भारत का अंधेरा
Author: समयांतर डैस्क Edition : February 2013
लाल खान
[भारत में बिजली ग्रिड फेल होने के बाद यह लेख दस अगस्त 2012 को लिखा गया। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट के परिदृश्य में यह भारत की नवीनतम स्थितियों का मार्क्सवादी दृष्टिकोण से बहुत ही जीवंत विश्लेषण करता है। ]
बिजली ग्रिड फेल ने, जिसने लगभग आधे भारत को अंधेरे में डूबो दिया और जनजीवन को थमा दिया, दुनिया के सामने चित्रित तथाकथित आर्थिक चमत्कार के कमजोर चरित्र और 'शाइनिंग इंडिया' की कठोर सच्चाइयों को उजागर कर दिया। इसने पूर्व में औपनिवेशक रहे देशों में 'मार्केट इकनॉमी' (बाजार चालित अर्थव्यवस्था) की उच्च विकास दर और इन समाजों में बदतर होती जा रही सामाजिक तथा भौतिक संरचनाओं की असमानता को भी नंगाकर सामने ला दिया।
वास्तव में, भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की तेज विकास दर, इसकी गरीबी उन्मूलन की दर से ठीक उल्टी है। पिछले दशक में जब भारत की औसत आर्थिक विकास दर बढ़कर नौ प्रतिशत हो गई, तब गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले, जिनकी आय एक डॉलर से भी कम थी, 76 करोड़ से बढ़कर 86 करोड़ हो गए।
सन् 2008 में विश्व पूंजीवाद के आर्थिक पतन के बाद अधिकतर बुर्जुआ विशेषज्ञों ने इस विचार को प्रचारित किया कि तथाकथित 'उभरती हुई' अर्थव्यवस्थाएं, विशेषकर ब्रिक्स (बी.आर.आई.सी.एस.- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) देश विश्व अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवन देंगे। लेकिन 'क्रैश' (बाजारों के गिरने) के चार से भी अधिक सालों के बाद ये सभी अर्थव्यवस्थाएं अपने खुद के संकट में हैं।
ब्राजील की विकास दर नए न्यूनतम स्तर 1.8 प्रतिशत तक पहुंच गई है। डिल्मा रोजेफ की सरकार मुश्किल में है, जबकि देश में हिंसा और सामाजिक उथल-पुथल तेजी से बढ़ रही है। सोवियत संघ के पतन के बाद रूसी निष्क्रियता ने मुट्ठी भर माफिया द्वारा चलाए जा रहे पूंजीवाद के क्षणभंगुर चरित्र को दिखा दिया है। भारत की विकास दर आधी हो गई है और रुपए का तेजी से अवमूल्यन हो रहा है।
चीन की आर्थिक मंदी ने अभिजात्य शासकों के विभिन्न गुटों में, बो शिलाई के निष्कासन के साथ आपसी मतभेद बढ़ा दिए हैं और इस गुट के अन्य नेता आर्थिक विकास के और अधिक मुलायम सामाजिक असर का प्रयास कर रहे हैं। चीन में पांच सौ बड़ी हड़तालें और अभिग्रहण (ऑकुपेशंस) हुए हैं जिनमें से अधिकांश को नजरअंदाज कर दिया गया। हाल के महीनों में सामाजिक और आर्थिक अव्यवस्था ने दक्षिण अफ्रीका को हताशा-निराशा में डाल दिया है।
अगले कुछ सालों में विश्व अर्थव्यवस्था का पटरी पर लौटने (रिकवरी)की बहुत कम या धूमिल संभावनाओं को देखते हुए, कम से कम शब्दों में कहा जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था का भविष्य उजाड़ है। विकसित देशों में उपभोक्ता मांग में कमी के साथ भारत का निर्यात अनिवार्य रूप से गिरेगा। हालांकि भारतीय घरेलू उपभोग, अपेक्षाकृत बड़े बदलते सामाजिक-आर्थिक स्तरों, लगभग 30 करोड़ से 40 करोड़ मध्यवर्ग पर निर्भर है, पर आर्थिक गिरावट के साथ यह वर्ग संकुचित हो रहा है और उसकी क्रय क्षमता में कमी साफ दृष्टिगोचर हो रही है। यह अर्थव्यवस्था पर पलटवार असर डालेगा तथा इस संकट को और अधिक बढ़ा देगा। रुपए का अवमूल्यन आयात पर हो रहे खर्चों को बढ़ाएगा।
इसका असर भारतीय राजनीतिक पटल पर दिखाई देगा। जहां हम विभाजन के बाद भारतीय राजनीति में शायद सबसे अनियंत्रित उतार-चढ़ाव देख रहे हैं। वो सभी राजनीतिक पार्टियां जो शीर्ष पर प्रभावशाली हैं, संकट में हैं और विभिन्न व्यावसायिक हितों – जो अपनी लूट को बढ़ाने के लिए राज्य की शक्ति का इस्तेमाल करते हैं, के बढ़ते तीखे मतभेदों के साथ बंट रही हैं। भारतीय पूंजीवाद की बीमार हालत को चिह्नित करते महत्त्वपूर्ण लक्षणों में से एक भ्रष्टाचार है। भारत के एक सरकारी आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भारतीय पूंजीपतियों द्वारा पांच सौ अरब डॉलर से भी ज्यादा की पूंजी स्विस बैंकों में छुपाई हुई है। आयोग ने इसे 'काला धन' कहा। लेकिन ये पूंजीपति सभी मुख्य राजनीतिक दलों पर प्रभुत्व रखते हैं। ये न सिर्फ संसद और राज्य विधानसभाओं में खरीद-फरोख्त करने में शामिल हैं, बल्कि मंत्रिमंडल के फेरबदल और नई सरकार के मंत्रालयों के लिए खरीद-फरोख्त में भी शामिल हैं।
हालांकि अब भारत में जापान से ज्यादा अरबपति हैं, पर सामाजिक असमानता के सबसे खराब अनुपातों में भारत एक है। भारत की आधी से अधिक आबादी को आर्थिक चक्र से धक्का देकर बाहर कर दिया गया है और उन्हें अमानवीय स्थितियों में रहने को मजबूर कर दिया गया है। स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सामाजिक क्षेत्र छिन्न-भिन्न कर दिए गए हैं। पिछले हफ्ते अल जजीरा (समाचार चैनल) ने रहस्योद्घाटन किया कि भारत की आधी से ज्यादा जनसंख्या बगैर शौचालयों के है और देश की बड़ी पट्टियों में अत्यंत दूषित और अस्वास्थ्यकर स्थितियों में खुले शौचालय हैं। न सिर्फ भारतीय शहरों के अव्यवस्थित कस्बों में गंदगी और कूड़े का ढेर बढ़ता जा रहा है, बल्कि ग्रामीण इलाके भी अभूतपूर्व प्रदूषण और पर्यावरणीय महाविपत्ति से ग्रस्त हो रहे हैं।
भारतीय शासक वर्ग साठ वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी एक आधुनिक औद्योगीकृत समाज विकसित करने में असफल रहा है। सामाजिक और आर्थिक विकास का रुख नितांत असमान और मिश्रित प्रकृत्ति का रहा है। यहां सबसे आधुनिक तकनीकी प्रतिष्ठानों और शानदार महंगे घरों के साथ-साथ असहनीय गरीबी और तंगहाली है।यहां आदिमता के विशालकाय समुद्र में आधुनिकता के द्वीप हैं।
वास्तव में भारत ऐतिहासिक भौतिकवाद का एक जीता-जागता संग्रहालय है। जाति, रंग, नस्ल और धर्म के पूर्वाग्रहों से यहां की सामाजिक और राजनीतिक संस्कृति विभाजित है। आधुनिक भारतीय बुर्जुआजी के बीच भी काला जादू, अंधविश्वास, मिथकीय धारणाएं खूब प्रचलन में हैं। कुछ सबसे बड़े व्यापारिक घरानों के निदेशक मंडल में ज्योतिषी और तांत्रिक हैं। मीडिया अभिजात्यों द्वारा उग्र-राष्ट्रीयता, क्रिकेट, बालीवुड धारावाहिक और लोकतंत्र के मुखौटे को जन सामान्य के लिए अफीम की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
भारत के अधिकांश राज्यों में आदिवासियों और राष्ट्रीयताओं के आंदोलन चल रहे हैं, जिन्हें भारत के प्रधानमंत्री भारत में सबसे बड़ी सुरक्षा चुनौती की तरह व्याख्यायित करते हैं। कश्मीर से असम तक पाशविक राज्य दमन प्रतिदिन की बात है। धार्मिक घृणा और खून-खराबा देश के सामाजिक ताने-बाने को उधेड़ रहा है। सत्ताधारी राजनीतिज्ञों पर साम्राज्यवादियों का और अधिक 'आर्थिक सुधारों' को लाने के दबाव का अर्थ है, जनता के शोषण को और भी अधिक भयानक बना देना। आर्थिक, सामाजिक और संरचनात्मक संकट की बढ़ोतरी के साथ आने वाले समय में ये बिकाऊ शिकंजा और कसेगा।
भारत के लिए एकमात्र आशा युवा और सर्वहारा हैं। शासक वर्गों ने धोखे और भ्रष्ट तरीकों से शोषित जनता के प्रचंड उबलते लावे को रोक रखा है। वर्तमान तंत्र का विकल्प अण्णा हजारे या तथाकथित सिविल सोसायटी के मूवमेंट नहीं हैं। वर्ग संघर्ष को दिशाहीन और दिग्भ्रमित करने के लिए ये नव फासीवादी तरीके और दक्षिणपंथी लुभावने चेहरे सामने लाए जा रहे हैं।
माकपा और मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियां लोकतंत्र के नाम पर पूंजीवाद के समक्ष आत्मसमर्पण और क्रांतिकारी वामपंथ के रास्ते को छोड़ देने के कारण (चुनाव में) हार गई हैं। गत वर्ष 28 फरवरी (2012) को विश्व इतिहास में सर्वहारा की सबसे बड़ी हड़ताल का भारत गवाह रहा है, लगभग दस करोड़ लोग वर्ग के आधार पर सड़कों पर उतरे। क्रूर और थोपे हुए तंत्र द्वारा ढाए जुल्मों और शोषण के खिलाफ भारतीय मजदूर वर्ग की वर्ग-संघर्ष की शानदार परंपरा रही है। क्रांतिकारी मार्क्सवादी नेतृत्व के साथ वे इतिहास की धारा बदल सकते हैं और दक्षिण एशिया को मुक्ति दिला सकते हैं।
अनु . : प्रकाश चौधरी
साभार: इन डिफेंस ऑफ मार्क्सिज्म, इंटरनेशनल मार्क्सिस्ट टेंडेंसी
(लाल खान राजनीतिक एक्टिविस्ट और मार्क्सवादी राजनीतिक चिंतक हैं। वह पाकिस्तानी माक्स्ट ऑर्गेनाइजेशन के नेता और इसके अखबार स्ट्रगल के संपादक हैं। इनकी पुस्तक क्राइसिस इन द इंडियन सब-कंटिनेंट, पार्टिशन- कैन इट बी अनडन? चर्चित रही है)
No comments:
Post a Comment