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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, August 18, 2013

हमारी व्यवस्था पर साम्प्रदायिक ताकतों के कसते शिंकजे का एक और उदाहरण है कंधमाल

हमारी व्यवस्था पर साम्प्रदायिक ताकतों के कसते शिंकजे का एक और उदाहरण है कंधमाल

कंधमाल हिंसा और उसके बाद

राम पुनियानी

Ram Puniyani,राम पुनियानी

राम पुनियानी, लेखक आई.आई.टी. मुम्बई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।

इस साल 25 अगस्त को, देश की सबसे बड़ी ईसाई-विरोधी हिंसा और आदिवासी क्षेत्र में अब तक हुये सबसे भयावह साम्प्रदायिक दंगे को पांच साल पूरे हो जायेंगे। इस त्रासदी के पीड़ित आज किस हाल में हैं? क्या उन्हें न्याय मिल सका है?

कंधमाल हिंसा सन् 2008 में शुरू हुयी थी परन्तु इसके पहले, सन् 2007 में, उसका ट्रेलर सारे देश ने देखा था। हिंसा शुरू करने का बहाना बनी स्वामी लक्ष्मणानन्द लखानन्द की हत्या। वे कंधमाल इलाके में चार दशकों से काम कर रहे थे। वे संघ परिवार के सदस्य थे, विहिप व वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़े थे और आदिवासियों को जबरन हिन्दू बनाने के लियेसंघ परिवार द्वारा चलाये जा रहे 'घर वापसी अभियान में सक्रिय थे। संघ परिवार का दावा है कि आदिवासी, मूलतः हिन्दू हैं, जो इस्लाम अपनाने पर मजबूर किये जाने के भय से जंगलों में भाग गये थे। यह राजनैतिक हितों की खातिर गढ़ा गया एक मिथक है, जिसका इतिहास में कोई जिक्र नहीं है। स्वामी लक्ष्मणानन्द की हत्या की जिम्मेदारी माओवादियों ने ली। उन्होंने कहा कि स्वामी लक्ष्मणानन्द को इसलिये मारा गया क्योंकि वे इलाके में नफरत फैला रहे थे। हत्या के तुरन्त बाद, विहिप के प्रवीण तोगड़िया ने स्वामी लक्ष्मणानन्द के मृत शरीर के साथ एक लम्बी यात्रा निकाली। इस यात्रा ने करीब 270 किलोमीटर का सफर तय किया और जहाँ-जहाँ से यह यात्रा गुजरी, उन सभी इलाकों में ईसाईयों के खिलाफ हिंसा शुरू हो गयी। यह ठीक उसी तरह हुआ जैसा कि गुजरात में गोधरा आगजनी के बाद हुआ था। गोधरा के शिकार लोगों की लाशों का विहिप और भाजपा ने जुलूस निकाला था, जिसके बाद गुजरात में साम्प्रदायिक दंगों की आग धधक उठी थी।

कंधमाल हिंसा के शिकार बने गरीब ईसाई, जिनमें से अधिकांश दलित थे, जिनके लिये दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल था। लगभग 300 चर्च नष्ट कर दिये गये और करीब 400 ईसाईयों को मौत के घाट उतार दिया गया। हजारों ईसाईयों को अपने घरबार छोड़कर शरणार्थी शिविरों में शरण लेनी पड़ी, जहाँ बहुत कम सुविधाएँ उपलब्ध थीं। इस हिंसा के निशाने पर थे अल्पसंख्यक ईसाई। यह हिंसाभारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त जीवन, स्वतंत्रता और समानता के मूल अधिकारों का उल्लंघन थी और कई अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का मखौल भी। हिंसा सुनियोजित और व्यापक थी और इसका प्रमुख केन्द्र था कंधमाल जिला। हिंसा, पहले से योजना बनाकर, पूरी तैयारी के साथ की गयी थी। हिंसा के महीनों पहले से न सिर्फ उसकी योजना बनाई जा रही थी वरन् उसके लिये धन व अन्य आवश्यक सामग्री भी इकट्ठा की जा रही थी। यह हिंसा 'मानवता के खिलाफ अपराध' की अन्तर्राष्ट्रीय परिभाषा में एकदम फिट बैठती है। हिंसा के शिकार लोगों को जिस तरह मारा गया, वह अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के अन्तर्गत 'यंत्रणा' की श्रेणी में आता है।

हिंसा के तुरंत बाद उड़ीसा में मौसम ने कहर ढाया। वहाँ उस साल कड़कड़ाती ठण्ड पड़ी। पीड़ितों के पास इस ठण्ड का मुकाबला करने के लिये साधन उपलब्ध नहीं थे। उन्हें सहायता बहुत देरी से मिली और मदद का मुख्य स्रोत सरकार नहीं थी। चर्च ने सहायता कार्य में हाथ बँटाने की पहल की परन्तु शुरूआत में सरकार ने इस मानवीय सहायता को पीड़ितों तक इस आधार पर नहीं पहुँचने दिया कि वह केवल ईसाईयों को उपलब्ध करवायी जायेगी। बाद में, अदालत के हस्तक्षेप के चलते, मजबूर होकर, सरकार को चर्च को पीड़ित के सभी वर्गों की मदद करने की इजाजत देनी पड़ी। यह घटनाक्रम भी गुजरात की याद दिलाता है, जहाँ सरकार ने बहुत जल्दी राहत शिविर बंद कर दिये थे और धार्मिक संस्थाओं को पीड़ितों की सहायता और पुनर्वास के काम को हाथों में लेना पड़ा था।

हमारे देश की न्याय प्रणाली वैसे ही बहुत धीमी और अकार्यकुशल है। इसके अतिरिक्त,राज्यतंत्र का साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है व इस कारण साम्प्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को न्याय मिलने में बहुत कठिनाई होती है। उनकी राह में कदम कदम पर रोड़े अटकाए जाते हैं। उनकी एफआईआर दर्ज नहीं की जाती, जांच ढीलेढाले ढंग से की जाती है और अदालतों में अभियोजन पक्ष, अपेक्षित तत्परता व परिश्रम से अपना पक्ष नहीं ररखता। राज्य की रूचि भी पीड़ितों को न्याय दिलवाने में नहीं रहती। इन सब कारकों के चलते, न्याय पाना लगभग असम्भव हो जाता है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि हमारे प्रजातन्त्र को साम्प्रदायिक विचारधारा का घुन लग गया है।

कंधमाल में स्थिति को सम्हालने के लिये राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगह्यूमन राईट्स लॉ नेटवर्क आदि सामने आये। उन्होंने कई ऐसी तथ्यपरक रपटें तैयार कीं, जिनसे यह जाहिर हुआ कि कंधमाल हिंसा के पीड़ितों का न तो उचित पुनर्वास हो रहा था और ना ही उनके साथ न्याय हो रहा था। पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए.पी. शाह की अध्यक्षता में एकजनन्यायाधिकरण की स्थापना की गयी। अधिकाँश रपटों में साम्प्रदायिक ताकतों को उनकी आक्रामक शैली व भड़काऊ हरकतों के लिये दोषी ठहराया गया। राज्य सरकार ने भी अपना कर्तव्य नहीं निभाया। गुजरात और कंधमाल में एक प्रमुख अन्तर यह रहा कि हिंसा के बाद बीजू जनता दल ने भाजपा से नाता तोड़ लिया। भाजपा से छुटकारा पाने के बाद, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने खुलकर यह कहा कि भाजपा और उसके साथी संगठनों की, हिंसा भड़काने में केन्द्रीय भूमिका थी। मुख्यमंत्री ने आधिकारिक रूप से यह स्वीकार किया कि हिंदुत्ववादी संगठनों ने हत्याकाण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सरकार द्वारा की गयी जाँच के आधार पर, नवीन पटनायक ने राज्य विधानसभा को एक प्रश्न के उत्तर में बताया कि ''आरएसएस, विहिप व बजरंग दल'' के कार्यकर्ता, हिंसा में शामिल थे। मुख्यमंत्री के अनुसार, पुलिस ने आरएसएस के 85, विहिप के 321 और बजरंग दल के 118 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया। उन्होंने अपने उत्तर में यह भी कहा कि उनमें से 27 जेल में थे।

आज तक कंधमाल हिंसा पीड़ितों का न तो सही ढंग से पुनर्वास हुआ है और ना ही उन्हें न्याय मिल सका है। हमारे देश में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के उल्लंघन की घटनाएं इतनी तेजी से बढ़ी हैं कि अधिकांश मानवाधिकार संगठन चाह कर भी कंधमाल के मुद्दे को पर्याप्त व आवश्यक महत्व नहीं दे पा रहे हैं। सामाजिक संगठनों पर जबरदस्त दबाव के बाद भी उन समूहों व व्यक्तियों की सराहना की जानी चाहिए, जो कंधमाल पीड़ितों के गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार के लिये अनवरत, अथक संघर्ष कर रहे हैं।

आल इंडिया कैथोलिक यूनियन के अध्यक्ष व राष्ट्रीय एकता समिति के सदस्य जॉन दयाल कहते हैं, ''मुख्यमंत्री पटनायक ने दो न्यायिक जांच आयोगों की नियुक्ति की। इन दोनों आयोगों के अध्यक्षों में समानता यह है कि उनके मन में मृत विहिप नेता स्वामी लक्ष्मणानंद के प्रति बहुत सम्मान है और वे दोनों ही यह मानते हैं कि हिंसा, साम्प्रदायिक या धार्मिक नहीं थी बल्कि उसके मूल में जमीन का विवाद था। उनका यह मानना है किकौंड आदिवासी, जो कि मुख्यतः हिन्दू हैं, और दलित पानौस, जिनमें से कई ने ईसाई धर्म अपना लिया है और जो अनुसूचित जाति का दर्जा पाना चाहते हैं, के बीच भूमि विवाद को लेकर हिंसा भड़की।'' अधिकांश न्यायिक जांच आयोगों की तरह, ये आयोग भी कछुए की चाल से अपना काम कर रहे हैं और इनकी रपट आने में शायद इतना वक्त लग जायेगा कि पीड़ितों को न्याय मिलने की सम्भावना ही खत्म हो जायेगी। जांच आयोगों के दृष्टिकोण व इनके अध्यक्षों के व्यवहार से ईसाई समुदाय इतना खफा था कि शुरूआत में उसने आयोगों की कार्यवाही का बहिष्कार करने का निर्णय लिया था। परन्तु जब समुदाय ने पाया कि उसके पास ईसाईयों का दुःख दर्द बयाँ करने के लिये कोई और मंच उपलब्ध नहीं है तब उसने आयोगों की कार्यवाही में भागीदारी करने का निश्चय किया।

आज हिंसा के पाँच साल बाद भी, पीड़ितों का समुचित पुनर्वास नहीं हो सका है। कुछ लोगों को तो मुआवजा भी नहीं मिला है। जिन्हें मुआवजा मिला भी है, वह इतना कम है कि  उससे नए सिरे से जिन्दगी शुरू करना असंभव है। जहां तक न्याय का प्रश्न है, जांच आयोग अपनी गति से काम कर रहे हैं और हिंसा के मामलों की सुनवाई के लिये स्थापित फास्टट्रेक अदालतें बंद कर दी गयी हैं। सामान्य अदालतों में मुकदमें  चल रहे हैं परन्तु वहां भी आलम यह है कि अपराधी खुलेआम गवाहों को डरा धमका रहे हैं और अधिकांश गवाह, आरोपियों के डर के कारण गवाही देने से पीछे हट गये हैं। यह भी गुजरात की तरह है, जहां अभियोजन पक्ष के कई गवाह पक्षद्रोही हो गये थे। राज्य सरकार नष्ट कर दिये गये चर्चों का पुनर्निर्माण करने को तैयार नहीं है। कारण यह बताया जा रहा है कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य, पूजास्थलों पर सरकारी धन खर्च नहीं कर सकता। यह भी ठीक गुजरात की तरह है। प्रश्न यह है कि जब राज्य किसी पूजास्थल की सुरक्षा करने में असफल रहता है, तो क्या यह उसकी जिम्मेदारी नहीं कि वह उसका पुनर्निर्माण करवाए।

कंधमाल हमारी व्यवस्था पर साम्प्रदायिक ताकतों के कसते शिंकजे का एक और उदाहरण है। हमारी व्यवस्था का चरित्र ऐसा बन गया है कि दंगा पीड़ितों को न तो न्याय मिल पाता है और ना ही उनका समुचित पुनर्वास होता है। इससे हमारे प्रजातांत्रिक, बहुवादी मूल्यों को गहरी चोट पहुंच रही है। कंधमाल हत्याकांड के पीड़ितों की मदद की खातिर तुरंत प्रभावी कदम उठाए जाना आवश्यक है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) 

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।) 

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