आंकड़ों में अमीरी जमीन पर गरीबी
Author: अशोक कुमार पाण्डेय Edition : September 2013
भारत में गरीबी की बहस नई नहीं है। आजादी के पहले और बाद में भी लगातार गरीबी बहस के केंद्र में रही है। आरंभिक दौर में आजाद भारत की सरकारों ने गरीबी उन्मूलन को हमेशा ही अपने वरीयता वाले लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत तो किया, लेकिन 'गरीबी हटाओ' जैसे नारे के बावजूद यह बदस्तूर जारी रही। 1957 में इंडियन लेबर कॉन्फ्रेंस में गरीबी को परिभाषित करने की जो कोशिश की गई, उसमें शुरू से ही दो तरह की दृष्टियों का टकराव रहा। पहला समूह वह जो गरीबी की परिभाषा को इस तरह निर्धारित करना चाहता था जिससे कि इस रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या कम से कम दिखाई दे। इस सोच के तहत पेट भरा होना गरीब न होने के लिए पर्याप्त माना गया। इस कॉन्फ्रेंस के बाद योजना आयोग ने एक वर्किंग ग्रुप बनाया था, जिसने भारत के लिए 'आवश्यक कैलोरी उपभोग' की अवधारणा पर आधारित गरीबी रेखा का प्रस्ताव किया। इसके तहत उस समय बीस रुपए प्रतिमाह को विभाजक रेखा के रूप में स्वीकृत किया गया।
वर्ष 1979 में योजना आयोग ने ही गरीबी को पुनर्परिभाषित करने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन किया। लेकिन इसने भी मामूली फेरबदल के साथ मूलत: 'आवश्यक कैलोरी उपभोग' की अवधारणा को ही आधार बनाया। 1973 की कीमतों को आधार बनाते हुए इसने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 49 रुपए प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह तथा शहरी क्षेत्रों के लिए 57 रुपए की विभाजक रेखा तय की। मुद्रास्फीति के अनुसार इसमें समय-समय पर समायोजन किया गया और वर्तमान में यह शहरी क्षेत्रों के लिए 559 रुपए और गांवों के लिए 368 रुपए है। योजना आयोग गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर एनएसएसओ (नेशनल सेंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन) के उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों के आधार पर विभाजक रेखा तय करता है। 2004-2005 के लिए प्रोफेसर लकड़वाला की अध्यक्षता में 1997 में बने एक्सपर्ट ग्रुप द्वारा की गई अनुशंसा के आधार पर जो आंकड़े निकाले गए थे, उनके अनुसार देश में उस समय गरीबों की कुल संख्या 28.3 प्रतिशत थी।
'सेंटर फॉर पॉलिसी आल्टरनेटिव' की एक रिपोर्ट में मोहन गुरुस्वामी और रोनाल्ड जोसेफ अब्राहम इस गरीबी रेखा को 'भुखमरी रेखा' कहते हैं। कारण साफ है। इसके निर्धारण का इकलौता आधार आवश्यक कैलोरी उपभोग है। यानि इसके अनुसार वह आदमी गरीब नहीं है, जो येन केन प्रकारेण दो जून अपना पेट भर ले और अगले दिन काम करने के लिए जिंदा रहे। यूनिसेफ स्वस्थ शरीर के लिए प्रोटीन, वसा, लवण, लौह और विटामिन जैसे तमाम अन्य तत्वों को जरूरी बताता है, जिसके अभाव में मनुष्य कुपोषित रह जाता है तथा उसकी बौद्धिक व शारीरिक क्षमताएं प्रभावित होती हैं। लेकिन गरीबी रेखा तो केवल जिंदा रहने के लिए जरूरी भोजन से आगे नहीं बढ़ती। इसके अलावा शायद व्यवस्था यह मानकर चलती है कि आबादी के इस हिस्से का स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन, घर, साफ पानी, सैनिटेशन जैसी तमाम मूलभूत सुविधाओं पर तो कोई हक है ही नहीं।
वैसे तो जिस 'आवश्यक कैलोरी उपभोग' की बात की जाती है (शहरों में 2, 100 तथा गांवों में 2, 400 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन) वह भी दिनभर शारीरिक श्रम करने वालों के लिहाज से अपर्याप्त है। 'इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च' के अनुसार भारी काम में लगे हुए पुरुषों को 3, 800 कैलोरी तथा महिलाओं को प्रतिदिन 2, 925 कैलोरी की आवश्यकता है। यही नहीं, अनाजों की कीमतों में तुलनात्मक वृद्धि व उपलब्धता में कमी, स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसे क्षेत्रों में सरकार की घटती भागीदारी, विस्थापन तथा तमाम ऐसी ही दूसरी परिघटनाओं की रोशनी में यह रेखा आर्थिक स्थिति के आधार पर समाज को जिन दो हिस्सों में बांटती है, उसमें ऊपरी हिस्से के निचले आधारों में एक बहुत बड़ी आबादी भयावह गरीबी और वंचना का जीवन जीने के लिए मजबूर है और तमाम सरकारी योजनाएं उसको लाभार्थियों की श्रेणी से उसके आधिकारिक तौर पर गरीब न होने के कारण बाहर कर देती हैं।
इसी वजह से भारत सरकार के गरीबी के आधिकारिक आंकड़े हमेशा से विवाद में रहे हैं। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय तथा दूसरी स्वतंत्र संस्थाओं के अध्ययनों में देश में वास्तविक गरीबों की संख्या के आंकड़े सरकारी आंकड़ों से कहीं ज्यादा रहे हैं। विश्व बैंक की 'ग्लोबल इकोनॉमिक प्रास्पेक्ट्स फॉर 2009′ नाम से जारी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2015 में भारत की एक तिहाई आबादी बेहद गरीबी (1.25 डॉलर यानि लगभग 60 रुपए प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति से भी कम आय) में गुजारा कर रही होगी। इस रिपोर्ट के अनुसार यह स्थिति सब-सहारा देशों को छोड़कर पूरी दुनिया में सबसे बद्तर होगी। यही नहीं, यह रिपोर्ट भारत की तुलनात्मक स्थिति के लगातार बद्तर होते जाने की ओर भी इशारा करती है। इसके अनुसार जहां 1990 में भारत की स्थिति चीन से बेहतर थी, वहीं 2005 में जहां चीन में गरीबों का प्रतिशत 15.9 रह गया, भारत में यह 41.6 था।
इन्हीं विसंगतियों के मद्देनजर पिछले दिनों सरकार ने गरीबी रेखा के पुनर्निर्धारण के लिए जो नयी कवायदें शुरू की थीं, उन्होंने इस जिन्न को एक बार फिर से बोतल से बाहर निकाल दिया था। सबसे पहले आई असंगठित क्षेत्र के उद्यमों के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग (अर्जुन सेनगुप्ता समिति) की रिपोर्ट ने देश में तहलका ही मचा दिया था। इसके अनुसार देश की 77 फीसदी आबादी 20 रुपए रोज से कम में गुजारा करती है। दो अंकों वाली संवृद्धि दर और शाइनिंग इंडिया के दौर में यह आंकड़ा सच्चाई के घिनौने चेहरे से नकाब खींचकर उतार देने वाला था। समिति ने असंगठित क्षेत्र के लिए दी जाने वाली सुविधाएं इस आबादी तक पहुंचाने की सिफारिश की थी। लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं हुई। भारत सरकार द्वारा गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए मानक तैयार करने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय के पूर्व सचिव एनके सक्सेना की अध्यक्षता में जो समिति बनाई थी, उसके आंकड़े और भी चौंकाने वाले थे।
इस समिति ने अगस्त, 2009 में पेश अपनी रिपोर्ट में गरीबी रेखा से ऊपर रहने वालों के विभाजन के लिए पांच मानक सुझाए। जिसमें शहरी क्षेत्रों में न्यूनतम 1000 रुपए तथा ग्रामीण क्षेत्रों में न्यूनतम 700 रुपयों का उपभोग या पक्के घर या दो पहिया वाहन या मशीनीकृत कृषि उपकरणों जैसे ट्रैक्टर या जिले की औसत प्रतिव्यक्ति भू संपति का स्वामित्व। इस आधार पर गरीबी रेखा का निर्धारण किए जाने पर समिति ने पाया कि भारत की ग्रामीण जनसंख्या का कम से कम पचास फीसदी इसके नीचे जीवन यापन कर रहा है। सक्सेना समिति ने खाद्य मंत्रालय के आंकड़ों का भी जिक्र किया है, जिसके अनुसार गांवों में 10.5 करोड़ बीपीएल राशन कार्ड हैं। अगर इसी को आधार बनाया जाए तो भी गांवों में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों की संख्या लगभग 53 करोड़ ठहरती है, जो कुल आबादी का लगभग पचास फीसदी है।
समिति का यह भी मानना था कि जहां आधिकारिक तौर पर 1973-74 से 2004-05 के बीच गरीबी 56 प्रतिशत से घटकर 28 प्रतिशत हो गई, वहीं गरीबों की वास्तविक संख्या में कोई कमी नहीं आयी। अपने निष्कर्ष में वह कहते हैं कि 'गरीब परिवारों की एक बहुत बड़ी संख्या गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों से बहिष्कृत रही है और ये निश्चित रूप से सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले बेजुबान लोग ही होंगे।' लेकिन सरकार ने इस समिति की अनुशंसाओं को लागू करने से साफ इंकार कर दिया। योजना आयोग द्वारा समिति को लिखे गए पत्र का जिक्र पहले ही किया जा चुका है। ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि 'सक्सेना समिति को गरीबों की गणना करने के लिए नहीं, सिर्फ गरीबों की पहचान करने के लिए नयी प्रणाली विकसित करने के लिए कहा गया था।'
इस दौरान योजना आयोग के एक सदस्य अभिजीत सेन ने तर्क दिया था कि गरीबों की गणना आवश्यक कैलोरी उपभोग की जगह आय के आधार की जानी जानी चाहिए। उनका यह भी मानना था कि मौजूदा मानकों के आधार पर गणना से शहरी क्षेत्रों में गरीबों की वास्तविक संख्या 64 फीसदी तथा गांवों में अस्सी फीसदी है।
इस संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के तत्कालीन अध्यक्ष सुरेश तेंदुलकर समिति को गरीबों की संख्या की गणना की जिम्मेदारी दी गई थी। इस आयोग की रिपोर्ट एक तरफ आवश्यक कैलोरी उपभोग वाली परिभाषा से आगे बढऩे की कोशिश करती है, तो दूसरी तरफ आंकड़ों में गरीबी कम रखने का दबाव भी इस पर साफ था।
तेंदुलकर समिति के अनुसार 2004-05 में भारत की कुल आबादी का 37.2 फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे था। यह आंकड़ा योजना आयोग के 27.5 फीसदी से तो अधिक है, लेकिन अभिजीत सेन कमेटी या ऐसे अन्य अध्ययनों के निष्कर्षों से कम। हालांकि योजना आयोग से इसकी सीधी तुलना मानकों के परिवर्तन के कारण संभव नहीं है। आयोग के अनुसार बिहार तथा ओडिशा में ग्रामीण गरीबी का प्रतिशत क्रमश: 55.7 तथा 60.8 था। उल्लेखनीय है कि सेन कमेटी के अनुसार इन दोनों प्रदेशों में ग्रामीण गरीबी का प्रतिशत 80 से अधिक था।
आयोग ने ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी निर्धारण के लिए सीमारेखा 356.30 से बढ़ाकर 444.68 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 538.60 रुपए से बढ़ाकर 578.80 की है। इस आधार पर दैनिक उपभोग की राशि शहरों में लगभग 19 रुपए और गांवों में लगभग 15 रुपए ठहरती है, जो विश्व बैंक द्वारा तय की गई अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा (20 रुपए) से कम है। समिति ने आवश्यक कैलोरी वाले मानक को पूरी तरह समाप्त कर दिया था। इसकी जगह पर समिति का जोर शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य क्षेत्रों में होने वाले खर्चों को भोजन के साथ समायोजित कर ग्रामीण तथा शहरी विभाजन को समाप्त कर क्रय शक्ति समानता पर आधारित एक अखिल भारतीय गरीबी रेखा के निर्धारण पर रहा।
यह अवधारणा के रूप में 1973-74 वाले मानकों से निश्चित रूप से बेहतर थी, जो शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी तमाम जरूरतों को सरकार द्वारा मुफ्त उपलब्ध कराये जाने की मान्यता पर आधारित थे। लेकिन आवश्यक कैलोरी उपभोग वाली अवधारणा को पूरी तरह से खत्म किया जाना, खासतौर से तब जबकि उसी दौर में अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान के अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक में भारत को 66 वें पायदान पर रखा गया है और खाद्यान्न संकट, खाद्यान्नों की कीमतों में अभूतपूर्व तेजी तथा कुपोषण की समस्या लगातार गहराती गई है, इसकी नीयत पर सवाल उठाता ही है। इस दौर में पेश की गई इस अवधारणा का अर्थ होगा कि गरीबी रेखा से वास्तविक गरीबों का बहुलांश बाहर रह जाएगा।
यहां पर यह भी बता देना आवश्यक है कि कई हालिया अध्ययन बताते हैं कि सबसे गरीब दस फीसदी लोगों का कैलोरी उपभोग सबसे अमीर दस फीसदी लोगों के कैलोरी उपभोग से कम है, जबकि यह सर्वज्ञात तथ्य है कि जहां अमीर आदमी तमाम दूसरी पोषक चीजों का उपभोग करता है, वहीं गरीबों का वह तबका अपनी लगभग पूरी आय भोजन पर ही खर्च करता है। दरअसल मानकों के न्यायपूर्ण निर्धारण के लिए जहां एक तरफ आवश्यक कैलोरी उपभोग की अवधारणा को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की पूर्व में उद्धृत अनुशंसा के आधार पर और ऊंचे स्तर पर ले जाते हुए इसमें पोषण के लिए आवश्यक अन्य तत्वों के साथ समायोजित किया जाना चाहिए था और इसके साथ एक सम्मानजनक जीवन स्तर के लिए आवश्यक शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, घर, पीने का साफ पानी, सैनिटेशन जैसी तमाम चीजों से जोड़कर देखा जाना चाहिए था। इस संदर्भ में सेंटर फॉर आल्टरनेटिव पॉलिसी रिसर्च की मूलभूत आवश्यकताओं की कीमत पर आधारित गरीबी की विभाजक रेखा ज्यादा न्यायपूर्ण लगती है, जिसमें 2004-2005 के लिए अखिल भारतीय स्तर पर 840 रुपए प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह का निर्धारण किया गया है। इसके साथ ही एनके सक्सेना द्वारा सुझाये गए मानक भी सच के ज्यादा करीब हैं।
साथ ही तेंदुलकर समिति गरीबी निर्धारण के आधारों में विस्तार के दावे के बावजूद गरीबी की बहुआयामी प्रकृति के बारे में कोई पहल नहीं करती। पहले की तमाम रिपोर्टों की तरह यह भी गरीबी को महज आर्थिक समस्या की तरह निरूपित करती है। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों को समझे बिना इसे जड़मूल से समाप्त किया ही नहीं जा सकता। जाति, लिंग, शारीरिक अक्षमता, क्षेत्रीय असंतुलन जैसे तमाम कारक भारत में गरीबी को निर्धारित करते हैं, लेकिन इसके बावजूद तेंदुलकर समिति द्वारा दी गई परिभाषा का उपयोग करने से गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या 27.5 प्रतिशत से बढ़कर 37.2 प्रतिशत हो गई थी।
अभी हाल में नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के प्राविजनल इस्टीमेट के सामने आने और उसमें गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में कमी के दावे से यह बहस पुनर्जीवित हो गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार 2004-2005 की तुलना में ग्रामीण इलाकों में गरीबी आठ प्रतिशत कम होकर 41.8 प्रतिशत से 33.8 प्रतिशत हो गई, जबकि शहरी इलाकों में गरीबी में 4.8 प्रतिशत की कमी आई है और यह 25.7 प्रतिशत से घटकर 20.9 प्रतिशत हो गई है। अगर कुल संख्या देखें तो इन आंकड़ों के अनुसार 2004-05 के 40.72 करोड़ लोगों की तुलना में अब गरीबों की कुल संख्या 35.46 करोड़ है, जिसमें से गांवों में 27.82 करोड़ तथा शहरों में 7.64 करोड़ लोग गरीब हैं।
जाहिर है ये आंकड़े हालिया स्थिति को देखते हुए चौंकाने वाले हैं। विरोधाभास को लेकर पहला सवाल तो खुद एनएसएसओ के इसके तुरंत बाद जारी बेरोजगारी के आंकड़ों से ही उठ खड़ा हुआ। इन आंकड़ों के अनुसार 2004-2005 से 2009-2010 के बीच देश में रोजगार के अवसरों में 4.6 करोड़ की कमी आई है। पिछले आर्थिक सर्वेक्षणों में इसकी स्पष्ट पदचाप सुनाई पड़ रही थी। उत्पादन के हर क्षेत्र में विकास दरों में भारी कमी, रोजगार के घटते अवसर, मंदी का मुसलसल असर और ऐसे तमाम दूसरे नकारात्मक कारकों के बीच गरीबी के आंकड़ों में कमी कैसे संभव है, यह देशभर के सामने एक गंभीर बहस का सवाल बना हुआ है।
सबसे पहला सवाल तो गरीबी के निर्धारण से ही जुड़ा हुआ है। इन इस्टीमेट्स में राष्ट्रीय स्तर पर 22.42 रुपए प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति की आय को ग्रामीण इलाकों के लिए और 28.35 रुपए आय को शहरी इलाकों के लिए गरीबी रेखा के निर्धारक के रूप में लिया गया है। साथ ही इसके लिए जिस आधार वर्ष का चुनाव किया गया है, वह 2010 का वर्ष कृषि के लिए एक भयावह वर्ष था। सूखे के कारण कृषि उत्पादन के निचले स्तरों वाले इस वर्ष से तुलना करने पर ऊंचे सूचकांक मिलना स्वाभाविक है। जाहिर है ये सूचकांक विश्वसनीय नहीं हो सकते। यही वजह है कि उपभोग खर्च में इन आंकड़ों के अनुसार हुई वृद्धि 2004-05 और 2009-10 में हुए बड़े सैंपल आधारित सर्वे के बीच आई वृद्धि की तुलना में ज्यादा है। जहां 2004-05 और 2009-10 के बीच वृद्धि दो प्रतिशत से भी कम रही, वहीं 2009-10 और 2011-12 के बीच उपभोग खर्चों में ये आंकड़े 9 प्रतिशत की वृद्धि दिखा रहे हैं। चुनावी वर्ष होने के कारण इन आंकड़ों के प्रति दोनों पक्षों का उत्साह समझा जा सकता है, लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अभी जो प्राविजनल इस्टीमेट आए हैं, वे केवल केंद्रीय सैंपल के सर्वे से प्राप्त आंकड़ों के उपयोग से प्राप्त हुए हैं। राज्यों के सैंपल आंकड़ों के उपयोग के बाद आने वाले अंतिम निष्कर्ष इससे भिन्न हो सकते हैं। इसीलिए अंतिम रिपोर्ट के आ जाने के बाद ही कोई मुकम्मल टिप्पणी संभव हो सकती है।
इसके बावजूद इन आंकड़ों से कई ऐसे निष्कर्ष दिखाई देते हैं, जो भूमंडलीकरण के बाद के वर्षों में लगातार बढ़ रही नकारात्मक प्रवृतियों की ओर स्पष्ट इशारा कर रहे हैं। पहला तथ्य है शहरी और ग्रामीण इलाकों के उपभोक्ता व्यय के बीच खाई में निरंतर वृद्धि। 2004-2005 में गांवों के उपभोक्ता व्यय की तुलना में शहरों का उपभोक्ता व्यय 88 प्रतिशत कम था। हालिया सर्वे बताता है कि 2009-2010 में शहरों का उपभोक्ता व्यय गांवों के उपभोक्ता व्यय की तुलना में 92 प्रतिशत अधिक हो गया। शहरों और गांवों दोनों में सबसे निचले पायदान के दस फीसदी लोगों के उपभोक्ता व्यय में वृद्धि की तुलना में सबसे ऊपर स्थित दस फीसदी लोगों के उपभोक्ता व्यय में वृद्धि काफी अधिक रही। हम जानते हैं कि गरीब तबका अपनी आय का सबसे बड़ा हिस्सा भोजन के मद में खर्च करता है, जबकि सबसे रईस तबका विलासिता की चीजों में।
इसका मतलब साफ है कि जहां गरीब व्यक्ति के भोजन के खर्चों में वृद्धि कम हो पा रही है, वहीं सबसे अमीर लोगों की विलासिता में खर्च करने की क्षमता बढ़ती जा रही है। यहां तक कि गांवों के सबसे अमीर दस फीसद लोगों का उपभोक्ता व्यय भी शहर के सबसे अमीर दस फीसद लोगों की तुलना में 45 प्रतिशत कम पाया गया है। गांवों में सबसे गरीब दस प्रतिशत लोगों का प्रति व्यक्ति प्रतिदिन का खर्च लगभग 16 रुपए पाया गया है, वहीं शहर में यह आंकड़ा 26 रुपए का है। ग्रामीण क्षेत्र आय, उपभोग तथा रोजगार, सभी मामलों में शहरों से बहुत ज्यादा पीछे रह गए हैं और सरकार की तमाम नीतियों की घोषणाओं के बावजूद यह अंतर लगातार और अधिक बढ़ता चला जा रहा है।
इसी तरह इन आंकड़ों के अनुसार तेंदुलकर समिति द्वारा बनाई गई गरीबी रेखा के नीचे अब भी देश का एक चौथाई हिस्सा निवास करता है। जाहिर है कि देश के भीतर गैरबराबरी लगातार बढ़ रही है। अगर इसे लगातार घटती जा रही विकास दरों के साथ जोड़कर देखें, तो स्थिति भयावह नजर आती है।
यही नहीं, अगर सामाजिक समुदायों को अलग-अलग करके देखें, तो ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में अनुसूचित जातियों- जनजातियों तथा पिछड़े समुदायों के बीच गरीबी का प्रतिशत सबसे ज्यादा है। गांवों में अनुसूचित जनजाति के 47.4 प्रतिशत लोग, अनुसूचित जाति के 42.3 प्रतिशत लोग और पिछड़ी जातियों के 31.9 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। जबकि शहरों में इन समुदायों के गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या क्रमश: 30.4 प्रतिशत, 34.1 प्रतिशत तथा 31.9 प्रतिशत है। ग्रामीण बिहार तथा छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जातियों-जनजातियों के दो तिहाई लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। जबकि मणिपुर, ओडिशा तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह संख्या पचास फीसदी से भी ज्यादा है।
खाद्य सुरक्षा बिल के जरिए गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने के दावे कर रही सरकार के सामने ये आंकड़े अजीब सी उलझन लेकर आए हैं। सुप्रीम कोर्ट में जब हलफनामा देकर योजना आयोग ने शहरी और ग्रामीण गरीबी के लिए अपने मानक प्रस्तुत किए थे, तब देशभर में उसके खिलाफ आवाजें उठी थीं। अब जब उन्हीं मानकों पर गरीबी कम होने के दावे किए जा रहे हैं, तो ये सवाल फिर से उठाने लाजिमह हैं। आंकड़ों के आने के बाद कुछ लोगों द्वारा जिस तरह 12, 10 या 1 रुपए में पेटभर खाना उपलब्ध होने की बात की गई, वह सत्ता वर्ग की अमानवीयता तथा संवेदनहीनता प्रदर्शित करता है। इन बयानों ने जनता का गुस्सा और बढ़ा दिया।
सवाल यह भी है कि आजादी के साठ साल बाद भी आबादी का इतना बड़ा हिस्सा सिर्फ 'पेट भरने' तक महदूद है, उसे शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने के साफ पानी, छत, सुरक्षा और मनोरंजन जैसा कुछ उपलब्ध नहीं है। …क्या सिर्फ यही राजनीतिक अर्थव्यवस्था की भयानक नाकामयाबी दिखाने के लिए बहुत नहीं है? पेटभर खाने को एहसान की तरह दिखाने वाले इन लोगों को मानव विकास रिपोर्ट और भूमंडलीय भूख सूचकांक के उन आंकड़ों पर गौर फरमाना चाहिए, जिनके अनुसार इस देश के लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं। एक तरफ हमारी सरकार अपने विज्ञापनों में गर्भवती महिलाओं के लिए अच्छे आहार की बात करती है, तो दूसरी तरफ देश की आबादी का इतना बड़ा हिस्सा दो जून की रोटी से महरूम है और उससे बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी नसीब हो पा रही है।
यह किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक देश के लिए राष्ट्रीय शर्म का सबब होना चाहिए कि आजादी के इतने वर्षों बाद और विकास के इतने दावों के बाद भी ऐसे हालात हैं। भूमंडलीकरण के साथ इन हालात में किस तरह से दुनियाभर में बदतरी आई है और अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ी है, इसे नीचे दिए ग्राफ से समझा जा सकता है जहां विश्व के सबसे अमीर दस फीसद और सबसे गरीब दस फीसद लोगों के उपभोक्ता व्यय का अंतर देखा जा सकता है। जाहिर है नई आर्थिक नीतियों के साथ आर्थिक नवउदारवाद का स्वीकार हमारे देश में भी आय-व्यय-उपभोग के बीच अंतर के इसी ट्रेंड पर 'विकास' कर रहा है। यहां यह भी बता देना बेहतर होगा कि जो लोग वर्तमान गरीबी रेखा को विश्व बैंक की वैश्विक गरीबी रेखा (1.25 प्रति व्यक्ति प्रति दिन) को क्रय शक्ति समानता के समकक्ष मानते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि विश्व बैंक का वह पैमाना चरम गरीबी के लिए है। एनके सक्सेना इसे 'चूहे-बिल्ली की रेखा' बताते हैं। उनके अनुसार सिर्फ जानवर ही इन हालात में जिंदा रह सकते हैं।
खैर, इन आंकड़ों की ओर लौटें तो इनके निष्कर्षों के प्रति बढ़ते विरोधों के चलते बने दबाव के बीच हालत यह हैं कि विपक्ष तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं को तो छोडि़ए, सरकार के कपिल सिब्बल जैसे मंत्री तथा सत्ता पक्ष के दिग्विजय सिंह जैसे प्रवक्ता भी इस आंकड़े को स्वीकार नहीं कर रहे। 'द हिंदू' में 25 जुलाई 2013 को छपी रुक्मिणी एस और एमके वेणु की रपट के अनुसार सरकार वर्तमान गरीबी रेखा की जगह एक व्यापक पैमाना बनाने पर विचार कर रही है, जिसमें ग्रामीण इलाकों के लिए 50 रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तथा शहरी इलाकों के लिए 62 रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन का खर्च गरीबी रेखा निर्धारित करेगा।
इसका अर्थ हुआ पांच लोगों के सामान्य परिवार के लिए 7500/- रुपए प्रतिमाह और शहरी इलाकों के लिए 9300/- रुपए प्रतिमाह। यह पैमाना खाद्य सुरक्षा कानून के तहत लोगों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने तथा सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ पहुंचाने के लिए उपयोग में लाया जाएगा। एक अनुमान के आधार पर इस पैमाने से देश की आबादी का 65 प्रतिशत हिस्सा इस रेखा के नीचे है। क्रय शक्ति समानता के आधार पर भी यह विश्व बैंक द्वारा परिभाषित मध्यम स्तर की गरीबी के पैमाने ($2 प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन) के करीब होगा। देखना यह होगा कि सरकार इसे किस तरह लागू करती है और इस पैमाने का उपयोग किस तरह करती है।
आंकड़ों के इन सब खेलों के बीच असल सवाल पर कहीं कोई चर्चा नहीं है—आखिर लगातार अमीर-गरीब की खाई बढ़ा रही, खुद संकट में फंसकर सारी दुनिया को संकट में डाल रही और दुनियाभर में बुरी तरह से असफल हो रही नव उदारवादी नीतियों को लेकर शासक वर्ग इतना ज्यादा दृढ़ क्यों है? क्या कारण है कि इन नीतियों के किसी विकल्प के बारे में विचार ही नहीं हो रहा? गरीबों को थोड़ी सब्सिडी, थोड़ी सहायता या दान देने की जगह सरकारें ऐसी नीतियों पर विचार क्यों नहीं करतीं, जिनसे रोजगार और उत्पादन दोनों की जनोन्मुखी वृद्धि संभव हो और एक प्रक्रिया में सबसे अमीर लोगों के पास संकेंद्रित धन नीचे के संस्तरों पर पहुंचे। ट्रिकल डाउन का सिद्धांत बुरी तरह असफल साबित हुआ है। जाहिर है कि अमीरों की समृद्धि अपने आप गरीबों की बेहतरी में तब्दील होती दुनिया में कहीं दिखाई नहीं दे रही। तो इसकी वैकल्पिक नीतियां क्यों नहीं बनाई जा सकतीं?
अगर उत्पादन का विकेंद्रीकरण हो, विलासिता की वस्तुओं की जगह जरूरत की सस्ती चीजों का उत्पादन बढ़ाने तथा बहुतायत लोगों को रोजगार देने, क्षेत्रीय असमानताओं को खत्म करने तथा समान व संवहनीय विकास की नीतियां बनाई जाएं, तो बड़ी आबादी अपने आप समृद्ध होगी। लेकिन दुनियाभर का सत्ता वर्ग इस ओर कान देने के लिए भी तैयार नहीं है। वह पूंजीपति वर्ग के हितों के साथ इस कदर नाभिनालबद्ध है कि उनकी असफलताओं को भी सफलता में तब्दील करने के लिए उसे न तो जनता का पैसा और संसाधन पूंजीपतियों को मुफ्त में मुहैया कराने में कोई झिझक है, न ही आबादी के एक बड़े हिस्से को वंचना, गरीबी तथा मूलभूत सुविधाओं से निरंतर महरूम रखने में।
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