उत्तर प्रदेश : ध्रुवीकरण का खतरनाक खेल
Author: समयांतर डैस्क Edition : September 2013
सपा सरकार के सहयोग से अयोध्या में विहिप की अपनी 84-कोसी परिक्रमा योजना की घोषणा व उसका व्यापक प्रचार (और बाद में, दिखाने के लिए सरकार द्वारा उस पर ढीले-ढाले ढंग से रोक लगाना), भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) की अधिकारी दुर्गाशक्ति नागपाल का निलंबन, हिंदी के सुपरिचित दलित लेखक कंवल भारती की गिरफ्तारी (बाद में जमानत पर रिहाई) और उत्तर प्रदेश की जेलों में आतंकवाद के नाम पर बंद बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों की रिहाई व आर.डी. निमेष आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांगों को लेकर राजधानी लखनऊ में राज्य विधानसभा के सामने धरना स्थल पर तीन महीने से ज्यादा समय से चल रहे रिहाई मंच के धरने की सरकारी अनदेखी व उपेक्षा—ये सारी चीजें इस खतरनाक खेल की ओर इशारा कर रही हैं।
मुलायम 2014 में होने वाले आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए सपा का मुसलमान वोट बैंक सुरक्षित रखना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए वह अपने हिंदू मतदाता आधार को नाराज नहीं करना चाहते। वह यह भी चाहते हैं कि असली चुनावी लड़ाई सपा व भाजपा के बीच हो, न कि सपा व भूतपूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बीच, या सपा व कांगे्रस के बीच। इसके लिए जरूरी है कि हिंदू मतदाताओं का एक प्रभावशाली हिस्सा भाजपा के पक्ष में इस हद तक ध्रुवीकृत हो कि वह (भाजपा) मुख्य चुनावी लड़ाई में आ जाए। इसलिए मुलायम, बीच-बीच में, बाबरी मस्जिद विध्वंस के मुख्य गुनहगार लालकृष्ण आडवाणी की तारीफ करते रहते हैं। उन्होंने 15 जुलाई 2013 को कहा कि 1990 में, जब मैं उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री था, अयोध्या में बाबरी मस्जिद पर हमला करने वालों पर पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने की घटना के लिए मुझे अफसोस है। वह लखनऊ में 17 अगस्त 2013 को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (मुलायम अखिलेश के पिता हैं) के सरकारी घर में बाबरी मस्जिद विध्वंसकारी समूह के एक कुख्यात कर्ताधर्ता व विहिप नेता अशोक सिंहल और उनके चेले-चपाटों से मिलते हैं। इस बैठक में अगस्त-सितंबर में विहिप की प्रस्तावित 84-कोसी-परिक्रमा योजना को, जो दरअसल 'भाजपा को सत्ता में वापस लाओ' की रणनीति का हिस्सा है, गैर-सरकारी तौर पर हरी झंडी दिखाई जाती है। बाद में, मुसलमानों को खुश करने के लिए—कि देखो, सपा ही मुसलमानों की हितरक्षक है—विहिप के परिक्रमा कार्यक्रम पर रोक लगा दी जाती है और उसके नेताओं की धरपकड़ की जाती है।
यहां यह बता दिया जाए कि अयोध्या में हर साल पारंपरिक रूप से होने वाली 84-कोसी-परिक्रमा चैत-बैसाख के महीनों में (मार्च-अप्रैल में) होती है, और यह इस साल हो चुकी है। लिहाजा विहिप के ऐसे किसी कार्यक्रम को, जो बाबरी मस्जिद के मलबे पर गैरकानूनी तरीके से राम का मंदिर बनाने (और भाजपा को सत्ता दिलाने) की योजना का हिस्सा है, कड़ाई से खारिज कर दिया जाना चाहिए था और उससे सख्ती से निपटना चाहिए था। लेकिन मुलायम हिंदुत्ववादी नेताओं के प्रति खासा मुलायम बने रहे और उनकी आवभगत व मान-मनुहार में लगे रहे। यह अकारण नहीं है कि विहिप नेता अशोक सिंहल मुलायम की तारीफ करते रहे कि उनकी हिंदुओं व मुसलमानों के बीच समान रूप से स्वीकृति है और वह बाबरी मस्जिद विवाद में बीच-बचाव करते हुए राममंदिर निर्माण का रास्ता साफ कर सकते हैं।
इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि लखनऊ में तीन महीने से ज्यादा समय से जारी रिहाई मंच के धरना-प्रदर्शन को सपा सरकार ने कोई तवज्जो नहीं दी, न उसके नेताओं को मिलने व बातचीत करने के लिए बुलाया। जबकि रिहाई मंच का धरना सपा के विधानसभा चुनाव घोषणापत्र (2012) में किए गए कुछ वादों को पूरा करने और उन्हें अमली जामा पहनाने के लिए किया जा रहा है। यह सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है कि जब कोई समूह या संगठन लंबे समय से आंदोलन कर रहा है, तो सरकार उसे बातचीत करने के लिए बुलाती है या उसकी मांगों पर गौर करते हुए कुछ कदम उठाती है। लेकिन यहां ऐसी कोई हरकत नहीं हुई। जबकि लंपट गिरोह विहप को सपा सरकार ने हाथोंहाथ लिया। इससे सपा व 'सुपर मुख्यमंत्री' मुलायम सिंह यादव के मिजाज को समझने में कुछ मदद मिलती है।
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