Tuesday, 20 August 2013 15:11 |
विनोद कुमार जनसत्ता 20 अगस्त, 2013 : झारखंड बनने के बाद प्रभु वर्ग ने इस बात को काफी जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित किया है कि झारखंड का विकास और झारखंडी जनता का कल्याण उद्योगों से ही हो सकता है और खनिज संपदा से भरपूर झारखंड में इसकी अपार संभावनाएं हैं। यह प्रचार कुछ इस अंदाज में किया जाता है मानो झारखंड में पहली बार औद्योगीकरण होने जा रहा है। हकीकत यह है कि इस बात को पहले से लोग जानते हैं कि झारखंड खनिज संपदा से भरपूर है और इसीलिए आजादी के बाद देश में सबसे अधिक सार्वजनिक उपक्रम झारखंड में लगे। यह नजारा सिर्फ झारखंड का नहीं, पूरे देश में ऐसा वातावरण बन रहा है। पहले कलिंगनगर (ओड़िशा) से यह आवाज उठी और फिर माकपा-शासित पश्चिम बंगाल से। सिंगूर और नंदीग्राम में इसी नारे की अनुगूंज सुनाई दी। और अब तो सुदूर दक्षिण तक यह आंदोलन चल रहा है। दर्जनों लोगों की कुर्बानी लेने के बाद सरकार भी इस तथ्य को समझने लगी है कि जनता अब आसानी से झांसे में नहीं आने वाली। दूसरी तरफ जनता की समझ में भी यह बात आने लगी है कि 'टाका पाइसा चार दिन, जोमिन थाकबे चिरो दिन' (रुपया पैसा तो चार दिन टिकेगा, मगर जमीन-जायदाद हमेशा बनी रहेगी)। लोग इस बात को समझने लगे हैं कि औद्योगिक विकास का फायदा मुट््ठी भर लोगों को ही मिलता है, बहुसंख्यक आबादी का जीवनयापन तो खेती के विकास से ही संभव है। आइए देखें कि झारखंड बनने के बाद किस तरह के कारखानों के लिए करार (एमओयू) हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों से कोई नया करार नहीं हुआ है, लेकिन बाबूलाल मरा२डी के जमाने से लेकर मधु कोड़ा की सरकार तक जितने भी करार हुए हैं, उनमें से अधिकतर स्पंज आयरन कारखानों के लिए। वैसे, वे कहते हैं इस्पात कारखाना लगाने की बात। स्पंज आयरन कारखाने के लिए उन्हें बेहतरीन लौह अयस्क वाले चिड़िया खदान से अयस्क निकासी का पट््टा चाहिए। गौरतलब है कि खनिज संपदा अतार्किक दोहन से निरंतर कम होती जा रही है और सभी देश अपने संसाधनों का संभल कर उपयोग कर रहे हैं। लेकिन भारत संभवत: एकमात्र ऐसा देश है, जो खनिज संपदा को सीधे बेच कर पैसा कमाने की जुगत में लगा हुआ है। इस बात का विरोध होने पर केंद्र सरकार ने कुछ वर्ष पूर्व यह प्रावधान किया कि खनिज पर आधरित उद्योग लगाने की स्थिति में ही किसी देशी-विदेशी कंपनी को लौह अयस्क का पट््टा आबंटित किया जाएगा। इसके बाद निजी कंपनियों ने लौह अयस्क की लूट का एक चोर दरवाजा बना लिया और स्पंज आयरन कारखाना लगाने के लिए करार होने लगे। यह भी जानने वाली बात है कि इस्पात निर्माण में स्पंज आयरन बनाना एक प्रारंभिक चरण है और लौह अयस्क से स्पंज आयरन बनाने की प्रक्रिया में भारी मात्रा में औद्योगिक कचरा निकलता है और पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित होता है। कोयला खनन, तापविद्युत संयंत्रों और बोकारो स्टील कारखाने से होने वाले प्रदूषण से झारखंड के पर्यावरण को कितनी क्षति पहुंची है, इसका अंदाजा झारखंड की जीवनरेखा समान दो पावन नदियों- दामोदर और सुवर्णरेखा- की वर्तमान स्थिति से लगाया जा सकता है, जो गंदे नाले में तब्दील हो चुकी हैं। और वास्तव में अगर जिंदल, मित्तल के कारखाने यहां लग गए तो प्रकृति का कितना विनाश होगा, यह कल्पनातीत है। तो क्या कल-कारखाने लगने ही नहीं चाहिए? हम ऐसा नहीं कहते। लेकिन यह जनता को तय करने दीजिए कि उसे किस तरह का उद्योग चाहिए। ऐसे विद्युत संयंत्रों में जनता को क्या रुचि हो सकती है जिनसे सिर्फ प्रदूषित वातावरण मिले, बिजली नहीं। राज्य में तापविद्युत संयंत्र तो कई लगे, लेकिन उनके आसपास के गांवों तक बिजली नहीं पहुंची। दक्षिण पूर्व एशिया का सबसे बड़ा इस्पात संयंत्र बोकारो (झारखंड) में है, लेकिन झारखंड की आदिवासी आबादी आज भी पत्ते के दोने में खाती है। देश का पहला और सबसे बड़ा खाद बनाने का कारखाना सिंदरी में लगा, लेकिन आदिवासी जनता रासायनिक खादों का इस्तेमाल नहीं करती। इसकी वजह है गरीबी। विपन्नता। ऐसा विकास किस काम का, जो विपन्नता बढ़ाए, गरीबी की फसल उगाए।
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Tuesday, August 20, 2013
लोहा नहीं अनाज चाहिए
लोहा नहीं अनाज चाहिए
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