उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में स्त्री-पुरुष का अनुपात बेहतर है। इस क्षेत्र के बेहतर लिंगानुपात की प्रशंसा नोबल पुरस्कार विजेता अमृत्य सेन ने भी की थी कि केरल के अलावा केवल उत्तर प्रदेश के पर्वतीय इलाकों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक हैं। यह इस बात को बताता है कि इन इलाकों में महिलाओं के प्रति भेदभाव नहीं है। लेकिन यह बात पिछली जनगणना तक ठीक भी थी। तब सभी पर्वतीय जिलों केवल उत्तरकाशी को छोडकर सभी में प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या हजार से ज्यादा थी। उत्तरकाशी में यह 996 थी, जिसे असमान्य नहीं कहा जा सकता। इस बार केंद्रीय स्थास्थ्य मंत्रालय के वर्षिक स्थास्थ्य सर्वे में बड़े ही चौकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। यह सर्वे 2005 में राष्टीय जनसंख्या आयोग की एक सिफारिस के बाद किया गया। इसमें कहा गया कि हर जिले की स्वास्थयगत स्थितियां अलग-अलग होती है। इसलिए जिले वार स्थास्थ्य मानकों को मानने के लिए सर्वे किया जाए। इसी के तहत जुलाई 201व से लेकर मार्च 2011 तक नौ राज्यों बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, उड़ीसा राजस्थान और असम के 284 जिलों में यह सर्वे किया गया। सर्वे में जिलों में लिंगानुपात का आंकलन भी किया गया। इसके तीन स्तर थे। पहला कुल जनसंख्या का लिंगानुपात क्या है, दूसरा 0-4 साल के बच्चों के बीच लिंगानुपात क्या है और तीसरा तत्काल जन्म ले रहे बच्चों में लिंगानुपात क्या है। इस सर्वे के अनुसार उत्तराखंड के सभी पर्वतीय नौ जिलों में स्त्री-पुरुष अनुपात बिगड़ गया है। कुल जनसंख्या का जो लिंगानुपात है उससे कम 0 से चार वर्ष तक का और उससे भी कम तत्काल जन्म पर लिंगानुपात उससे भी नीचे चला गया है। कमोवेश सभी जिलों की स्थिति खराब है सभी जिलों में 0-4 वर्ष की जनसंख्या में प्रतिहजार पर लड़कियों की संख्या 900 से नीचे चली गई है और नवजात बच्चों पर और भी कम है। पिथौरागढ़ जिले की स्थिति तो सबसे खराब है, वहां प्रति हजार लड़कों पर केवल 764 लड़कियां जन्म ले रही है। यह जिला 284 जिलों में सबसे निचले स्थान पर चला गया।
देखा जाए तो प्रकृति स्त्री और पुरुष के बीच भेद नहीं करती है। सामान्य रूप से जितने लड़के पैदा होते हैं लगभग उतनी ही लड़कियां भी पैदा होती है। इसके अलावा जैविक रूप से नवजात लड़कियों में जीवित रहने की क्षमता नवजात लड़कों से ज्यादा होती है। इस तरह प्रति हजार पर लड़कियां ज्यादा होनी चाहिए। पर्वतीय समाज में ऐसा था। तब ऐसा अचानक क्या हो गया कि लड़कों के मुकाबले लड़कियों का जन्म कम हो गया। इसके लिए सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों पर ध्यान देना होगा। सामाजिक रूप से उत्तराखंड का पर्वतीय समाज के दो प्रमुख घटक रहे है। पहला स्थानीय खस और दलित वर्ग और दूसरा मुख्य धारा से आया ब्राह्मणों और राजपूतों का वर्ग। पहला वर्ग बहुसंख्यक था और दूसरा अल्पसंख्यक। लेकिन सत्ता और सांस्कृतिक तौर पर अल्पसंख्यक वर्ग ही प्रभावशाली था। बाहर से आया वर्ग पूरी तरह से पितृसत्तात्मक था लेकिन स्थानीय वर्ग उस तरह से पितृसत्तात्मक नहीं रहा। वहां महिलाओं के अधिकारों के प्रति कहीं अधिक लोकतांत्रिक था। स्थानीय वर्ग में संपत्ति और सामाजिक जीवन, जिसमें विवाह और तलाक शामिल है, में महिलाओं को बहुत अधिक अधिकार थे। यहां तक कि संपत्ति के मामले में महिलाओं की स्वतंत्र स्थिति भी थी। जिन नियमों और कानूनो से यह समाज संचालित होता था उसे ब्रिटिश शासन में कुमाउं कस्टमरी लॉ या खस फैमली लॉ कहा जाता था। इन स्थितियों में ऐसा सामाजिक माहौल बना हुआ था, जिसमें महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं था कम से कम जन्म को लेकर तो बिल्कुल भी नहीं। यह सही है कि एक लड़के की चाह तो रखी गई लेकिन उसके लिए लड़कियों को बाधा नहीं माना गया। यह सबसे बड़ा कारण था कि महिलाओं की संख्या हमेशा पुरुषों से ज्यादा रही। लेकिन आजादी की लड़ाई और आजादी के बाद पूरे समाज में खुद को मुख्य धारा के साथ जोडऩे की होड़ लग गई। आजादी के बाद कस्टमरी लॉ खत्म कर दिए गए और हिंदू अधिनियमों से समाज को संचालित किया जाने लगा तो महिलाओं की परंपरागत स्थित में परिवर्तन आ गया। महिलाओं की संपत्ति और सामाजिक स्थिति में अंतर आ गया और वैधानिक रूप से पितृसत्तात्मक समाज स्थापित हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हर पुरानी पीढ़ी के अवसान के साथ पितृ सत्ता ज्यादा मजबूत हो गई। आज उत्तराखंडी समाज पूरी तरह से पितृ सत्तात्मक हो गया है।
आर्थिक तौर पर उत्तराखंडी समाज कृषि समाज ही था लेकिन यह पूरी तरह से कृषि समाज भी नहीं था। बल्कि पशुपालन और वनों पर भी आधारित था। पूरी अर्थ व्यवस्था का केंद्र बिदु महिला थी। आजादी से पहले माल प्रवास, जाड़ों में तराई और भाबर जाने की परंपरा, कृषि का अनिवार्य हिस्सा थी। दीपावली से होली तक माल प्रवास के दौरान गेहूं की फसल उनके पास होती थी, धान और अन्य फसलों के लिए वे पहाड़ों की खेती पर निभग् थे। आजादी के बाद माल प्रवास खत्म हो गया। इसके अलावा वनों पर लगातार सरकारी शिकंजा कसता चला गया। अंग्रेजों के वन अधिनियम ने पहली बार कृषि और वन भूमि को अलग किया। अंग्रेजों ने हर वन अधिनियम के बाद जंगल का रकबा बढ़ा दिया और खेती का रकबा कम कर दिया। वन अधिनियम ने खेती के लिए नई जमीनों की खोज को बंद कर दिया। गोया कि बाद में अंग्रेजों ने नया आबाद कानून बनाया गया लेकिन आजादी के बाद वह भी खत्म हो गया। जंगलों के छिनने, बढ़ती आबादी के खेती-किसानी मे जगह न होने और वन अधिनियम के कारणं खेती के लिए नई जमीन न पा सकने के कारण कृषि अनुत्पादक हो गई और लोगों को पलायान के लिए मजबूर होना पड़ा। जो लोग पहाड़ों में रह भी गए तो मानने लगे कि खेती-किसानी से कुछ नहीं हो सकता। इस अवधारणा ने उन्हें खेती से बिमुख कर दिया। उन्होंने मान लिया कि आखिर में जाना तो महानगरों की ओर ही पड़ेगा। अब अर्थव्यवस्था का केंद्र बिदु खेती न नौकरी करना हो गई। इसके लिए फौज या महानगर जाना अनिवार्य हो गया। महानगर और फौज में लड़के तो जा सकते थे, लड़कियां नहीं, फिर खेती से बिमुख होने के कारण महिलाओं की प्राथमिक स्थिति भी बदल गई।
सांस्कृतिक तौर पर पर्वतीय समाज में दहेज जैसा शब्द नहीं था। लेकिन अब दहेज पहुंच गया है। अब लड़कियां बोझ हो गईं और उनके साथ भेदभाव किया जाने लगा। और यह भेदभाव जन्म से पहले से ही शुरू हो गया। मशीनों के माध्यम से लिंग निर्धारण की सुविधा का परिणाम यह हुआ कि लड़कियों की गर्भ में ही हत्या होने लगी। पर्वतीय जिले सबसे पिछड़े हुए क्षेत्र हैं, वहां मां-बाप के पास शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं पर खर्च करने के लिए बहुत कम धन है। जब उन्हें लड़का या लड़की दो में से एक को चुनना होता है तो वे निश्चित रूप वे लड़के को ही चुनते है और यह चुनाव जन्म से पहले ही हो जाता है।
जन्म पर लिंगानुपात | जन्म पर लिंगानुपात | जन्म पर लिंगानुपात | लिंगानुपात (0-4 वर्ष) | लिंगानुपात (0-4 वर्ष) | लिंगानुपात (0-4 वर्ष) | लिंगानुपात (सब आयु वाले) | लिंगानुपात (सब आयु वाले) | लिंगानुपात (सब आयु वाले) | |
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कुल | ग्रामीण | शहरी | कुल | ग्रामीण | शहरी | कुल | ग्रामीण | शहरी | |
उत्तराखंड | 866 | 877 | 833 | 877 | 888 | 846 | 992 | 1026 | 913 |
अल्मोड़ा | 874 | 879 | 802 | 896 | 899 | 843 | 1131 | 1144 | 968 |
बागेश्वर | 823 | 831 | 667 | 880 | 885 | 776 | 1089 | 1099 | 925 |
चमोली | 857 | 856 | 864 | 879 | 900 | 781 | 1045 | 1077 | 903 |
चंपावत | 880 | 853 | 1017 | 888 | 877 | 943 | 1017 | 1045 | 891 |
देहरादून | 836 | 876 | 800 | 865 | 880 | 852 | 944 | 953 | 937 |
हरिद्वार | 870 | 870 | 868 | 847 | 842 | 862 | 881 | 868 | 904 |
नैनीताल | 918 | 908 | 932 | 882 | 872 | 896 | 910 | 924 | 890 |
पौड़ी गढ़वाल | 885 | 890 | 854 | 912 | 920 | 861 | 1134 | 1162 | 989 |
पिथौरागढ़ | 764 | 781 | 668 | 817 | 844 | 699 | 1067 | 1084 | 991 |
रूद्रप्रयाग | 861 | 863 | 500 | 894 | 897 | 586 | 1194 | 1200 | 720 |
टेहरी गढ़वाल | 890 | 895 | 843 | 922 | 929 | 867 | 1220 | 1273 | 929 |
उधमसिंह नगर | 867 | 914 | 787 | 877 | 912 | 817 | 904 | 918 | 880 |
उत्तरकाशी | 868 | 882 | 741 | 921 | 933 | 818 | 996 | 1012 | 891 |
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