हिल गया।

उनके साथ मेरा ऐसा ही रिश्ता था। एक-दो रोज के अंतराल में हम जैसे नियम से मिलते थे, अगर शहर में हों। कुछ समय पहले उनके दिल ने दगा किया, बाइपास के लिए एस्कॉर्ट्स में भरती हुए तो मैं साहस जुटाकर ही अस्पताल की ओर मुंह कर पाता था।

उनके सबसे करीबी मित्रों में एक बहादुर सिंह जर्मनी से आये तो नर्सिंग होम से लौटकर बोले, अब ज्यादा दिन के मेहमान नहीं लगते। मेरा दिल और बैठ गया। उम्मीद में एक झूठ का तागा हमेशा तना रहता है। हालांकि वह नर्सिंग होम मुझे कुछ भयावह ही लगता था। बिस्तर में उनकी जगह मैं जैसे अपने आपको लाचार और हताश पड़े देखता था। फिर भी हमेशा लगता था कि जल्दी ही घर लौट आएंगे।

लेकिन बिक्रमजी खुद लाचार-हताश नहीं दिखाई पड़ते थे। खासकर आखिरी दिनों में। अशक्त जरूर थे। पर उनके दुर्बल हो रहे चेहरे पर एक इत्‍मीनान का भाव तारी था। मानो मौत के वरण को तैयार बैठे हों। योद्धा जैसे किसी मुकाम पर पहुंच कर हार और जीत के राग-विराग से ऊपर उठते हुए वीतराग हो जाता है।

उनसे मेरा परिचय ठीक चौदह साल पहले हुआ, जब मैं चंडीगढ़ से दिल्ली आया। जल्दी ही हमारी खूब घुटने लगी। वे मूलत: फिल्मकार थे। पर बाद में लिखने भी लगे। पूरे नौ वर्ष 'जनसत्ता' में स्तंभ लिखा। उम्र में मेरा उनसे कोई बीस साल का फासला था। पर कभी इसका एहसास नहीं होने दिया। सच्चाई तो यह है कि इस फासले को मैंने उनके निधन की खबर पढ़कर ही महसूस किया है।

कभी तकरार होने पर भावुक होकर इतना कह उठते थे कि यार, बुढ़ापे में तुमसे दोस्ती मिली है, क्यों झगड़ा करते हो।

पर झगड़ा उनकी फितरत में था। खासकर आत्मीय जनों से। पर झगड़ कर संबंध फिर वहीं जोड़ लाते थे। तकरार के किस्से याद करूं तो लड़ी-सी बनती जाती है – निर्मल वर्मा और अशोक वाजपेयी से लेकर मुझ नाचीज तक। वे सब सैद्धांतिक बहसें होती थीं, जो मधुघट पर जाकर उलझ जातीं। शायद इसीलिए मय को उन्होंने पागल-पानी नाम दिया था।

कुछ विवाद उजाले के होते। उन्हें वे तार्किक परिणति तक ले जाने को उद्यत रहते थे। जैसे एक प्रकाशक के धोखे को। उन्होंने काफी मेहनत कर, ढलती उम्र में लंदन-दुबई तक सफर करते हुए, मकबूल फिदा हुसेन पर एक बड़ी किताब लिखी। हुसेन साहब का नाम दुनिया में बहुत हुआ, पैसा भी उन पर बरसा, लेकिन उन पर कला-आलोचकों का ज्यादा ध्यान नहीं गया। बिक्रमजी की किताब की इसलिए भी चर्चा हुई। हुसेन साहब खुद किताब के विवेचन से खुश थे। पर बिक्रमजी को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। उनकी पीड़ा वाजिब थी कि उस किताब का कापीराइट प्रकाशक ने अपने कब्जे में कैसे कर लिया?

कभी-कभी मैं उनसे मजाक में कहता था कि आप राजपूत हैं सो ठकुराई आपके स्वभाव में है। नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विजयमोहन सिंह और आरएन सिंह को 'कुंवर' बिक्रमजी के साथ बैठे देख 'सिंह साहेबान' वाला मजाक मैं कभी दुहरा भी देता। पर वह मजाक ही था। शायद ही उन्हें कोई कुंवर साहब कहता होगा। नाम से 'चौहान' वे पहले ही उड़ा चुके थे। नाम में 'के' मजबूरी में जोड़ा, क्योंकि फिल्म जगत में एक बिक्रम सिंह (फिल्मफेयर के संपादक, अभिनेता केएन सिंह के भाई) और भी थे।

इतना ही नहीं, उनके निर्देशन में बनी एकमात्र फीचर फिल्म 'तर्पण' में ठाकुर समुदाय की ठकुराई की अच्छी-खासी मलामत देखने को मिलती है। दरअसल अपने विचारों में बिक्रमजी पूरी तरह प्रगतिशील थे। वामपंथी, मगर वामपंथी दलों के प्रति कोई रियायत न बरतने वाले। सामाजिक बराबरी, वंचितों के उद्धार, स्त्रियों के अधिकार आदि को लेकर उनका नजरिया उनके रोज-ब-रोज के बरताव, सिनेमा और उनके लेखन में एकमेव था।

K Bikram Singhवे पहले फिल्मकार और फिर लेखक के रूप में जाने गये। इससे पहले काफी समय सरकारी नौकरी में उच्च पदों पर गुजरा। पढ़ाई जयपुर के महाराजा कालेज में की, फिर दिल्ली में किरोड़ीमल कालेज में। राजनीति और इतिहास में एमए करने के बाद राजस्थान में एक गैर-सरकारी कालेज में इतिहास पढ़ाने लगे। फिर आईपीएस की परीक्षा पास कर प्रशिक्षण के लिए माउंट आबू गये। वर्दी का काम जमा नहीं तो नयी परीक्षा पास कर रेलवे बोर्ड और सूचना और प्रसारण मंत्रालय में काम किया। वक्त से पहले नौकरी छोड़ सिनेमा की दुनिया में प्रवेश कर गये। इसका शौक उन्हें मंत्रालय में फिल्म नीति के निदेशक पद पर काम करते हुए चर्राया था।

सिने आर्ट्स इंडिया नाम से उन्होंने अपनी कंपनी बनायी। रेगिस्तान में पल्लवित होता पेड़ उसका 'लोगो' बना। पर फिल्म जगत में काम पाना इतना आसान नहीं, यह उनको जल्दी ही समझ में आ गया। हालांकि बासु भट्टाचार्य, अडूर गोपालकृष्णन जैसे फिल्मकार उनके निकट के मित्र थे। पर एक तो बिक्रमजी में गैरत ऐसी थी कि एहसान कर सकते थे, पर आसानी से ले नहीं सकते थे। दूसरे, समझौता करना उनके स्वभाव में नहीं था। फिर 'राठौड़ी ठाठ' (सही शब्द 'खुद्दारी' होगा) अपनी जगह जब-तब उनके कुरते को जैसे पीछे से खींचता रहता था। संबंध न हो तो काम के लिए बात करने जा नहीं सकते थे!

इसलिए 'तर्पण' (एनएफडीसी) के निर्देशन के अलावा केवल 'अंधी गली' और 'न्यू डेल्ही टाइम्स' के निर्माण से जुड़ पाये। 'आस्था' में कुछ सहयोग बासु भट्टाचार्य को किया। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपना सारा ध्यान वृत्तचित्रों के निर्माण और निर्देशन पर केंद्रित कर लिया। इन फिल्मों के लिए वे अक्सर शोध खुद करते थे। या विनोद भारद्वाज। कुछ वृत्तचित्रों की कमेंट्री भी उनकी आवाज में है, जो निहायत सधी हुई और वजनदार आवाज थी।

बिक्रमजी के बनाये वृत्तचित्रों की संख्या साठ से ऊपर है। इनमें ज्यादातर कला पर हैं। कुछ पर्यावरण आदि पर। तीन वृत्तचित्र उन्होंने हिंदी कविता पर बनाये, इनमें कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह पर बने वृत्तचित्र बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। तीसरा 'कविता शती' नाम से भारत भवन, भोपाल में बना, जिसमें बहुत-से समकालीन हिंदी कवियों को काव्य-पाठ करते सुना जा सकता है।

कला और कलाकारों पर बनाये वृत्तचित्रों में मुझे सबसे महत्त्वपूर्ण लगते हैं 'प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप' और छापाकला (प्रिंट मेकिंग) पर बनाया वृत्तचित्र 'आर्ट ऑफ मल्टीपल ऑरिजिनल्स'। दोनों फिल्में उन्होंने राष्ट्रीय कला दीर्घा के लिए बनायीं। कलाकारों पर उन्होंने दूरदर्शन के लिए एक शृंखला बनायी। पहले भारतीय कला की दास्तान कहते हुए बारह वृत्तचित्र, फिर तेरह वृत्तचित्र विभिन्न चित्रकारों पर – 'ए पेंटर्स पोर्ट्रेट' नाम से। कुछ फिल्में विदेश मंत्रालय, पीएसबीटी और अन्य संगठनों के लिए बनीं। किसी फिल्मकार की सभी फिल्में मुकम्मल नहीं हो सकतीं। लेकिन केजी सुब्रह्मण्यन (ए रैबिट्स लीप इन द मूनलाइट), एआर रामचंद्रन (लोटस पोंड) या 'पोर्ट्रेट' शृंखला में कृशन खन्ना, गुलाम मुहम्मद शेख, जोगेन चौधरी और अर्पिता सिंह पर बनी फिल्में श्रेष्ठ मानी जाएंगी।

बाद के वर्षों में जब एक फिल्म उन्होंने चित्रकार सिद्धार्थ पर बनायी, तो मैंने उन्हें प्राकृतिक रंगों के निर्माण और प्रयोग पर कई रोज शोध करते पाया। यह उनके स्वभाव में था। हां, एक फिल्म उन्होंने अण्णा हजारे पर भी बनायी थी। दिल्ली में भ्रष्टाचार-विरोध का झंडा लहराने से कई साल पहले – तब जब 'अण्णा साहब' ने रालेगण सिद्धि में हरित मुहिम का बिगुल फूंका था।

उम्र के आखिरी पड़ाव में – जिसे वे खुद बहुत जल्द आखिरी करार दे चुके थे – सिनेमा देखने में उनका धीरज चुक जाता था। फिल्म देखने आते-जाते थे, लेकिन बहुत कम फिल्मों में पूरा बैठ पाते होंगे। पर अपनी फिल्म की तैयारी के लिए उनमें धैर्य और लगन की कमी न थी। किताबें और दस्तावेज खंगालने के साथ लोगों से बातचीत में भी अपने विषय के तथ्य टटोलते थे। फिर फिल्म के लिए आलेख खुद लिखते। इसमें उन्हें महारत हासिल थी।

राजस्थान के लोक-स्वर समुदाय लंगा और मांगणियार पर उन्होंने एक फिल्म संगीत नाटक अकादमी के लिए बनायी। कोमल कोठारी तब सौभाग्य से हमारे बीच थे। उनसे बातचीत के दौरान उन्होंने सिंधी सारंगी और कमायचा लोकवाद्यों के पुनर्जीवन की कहानी सुनी। और उन्हें फिल्म के 'कथानक' का सूत्र मिल गया। यों वे खुद बहुत कुशाग्र थे। अर्पिता सिंह पर बनी फिल्म में कलाकार के बौद्धिक मयार की बारीक पड़ताल करते हैं, तो शमशाद हुसेन के व्यक्तित्व और काम में गैर-बौद्धिक तत्त्व की खूबी को उकेरते हैं। कला की दुनिया इतनी विराट और समावेशी है कि आप खुले दिमाग के हों तो समूचा संसार अपनी बांहों में समेट सकते हैं। बिक्रमजी में यह सिफ़्त थी। इसलिए संकीर्ण या क्षुद्र नजरिया उनके पास फटकता न था।

राजस्थान उन्हें बहुत भाता था। मेरी फिर उनसे छेड़ कि यह 'राजपूताने' के प्रति उनकी दबी आसक्ति है। चुहल अपनी जगह, पर यह सच्चाई है कि जहां से वे आते थे – अंबाला, तत्कालीन पंजाब और अब हरियाणा – उस तरफ उन्होंने किसी फिल्म के लिए शायद ही रुख किया। राजस्थान उनकी अनेक फिल्मों में मुखर है। 'तर्पण' में राजस्थान की रेत, रंग, सुबह-शाम की रंगत, वेश-भूषा (अर्चना शास्त्री का योग), कुएं-बावड़ी, यहां तक कि ऊंट से खेत की जुताई में प्रामाणिकता का आदर्श मौजूद है। बस, फिल्म की भाषा बेमेल रही (आज तक किस फिल्म में राजस्थानी को ठीक प्रस्तुत किया गया है, मुझे खयाल नहीं पड़ता। मणि कौल जोधपुर के थे, पर 'दुविधा' में भी वही बंबइया राजस्थानी है!)।

निर्देशक के बतौर कथ्य और दृश्यबंधों का निरूपण बिक्रमजी ने उस फिल्म में बखूबी साधा था। लेकिन फिल्म की उतनी चर्चा नहीं हुई, जिसके वह योग्य ती। कला के साथ बिक्रमजी की दृष्टि या सामाजिक सरोकारों का भी 'तर्पण' श्रेष्ठ उदाहरण है। फिल्म में मनोहर सिंह का असरदार अभिनय मुझे कभी नहीं भूलता। और ओम पुरी का असरहीन। ओम पुरी की वह शायद सबसे खराब प्रस्तुति साबित हो! बहरहाल, बिक्रमजी के अभिन्न मित्र और लेखक महेंद्रकुमार मिश्र ने कल ही बताया कि एनएफडीसी ने 'तर्पण' की डीवीडी जारी कर दी है। मुझे यह सुनकर संतोष अनुभव हुआ। बिक्रमजी को हमसे ज्यादा होता।

K Bikram Singh with Om Puri
अभिनेता ओम पुरी के साथ के बिक्रम सिंह

दो फिल्में उन्होंने हमारे समय के महान फिल्मकारों पर भी बनायीं। एक सत्यजित राय पर ('इंट्रोस्पेक्‍शंस') और दूसरी श्रीलंका के लेस्टर जेम्स पीरिज पर ('द वर्ल्ड ऑफ पीरिज')। राय पर फिल्म वास्तव में एक अधूरी बातचीत है। 1983 में जब उन्होंने सरकारी नौकरी से मुक्त हो फिल्म-निर्माण शुरू किया, सबसे पहले राय पर वृत्तचित्र बनाने का खयाल आया। राय से उनका परिचय पुराना था। दुर्भाग्य से कोलकाता में उस बातचीत के फिल्मांकन के थोड़ी देर बाद राय को दिल का दौरा पड़ा। उससे उबरने में काफी वक्त लगा। तब तक बिक्रमजी 'अंधी गली' और 'न्यू डेल्ही टाइम्स' आदि में संलग्न हो गये। जो काम होता है, हो जाता है, रह जाता है तो रह ही जाता है। अंतत: सत्रह साल बाद बिक्रमजी को वह 16 एमएम वाली बातचीत अधूरी ही जारी करनी पड़ी। मेरा खयाल है, इसे वे राय को पहुंचा भी न सके। जो हो, राय को समझाने के लिए वह बातचीत अब एक दस्तावेज है।

K Bikram Singh with Satyajit Ray
सत्‍यजीत रे के साथ के बिक्रम सिंह

साहित्यकारों से बिक्रमजी का अनुराग बाद का पहलू है। पर धीरे-धीरे वे साहित्यकारों के ज्यादा करीब होते गये। साहित्य अकादेमी के लिए उन्होंने दो फिल्में बनायीं। केदारनाथ सिंह पर बनायी गयी फिल्म ('जो मेरे नहीं') मुझे बहुत पसंद नहीं आयी थी। मैंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में अपनी बात साफ शब्दों में कह दी। उन्हें थोड़ा अटपटा लगा; शायद इसलिए भी कि वहां केदारजी के अलावा नामवर सिंह, कृष्ण बलदेव वैद और अशोक वाजपेयी भी बैठे थे। उन्होंने मेरी राय का आधार पूछा। मैंने कलापक्ष पर अपनी बात कही। इसके बाद उन्होंने कुंवर नारायण पर जब "अभी बाकी हैं कुछ पल" फिल्म बनायी, मुझे बुलाकर पहला दर्शक होने का गौरव प्रदान किया। पहला ही दृश्य मुझे उनकी ओर आंख उठाकर देखने को विवश करता था। फिल्म अनूठी थी।

बिक्रमजी कहते थे, वे मेरी वजह से लेखक बन गये। मैं कहता – इसमें मेरा कोई दोष नहीं! जब उनकी किताब "और भी गम हैं" छपी, उन्होंने मुझे समर्पण में घसीट ही लिया – "अपने मित्र ओम थानवी को समर्पित, जिनकी वजह से मुझे लिखने का रोग लगा"! जब श्रेय दे ही गये तो कहूं कि मैंने पिछले पैंतीस वर्षों में अनेक स्तंभ लिखवाये, उन्हें संपादित किया। मगर लेखक के नाते बिक्रमजी की प्रतिभा का विकास हमारे समक्ष विस्मयबोधक था। मैंने उन्हें स्तंभ का आग्रह इसलिए किया था कि पाठकों को सिनेमा पर कुछ नियमित सामग्री मिल जाय। बिक्रमजी ने जल्दी ही अपना कलेवर फैलाना शुरू कर दिया। सिनेमा, कला और साहित्य से आगे जाकर अपनी खटारा फोर्ड के बहाने ओबामा के ऊपर तक उठने और हमारे यहां जगजीवन राम के न उठने, मायावती को खत लिखने के बहाने दलित विमर्श के भटकाव तक पर उन्होंने लिखा। ऐसे ही संगमरमर की खानों में जहरीले बुरादे के बहाव और इस बहाने भव्यता की नींव में दफ़्न मानवीय सरोकार, शिक्षा, विकास, आरक्षण, रोजगार आदि उनके लेखन के विषय बनते गये। निर्ममता से वे अटल बिहारी वाजपेयी के निठल्लेपन को कोसते, दूसरी तरफ फिदेल कास्त्रो को। कास्त्रो ने अस्सी की उम्र हो जाने पर कमान अपने भाई को सौंप दी थी। बिक्रमजी ने लिखा – हमारे जमाने में राजनीतिज्ञ तो बहुत हैं, राजनेता यानी स्टेट्समैन बहुत कम। मैं अब तक नेल्सन मंडेला और फिदेल कास्त्रो को बहुत बड़ा राजनेता मानता था। अब लगता है फिदेल कास्त्रो का कद भी कुछ छोटा हो गया है…।

हमारे यहां उनके स्तंभ का नाम "बिंब-प्रतिबिंब" था। उन्हें जितने आत्मीय पाठक मिले, कम स्तंभकारों को मिले होंगे। अशोक वाजपेयी के बाद बिक्रमजी ही थे, जिनका स्तंभ हमारे यहां साल-दर-साल बेनागा चला। इसकी एक वजह तो उनके निराले विषय थे। दूसरा उनका सहज गद्य। उन्होंने अनूठा चित्रात्मक गद्य विकसित किया था। निश्चय ही इसमें उनके फिल्मकार की पैनी नजर का भी योगदान रहा होगा। पहले वे अंगरेजी में लिखते थे। प्रियदर्शन अनुवाद करते। प्रियदर्शन जब एनडीटीवी चले गये, मैंने बिक्रमजी को कहा अब हिंदी में ही लिखिए। संकोच के साथ वे मान गये, इस शर्त पर कि मैं उन्हें जरूरत पड़ने पर हिंदी पर्याय सुझाऊंगा और वे मेरी अंगरेजी दुरुस्त करेंगे। मैं तो उन्हें पर्याय क्या सुझाता, इस करार का मैंने जरूर भरपूर फायदा उठाया। वे मेरे पत्रों तक को मांजते, संवारते, यहां तक कि दुबारा लिख भी देते थे!

'बिंब-प्रतिबिंब' में छपे लेखों के तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – कुछ गमे दौरां, और भी गम हैं और बाकी समय। इनकी भूमिकाएं क्रमश: नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह और विजयमोहन सिंह ने लिखी थीं। पहली किताब के पुट्ठे का विवरण उदय प्रकाश ने। किताबों में रेखांकन मेरी बेटी अपरा ने बनाये।

कुंवर नारायण पर बनी फिल्म में कुंवरजी एक जगह कहते हैं: "मृत्यु जीवन का केवल तार्किक अंत है। जब तक जीवित रहूं कुछ ऐसा कर सकूं कि मृत्यु से बड़ा हो सकूं। यह कहना बड़ा हो सकता है, लेकिन ऐसा कुछ करके ही आदमी शायद मृत्यु से उबर सकता है, उसे जीत सकता है।"

इस प्रसंग को बिक्रमजी कभी-कभी याद कर लेते थे। हिंदी कविताएं भी उन्हें याद आती रहती थीं। वे गौर से और चाव से हिंदी साहित्य पढ़ने लगे थे। मां और पिता पर लिखी अशोक वाजपेयी की कविताएं पढ़कर बोले थे कि साहित्य में कविताओं का विवेचन होना ही नहीं चाहिए, उनका मर्म खो जाता है।

उनकी संवेदनशीलता का पुख्ता उदाहरण कुशीनगर (गोरखपुर) में केदारनाथ सिंह के साधनहीन मगर स्वाभिमानी मित्र कैलाशपति निषाद की मृत्यु की खबर पर उनका गमगीन होना हो सकता है। निषादजी से मुलाकात केदारजी पर फिल्म बनाने के दौर में हुई थी। अपने स्तंभ में उनका स्मरण करते हुए उन्होंने लिखा – "उम्र की दोपहर ढलने के बाद जब गोधूलि का समय आता है, तो हम मृत्यु को भी स्वीकार करने लगते है। मित्रों की भी और अपनी भी।"

वे चले गये। उनका परिवार सन्न है। मैं और मेरा परिवार भी बहुत दुखी हैं। हमारे सुख-दुख को वे अपना समझते थे। हमें हर घड़ी उनकी मौजूदगी का एहसास बना रहता था। घर के हर आयोजन में वे मौजूद ही नहीं, सक्रिय रहते थे। मेरे लिए वे ऐसी जगह थे, जहां बैठकर आप धूप में भी छांव अनुभव करते हैं। जहां अपने-आपको खाली करते हैं, भरते हैं। किसी गिरजे की तरह। इतने-से फर्क के साथ कि यहां आपके अपराध सुनने के लिए कोई खिड़की के पार नहीं, आपके बगल में बैठा है। … सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र, उल्लंब-बाहु, चिर-अखंड अपनापा…।

केदारजी के साथ वे मेरे पिताजी से मिलने हमारे कस्बे फलोदी भी गये थे। छोटे-से घर में किताबों के बीच पिताजी का जीवन देखकर भावुक होकर लौटे और कहा, आपको इस सादगी पर गर्व होना चाहिए। कभी-कभार वे पिताजी से फोन पर बात भी कर लेते थे।

बिक्रमजी के न रहने पर मैंने पिताजी को फोन कर बताया। 'अरे' बोलकर अगले ही क्षण वे रो पड़े। मैंने पिताजी को रोते कभी नहीं देखा। उम्र के इस पड़ाव में जब-तब आंखें जरूर नम हो जाती हैं। फोन पर उनकी रुलाई मेरी चेतना में अटक गयी है। मानव से मानव का संबंध कितना दूर और कितने गहरे जा जुड़ता है। इसके एक छोर पर के बिक्रम सिंह थे। दूसरे छोर पर हम जैसे अनेकानेक होंगे। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं।

Om Thanvi Image(ओम थानवी। भाषाई विविधता और वैचारिक असहमतियों का सम्‍मान करने वाले विलक्षण पत्रकार। राजस्‍थान पत्रिका से पत्रकारीय करियर की शुरुआत। वहां से प्रभाष जी उन्‍हें जनसत्ता, चंडीगढ़ संस्‍करण में स्‍थानीय संपादक बना कर ले गये। फिलहाल जनसत्ता समूह के कार्यकारी संपादक। उनसे om.thanvi@ expressindia.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

http://mohallalive.com/2013/05/20/tribute-to-k-bikram-singh-by-jansatta-editor-om-thanvi/

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