परिवार वाद ही आगे चलकर जातिवाद में विकसित होता है
यदि देश के सारे गरीब एक हो गये तो ?
पलाश विश्वास
बहस की शुरुआत करें, इससे पहले एक सूचना। दृश्यांतर का ताजा अंक मेरे सामने है। इस भव्य पत्रिका के संपादक अजित राय हैं। इस अंक में नियमागिरि पर एक रिपोर्ताज है। हमारे प्रिय लेखक मधुकर सिंह की कहानी है। मीडिया की विश्वसनीयता पर दिलीप मंडल का मंतव्य है। किसानों की आत्महत्या के कथानक पर भूतपूर्व मित्र संजीव के उपन्यास फांस का अंश है। संजीव हंस के संपादक बनने के बाद हमारे लिये भूत हैं। राजेंद्र यादव के धारावाहिक उपन्यास की चौथी किश्त भूत है। कुंवर नारायण की कविताएं हैं। और स्मृति शेष ओम प्रकाश बाल्मीकि हैं। जरूर पढ़ें।
बहस से पहले सुधा राजे की पंक्तियां भी देख लें।
युवा कवियत्री सुधा राजे लिखती हैं
जिस दिन से सारा मीडिया """(असंभव बात) """"
नेता के बारे में एक भी शब्द कहना लिखना त्यागकर
केवल
और
केवल
जनता की समस्याओं और संघर्षों उपलब्धियों और नुकसानों के के बारे में चित्र शब्द ध्वनि से जुट जायेगा अभिव्यक्ति पर
व्यक्ति पूजा बंद हो जायेगी
और
वास्तविक चौथे पाये की स्थापना होगी
राजनेताओं की अकल अकड़ सब ठिकाने आ जायेगी।
एक ही थैली के चट्टे बट्टे "
कक्षा तीन में 'कक्का मास्साब ने सेंवढ़ा में यह कहावत पढ़ायी थी ।
अब लोग इतने भी भोले नहीं रहे कि ये नौ दो ग्यारह वाले "बजरबट्टू को खरीदेगे वह भी ऑयल ऑफ ओले के प्रॉडक्ट मुफ्त मिलने के बाद!!!!
हमारे परम आदरणीय गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी, जिन्होंने जीआईसी नैनीताल के जमाने से लगातार हमारा मार्गदर्शन किया है और अब भी कर रहे हैं, जिन्होंने हमें शोषणविहीन वर्गविहीन समाज के लक्ष्य की दिशा दी और अग्निदीक्षित किया है, उन्होंने हमारे जाति उन्मूलन संवाद में हस्तक्षेप किया है। वे जाति आधारित आरक्षण के विकल्प बतौर आर्थिक आरक्षण की बात कर रहे हैं, लेकिन हमारे आकलन के हिसाब से तो मौजूदा राज्यतन्त्र और मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था में लोककल्याणकारी राज्य के अवसान के बाद क्रयशक्ति वर्चस्व के जमाने में किसी भी तरह का आरक्षण उतना ही अप्रासंगिक है, जैसे सामाजिक क्षेत्र की योजनाएं या कॉरपोरेट उत्तदायित्व। जाति उन्मूलन को बुनियादी एजेण्डा बनाये बगैर हम न वर्ग जाति वर्चस्व टल्ली लगाकर तोड़ सकते हैं और न पूँजी निर्देशित राज्यतन्त्र को बदलने की कोई पहल कर सकते हैं।
हमने इस बहस की प्रस्तावना आपकी सहमति असहमति के लिये फेसबुक पर डाला ही था कि हल्द्वानी से हमारे गुरुजी का फोन आ गया।
सीधे उन्होंने सावल दागा, पलाश, बताओ,जाति उन्मूलन होगा कैसे।
हमने कहा कि हम अंबेडकर की परिकल्पना की बात कर रहे हैं और चाहते हैं कि अस्मिताओं के दायरे तोड़कर देश जोड़ने की कोई पहल हो।
गुरुजी ने कहा कि जाति तो टूट ही रही है। अंतर्जातीय विवाह खूब हो रहे हैं।
हमने कहा कि बंगाल में सबसे ज्यादा अंतर्जातीय विवाह होते हैं। ब्राह्मण कन्या की किसी से भी पारिवारिक सामाजिक सम्मति से शादी सामान्य बात है। लेकिन बंगाल में जाति सबसे ज्यादा मजबूत है जहां जाति कोई पूछता ही नहीं है।
बात तब भेदभाव पर चली। हमने गुरुजी को बताया कि बंगाल में अस्पृश्यता बाकी देश की तरह नहीं रही। लेकिन भेदभाव बाकी देश की तुलना में स्थाईभाव है।
गुरुजी ने कहा भेदभाव खत्म होना चाहिए।
मैंने जोड़ा, नस्ली भेदभाव।
उन्होंने कहा कि विकास से भेदभाव टूटेगा।
हमने कहा कि असली समस्या मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था है। पूँजीवादी विकास के तहत औद्योगीकरण होता तो उत्पादन प्रणाली जाति को तोड़ देती। लेकिन जाति उत्पादक श्रेणियों में है और अनुत्पादक श्रेणियां वर्ण हैं। श्रमजीवी कषि समाज को ही जाति व्यवस्था के तहत गुलाम बनाया गया है। अब कृषि और उत्पादन प्रणाली, उत्पादन व श्रम सम्बंधों को तहस नहस करने से क्रयशक्ति आधारित वर्चस्ववादी समाज से जाति-वर्चस्व, वर्ग-वर्चस्व खत्म होने से तो रहा।
गुरुजी सहमत हुए।
बाद में हमने आनंद तेलतुंबड़े से भी विस्तार से बात की।
उनका मतामत लिखित रूप में प्रतीक्षित है।
फिलहाल हमारी दलील के पक्ष में ताजा खबर यह है कि बंगाल में जाति और भेदभाव खत्म होने के राजनैतिक बौद्धिक प्रगतिशील दावों के बावजूद 1947 से पहले के दलित मुस्लिम मोर्चा को पुनरुज्जीवित किया गया है। इसे संयोजक रज्जाक मोल्ला माकपा और किसान सभा के सबसे ज्यादा जुझारु नेता हैं, जिन्होंने वामदलों में दलित मुस्लिम नेतृत्व की मांग करते पार्टी में हाशिये पर आने के बाद सामाजिक न्याय मोर्चा का ऐलान किया हुआ है, जिसका घोषित फौरी लक्ष्य बंगाल में दलित मुख्यमंत्री और मुस्लिम उपमुख्यमंत्री है।
अब बंगाल में जाति की अनुपस्थिति पर अपनी राय जरूर दुरुस्त कर लें। माकपा ने तो रज्जाक बाबू को पार्टी से निष्कासित कर ही दिया है।
आर्थिक विकास की बात आर्थिक आरक्षण की तर्ज पर तमाम दलित चिंतक नेता मसीहा करते हैं। सशक्तिकरण का मतलब मुक्त बाजार की क्रयशक्ति से उनका तात्पर्य है। भारत सरकार चलाने वाले कॉरपोरेट तत्वों का सारा लब्वोलुआब वही है।
डॉ. अमर्त्य सेन तो खुले आम कहते हैं कि उनकी आस्था मु्क्त बाजार में है लेकिन उनका लक्ष्य सामाजिक न्यायहै। हमारे हिसाब से ये दलीलें पूरी तरह कॉरपोरेट राज के हक में है।
मालूम हो कि आज ही इकोनामिक टाइम्स की लीड खबर के मुताबिक भाजपा अनुसूचित सेल के संजय पासवान के हवाले से नई केशरिया सरकार के जाति एजंडे का खुलासा हुआ है। उदितराज जैसे दलितों के नेता बुद्धिजीवियों को साधने के बाद और फेंस पर खड़े दलितों पिछड़ों आदिवासियों अल्पसंख्यकों को अपने पक्ष में लाने के अभियान के साथ नमोमय भारत की सर्वोच्च प्राथमिकता आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था तोड़ने की है। मंडल के मुकाबले कमंडल यात्रा रामराज के लिये नहीं, संवैधानिक आरक्षण तोड़ने के लिये है और नमोमयभारत बनते ही यह लक्ष्य पूरा हो जायेगा।
बुनियादी सवाल फिर वही है कि बाजार अर्थव्यवस्था और कॉरपोरेट राज में संवैधानिक आरक्षण जहांँ सिरे से अप्रासंगिक हो चुका है, वहाँ जाति को खत्म किये बिना वर्ग वर्चस्व को तोड़े बिना आप हाशिये पर खड़े बहुसंख्य बहिष्कृत भारतीयों के हक हकूक बहाल किये बिना आर्थिक आरक्षण की बात करेंगे तो अस्मिताओं के महातिलिस्म से मुक्ति की राह खुलेगी कैसे।
गुरुजी ने लिखा हैः
मेरे बहुत से मित्र जाति उन्मूलन की बात करते हैं। मेरे विचार से किसी कानून के द्वारा जाति बोध को समाप्त नहीं किया जा सकता। जाति सामन्ती व्यवस्था में पनपती है और औद्योगिक विकास और शहरीकरण के साथ स्वत: क्षीण होती जाती है। लेकिन शर्त यह है कि सत्ता से जुड़े लोग इसे प्रश्रय न दें। जाति आधारित आरक्षण, जाति और सम्प्रदाय की सापेक्ष्य संख्या के आधार पर राजनीतिक द्लों द्वारा प्रत्यशियों का चयन, कुछ ऐसे तत्व हैं जो जाति बोध की समाप्ति में बाधक हैं। जब तक जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था रहेगी, जातिबोध समाप्त नहीं हो सकता। इसका तरीका एक ही है कि आरक्षण को जाति के स्थान पर आर्थिक आधार से जोड़ दिया जाय। लेकिन क्या हमारे राजनीतिक दल ऐसा करेंगे? यदि देश के सारे गरीब एक हो गये तो ?
यह भी सत्य है कि परिवार वाद ही आगे चलकर जातिवाद में विकसित होता है… और यह भारत में आज भी हो रहा प्रधानमंत्री का बेटा प्रधान मंत्री, मंत्री का बेटा मंत्री, सांसद का बेटा सांसद, नौकरशाह के बेटा नौकरशाह और प्रोफेसर का बेटा प्रोफेसर, प्रतिभा और कौशल, भारत से बाहर।
नई सरकार के जमाने में आरक्षण की बात रही दूर सरकारी कर्मचारियों की क्या शामत आने वाली है, हमारे आदरणीय जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के इस मंतव्य से उसका भी अंदाजा लगा लें-
मोदी और ममता तो पीएम बनने के पहले ही एक्सपोज़ हो गये हैं ! दोनों के नेतृत्व में चल रही राज्य सरकारों ने कहा है कि वे सातवें पगार आयोग के गठन के ख़िलाफ़ हैं और कर्मचारियों की नियमानुसार पगार बढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं ।
यानी कर्मचारी महँगाई से मरें इन दोनों नेताओं को कोई लेना देना नहीं है।
पे कमीशन कर्मचारियों का लोकतांत्रिक हक़ है और मोदी-ममता का इसका विरोध करना कर्मचारियों के लोकतांत्रिक हकों पर हमला है।
इस पर अमर नाथ सिंह ने सवाल किया है, सर कृपया वह स्रोत भी बताएं जहाँ मोदी और ममता की सरकारों ने ये पुण्य विचार व्यक्त किये हैं।
जगदीश्वर चतुर्वेदी का जवाब, नेट पर अख़बार देखो, टाइम्स में छपी है ख़बर
फिर जगदीश्वर चतुर्वेदी का अगला मंतव्य हैः
नरेन्द्र मोदी ने जब पीएम कैम्पेन आरंभ किया था मैंने फ़ेसबुक पर लिखा था कि गुजरात दंगों के लिये भाजपा माफ़ी माँगेगी !
कल राजनाथ सिंह के बयान के आने के साथ यह प्रक्रिया आरंभ हो गयी है ! निकट भविष्य में मोदी के द्वारा सीधे दो टूक बयान आ सकता है।
गुजरात के दंगों पर माफ़ी माँगते हुए !! इंतज़ार करें वे मुसलमानों के नेताओं के बीच में हो सकता है यह बयान दें !
कारण साफ़ है पीएम की कुर्सी जो चाहेगी मोदी वह सब करेंगे!!
संघ परिवार को हर हालत में केन्द्र सरकार चाहिए इसके मोदी कुछ भी करेगा !!
झूठ बोलो भ्रमित करो। कुर्सी पाओ दमन करो ।
यह पुरानी फ़ासिस्ट प्रचार शैली है और मोदी इस कला में पारंगत हैं ।
फिर सुरेंद्र ग्रोवर जी का यह मिसाइल भी
विनोद कापड़ी इंडिया ने जिस तरह #न्यूज़_एक्सप्रेस पर #ऑपरेशन_प्राइम_मिनिस्टर के ज़रिये #सी_वोटर को नग्न किया है, इसके लिये न्यूज़ एक्सप्रेस की टीम बधाई की पात्र है.. मगर एक बात समझ नहीं आ रही कि #मीडिया इस पर पर चुप्पी क्यों साध गया.. अरे भाई, आप लोग उपेक्षा कर दोगे तो आप को जनता उपेक्षित कर देगी.. इससे यह भी ज़ाहिर हो रहा है कि चुप्पी साधे बैठा मीडिया बरसों से #सर्वे के नाम पर पूरे देश को मूर्ख बनाता चला आया.. कोई टीवी चैनल एग्जिट पोल के नाम पर किसी अवांछित को भावी प्रधानमंत्री बतौर पहली पसंद बताता रहा तो हर अखबार एक ही सर्वे को अपने अपने हिसाब से खुद को नम्बर वन साबित करता रहा.. जय हो..
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