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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, August 19, 2013

नियमगिरि के असली राजा


  • लोग कहते हैं, तुम हर चीज़ को खारिज़ करते चलते हो....यह भी गलत है, वह भी गलत. आख़िर कुछ सही भी तो होगा. दस साल पहले तक मेरे पास कुछ जवाब नहीं होता था. अब है. यह जो आज के 'अमर उजाला' के सम्पादकीय पृष्ठ पर छपे इस लेख में है. देश को जिन्दा रखने का यही तरीका है...वह राजनीति जो यह तरीका तैयार कर सके :-


    नियमगिरि के असली राजा
    खनिज संपदा और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को विकास के लिए जरूरी मानने वालों के लिए यह बुरी खबर है। नियमगिरि की पहाड़ी में बसे डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने ब्रिटेन की दिग्गज कंपनी वेदांता और ओडिशा के माइनिंग कॉरपोरेशन की बॉक्साइट खनन की संयुक्त परियोजना को खारिज कर दिया है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में संभवतः यह पहला मौका है, जब आदिवासियों को अपने अस्तित्व की लड़ाई में इतनी बड़ी कामयाबी मिली है। हालांकि इसके लिए उन्हें एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी और सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद ही उन्हें यह हक मिल सका कि वह अपनी नियति का फैसला कर सकें। सर्वोच्च अदालत के निर्देश पर ओडिशा के कालाहांडी और रायगड़ा जिले की कुल 12 पल्ली सभाओं यानी ग्राम सभाओं को यह अधिकार दिया गया था कि वे इस परियोजना के पक्ष या विपक्ष में प्रस्ताव पास करें। एक-एक कर इन सारी ग्राम सभाओं ने इसे खारिज कर दिया। सोमवार को रायगड़ा की अंतिम ग्रामसभा जराया ने भी अपना फैसला सुना दिया। ओडिशा के सुदूर घने जंगलों में हो रहे इस बदलाव की आहट आने वाले समय में दूर तक सुनाई देगी।
    डोंगरिया कोंध जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, डोंगरी यानी पहाड़ी में रहने वाले। डोंगरिया कोंध उन विरली जनजातियों में है, जिन्हें सबसे आदिम माना जाता है। इनकी आबादी अब तकरीबन 8,000 रह गई है। विकास की मुख्य धारा से दूर यह जनजाति ओडिशा के कालाहांडी और रायगड़ा के इलाके में नियमगिरि पहाड़ी पर बसी हुई है। वनोपज पर आश्रित इस जनजाति के लिए नियमगिरि ही सब कुछ है; जीने के संसाधन से लेकर सांस्कृतिक अनुष्ठान और मोक्ष की प्रार्थना तक। नियमगिरि उनके लिए इष्ट देवता हैं, वह उन्हें नियमगिरि राजा भी कहते हैं। उनका कुसूर बस इतना है कि जिस नियमगिरि पर्वत ने उन्हें आश्रय दिया है, उसके नीचे करोड़ों टन बॉक्साइट दबा है, जिसका उनके लिए कोई मोल नहीं है, क्योंकि उन्हें इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती। पर दुनिया भर में एल्युमिनियम और लोहे के कारोबार के लिए मशहूर वेदांता को इसकी कीमत पता थी। उसे कालांहाडी के ही लांजीगढ़ में स्थित अपनी एल्युमिनियम रिफाइनरी के लिए इस बॉक्साइट की जरूरत थी। आखिर इस वेदांता कंपनी के कर्ताधर्ता कौन हैं? वही अनिल अग्रवाल जिनकी स्टरलाइट कंपनी ने 2001 में छत्तीसगढ़ के कोरबा में स्थित सार्वजनिक क्षेत्र की मुनाफा कमाने वाली भारत एल्युमिनियम कंपनी (बालको) को खरीदा था। यह सार्वजनिक क्षेत्र की मुनाफा कमाने वाली पहली कंपनी थी, जिसका विनिवेश किया गया था। इसके लिए वहां मजदूरों ने लंबा आंदोलन भी किया था, लेकिन तब की केंद्र की एनडीए सरकार अपने फैसले पर अडिग थी और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार विरोध के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र की इस मुनाफा कमाने वाली कंपनी को बचा नहीं सकी थी।
    वास्तव में नियमगिरि में जो हुआ, वह क्रांति से कम नहीं है। यह 2006 के वन अधिकार अधिनियम की सफलता है, जिसने वनवासियों के अधिकार सुरक्षित किए हैं। अंग्रेजों के जमाने के वन कानून के बदले लाए गए इस कानून के आधार पर सुनाया गया यह पहला फैसला है, जिसने आदिवासियों की उत्तरजीविता को संरक्षित किया है। हैरत की बात है कि नियमगिरि के जिस क्षेत्र में बॉक्साइट खनन परियोजना प्रस्तावित थी, वहां संविधान की पांचवीं अनुसूची लागू है और इसे किसी गैर आदिवासी को नहीं बेचा जा सकता, पर जैसा कि इन दिनों चलन में है, विकास परियोजनाओं के नाम पर नियम-कायदे ताक पर रख दिए जाते हैं।
    सवाल उठ सकता है कि आखिर जब बॉक्साइट और लोहा जैसे कीमती खनिज दबे पड़े हैं, तो उनका दोहन क्यों नहीं होना चाहिए? मगर बीते 66 वर्षों का अनुभव यही है कि जिन क्षेत्रों में खनन हुआ या जहां बड़ी परियोजनाएं बनाई गईं, वहां के मूल निवासियों को उसका पूरा हक नहीं मिला। वरना ऐसे कैसे हो सकता था कि स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद देश के नक्शे पर उभरे दो सबसे बड़े जिले कोरापुट (अब रायगड़ा और कालाहांडी सहित पांच जिलों में विभाजित) और बस्तर (अब सात जिलों में विभाजित) अकूत प्राकृतिक संपदा के बावजूद सबसे गरीब जिले बने रहते। विकास एकतरफा और मनमाने तरीके से नहीं हो सकता।
    वेदांता की बॉक्साइट परियोजना को आदिवासियों की ग्राम सभाओं ने खारिज किया।
    अधिकार
    सुदीप ठाकुर
    edit@amarujala.com

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