धार्मिक पर्यटन राजनीति और अन्य सवाल
वैष्णो माता की भक्ति का एक पक्ष इसकी प्रतीकात्मकता में छिपा है. यह भारत के उस एकमात्र मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर में है, जो भारतीय राष्ट्रीयता की सबसे दुखती रग है. यहां हिंदू मंदिर होने के अपने निहितार्थ रहे हैं. भाजपा की राजनीति का भी एक बड़ा मुद्दा पहले से ही कश्मीर रहा है...
पंकज बिष्ट
उत्तराखंड में इस वर्ष जून के मध्य में हुए हादसे में इस पहाड़ी राज्य के कई धार्मिक स्थलों में बड़े पैमाने पर तीर्थयात्रियों के मारे जाने की घटना को सिर्फ प्राकृतिक आपदा और प्रशासनिक अव्यवस्था के माध्यम से ही नहीं समझा जा सकता है. गोकि इनकी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, पर इसके राजनीतिक-सामाजिक संदर्भों के बिना सही नतीजों पर नहीं पहुंचा जा सकता.
जो बात महत्वपूर्ण है और जिसे समझना जरूरी है, वह है आखिर पर्यटन में इस अंधाधुंध बढ़ोतरी के कारण क्या हो सकते हैं? निश्चय ही इस बीच लोगों की आय में वृद्धि हुई है और आवागमन के साधनों का विकास भी हुआ है, इस पर भी यह नहीं भुलाया जा सकता कि पर्यटकों में निम्र मध्य और निम्र वर्ग की भी खासी बड़ी मात्रा रहती है.
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें युवावर्ग की भागीदारी बड़ी मात्रा में है. गोकि इसका मुख्य कारण आध्यामिकता नहीं, बल्कि धर्म के स्थूल रूप के साथ मनोरंजन का जुड़ा होना है. वैसे यह भी कोई नई बात नहीं है. इससे पहले भी संगीत और नृत्य हिंदू धर्म से जुड़े रहे हैं.
आज पर्यटन और ढर्रे (रूटीन) की जिंदगी से कुछ देर को ही सही निजात की इच्छा प्रबल हो गई है. दूसरा, इसमें से कई स्थलों जैसे कि गंगोत्री, केदारनाथ और हेमकुंड की यात्रा बेहद कठिन है जिसमें कई किलोमीटर दुर्गम क्षेत्र पैदल तय करना पड़ता है. वहां जाने वाले सभी यात्री मात्र एडवेंचर या प्रकृति का आनंद उठाने ही नहीं जाते हैं, इसके पीछे की प्रेरणाशक्ति कुछ और ही होती है.
यह शक्ति और कुछ नहीं, बल्कि धार्मिक प्रेरणा से जुड़ी है. देखने वाली बात यह है कि इस धार्मिकता का आध्यात्मिकता से किस हद तक संबंध है और आक्रामकता से किस हद तक? पर इसे समझने के लिए पिछले कुछ दशकों में हुए और हो रहे धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तनों पर नजर डालनी जरूरी है.
यह कम निराशाजनक नहीं है कि हमारे लोकतंत्र तथा उसके धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील संविधान ने हमें गैरसांप्रदायिक और तर्कवान बनने के लिए प्रेरित करने की जगह पिछले कुछ दशकों में लगातार अनुदार, सांप्रदायिक, अवैज्ञानिक और अप्रगतिशील बनाया है. जातिवाद, क्षेत्रीयता और सांप्रदायिक असहिष्णुता आज हमारे समाज का दूसरा नाम हो चुके हैं.
विशेषकर धर्म के संदर्भ में यह प्रतिगामिता ज्यादा गंभीर है. धर्म से अपनी पहचान बनाने के चक्कर में पूरा देश एक ऐसे संकीर्ण समाज में बदलता जा रहा है, जो आगे देखने की जगह पीछे की ओर जाने की कोशिश में जुटा नजर आता है. इसके तात्कालिक परिणाम धार्मिक पर्यटन और उसकी अव्यवस्थाओं के रूप में सामने आ रहे हैं. ये यात्राएं स्थानीय जीवन को अव्यवस्थित करने के साथ ही साथ प्रशासनिक व्यवस्था पर अवांछित दबाव पैदा करती हैं, जो कुल मिलाकर व्यापक कानून-व्यवस्था के संकट में बदल जाता है.
पिछले आठ वर्षों में - उत्तराखंड की गत माह की महादुर्घटना को अगर छोड़ दें तो - उत्तर से लेकर पश्चिम तक विभिन्न तीर्थों में कुल 881 लोग मारे गए. यानी हर वर्ष 110 लोग. मंढेर देवी, सतारा के मंदिर में 26 जनवरी 2005 को हुई भगदड़ में 350 लोग मारे गए.
नासिक के कुंभ मेले में उसी साल 25 अगस्त को 40 लोग मरे. 3 अगस्त 2006 में चामुंडा देवी के मंदिर की भगदड़ में हिमाचल प्रदेश में 160 भक्त मारे गए. 2008 में मार्च में मध्य प्रदेश में आठ और पुरी में जगन्नाथ रथ यात्रा में जुलाई में छह लोग मरे. पर उसी वर्ष एक और बड़ी दुर्घटना सितंबर में राजस्थान के चामुंडा मंदिर में हुई, जिसमें 120 लोगों की जानें गईं. मार्च 2010 में प्रतापगढ़ के एक मंदिर में 63 लोग मरे.
जनवरी 2011 में सबरीमाला में 106 लोगों की जानें गईं. इसी वर्ष नवंबर में हरिद्वार में 22 लोग मरे. फरवरी 12 में जूनागढ़ में महा शिवरात्रि के दिन छह मौतें हुईं. पर उत्तराखंड की दुर्घटना से स्पष्ट है कि विगत आठ वर्षों के दौरान नियमित रूप से हो रही ये घटनाएं देश की आत्मा को झकझोरने और प्रशासन को सक्रिय करने के लिए काफी नहीं थीं.
सौ दो सौ आदमियों का मारा जाना, न हमारे लिए और न ही हमारी सरकार के लिए कोई मायने रखता है. संभवत: धार्मिक स्थलों में हुई मौतें भक्त लोगों के लिए सीधे स्वर्ग का मार्ग खोल देती हैं. या कम से कम यह उसका मान्य धार्मिक तर्क तो है ही.
एक मामले में यह भी सच है कि यातायात के आधुनिक संसाधनों के आने से पूर्व, कहना चाहिए उन्नीसवीं सदी के अंत बल्कि बीसवीं सदी के मध्य तक, विशेषकर हिमालयी क्षेत्रों की तीर्थयात्राएं एक मायने में बुजुर्गों को निपटाने का भी एक माध्यम था. इसके कुछ लक्षण आज भी कुंभ मेले के दौरान बुजुर्गों को छोड़ दिए जाने में देखे जा सकते हैं.
वैसे भी पाण्डव हिमालय में ही गलने गए थे और केदारनाथ को पाण्डवों से जोड़ा भी जाता है. तब निश्चय ही केदारनाथ कई गुना ज्यादा ठंडा और कठिन रहा होगा. वानप्रस्थ आश्रम को भी उसी तरह की परंपरा मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
पर असली मुद्दा यह है कि धार्मिक यात्राओं का यह सिलसिला उसमें होने वाली लगातार मौतों के बावजूद बढ़ता क्यों जा रहा है? क्या हिंदू धर्म में ऐसा कहीं है कि बिना फलां-फलां तीर्थ किए आपको मोक्ष नहीं मिलेगा? अगर ऐसा नहीं है तो इस परंपरा के पीछे क्या उद्देश्य या मंशा हो सकती है, इसकी जांच जरूरी है.
वैसे भी केदारनाथ की स्थापना आठवीं सदी की मानी जाती है. उससे पहले क्या स्थिति थी? अगर यह इतनी अनिवार्य होती तो 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' जैसी विद्रोही कहावत कैसे प्रचलित और एक हद तक मान्य होती? क्या हमारा समाज अचानक इतना धार्मिक हो गया है कि साल दर साल सौ-दो सौ लोगों का धर्म की राह में मारा जाना मायने ही न रखे?
यहां सवाल है यह धार्मिकता है या सांप्रदायिकता? गोकि इसके कई पहलू हो सकते हैं, पर इसके केंद्र में बढ़ती धार्मिकता ही नजर आती है. यह कहना अनावश्यक है कि धार्मिकता अक्सर ही सांप्रदायिकता में बदल जाती है. कम से कम आज के दौर में जब धर्म के कई अंग और उसकी संस्थाएं अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हैं.
निश्चय ही हिंदू सांप्रदायिकता के तत्व आजादी के पहले से ही हमारे समाज में विद्यमान थे. इसका उदाहरण राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ है. इस पर भी वे इतने व्यापाक नहीं थे. इसमें शंका नहीं है कि धार्मिकता को उकसाने और उसे एक संप्रदाय की पहचान के रूप में बढ़ाने का काम राष्ट्रीय सेवक संघ, जनसंघ और उसके नये रूप भाजपा ने बहुत ही नियोजित तरीके और धैर्य से किया.
गोकि यह भी उतनी बड़ा सत्य है कि कांग्रेस तथा एनसीपी, समाजवादी पार्टी, जनता पार्टी, अकाली दल, त्रिणमूल तथा अन्य संसदीय राजनीतिक दल भी इस सांप्रदायिकता और जातिवाद से, फिर चाहे परोक्ष रूप में ही सही, बड़े पैमाने पर लाभान्वित होते रहे हैं. कांग्रेस ने अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को इस्तेमाल बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का हौव्वा खड़ा कर किया और इसी नीति के चलते कभी भी सीधे-सीधे बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को चुनौती नहीं दी.
इस आरोप से कम्युनिस्ट पार्टियां तक बरी नहीं हैं, विशेषकर पश्चिम बंगाल की. आज तो हालत यह है कि कांग्रेस अपने वक्तव्यों में जहां सेक्युयलर होने का दावा करती है, वहीं वह अपने कामों से बहुसंख्यक संप्रदाय की धार्मिकता को बढ़ावा देने से नहीं चूकती या कम से कम नजरंदाज तो करती ही है.
गोकि यह विस्तृत शोध का विषय है कि पाकिस्तान से उखडक़र आए हिंदुओं की इस धार्मिक पहचान को बढ़ाने में कितनी भूमिका रही, इस पर भी यह देखा जा सकता है कि विभाजन के तीन दशक बाद भारतीय समाज में धार्मिकता में उफान आने की शुरुआत हो गई थी.
यह समय एक मायने में वह है जब विस्थापितों या शरणार्थियों ने भारतीय समाज में अपनी जगह बना ली थी और सत्ता में उनकी दखल लगातार बढ़ती जा रही थी. पहले संतोषी माता और उसके बाद वैष्णो देवी का उत्थान हुआ. ये देवियां संयुक्त पंजाब में तो थीं हीं, इनको मानने वाले भी ज्यादातर पाकिस्तान से आए हिंदू ही थे. 'शेरांवाली माता दी जै' जैसे नारे (जिन्हें 'जयकारा' कहा जाता है), बतलाते हैं कि इनका पंजाबियों से कितना निकट का संबंध रहा है. 'जय माता दी' और 'जयकारा' असल में पंजाबी भाषा के ही मुहावरे हैं, जो आज सारे देश में या कम से कम पूरे हिंदी क्षेत्र में स्वीकार्य हो चुके हैं.
यही नहीं देवी के इस जागरण और उसकी आक्रामकता का परंपरागत सतसंग या भजन मंडलियों से कोई मुकाबला नहीं था. वैसे भी सतसंग देवी तक सीमित नहीं होते थे, बल्कि मुख्यत: वैष्णव संप्रदाय के निकट थे. एक और विशेष बात यह है कि संतोषी मां और वैष्णो देवी को मानने और उसकी पूजा करने की शुरुआत दिल्ली से ही हुई, जहां सबसे ज्यादा शरणार्थी आए और बसे थे. तो क्या यह एक मामले में पंजाबी हिंदुओं की अपनी पहचान बनाने की कोशिश का हिस्सा भी रहा?
वैष्णो देवी पुराने पंजाब के लगभग मध्य में है. दूसरे शब्दों में यह पश्चिमी पंजाब से आए हिंदुओं के उस गुस्से की अभिव्यक्ति और गहरी मुस्लिम अरुचि का परिणाम था, जिसका संबंध उनके विस्थापन की पीड़ा से था. इसलिए यह कोई बड़ी बात नहीं है कि एक अरसे तक भाजपा या पुरानी जनसंघ के कई प्रमुख नेता भी वही थे, जो मूलत: पाकिस्तान से आए थे.
इसका दूसरा बड़ा कारण पिछले तीन दशकों में भाजपा की वह राजनीति है, जो बहुसंख्यकों के वोट के चक्कर में समाज का धर्म के हिसाब से ध्रुवीकरण करने में लगी है. यह भी ध्यान देने योग्य है कि भाजपा में इसे मजबूत करने में मंडल-कमंडल की राजनीति ने कम बड़ी भूमिका नहीं निभाई. स्वाभाविक तौर पर यह भारतीय समाज में जो रूढि़वादी और सामंती पुनरुत्थानवादी तत्व रहे हैं, उनकी आश्रय स्थल बनी है.
भाजपा के उत्थान को काटने के लिए जैसे-जैसे जातीय राजनीति को बढ़ाया गया, भाजपा ने हिंदुत्व की राजनीति को उतना ही तेज किया. निश्चय ही जातिवाद से बचने या उसे काटने का एक तरीका वृहत्तर हिंदू पहचान को बढ़ावा देने में छिपा तो था ही.
गोकि लगता है अब यह नेतृत्व, जो एक अर्से तक विस्थापितों के हाथ में था, निकलकर स्थानीय लोगों के हाथों में पहुंचता जा रहा है. इसका सामाजिक आधार भी बदल रहा है. जमींदार, व्यापारी और परंपरागत रूप से वर्चस्ववादी जातियों के अलावा रणनीतिगत जरूरतों के तहत अन्य पिछड़ी जातियों के प्रभावशाली वर्ग का भी इसमें प्रभाव बढ़ा है.
भाजपा में नरेंद्र मोदी का उदय इसका बेहतरीन उदाहरण है. इसने मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में ओबीसी तबकों की अलग पहचान नहीं बनने दी है या फिर उसे समाजवादी जैसे दलों के साथ जुडऩे नहीं दिया है. यह अचानक नहीं है कि दिल्ली से अंग्रेजी-हिंदी की द्विभाषी अन्य पिछड़े वर्ग की पत्रिका फावर्ड प्रेस ने पिछले माह नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने का लगातार अपने दो अंकों में जश्र मनाया.
वैष्णो माता की भक्ति का एक और पक्ष इसकी प्रतीकात्मकता में छिपा है. यह भारत के उस एकमात्र मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर में है, जो भारतीय राष्ट्रीयता की सबसे दुखती रग है. यानी जम्मू-कश्मीर में हिंदू मंदिर होने के अपने निहितार्थ रहे हैं. यह नहीं भुलाया जा सकता कि भाजपा की राजनीति का एक बड़ा मुद्दा कश्मीर है और वह धारा 370 को लेकर आजादी से आज तक लगातार राजनीति करती रही है.
यह राजनीति भी एक मामले में अल्पसंख्यक विरोधी ही है, जिसका लाभ उसे बहुसंख्यकों के वोटों के ध्रुवीकरण में मिलता है.
धार्मिक-क्षेत्र की इस प्रतीकात्मकता का उत्कर्ष इसी तरह के एक दूसरे धार्मिक स्थल में देखा जा सकता है. पिछले तीन दशकों में विशेषकर उत्तर भारत में अत्यंत लोकप्रिय हुए इस स्थल, जो संयोग से उसी जम्मू-कश्मीर राज्य में ही नहीं है, जिसका जबर्दस्त प्रतीकात्मक महत्व है, बल्कि ठेठ कश्मीरी क्षेत्र में है, का नाम है अमरनाथ. यहां जस्कार पर्वत श्रंृखला में एक प्राकृतिक गुफा में हिम का ऐसा आकार बनता है, जो शिवलिंग जैसा होता है. लोग इसी के दर्शन करने जाते हैं. देखते ही देखते अमरनाथ यात्रा एक महाकाय तीर्थयात्रा में बदल गई है, जहां यात्री सारे कष्टों के बावजूद पहुंचने पर उतारू रहते हैं.
यहां होने वाली मौतें विभिन्न स्वास्थ्यगत कारणों से होती हैं. 55 दिन तक चलने वाली यह यात्रा 141 किमी लंबे पहाड़ी क्षेत्र में की जाती है. तीर्थयात्री सामान्यत: इसे पांच दिन में पूरी कर पाते हैं. यह गुफा लगभग 13 हजार फिट की ऊंचाई पर है. वर्ष 1996 में यहां अचानक मौसम में आए बदलाव से ठंड और बारिश से 250 तीर्थयात्रियों की जानें गई थीं, पर इस घटना से यात्रियों की संख्या में कमी नहीं आई है.
गत वर्ष वहां जाने वालों की कुल संख्या 6,22,000 थी और विभिन्न कारणों, जिनमें स्वास्थ्य से लेकर दुर्घटनाएं तक शामिल हैं, मरेवालों की संख्या 130 रही. यात्रियों की यह संख्या स्थिर होने का नाम नहीं ले रही है. इसी वर्ष 25 जुलाई तक अमरनाथ की यात्रा पर जाने वालों में बिना किसी दुर्घटना के 11 लोगों के मरने का समाचार है. ये मौतें विभिन्न स्वास्थ्यगत कारणों से हुईं. अभी यह आधी और होनी बाकी थी.
अमरनाथ जाने को स्पष्ट तौर पर कश्मीर के भारतीय, बल्कि कहना चाहिए हिंदू संबंधों और उसकी शक्ति के प्रदर्शन के रूप में भी समझा जाना चाहिए. साफ है कि यह प्रतीकात्मकता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.
इसी तरह की एक और यात्रा, जो उत्तर भारत में विशेषकर नजर आती है और दिल्ली व हरिद्वार के बीच यह इतने बड़े पैमाने पर निकलती है कि उस दौरान एक पखवाड़े तक दिल्ली से देहरादून का मार्ग ही बंद कर दिया जाता है. रेलों-बसों में उस दौरान जगह नहीं मिलती है. वह है कांवड यात्रा.
यह यात्रा शिवजी को गंगा जल चढ़ाने की है. छोटे रूप में भी यह यात्रा स्थानीय स्तर पर की जाती है, जैसे कि देवघर आदि में. पर मुख्य तौर पर यह हरिद्वार में केंद्रित रहती है. स्पष्ट तौर पर यह यात्रा भी बहुसंख्यक संप्रदाय की शक्ति की अभिव्यक्ति ही है और इसका भी सीधा लाभ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में होता है.
सत्य यह है कि इस कांवड़ यात्रा में भाजपा और आरएसएस ही सक्रिय नहीं रहते, बल्कि दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि आसपास के राज्यों की सरकारें कानून व्यवस्था की सीमा से आगे बढक़र इसके धार्मिक-सांप्रदायिक स्वरूप के साथ खुलेआम तालमेल बैठाने की कोशिश करती हैं. इस कोशिश में कांवडिय़ों को हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती हैं.
पर ऐसा भी नहीं है कि यह धार्मिकता सिर्फ उत्तर भारत में ही बढ़ी हो. दक्षिण में भी इसने खूब सर उठाया है. आंध्र में तिरुपति बाला जी, केरल में सबरीमाला और महाराष्ट्र में साईं बाबा (सिरडी) का उदय इसी क्रम में है.
यह कहना गैरजरूरी है कि दुर्गा पूजा से लेकर, गणेश पूजन तक के सारे सार्वजनिक धार्मिक अनुष्ठान और कार्यक्रम अपने सारे सेक्युलर और गैरसांप्रदायिक मंशाओं के बावजूद अंतत: संभावित सांप्रदायिकता के तत्व अपनी कोख में छिपाए होते हैं. इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण दुर्गा पूजा ही है, जो बंगाल में कम्युनिस्टों के सत्ता से बाहर हो जाने के साथ ही उनके हाथों से निकलकर सांप्रदायिक और असामाजिक हो गई है.
जहां तक महाराष्ट्र में गणेश पूजन का सवाल है शिवसेना और मनसे (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) ने उसे सांप्रदायिकता ही नहीं, बल्कि संकीर्ण क्षेत्रीयतावाद का भी माध्यम बनाया हुआ है. इसी तरह गुजरात में राजनीतिक दलों ने किसी भी धार्मिक अवसर के राजनीतिक इस्तेमाल का मौका हाथ से नहीं जाने दिया है. नवरात्रियों के दौरान होने वाले गरबों के नियंत्रण को लेकर चलने वाली रस्साकशी का संबंध इसी राजनीतिक लाभ से है.
इसी तरह का एक और आयोजन जगन्नाथ रथयात्रा है. इधर योजनाबद्ध तरीके से इस यात्रा को बढ़ाया गया है, विशेषकर गुजरात में. जगन्नाथ रथ मूलत: पुरी में ही निकलता था और उसी के लिए जाना जाता था, पर इसे गुजरात में पिछले तीन दशकों में खूब बढ़ावा मिला है. (प्रसंगवश, यहां याद किया जा सकता है कि इस रथयात्रा का इस्तेमाल भी पहिये के नीचे लेटकर आत्महत्या के लिए किया जाता था.)
इस वर्ष तो इसकी सुरक्षा के लिए गुजरात सरकार ने एक स्वचालित विमान भी लगाया था. इसमें राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल हुए. संदेश दोहरा था. पहला कि गुजरात को खतरा है बाहर की शक्तियों से. मसला सिर्फ कानून और व्यवस्था का नहीं है. दूसरा, गुजरात का शासन ऐसा समझदार है कि वह हिंदुओं की सुरक्षा की सबसे बेहतर और आधुनिक व्यवस्था कर रहा है.
साफ है कि सभी राजनीतिक पार्टियां आसानी से वोट बटोरने के किसी भी मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहतीं. पर वे यह भूल जाती हैं कि अंतत: सार्वजनिक और खुली धार्मिकता को किसी भी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष उत्साहवद्र्धन या उसका 'एंडोर्समेंट' (अनुमोदन) कुल मिलाकर सांप्रदायिकता को ही मजबूत करता है. जैसे कि लगभग इन सभी धार्मिक आयोजनों ने गुजरात में भाजपा को ही मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
असल में तीर्थयात्राओं का एक महत्वपूर्ण पक्ष व्यापारिक भी है. उदाहरण के लिए ज्यादातर बौद्ध स्मारक उन्हीं मार्गों में मिलते हैं जो मुख्यत: व्यापार मार्ग थे. हेमकुंड साहिब को जाने वाले रास्ते के मुख्य पड़ाव गोविंदघाट के एक व्यापारी का कहना था कि उसका सालाना व्यापार कुल 40 लाख का होता है (देखें: आउटलुक जुलाई, 13).
मजे की बात यह है कि यह यात्रा कुल मिलाकर छह महीने चलती है. आज भी उत्तराखंड सरकार इस कोशिश में है कि किसी तरह यात्रा शुरू हो जाए, क्योंकि इससे हजारों स्थानीय लोगों के रोजगार जुड़े हैं.
पिछले वर्षों में सरकारों ने धार्मिक यात्राओं का एक नया ही अध्याय शुरू किया है. समयांतर ने जून, 2012 में इस प्रवृत्ति को लेकर पूरा संपादकीय लिखा था. धार्मिक यात्राओं के लिए सरकारी सब्सिडी देने वालों में जो राज्य शामिल हैं उनमें मध्य प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु और अब राजस्थान भी है. गोकि यह मूलत: हिंदुओं के लिए है, पर इसमें संभवत: गुजरात को छोडक़र अन्य राज्यों में सभी धर्मों के लोगों को भी शामिल किया है.
जहां तक मुस्लिमों और ईसाईयों का सवाल है उनके मुख्य धार्मिक स्थल देश के बाहर हैं, इसलिए इसका कोई विशेष लाभ उन्हें नहीं होता. वैसे भी ईसाईयों की संख्या भी बहुत सीमित ही है. पर यह जरूर है कि इन धर्मावलंबियों के भी कई छोटे-मोटे तीर्थ भारत में भी हैं. इसके अलावा जो संप्रदाय इससे लाभान्वित हो पाता है वह है जैन.
गोकि इनकी संख्या बहुत सीमित है, पर इनके तीर्थ अवश्य देश में फैले हैं. कुछ राज्य तो जैसे कि गुजरात और तमिलनाडु मानसरोवर यात्रा के लिए भी अनुदान देती हैं. यह प्रवृत्ति भी मूलत: हिंदू सांप्रदायिकता को ही बढ़ावा देती है.
वैसे इसके लिए कांग्रेस सरकारों द्वारा गत वर्ष आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तक मुसलमानों को हज जाने के लिए केंद्रीय स्तर पर दिये जाने वाले अनुदान को तर्क का आधार बनाया जाता है. इसमें शक नहीं है कि इस कदम ने गैरकांग्रेसी राज्यों की सरकारों को बाकी संप्रदायों को तीर्थयात्राओं के लिए अनुदान देने का विचार दिया होगा.
पर चूंकि अब वह तर्क खत्म हो चुका है, राज्यों द्वारा तीर्थयात्राओं के लिए दिए जाने वाले अनुदानों को भी बंद किया जाना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय का जो तर्क हज के लिए अुनदान न दिए जाने के पक्ष में है, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है. न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि बेहतर हो कि सरकार इस पैसे को उस संप्रदाय में शिक्षा का विस्तार करने में लगाए.
यह बात जितनी हज यात्रा पर लागू होती है, उतनी ही हमारे उन राज्यों पर भी लागू होती है जिन्होंने तीर्थयात्राओं के लिए विभिन्न मतावलंबियों को अनुदान देना शुरू किया है. ध्यान देने की बात यह है कि गुजरात और मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां आज भी कुपोषण अपने चरम पर है.
क्या बेहतर यह नहीं होगा कि कुछ लोगों को मानसरोवर या पशुपतिनाथ या फिर बदरीनाथ जाने के लिए जनता का पैसा देने की जगह उसे समाज के वंचित तबकों को जीवन की न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध करवाने में इस्तेमाल हो. एक आधुनिक सेक्युलर राज्य का काम भी वास्तव में यही है. इस दुनिया में खाये-पीये लोगों के परलोक को भी सुरक्षित करना नहीं.
कुल मिलाकर धार्मिक संप्रदायों के उत्सवों और अवसरों का लाभ उठाने के प्रयत्नों ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का काम तो किया ही है, साथ में भारतीय संविधान के असांप्रदायिकता के सिद्धांत को भी पलीता लगाने में जबर्दस्त भूमिका निभाई है.
पर ऐसा भी नहीं है कि मसला सिर्फ सांप्रदायिक राजनीति से ही जुड़ा हो. आर्थिक नीतियों, सामाजिक व सांस्कृतिक परंपराओं और मूल्यों में आ रहे परिवर्तनों ने भी धार्मिकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने युवाओं के रोजगार के अवसरों को अनिश्चित कर उन्हें भाग्यवादी और धर्मभीरू बनाया है.
यह किसी से छिपा नहीं है कि निजी क्षेत्र में आज एक भी नौकरी सुरक्षित नहीं है. सरकार द्वारा कल्याणकारी कामों से लगातार हाथ खींचने से शिक्षा, बीमारी, वृद्धावस्था आदि जैसी समस्याओं की अनिश्चितता बढ़ाकर उन्हें भाग्य के हवाले करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
इसलिए यह अचानक नहीं है कि जब विकसित देशों में युवाओं में धार्मिकता और अंधविश्वास घट रहे हैं, हमारे समाजों में वह और मजबूत होते नजर आ रहे हैं. इस सबके बावजूद जरूरी है कि इसके खिलाफ लड़ाई जारी रहे, क्योंकि एक मामले में नवउदारवाद और पूंजीवाद से लडऩे की भी यह एक राह है.
(समयांतर से साभार)
पंकज बिष्ट वरिष्ठ कथाकार और समयांतर के संपादक हैं.
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