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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, February 12, 2014

ट्रेवॉन मार्टिन और अमेरिकी नस्‍लवाद Author: भारत भूषण तिवारी Edition : August 2013


Trayvon Martinवर्ष 2008 में बराक ओबामा का यूएसए (अमेरिका) का राष्ट्रपति चुना जाना निश्चित ही एक ऐतिहासिक क्षण था। 20 जनवरी 2009 को ओबामा के शपथ ग्रहण समारोह का सीधा प्रसारण इन पंक्तियों के लेखक ने अमेरिका के सुदूर उत्तर-पूर्वी राज्य मेन के एक शहर में बहुत सारे गोरों के साथ मिलकर देखा था और सबने ओबामा के सम्मान में खड़े होकर तालियां बजाई थीं। गौरतलब है कि मेन की जनसंख्या में कालों का प्रतिशत पूरे देश (लगभग साढ़े बारह फीसदी) की बनिस्बत बेहद (एक फीसदी से भी कम) कम है। इस राज्य के बारे में मशहूर अमेरिकी लेखिका बारबरा एरेनराइक की मजेदार टिप्पणी है- 'व्हेन यू गिव व्हाईट पीपल अ होल स्टेट टू देम्सेल्व्स, दे ट्रीट ईच अदर रिअल नाइस। ' (हे ईश्वर श्वेतों को अपने लिए एक पूरा राज्य तू कब देगा, कि वे एक दूसरे से शालीन व्यवहार कर सकें। ) हां, 'रेशियल डाइवर्सिटी' (नस्ली विविधता) की नीति के तहत कुछ सोमालियाई शरणार्थियों को वहां बसाने के प्रयास सरकार ने जरूर किए हैं। तो इसके बाद सारे 'रिअल नाइस' लोगों ने मान लिया गया था कि अमेरिकी समाज अब एक 'पोस्ट-रेशियल' (नस्लवादेत्तर) समाज बन गया है।

इस 'पोस्ट-रेशियल' समाज की असलियत तो विभिन्न आंकड़ों से जब-तब सामने आती रहती है – चाहे वह अमेरिकी जेलों में बंदियों की संख्या में, गण पर लिए घरों की कुर्की (फोरक्लोजर) की संख्या में, पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या में या हालिया महामंदी में अपना रोजगार खो चुके लोगों की तादाद में कालों के अत्यधिक अनुपात की बात हो या पारिवारिक आय या संपत्ति में कालों और गोरों के बीच के बड़े फासले का मामला हो। वैसे दबी जबान में इन बातों के लिए कालों की अंतर्जात/अनुवांशिक अक्षमता को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है। मगर हमारी 'पुण्यभूमि' में तो हमारे अपने सामाजिक डार्विनवादी दबी जबान में नहीं, बल्कि गला फाड़-फाड़कर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को खारिज करते हैं या दलितों, मुसलमानों और हाशिए पर पड़े अन्य समूहों की अंतर्जात/अनुवांशिक अक्षमता की बात करते हैं।

जिस तरह फिरकापरस्त समूह हमारे देश में 'मुसलमानों की आबादी के बेहिसाब बढऩे' और 'एक दिन उनकी संख्या हिंदुओं से अधिक हो जाने' का काल्पनिक भय लंबे समय से दिखाते आ रहे हैं, कुछ उसी प्रकार का डर अमेरिका की बहुसंख्यक श्वेत आबादी के मन में भी बिठाया गया है। अमेरिकी लेखक एक्टिविस्ट रैंडी शॉ के अनुसार यह डर ओबामा के राष्ट्रपति निर्वाचित होने और पुनर्निर्वाचित होने के बाद कुछ और बढ़ गया प्रतीत होता है- बंदूकों की बिक्री बढ़ गई है और रिपब्लिकन नेता खुलेआम कह रहे हैं कि लैटिनो आबादी अमेरिकी मूल्यों के लिए खतरा है। 'वहां' और 'यहां' में समानताएं और भी हैं, जैसे 'रेशियल प्रोफाइलिंग' अर्थात सुरक्षा/कानूनी एजेंसियों द्वारा किसी व्यक्ति को उसके धर्म/जाति/नस्ल के आधार पर शक के घेरे में लाना, गैरकानूनी ढंग से गिरफ्तार करना, प्रताडि़त करना इत्यादि।

26 फरवरी 2012 की शाम को फ्लोरिडा राज्य के सैनफोर्ड शहर में ट्रेवॉन मार्टिन नामक 17 वर्षीय अफ्रीकी-अमेरिकी किशोरवयीन लड़का इस रेशियल प्रोफाइलिंग का शिकार बना, जब जॉर्ज जिमरमन नामक व्यक्ति ने अपनी निजी बंदूक से उस पर गोली चला दी। ट्रेवॉन मार्टिन जिस गेटेड कम्युनिटी (वह रिहाइशी कालोनी जहां बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित हो) में अपने पिता से मिलने आया था, जॉर्ज जिमरमन वहां 'नेबरहुड वॉच' (रिहाइशी इलाकों की चौकसी करने वाला नागरिकों एक संगठित समूह) का समन्वयक था। ट्रेवॉन के बस्ते से मारिउआना बरामद होने पर उसे स्कूल से निलंबित किया जा चुका था, मगर आमतौर पर उसे एक शांत स्वभाव वाला लड़का बताया जाता है जो कभी किसी प्रकार की हिंसक घटना में लिप्त नहीं रहा और उस रात भी वह निहत्था था। हूडी (पीछे टोपी लगी हुई कमीज या जैकेट) पहने हुए एक काले टीनएजर को देखकर जिमरमन ने पुलिस को फोन कर संदिग्ध व्यक्ति देखे जाने की सूचना दी। प्रेस की रिपोर्टों के अनुसार हाल में जिमरमन ने जितने भी फोन पुलिस को किए थे, वे सब उस रिहाइशी इलाके में घूमते पाए गए काले लोगों की 'संदिग्ध व्यक्ति' के तौर पर सूचना देने की खातिर किए थे। उस शाम फोन करने पर पुलिस ने उसे 'संदिग्ध व्यक्ति' का पीछा न करने की हिदायत दी, जो जिमरमन ने नहीं मानी। जिमरमन का कहना है कि ट्रेवॉन ने उस पर हमला किया, दोनों में संघर्ष हुआ और जिमरमन की गन छीनने की कोशिश में ट्रेवॉन को गोली लग गई। अपना पक्ष रखने के लिए ट्रेवॉन मार्टिन जीवित नहीं है, मगर जिमरमन की कहानी अविश्वसनीय लगती है। वहीं मुकदमे में गवाही देने वाली ट्रेवॉन की एक दोस्त के अनुसार ट्रेवॉन ने फोन पर उसे बताया था कि उसका पीछा किया जा रहा है। सच्चाई जो भी हो, मगर इन तथ्यों से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिमरमन पुलिस की हिदायत के खिलाफ जाकर ट्रेवॉन का पीछा कर रहा था। जिमरमन के पास हथियार था और ट्रेवॉन निहत्था था और जिमरमन का हिंसक अतीत है, जो ट्रेवॉन का नहीं था।

George_Zimmerman_front_of_headघटना की रात गिरफ्तार किए जाने के बाद जिमरमन से पूछताछ की गई और फिर उसे छोड़ दिया गया। सैनफोर्ड के पुलिस चीफ का कहना था कि सुबूतों के अभाव के कारण उन्हें ऐसा करना पड़ा और फ्लोरिडा और अन्य राज्यों के कुख्यात 'स्टैंड योर ग्राउंड' कानून के अनुसार उसे आत्मरक्षा के लिए किसी पर जानलेवा प्रहार करने का हक था। इसका देशभर में विरोध होना शुरू हुआ और लोग सड़कों पर उतर आए। ड्रीम डिफेंडर्स नामक युवाओं के एक समूह ने ट्रेवॉन के लिए इंसाफ की मांग उठाते हुए डेटोना शहर से सैनफोर्ड शहर तक चालीस मील लंबा मार्च किया और पुलिस स्टेशन के सामने पहुंच कर धरना दिया। आखिऱकार छह हफ्तों बाद स्थानीय पुलिस ने जिमरमन पर सेकंड डिग्री मर्डर (गैर-इरादतन हत्या) का गुनाह दर्ज किया। यहां महाराष्ट्र का खैरलांजी बरबस याद आ जाता है, जब 2006 में हुए इस नृशंस हत्याकांड को रफा-दफा करने की कोशिशों के खिलाफ दलित जनता को सड़कों पर उतरना पड़ा था।

यूएसए की न्याय-व्यवस्था में निहित नस्ली पूर्वाग्रह फिर एक बार सामने आ गया, जब मुकदमे में 13 जुलाई, 2013 को छह व्यक्तियों (जिनमें पांच श्वेत महिलाएं थीं और एक लैटिनो महिला थी) की जूरी ने जिमरमन को निर्दोष करार दे दिया। इस पूरे मुकदमे में इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि यहां नस्ल को मुद्दा नहीं बनाया जाए। ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहां दलितों के खिलाफ होने वाली हिंसा की घटनाओं के जातीय पहलू को दबाने की भरसक कोशिशें की जाती है। मामला दर्ज हो भी जाए, तो दलित उत्पीडऩ निरोधक कानून के प्रावधानों को दूर रखकर उसे आम फौजदारी मामला बताया जाता है या इस एक्ट के प्रावधान लागू कर भी दिए गए तो कुछ समय बाद हटा दिए जाते हैं। 'पोस्ट-रेशियल' समाज और 'पोस्ट-एट्रोसिटी' समाज नस्ल/जाति को मुद्दा न बनने देने में बिल्कुल एक जैसी बेशर्मी दिखाते हैं।

इस मुकदमे के फैसले के खिलाफ न्यूयॉर्क, लॉस एंजिलिस, शिकागो, अटलांटा, डिट्रॉइट और अन्य कई शहरों में भारी प्रदर्शन हुए। अमेरिका के अग्रणी नागरिक अधिकार संगठन एनएएसीपी (नेशनल असोसिएशन फॉर अडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपल) ने डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस से मांग की है कि जॉर्ज जिमरमन के खिलाफ ट्रेवॉन मार्टिन के नागरिक अधिकारों के हनन का मामला दर्ज किया जाए। इस मांग को लेकर चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान में अब तक पंद्रह लाख से भी ज्यादा लोग दस्तखत कर चुके हैं।

दिलचस्प बात यह है कि स्वयं जिमरमन की वल्दियत विशुद्ध 'एंग्लो-सैक्सन' नहीं है, जबकि उसे देखने से यह बात समझ में नहीं आती। मगर जैसे ब्राह्मणवादी होने के लिए ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है, वैसे ही नस्लवादी होने के लिए 'प्योर व्हाईट ब्लड' की आवश्यकता नहीं। मिसाल के तौर पर यूएसए में रहने वाले अधिकांश भारतीय (या दक्षिण एशियाई) लोग अफ्रीकी-अमेरिकियों को लेकर खासे पूर्वाग्रहग्रस्त रहते हैं और आपसी बातचीत में उनके लिए 'कल्लू', 'जामुन' या 'श्यामलाल' जैसे अनादरपूर्ण विशेषणों का प्रयोग करते हैं। वहां हम जैसे 'ब्राउन' लोग नस्लवाद की दुहाई तभी देते हैं, जब वैसा व्यवहार हमारे साथ होता है – अपने देश की जाति-व्यवस्था के अनुरूप परदेस में हम 'ब्राउनों' ने अपने-आपको सामाजिक सोपानक्रम में 'व्हाइट्स' से नीचे और 'ब्लैक्स' से ऊपर मान लिया है।

विकट संयोग है कि इसी महीने (अगस्त) की 28 वीं तारीख को डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के ऐतिहासिक भाषण 'आइ हैव ए ड्रीम' (मेरा सपना) के पचास साल पूरे होने वाले हैं। पिछली सदी में यूएसए के नागरिक अधिकार आंदोलन का यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षण था, जिसमें डॉ. किंग ने नस्लवाद खत्म करने का आवाहन किया था। उसके बाद की आधी सदी में यूएसए में कालों के लिए बहुत कुछ बदला है, मगर काफी कुछ ऐसा है जिसे बदला जाना शेष है। ट्रेवॉन मार्टिन का मामला यही दर्शाता है कि नागरिक अधिकारों का और सामाजिक न्याय का संघर्ष अभी पूरा नहीं हुआ है।

http://www.samayantar.com/trayvon-martin-and-american-racism/

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