मुनाफे में कम्पनियाँ और मुसीबत में मजदूर
मई दिवस से ठीक तीन रोज पहले नोएडा की एक कंस्ट्रक्शन कम्पनी में कार्यरत मजदूरों ने अपने बकाया पैसे की माँग की, लेकिन उन श्रमिकों को रुपये देने की बजाय कम्पनी के ठेकेदारों ने गोली मारकर जख्मी कर दिया। पिछले साल मानेसर स्थित मारुति-सुजूकी के कारखाने में भी मजदूरों और प्रबन्धन के बीच हिंसा हुयी थी। सरकार और कम्पनी के अधिकारियों को इसमें भी मजदूरों का दोष ही नजर आया। इतना ही नहीं उन मजदूरों पर अराजक और नक्सली होने का आरोप भी मढ़ दिया गया, ताकि मीडिया भी उन्हें नक्सली घोषित कर दे। यदि कोई मजदूर घण्टों पसीना बहाकर किसी कम्पनी को फायदा पहुँचाता है, तो उस वक्त मालिकों को अपने मजदूरों से कोई शिकायत नहीं होती, लेकिन जब वही मजदूर अपने वाजिब अधिकारों की बात करता हैं, तब उसे गैर सामाजिक तबका करार दिया जाता है। किसी भी मजदूर के लिये फैक्ट्री एक घर की तरह है, जिसमें वह काम करता है। वह इस बात को बखूबी समझता है कि इसी से उसके परिवार का भरण-पोषण होता है। हर कामगार सदैव यही चाहता है कि फैक्ट्री आगे बढ़े और उसके मालिक को फायदा हो, ताकि उसे भी इसका लाभ मिले। हालाँकि, कारखानों के मालिकान ऐसी सोच नहीं रखते हैं। सच्चाई यह है कि दुनिया में कोई भी कम्पनी अपने कर्मचारियों की वजह से घाटे में नहीं जाती और न ही बन्द होती है। जब मुनाफा होता है, तो मजदूरों के योगदान को भुला दिया जाता है और जब नुकसान होने लगता है, तब छंटनी और वेतन रोकने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इस परम्परा को बदलना होगा, क्योंकि गैर बराबरी की शुरूआत यहीं से होती है, जो बाद में गहरे असंतोष को जन्म देती है।
श्रमिक हितों की अनदेखी और केन्द्र सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के खिलाफ ट्रेड यूनियनों ने इस साल 20-21 फरवरी को जिस तरह देशव्यापी हड़ताल की, उसे मजदूर आन्दोलन की एक नई और अच्छी पहल मानी जा सकती है। ट्रेड यूनियनों की यह हड़ताल न सिर्फ पूरी तरह कामयाब रही, बल्कि इस हड़ताल ने सप्रंग सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों को भी उजागर कर दिया। इस हड़ताल की सबसे खास बात यह थी कि आजादी के बाद पहली मर्तबा देश की सभी छोटी-बड़ी ट्रेड यूनियनें एक मंच पर दिखीं। न केवल वामपंथी, बल्कि दक्षिणपंथी श्रमिक संगठन भी इस हड़ताल में शामिल हुये। इस हड़ताल से केन्द्र सरकार कितनी डरी और सहमी हुयी थी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने हड़ताल शुरू होने से दो दिन पूर्व ट्रेड यूनियनों से हड़ताल वापस लेने की अपील की थी। प्रधानमन्त्री की इस अपील को ट्रेड यूनियनों ने न सिर्फ खारिज किया, बल्कि सरकार को चेताया कि अगर उनकी माँगे पूरी नहीं की गयीं, तो भविष्य में बेमियादी हड़ताल किया जायेगा। अगर देखा जाये, तो इस मामले में गलती केन्द्र सरकार की है, क्योंकि पिछले दो वर्षों से ट्रेड यूनियनें श्रमिक हितों के सवाल पर आन्दोलनरत हैं। बावजूद इसके सरकार ने इस पर संजीदगी नहीं दिखायी। यहाँ तक कि हड़ताल शुरू होने से पहले प्रधानमन्त्री और वित्तमन्त्री ने भी यूनियन के नेताओं से बात करना मुनासिब नहीं समझा। मजदूर संगठनों में यूपीए सरकार के प्रति गुस्सा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जन्तर-मन्तर पर 21 फरवरी को एटक महासचिव और सीपीआई सांसद गुरुदास दास गुप्ता ने यह पूछे जाने पर कि अब ट्रेड यूनियनों की आगे की रणनीति क्या होगी ? उनका जवाब था, कल संसद की कार्रवाई देखना। दासगुप्ता ने मजदूरों की जो बातें सड़क पर कही, वही बातें उन्होंने संसद में भी रखीं। अपने 10 मिनट के सम्बोधन में उन्होंने प्रधानमन्त्री, वित्त मन्त्री और श्रम मन्त्री की बखिया उधेड़कर रख दी और सदन में बैठे सप्रंग सरकार में मन्त्री लज्जित भाव से कॉमरेड गुप्ता की बातें सुनते रहे।
वहीं दूसरी ओर इस हड़ताल पर एसोचैम ने विलाप करते हुये कहा था कि इससे देश की अर्थव्यवस्था को 20 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। वैसे ऐसोचैम, फिक्की और सीआईआई जैसे कॉरपोरेट संगठनों से इसी तरह के बयान की उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि उनसे श्रमिक हितों की बात करना पूरी तरह बेमानी है। आश्चर्य की बात तो यह है कि एफडीआई के मुद्दे पर भी ये तीनों संगठन न सिर्फ संप्रग सरकार की नीतियों को सही ठहरा रहे हैं, बल्कि वॉलमार्ट जैसी कम्पनियों के लिये पलक पाँवड़े बिछाये बैठी है।
असल में केन्द्र और राज्य सरकारें टाटा, बिड़ला, मित्तल, जिन्दल, अंबानी, गोयनका, डालमिया और सिंघानिया जैसे चन्द मुट्ठीभर पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाने के लिये दिन-रात परेशान रहती है, लेकिन अफसोस ये देश के उन करोड़ों खेतिहर मजदूरों और कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों को लेकर तनिक भी चिन्तित नहीं हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि नब्बे के दशक से लागू नई आर्थिक नीतियों ने पूँजीपतियों को भरपूर फायदा पहुँचाया है। वहीं दूसरी ओर यह भी एक सच है कि मुल्क के करोड़ों किसानों और कामगारों को इस व्यवस्था ने सिवाय शोषण के और कुछ भी नहीं दिया है। दरअसल, नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद न सिर्फ किसानों से उनकी पुश्तैनी जमीनें हड़पी गईं, बल्कि उनके परम्परागत कृषि कार्य में भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का दखल लगातार बढ़ता ही चला गया। उन दिनों वित्त मन्त्री रहे हमारे मौजूदा प्रधानमन्त्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक नीतियों की खूब तरफदारी की थी और इसीलिये उन्होंने संसद में यह बयान भी दिया था कि इससे देश की करोड़ों जनता को लाभ होगा, लेकिन अफसोस! मेहनतकशों की जिंदगी पर इसका कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ा, बल्कि उल्टा मजदूरों की जिंदगी में तमाम दुश्वारियाँ पैदा हो गईं हैं। असल में, यह देश केन्द्र व राज्य सरकारों की गलत आर्थिक नीतियों के दुष्चक्र में बुरी तरह फंस चुका है और इसी का परिणाम है कि भारत सरकार की आर्थिक नीतियाँ अब बड़े कॉरपोरेट घरानों और अमेरिका समेत अन्य विकसित देशों के अनुकूल बनाई जा रही हैं। हकीकत में, सरकार को इस बात से कोई सरोकार नहीं रह गया है कि विषम परिस्थितियों में हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले श्रमिकों और चिथड़ों में लिपटे किसानों पर इसका क्या विपरीत प्रभाव पड़ेगा ? पूरी दुनिया के मजदूरों के लिये मई दिवस बेहद अहम है, क्योंकि शोषण, दमन और गैर बराबरी के खिलाफ एक बड़ी कुर्बानी देने के बाद मजदूरों ने अपने लिये एक जगह बनाई। दुनिया का कोई भी ऐसा देश नहीं है, जहां मजदूरों को अपने हितों की लड़ाईयाँ न लड़नी पड़ी हो। काम के घंटे निर्धारित करने, बंधुआ मजदूरी की प्रथा को समाप्त करने और वेतन विसंगतियों को दूर करने की माँग को लेकर 127 साल पहले शुरू हुआ मजदूर आन्दोलन आहिस्ता-आहिस्ता पूरी दुनिया में फैल गया। हालाँकि उसके बाद मजदूरों की स्थिति में कुछ सुधार जरूर हुआ, लेकिन उनकी समस्याएं पूरी तरह खत्म हो गईं, ऐसा नहीं है।
उदारीकरण के बाद औद्योगिक घरानों और राजनेताओं ने मजदूरों की हालत और भी दयनीय बना दी। नई आर्थिक नीतियों का असर सभी देशों पर पड़ा, लेकिन विकासशील देशों, खासकर भारत समेत अन्य दक्षिण एशियाई देशों के श्रमिकों की स्थिति दिन ब दिन खराब होती चली गयी। हालाँकि यदि भारत की बात करें, तो यहाँ मजदूरों के हितों से जुड़ा पहला सवाल है न्यूनतम मजदूरी का। दूसरा सवाल ठेकेदारी प्रथा को बन्द करने का है और तीसरा सवाल है उनकी बुनियादी सुविधाओं को लेकर। इन्हीं मुद्दों पर ट्रेड यूनियनें सरकारों को घेरती है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार भी चतुर-सुजान और मौकापरस्त है, इसीलिये मजदूरों को उनका वाजिब हक देना तो दूर, उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जा रही है। हैरानी की बात तो यह है कि श्रमिकों से ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार भी छीना जा रहा है। भारत में मजदूरों और ट्रेड यूनियनों की मांगों को सरकार अनसुनी कर देती है, जबकि पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। इसके लिये कुछ हद तक ट्रेड यूनियनें भी जिम्मेदार हैं। देश में विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़ी करीब 15 ट्रेड यूनियनें हैं। ये वैचारिक और क्षेत्रीय स्तरों पर भी बंटे हुये हैं, जबकि इनके बीच एक शीर्ष निकाय का होना बेहद जरूरी है। ब्रिटेन, जर्मनी, अमेरिका, जापान, न्यूजीलैंड और यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी ट्रेड यूनियनों का एक केंद्रीय मंच है, जो श्रमिकों से जुड़े मुद्दों पर सरकार से सीधी बात करता है।
भारत में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या करीब 93 प्रतिशत है, जिसे पेंशन, भविष्य निधि, अवकाश और चिकित्सीय सुविधाएं भी हासिल नहीं है। हालाँकि संगठित क्षेत्रों के मजदूरों जिनकी संख्या महज पौने तीन करोड़ है, उनकी हालत में बेशक सुधार हुआ है, लेकिन यहाँ नई नियुक्तियों की बजाय अनुबन्ध पर कार्य कराने का चलन बढ़ गया है। एक आंकड़े के मुताबिक़, भारत में कुल श्रम शक्ति करीब 48 करोड़ है। इनमें से 7 फीसदी ही संगठित क्षेत्र में काम करते हैं और ट्रेड यूनियनों की 70 फीसदी सदस्यता भी इसी से जुड़ी हुयी है। मौजूदा दौर में असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों की हालत काफी दयनीय है। चाहे वे बीड़ी मजदूर हों या दैनिक मजदूर, फुटपाथों पर फलों की रेहड़ी लगाने वाला हो या फिर रिक्शा, ठेला और तांगा चलाने वाले मजदूर। सिर्फ दिल्ली में ही उनकी संख्या करीब 5 लाख है, जबकि पूरे देश में इनकी संख्या करोड़ों में है। वैसे तो, मजदूरों के कल्याण के लिये अर्जुन सेन गुप्ता आयोग के अलावा, कई दूसरी समितियाँ भी बनीं। दरअसल, उन आयोगों ने अपनी रिपोर्ट भी सरकार के समक्ष पेश की, लेकिन दुख तो इस बात का है कि आज तक उस पर कोई अमल नहीं हो पाया है। उल्लेखनीय है कि जब किसी उद्योगपति का कारोबार मंदा पड़ता है, तब सरकार आर्थिक पैकेज देकर उसे संकटों से उबार लेती है, लेकिन जब मजदूर अपने उचित अधिकारों की माँग करता है, तो उसे सिर्फ झूठा आश्वासन ही मिलता है।
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