इस स्वतंत्र लोकतंत्र में महिलाएं कहाँ है?
दायरे महिलाओं के
कुलीना कुमारी
आज भारत को आजादी मिले हुये 66 साल होने जा रहे हैं, सारी दुनिया की यह समझ है कि 60 वर्ष में अवकाश ग्रहण कर लेते हैं, ऐसे में यह भारत एक अवकाशप्राप्त देश हो चुका है, जहाँ कोई ऐसी बड़ी सम्भावना नहीं बची है या फिर उम्र की प्रौढ़ता से देश स्थूल हो चुका है। इसी स्थूलता के परिणामस्वरूप भारत की महिलाएं अभी तक अपने वजूद के लिये संघर्षरत हैं।
हमारा देश एक स्वतंत्र लोकतंत्र हैं। लेकिन इसमें महिलाएं कहाँ है? क्या वह भी आजाद है, क्या उसकी पराधीनता भी खतम हो गयी? अधिकतर लोगों का जवाब होगा नहीं क्योंकि आज भी महिलाओं के लिये सीमांकन है। उसे उसकी दायरे में रहने की सीख दी जाती है। आज भी महिला की पहचान एक बेटी, बहन, पत्नी व माँ, के रूप में ही मिलती है। एक स्त्री व व्यक्ति के रूप में उसे आज भी नही स्वीकारा जा रहा है।
हमारे समाज में उसी स्त्री को स्वीकृति मिलती है जिसकी पवित्रता अक्षुण्ण हो। पवित्रता की परिभाषा भी अजीब है, उस स्त्री को पवित्र माना जाता है जो शादी से पहले तक किसी पुरुष के संपर्क में न आयी हो, न इच्छा से, न अनिच्छा से। स्त्री की अनिच्छा से हुये बलात्कार भी महिला को अपवित्र कर देता है, स्त्री की गुलामी का इससे बड़ा प्रतीक क्या हो सकता है, कि किसी के घर में चोरी-डकैती होने पर समाज ऐसे आरोपी को पकड़ कर पीटता है, या उसे सजा का हकदार माना जाता है लेकिन महिलाओं के मामले में उल्टा होता है। बलात्कार पीड़ित महिला को कोई समाज में अपनाने को तैयार नहीं होता। आजादी के इतने साल बाद भी बलात्कार पीड़ित महिला को अपना मुँह छुपाने की जरूरत पड़ती है। दूसरी तरफ आरोपी पुरुष रेप करने के बावजूद अपने घर में भी ऐसे घुसता है, जैसे किसी के संग मुँह काला करके नहीं, अपनी मर्दानगी साबित करके आया है। हद तो तब हो जाती है जब उसके इस अपराध के लिये उसे समाज से भी वंचित नहीं किया जाता और उसे एक सामान्य प्रक्रिया के तरह लिया जाता है।
हमारे समाज के इस दोहरी मानसिकता के कारण लड़की के घरवाले चाहते हुये भी उसे पूरा छूट नहीं दे पाते। उसे शिक्षा व रोजगार प्राप्त करने के लिये छूट मिल तो गयी है लेकिन शाम ढलने से पहले घर आना, बच्चियाँ स्कूल या कॉलेज से सीधे घर आएं आदि पाबन्दियाँ ज्यों की त्यों है। बदलते समय के साथ सातवीं-आठवीं वर्ग के लड़के स्कूली से टूर या दोस्तों के साथ अभिभावक घूमने-फिरने व सिनेमा देखने की आजादी दे रहे हैं लेकिन वे अपनी 10वीं-11वीं वर्ग में पढ़ने वाली बेटी तक को अपने दोस्तों के साथ घूमने की आजादी नहीं दे रहे हैं। शादी से पहले अभिभावक का सम्पूर्ण प्रयास लड़की को ऐसे रूप में गढ़ने का होता है जो शिक्षित भी हो, जो रोजगार परक प्रशिक्षण प्राप्त भी हो या फिर कामकाजी भी हो लेकिन उसकी दैहिक पवित्रता व इज्जत के नाम पर उस पर सम्पूर्ण नियंत्रण रखा जाय ताकि वह करें वहीं जो उससे कहा जाय। पढ़ी-लिखी व कामकाजी लड़की तक को अपने पसंद के लड़के चुनने का हक नहीं है।
कई बार देखा जाता है कि अपनी जाति-बिरादरी के अयोग्य लड़के मान्य हो जाते हैं लेकिन जाति-बिरादरी के बाहर के योग्य लड़के तक को स्वीकार नहीं किया जाता।
समानता के पक्षधर होने का दावा करने वाली सरकार ने महिलाओं को संपत्ति का अधिकार भी दे दिया है लेकिन शर्तों के साथ। वह भी ऐसी शर्त जिसका पालन शायद ही कोई शादीशुदा महिला कर पाये। संपत्ति के अधिकार में एक मुख्य शर्त यह है कि उसी लड़की को मां-बाप के संपत्ति में हिस्सा मिलेगा जो बेटा के तरह ही मां-बाप के प्रति कर्त्तव्य का पालन करेगी, जिसमें माँ-बाप द्वारा लिये गये कर्जे भरना व देखभाल करना शामिल है। पितृसत्तात्मक समाज में किसी पत्नी या बहु द्वारा यह कहना कि वह अपने माँ-बाप को साथ रखना चाहती हैं या उसके जरूरत के लिये पैसे भेजना है, बहुत ही मुश्किल व असंभव सा है। अर्थात् इस कानून के अंतर्गत महिला का अपने मां-बाप के संपत्ति के अधिकार से वंचित करने का प्रयास है।
जबकि पिछले दिनों दो बेटे के एक पिता का कहना था कि मुझे अपने साथ सिर्फ छोटा बेटा रख रहा है, जबकि वो अभी कुँवारा है, बड़ा बेटा जो कि शादीशुदा है, मुझे व मेरी पत्नी को साथ रखने से साफ मना कर दिया है, यद्यपि उन्होंने जोर देकर कहा कि हो सकता है, मेरी बहू ने बेटे से ऐसा करने के लिये कहा हो। इस सम्बंध में मेरा ये पूछना है कि क्या कोई पिता अपनी संपत्ति के बँटवारे में ऐसे किसी बेटे को वंचित कर सकता है तो जवाब होगा नहीं। फिर लड़कियों के लिये ही संपत्ति के अधिकार में ऐसी बंदिशें क्यों? मतलब साफ है, यह सारे बंदिशें सिर्फ लड़कियों को आर्थिक ताकत से दूर रखने के लिये की जा रही हैं और इस बहाने सदियों से चली आ रही दहेज प्रथा को बनाए रखने की कोशिश है।
स्त्री के लिये पति के संपत्ति में हिस्से मिलने को लेकर भी कई झोल हैं। पिछले दिनों कहा गया है कि स्त्री को ससुर के संपत्ति में बंटवारा नहीं होने पर पति को मिलने वाले संपत्ति में से कुछ हिस्सा मिलेगा, लेकिन कितना यह स्पष्ट नहीं है। दूसरा शादी के बाद पति-पत्नी द्वारा अर्जित संपत्ति में से हिस्सा मिलेगा, लेकिन इस आशंका को देखते हुये अगर एक-दूजे को बिना विश्वास में लिये संपत्ति बेच दिया जाय या किसी और के नाम ट्रांसफर कर दिया जाय तो इस स्थिति में क्या होगा या फिर शादी के बाद सभी खरीदे गए संपत्ति दोनों के संयुक्त नाम से लिया जाय जैसे प्रश्न भी सोचनीय है। इस सब के बावजूद अगर महिला को संपत्ति मिलेगा भी तो कब यह भी क्या कम बड़ा मजाक है, यह संपत्ति किसी स्त्री के लिये तब उपयोगी हो सकती है जब वह पति से तलाक लेगी। अर्थात् जो पति के साथ जीवन बिताना चाहती है उसे पति की संपत्ति व मर्जी का मोहताज बनकर जीना होगा। फिर समाज में वही स्त्री सम्माननीय मानी जाती है जो अपने सम्पूर्ण प्रयास अपने पति के हिसाब से करें। बचपन से ही लड़की के मन में पति व ससुराल वालों के लिये ऐसी छवि गढ़ी जाती है जैसे वह उसके लिये सब कुछ हो। उनका साथ पाने के लिये ससुराल वाले जैसा कहें, वैसा करें, उसके बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं। बचपन से गढ़ी गयी यह छवि महिला के व्यक्तित्व में विसंगति पैदा करती है।
शादी होने के बाद पति के गलत माँग का भी वह विरोध नहीं करती और ना ससुराल वालों के गलत बातों का विरोध करती है। वह कठपुतली सी बनकर रह जाती है। काफी समय के बाद जब शोषण सहते-सहते वह उकता जाती है व जवाब देने लगती है तो उसे बुरा करार दिया जाता है। मायके से पढ़ाये तोते जैसे पाठ को रिपीट करने से स्थिति भी उसके अनुकूल नहीं रह पाती व उसके हिस्से में खुशी कम पछतावे अधिक होती हैं।
पिछले दिनों मेरी एक सहेली का इस सम्बंध में कहना था कि मैं माँ-बाप की इस सीख का कि पति-ससुराल वाले जैसे रखे, रहना को मानने को लेकर मुझे आज भी अफसोस होता है। मेरे पति जब पहली बार लोगों के बीच मेरी बेइज्जती कर रहे थे व मेरे ऊपर हाथ भी उठा रहे थे, अगर मैं तभी इसका विरोध की होती, तो आज उनका ये आदत में शामिल नहीं होता।
मेरी एक रिश्तेदार जो कि पढ़ी-लिखी व कामकाजी है, वह पति को अत्यधिक प्यार देने की चाहत में हर गलत बात की भी सहमति देती थी, जिसका खामियाजा उसको इस रूप में निभाना पड़ रहा है, कि उसका निठल्ला पति उसकी कमाई भी खाता है, उस पर हाथ भी उठाता है व उसके मायके वाले से उसे संपर्क भी नहीं रखने देता।
समाज में ऐसे कई उदाहरण देखने में आते हैं जिसमें महिला न केवल पढ़ी-लिखी कामकाजी पायी जाती हैं लेकिन उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं होता और वह पति व ससुराल वालों के इशारे पर नाचती पायी जाती है।
इसीलिये ऐसे अभिभावक जो अपनी बच्ची का भविष्य उज्जवल बनाना चाहते हैं, उनका यह पुनीत कर्त्तव्य है कि अपनी बेटी के स्वतंत्र व्यक्तित्व पैदा करने का प्रयास करें, उसे अच्छा-बुरा का ज्ञान करायें और समय व परिस्थिति के हिसाब से अपने विवेक से निर्णय लेने के लिये प्रोत्साहित करें। साथ ही मेरा उन लड़कियों से भी निवेदन है जो लड़कों के साथ एक ही स्कूल में पढ़ रही हैं व बड़ी हो रही हैं, अगर उसका साथी अथवा भाई जब विश्वासपूर्वक कोई कार्य कर सकता है, तो वह अपने को कमतर क्यों माने व अपने दिल-दिमाग को खुला रखकर निर्णय लें।
यद्यपि कुछ ऐसे परिवार जो बच्चों को एक ही स्कूल में पढ़ा रहे हैं, चाहे लड़का हो या लड़की उसका प्रभाव समाज में कुछ दिखाई भी देने लगा है। शिक्षा व जागरूकता से महिलाएं बदल रही है, पहले पास-पड़ोस में महिलाओं की आवाजें कम सुनायी देती थीं, लेकिन आज हर मोहल्ले में एक-आध घर ऐसे दिख जाते हैं, जहाँ महिलाओं के झगड़ने की आवाजें सुनाई पड़ती है, महिलाओं में दिखने वाला यह लड़ने की प्रवृत्ति उसकी जी हाँ-जी हाँ छवि को तोड़ती या कम करती नजर आती है।
इसका प्रभाव बदलते समय के साथ कुछ पढ़े-लिखे व उच्च रोजगार प्राप्त पुरुष में भी दिखाई पड़ता है। हमारा जानने वाला शादी के लिये लड़की के चुनाव में संदेह में रहने लगा है। वे लड़की को इसीलिये तय नहीं कर पा रहे कि उन्हें लगता है कि मेरे पापा, मेरी मम्मी को पीटते थे तो वह बर्दाश्त करती थी, हमारे द्वारा पीटे जाने पर लड़की बर्दाश्त करेगी कि नहीं, अगर करेगी तो कौन सी करेगी। क्लास-1 अफसर होते हुये भी वे शादी के लिये किसी महिला अधिकारी का चुनाव नहीं करना चाहते। वे बताते हैं कि कोई कम पढ़ी-लिखी लड़की मिलेगी तो शायद वह मेरे नियंत्रण में रहेगी।
अतः महिलाओं की आजादी में एक और बाधा यह है कि लड़की पढ़-लिख कर तो बदल रही है लेकिन लड़का बदलने के लिये तैयार नहीं हो रहा। जो बदलना चाहते भी हैं, उनके साथ समाज में हँसी उड़ाई जाती है। एक पुरुष ने स्पष्ट बताया कि मैं किसी अतिथि के सामने घरेलू कार्य में हाथ नहीं बँटाना चाहता। इस संदर्भ में उनका कहना था कि मैं नहीं चाहता कि समाज मुझे 'जोरू के गुलाम' जैसे उक्तियाँ बोल कर मेरा मजाक उड़ाये।
इसीलिये महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों में भी मानवीय धर्म का पाठ पढ़ाया जाये ताकि दोनों एक-दूसरे को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सम्मान के साथ-साथ समानता के सिद्धांत के साथ स्वीकार कर सकें।
फिर समाज का भी यह दायित्व है कि महिलाओं के जीवन में होने वाली प्रगति को सामाजिक विकास व उन्नति से जोड़े। एक आँकड़े के अनुसार, विश्व में किये जाने वाले 76 प्रतिशत कार्य महिला द्वारा किये जाते हैं, इसीलिये कहा जा सकता है कि महिला के विकास, स्वतंत्रता व उसकी खुशी का लाभ उसके परिवार, समाज व देश पर पड़ता है। जो महिला खुद गुलामी का जीवन जियेगी वह अपने भाई को साहस का पाठ कहाँ से पढ़ायेगी। जो अभिभावक अपनी लड़की के लिये पराधीनता को सुख बतायेंगे वह लड़की अभिभावक के जीवन में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने हेतु उनका सहारा कैसे बनेगी। गुलाम माताएं वीर पुत्र व वीरांगना पुत्रियों की जननी कैसे बनी रह सकती है? जिसे खुद पर विश्वास नहीं, वह दूसरों में विश्वास कैसे भर सकती है।
अतः सभी जागरूक लोगों को चाहिये कि वे अपने परिवार की लड़की के साथ किसी भी स्तर पर भेदभाव न करें और न किसी को करने दें और सही परिप्रेक्ष्य में उसे विकसित होने दें, इससे न केवल महिला का बल्कि पूरे समाज की प्रगति होगी।
कुलीना कुमारी, लेखिका महिला अधिकार अभियान की संपादिका हैं।
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