कत्लेआम की सुबह
Author: दिलीप खान
जिस दिन आईबीएन-7 औरसीएनएन-आईबीएन के पत्रकारों ने सुबह-सुबह लालकिले से प्रधानमंत्री के रस्मी भाषण और उसके बाद गुजरात से नरेंद्र मोदी के 'ओवर-रेटेड' भाषण के साथ भारत की स्वाधीनता की सालगिरह मनाई, तो उनमें से कई को मालूम नहीं था कि अगला दिन यानी 16 अगस्त 2013, भारतीय टीवी उद्योग के काले दिनों की सूची में शामिल होने वाला है। उनको ये नहीं मालूम था कि उनके 'त्यागपत्र' की चिट्ठी कुछ इस तरह तैयार हो चुकी है कि उन्हें एक झटके में सड़क पर आ जाना है।
फिल्म सिटी, नोएडा की उस गली में नीम खामोशी थी, बोलते हुए लोगों के मुंह से निकल रही आवाज बिखरकर हवा में कहीं गुम हो जा रही थी। कोई रो रहा था, तो कोई दिलासा पा रहा था और कोई नई योजना पर विचार कर रहा था। लेकिन गुस्सा कहीं नहीं था। चारों तरफ मजबूरी थी। बेचारगी का भाव था सबके चेहरे पर। चारों तरफ जो लोग आ-जा रहे थे, वो वही थे जो दूसरे उद्योगों के मुद्दे पर टीवी में खबर चलाते हैं। लेकिन उस दिन हर कोई जानता था कि किसी टीवी चैनल पर यह खबर नहीं चलने वाली। कोई मीडिया समूह अपने दर्शकों/पाठकों को नहीं बताएगा कि लगभग 350 पत्रकारों को झटके में एक ही समूह के दो बड़े टीवी चैनलों ने जबरन 'त्यागपत्र' दिलवा कर बाहर कर दिया है। लेकिन जिनको निकाला गया उनके मुंह से प्रतिरोध का एक भी शब्द नहीं निकला। किसी ने भी मैनेजमेंट के बनाए गए त्यागपत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार नहीं किया! वजह क्या है? किस चीज का डर है?
दैनिक भास्कर ने हाल ही में दिल्ली की एक पूरी टीम को निकालने का फैसला लिया। ठीक इसी तरह उसमें भी त्यागपत्र तैयार किया गया था। 16 में से दो पत्रकारों, जितेन्द्र कुमार और सुमन परमार ने त्यागपत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए। भास्कर ने उन दोनों को 'निकाल' दिया। फर्क सिर्फ इतना रहा कि उन दोनों को बाकी पत्रकारों की तरह अगले कुछ महीनों का अग्रिम वेतन नहीं मिल सका, जोकि उस हस्ताक्षर से मिल सकता था। अब इन दोनों ने मामले को कोर्ट में खींचा है। शायद, टीवी-18 के इन दोनों चैनलों के पत्रकारों को 'त्यागपत्र देने' और 'निकाले जाने' की ये नजीर मालूम हो। (इधर समाचार मिल रहे हैं कि दैनिक भास्कर अपने दिल्ली संस्करण के संपादकीय विभाग को बंद कर रहा है। उसने 27 अगस्त से अपने ऑपएड, संपादकी के सामने का, पृष्ठ को बंद कर दिया है और उसकी जगह अमेरिकी अखबारों से लिया कबाड़ छापना शुरू कर दिया है। )
मीडिया उद्योग में प्रबंधन के ऐसे किसी भी फैसले पर न तो भुक्तभोगी पत्रकार और न ही उस फैसले से बच गए ईमानदार पत्रकार (बॉस के चेलों और प्रो-मैनेजमेंट पत्रकारों को छोड़कर) अपनी जुबान खोलने की स्थिति में दिखते हैं। कारण साफ है। बीते कुछ वर्षों में, खासकर टीवी न्यूज चैनलों के उगने के बाद से, मीडिया हाउस के भीतर प्रबंधन के खिलाफ किसी भी तरह की आवाज को बर्दाश्त करने का चलन खत्म हो गया है। अपनी तमाम खूबियों और क्षमताओं के बावजूद मीडिया हाउस में टिकने की गारंटी बॉस के गुडबुक्स में नाम लिखा देना ही होती है। किसी भी तरह की यूनियन की सुगबुगाहट को मीडिया के भीतर तकरीबन अपराध जैसा घोषित कर दिया गया है। यूनियन को खत्म करने की प्रबंधन की चाह को ऊपर के पदों पर बैठे पत्रकारों/संपादकों का भी लगातार समर्थन हासिल हुआ है। दूसरी बात ये कि न्यूज रूम के भीतर चापलूसी की संस्कृति लगातार पसरती गई और प्रबंधन से रिसकर आने वाले लाभ में हिस्सेदारी के लिए क्रमश: ऊपर से लेकर नीचे के लोग कोशिश करने में जुट गए। ऐसे हालात में जाहिर तौर पर पत्रकारों के भीतर से मजदूर चेतना लगभग गायब हो गई। नहीं तो, मानेसर में मारुति-सुजुकी के मजदूरों की तरह आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन के पत्रकार भी तंबू डालकर बाहर धरने पर बैठ जाते! लेकिन मीडिया के मौजूदा हालात को देखते हुए यह बेहद मुश्किल और दुस्साहसी कदम जैसा मालूम पड़ता है।
निजी टीवी न्यूज चैनलों की शुरुआत के बाद से तो ये बहस छिटपुट तरीके से उठी है कि भारतीय प्रेस परिषद की तरह ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए भी कोई ऐसी संस्था बने जो इनकी निगरानी कर सके, लेकिन प्रिंट के जमाने में बने नियम-कायदे को किस तरह न सिर्फ बरकरार रखा जाए बल्कि टीवी को भी उस अहाते में शामिल किया जाए, यह मुद्दा बहस के तलछट में ही छूट गया। मार्कंडेय काट्जू ने नियमन के सवाल को जिस तरह उठाया उसने मामले में गर्माहट भरी, लेकिन श्रम के तौर-तरीकों पर न तो प्रेस परिषद और न ही न्यूज ब्रॉडकास्टर्स स्टैंडर्ड अथॉरिटी जैसे टीवी उद्योग के स्व-स्थापित संगठनों की कोई रुचि दिख रही है। मिसाल के तौर पर प्रिंट मीडिया के लिए 1955 में बने श्रमजीवी पत्रकार कानून को जिस तरह मीडिया की दुनिया में अप्रासंगिक बनाकर रख दिया गया, उसे प्रस्थानबिंदु मानकर पत्रकारिता के मौजूदा विचलन को कितनी बार ये संगठन रेखांकित करते हैं। इस कानून में काम के घंटे और दिन के निर्धारण से लेकर छुट्टी और छंटनी के लिए कहीं ज्यादा सुरक्षित प्रबंध थे, लेकिन धीरे-धीरे हर मीडिया घराने ने अपने यहां ठेके पर नौकरी देनी शुरू कर दी और आज की तारीख में ठेके का साम्राज्य इस तरह फैल गया है कि विकल्प की किसी भी बात की खिल्ली उड़ जाती है।
बावजूद इसके, 6 मई को संसद की स्थाई समिति ने पेड न्यूज पर जो रिपोर्ट सौंपी है, उसमें श्रमजीवी पत्रकार कानून की जरूरत को मौजूदा दौर में अहम माना है। अगर काम करते समय पत्रकारों को नौकरी जाने का खतरा हर समय सिर पर नहीं मंडराएगा, तो जाहिरा तौर पर वे प्रबंधन के दबाव में आकर स्टोरी लाइन से समझौता नहीं करेंगे, वे पेड न्यूज पर अड़ सकते हैं, वे प्राइवेट ट्रीटीज के बावजूद उसमें शामिल पक्ष के बारे में वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग कर सकते हैं। यह पत्रकारिता की आजादी के लिए बेहद जरूरी है, लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी की बहस को मीडिया उद्योग धीरे-धीरे व्यवसाय की आजादी की तरफ मोडऩे में सफल रहा है। नतीजतन, ऐसे कानून लागू करने के लिए सरकारी हस्तक्षेप को मीडिया और इस तरह अभिव्यक्ति पर हमला बताया जाने लगा।
पत्रकारों की पेशागत सुरक्षा को बहाल किए बगैर इन मुद्दों पर होने वाली बहस अंतत: बेअसर साबित होगी। टीवी-18 समूह ने जिस तरह एकमुश्त अपने कर्मचारियों को बाहर किया वैसी छंटनी और भी समूहों में हुई है। सवाल यह है कि जिस तरह पिछले सितंबर में एनडीटीवी से निकाले गए 50 से ज्यादा पत्रकार, दैनिक भास्कर से 16 पत्रकार, आउटलुक समूह की तीन पत्रिकाओं (मैरी क्लेयर, पीपुल इंडिया और जियो) के बंद होने से पीडि़त 42 पत्रकार झटके में बेरोजगार हुए, वे अपनी बाकी की जिंदगी कहां गुजारेंगे? क्या वे पत्रकारिता को अलविदा कह देंगे? शायद नहीं। वे एक समूह से दूसरे समूह का रुख करेंगे। वे उस समूह में कोशिश करेंगे, जहां उन्हें लगेगा कि नौकरी की गुंजाइश शेष है। बस यहीं पर दोतरफा मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। पहला, अगर दूसरे समूह में नौकरी करनी है, तो उसके प्रबंधन को लड़ाकू पृष्ठभूमि वाले पत्रकार की डिग्री आपके 'रिज्यूमे' के साथ नहीं चाहिए। सो अपने 'रिज्यूमे' को दुरुस्त रखने के लिए आपको ऐसे किसी भी प्रतिरोध से खुद को हरसंभव अवसर तक बचाए रखना जरूरी है।
दूसरा, जिसे आप 'दूसरा समूह' समझ रहे हैं, असल में उनमें से कई 'दूसरा' हैं ही नहीं। मीडिया कॉनसॉलिडेशन (दृढि़-करण), मर्जर (समायोजन) और क्रॉस मीडिया ओनरशिप (अगल-अलग माध्यमों की एक साथ मिल्कियत) का जो पैटर्न भारत में है, उसमें निवेशकों को ये छूट मिली हुई है कि वे एक साथ कई चैनलों, अखबारों, पत्रिकाओं, पोर्टलों, रेडियो और डीटीएच में पैसा लगा सकते हैं। मुकेश अंबानी जैसे बड़े निवेशकों ने तो मीडिया में गुमनाम तरीके से निवेश का नया अध्याय शुरू किया है, जिसमें वह अपने दूसरे भागीदारों के मार्फत पैसा लगाते हैं। जिन दो चैनलों में निकाले गए पत्रकारों से बात शुरू की गई थी, उनमें भी अंबानी के निवेश का किस्सा दिलचस्प है। 2007-08 में जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की नीतियों के दबाव में ब्लैकस्टोन ने इनाडु समूह की मूल कंपनी उषोदय इंटरप्राइजेज में से अपने 26 फीसदी शेयर खींच लिए, तो इस कंपनी की हालत बेहद पतली हो गई थी। तभी जे.एम. फायनेंसियल के अध्यक्ष नीमेश कंपानी ने ई टीवी चलाने वाली उषोदय इंटरप्राइजेज में 2, 600 करोड़ रुपए लगाकर कंपनी को डूबने के बचा लिया। बाद में पता चला कि कंपानी के मार्फत यह निवेश वास्तव में अंबानी का है।
असल में मुकेश के साथ नीमेश कंपानी का पुराना संबंध है। रिलायंस के बंटवारे के बाद जब पेट्रोलियम ट्रस्ट बनाया गया, तो नीमेश कंपानी और विष्णुभाई बी. हरिभक्ति उसके ट्रस्टी थे। नागार्जुन फायनेंस घोटाले के बाद जब नीमेश कंपानी को गैर-जमानती वारंट निकलने के कारण देश छोड़कर भागना पड़ा, तब जाकर मालिक के तौर पर अंबानी का नाम खुलकर सामने आया। बाद में टीवी-18 के मालिक राघव बहल ने मुकेश अंबानी से उस ईटीवी समूह को खरीद लिया। इस खरीद पर 2, 100 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद बहल पर आर्थिक बोझ इतना ज्यादा हो गया कि उसके पुराने चैनलों, आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन सहित सीएनबीसी आवाज को चलाने में दिक्कत आने लगी। जब इस बोझ ने राघव बहल को पस्त कर दिया, ठीक तभी मुकेश अंबानी ने एक बार फिर एंट्री मारी और इसमें 1, 600 करोड़ रुपए लगाकर समूह को बचा लिया। यानी पहले अंबानी ने ईटीवी खरीदा, फिर उसे राघव बहल को बेच दिया और राघव बहल को जब टीवी-18 को चलाने में मुश्किलें आने लगीं, तो उसमें फिर पैसे लगा दिया! इसके बाद राघव बहल ने सार्वजनिक तौर पर दावा किया था कि अब उनका समूह बुलंद स्थिति में पहुंच गया है। पूरी घटना को महज डेढ़ साल हुआ है। इस डेढ़ साल में ही टीवी-18 समूह ने कटौती के नाम पर पत्रकारों को निकाल दिया!
अब सवाल है कि पत्रकारों को निकाले जाने के कारण क्या हैं? जो दावे छनकर लोगों तक पहुंच रहे हैं उनमें कुछ निम्नलिखित हैं-
1. टीवी-18 समूह घाटे में है और कंपनी इससे उबरना चाहती है।
2. ट्राई ने अक्टूबर 2013 से एक घंटे में अधिकतम 10 मिनट व्यावसायिक और दो मिनट प्रोमोशनल विज्ञापन दिखाने का दिशा-निर्देश दिया है। लिहाजा टीवी चैनल का राजस्व कम हो जाएगा।
3. हिंदी और अंग्रेजी में एक ही जगह पर रिपोर्टिंग के लिए अलग-अलग पत्रकारों (संसाधनों) को भेजने से लागत पर फर्क पड़ता है, जबकि कंटेंट (विषय-वस्तु) में कोई खास बढ़ोतरी नहीं होती।
सच्चाई यह है कि ये तीनों ही बातें झूठी और खोखली हैं। टीवी-18 की वार्षिक रिपोर्ट और बैलेंस शीट पहले दावे को झुठलाती है। वित्त वर्ष 2012-2013 में टीवी-18 समूह को 165 करोड़ रुपए का सकल लाभ हुआ है। बीते साल यही आंकड़ा 75.9 करोड़ रुपए का था। यानी एक साल में इस समूह ने अपना मुनाफा दोगुना बढ़ा लिया है। 1999 में जब सिर्फ सीएनबीसी-18 और सीएनबीसी आवाज चैनल थे, तो इस समूह का कुल राजस्व महज 15 करोड़ रुपए का था। 2005 में आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन की शुरुआत के समय इसका कुल राजस्व 106 करोड़ रुपए का था। यानी 10 साल पहले इस समूह का जितना राजस्व था, उससे ज्यादा मुनाफा इसने अकेले बीते साल कमाया है। यह तर्क अपने-आप में खोखला है कि इन दोनों चैनलों पर लागत कम करने की जरूरत कंपनी को महसूस हो रही है।
वर्ष 2005 में 106 करोड़ रुपए वाली कंपनी का राजस्व इस समय 2, 400.8 करोड़ रुपए है। 24 गुना विस्तार पाने के बाद अगर मालिक (मैनेजमेंट) की तरफ से घाटे और कटौती की बात आ रही है, तो झूठ और ठगी के अलावा इसे और क्या कहा जा सकता है? दिलचस्प ये है कि ये सारे आंकड़े खुद अपनी बैलेंस शीट में टीवी-18 समूह ने सार्वजनिक किए हैं। जहां तक ऑपरेटिंग लॉस की बात है, तो वह भी पिछले साल के 296 करोड़ के आंकड़े से घटकर 39 करोड़ रुपए पर आ गई है। यानी लागत में और ज्यादा कटौती की कोई दरकार कागज पर नजर नहीं आती। अगर हम इस समूह के मनोरंजन चैनलों को हटा दें और सिर्फ सीएनबीसी टीवी 18, सीएनबीसी आवाज, सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 की बात करें, तो भी आंकड़े मैनेजमेंट की दलील से मेल नहीं खाते। वित्त वर्ष 2011-12 में इन चारों चैनलों को टैक्स चुकाने के बाद 9.2 करोड़ रुपए का मुनाफा हुआ था, जबकि यही आंकड़ा 2012-13 में घटने की बजाय बढ़कर 10.2 करोड़ रुपए जा पहुंचा। कहां है घाटा? कहां है कटौती की दरकार?
अब आते हैं दूसरे दावे पर। ट्राई ने जब चैनलों को विज्ञापन प्रसारित करने के संबंध में दिशा-निर्देश जारी किया, तो उसमें ये साफ कहा गया था कि यह कोई नया कानून नहीं है, बल्कि केबल टेलीविजन नेटवक्र्स रूल्स 1994 के तहत ही वह चैनलों को यह हिदायत दे रहा है। इससे महत्त्वपूर्ण यह है कि ट्राई ने सालभर पहले ही सारे चैनलों को चेतावनी दे दी थी कि वह यह बाध्यता लाने जा रहा है। अक्टूबर, 2013 से ट्राई ने इसे किसी भी हालत में लागू करने की बात कही थी, लेकिन चैनलों की संस्थाओं की तरफ से सूचना प्रसारण मंत्रालय में लगातार संपर्क साधा गया और ताजा स्थिति ये है कि मंत्रालय सिद्धांत रूप से इस बात पर तैयार हो गया है कि इसे अक्टूबर 2013 से टालकर दिसंबर 2014 कर दिया जाए।
इस समय न्यूज चैनलों में एक घंटे में औसतन 20-25 मिनट तक विज्ञापन दिखाए जाते हैं। अब सवाल ये है कि चैनलों को इस पर आपत्ति क्या है? पहली आपत्ति ये है कि चूंकि भारतीय टेलीविजन उद्योग का रेवेन्यू मॉडल (आय का स्वरूप) कुछ इस तरह का है कि इसकी 90 फीसदी आमदनी का स्रोत विज्ञापन हैं। सिर्फ 10 प्रतिशत आमदनी शुल्क (सब्सक्राइबर्स) से आ पाती है। इस व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए डिजिटाइजेशन का विकल्प लाया गया। इसमें तकरीबन हर टीवी चैनल की स्वीकृति हासिल थी। डिजिटाइजेशन का एक चरण पूरा हो चुका है और दूसरे चरण का काम दिसंबर 2014 तक खत्म करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद आमदनी के लिए चैनलों की निर्भरता विज्ञापन पर कम हो जाएगी और सब्सक्रिप्शन से होने वाली आय ज्यादा हो जाएगी। शायद डिजिटाइजेशन पूरा नहीं होने की वजह से ही मंत्रालय ने दिसंबर 2014 तक ट्राई के फैसले को टालने की बात कही है, क्योंकि यही डिजिटाइजेशन की भी अंतिम तिथि है। अब अगर विज्ञापन में 12 मिनट की कड़ाई का नियम अगले डेढ़ साल के लिए टल जाता है, तो इसको आधार बनाकर पत्रकारों को निकाला जाना सरासर बेईमानी और धोखा है।
दूसरी बात, विज्ञापन की समय सीमा कम होने से विज्ञापन की दर में भी उछाल आएगा और इस तरह 25 मिनट में जितने पैसे वसूले जाते हैं कम-से-कम उसका 70 फीसदी पैसा तो 10 मिनट के विज्ञापन में वसूला ही जा सकता है।
अब तीसरा तर्क। पत्रकारिता के लिहाज से यह ऊपर के दोनों तर्कों के बराबर और कई मायनों में उससे ज्यादा विकृत तर्क है। यह एक बड़ी आबादी का निषेध करता हुआ तर्क है, जोकि द्विभाषिया नहीं है। यह भाषा को माध्यम के बदले ज्ञान करार दिए जाने का तर्क है। यह एक ऐसा तर्क है, जिसका विस्तार प्रिंट में नवभारत टाइम्स में हुआ। हिंदी और अंग्रेजी में अलग-अलग पत्रकारों के बदले एक ही पत्रकारों से दोनों की रिपोर्टिंग और पैकेजिंग कराने की बात असल में भाषाई संस्कार और जातीयता को सिरे से दबा जाती है। भाषाई खिचड़ी का जो तेवर टीवी चैनलों ने अब तक हमारे सामने पेश किया है, उसे और ज्यादा गड्डमड्ड करने की कोशिश है ये। नवभारत टाइम्स का सर्कुलेशन इस प्रयोग से बढऩे की बजाय घटा है। तो ऐसा नहीं है कि इससे लागत कम हो जाएगी। इस मुद्दे पर तो कम-से-कम भाषाई विमर्श तक खुद को महदूद कर लेने वाले बड़े पत्रकारों/संपादकों को मुंह खोलना ही चाहिए।
सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 की ये परिपाटी अगर बाजार में और ज्यादा अपनाई गई, तो इसी तर्ज पर आजतक और हेडलाइंस टुडे भी कभी भी छंटनी कर सकता है। मुकेश अंबानी या राघव बहल किसी भी तरह के घाटे में नहीं हैं। मीडिया अगर उनके लिए घाटे का सौदा होता, तो मुकेश अंबानी ने अभी एपिक टीवी में 25.8 प्रतिशत शेयर नहीं खरीदे होते। इस नए चैनल में मुकेश के बराबर ही आनंद महिंद्रा ने भी 25.8 प्रतिशत शेयर खरीदे। चार साल तक डिज्नी इंडिया का नेतृत्व करने वाले महेश सामंत इसकी कमान संभालने वाले हैं। सामंत साहब इससे पहले जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी में लंबी पारी खेल चुके हैं। जाहिर है पत्रकारिता से उनका कोई वास्ता नहीं है। उनके लिए 'कंटेंट' कैसे महत्त्वपूर्ण हो सकता है? पत्रकारों की चिंता उन्हें क्यों होगी? और भारतीय मीडिया उद्योग के लिए ऐसी मालिकाना संरचना कोई नई परिघटना नहीं है। 1950 के दशक में पहले प्रेस आयोग ने अपनी सिफारिश में लिखा था, 'अखबारों का आचरण अब न तो मिशन और न ही प्रोफेशन जैसा रह गया है, यह पूरी तरह उद्योग में तब्दील हो चुका है। इसका मालिकाना हक अब उन लोगों के हाथों में आ गया है, जिन्हें पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है, यहां तक कि कोई पृष्ठभूमि भी नहीं है। इसलिए उनका आग्रह अब किसी भी तरह की बौद्धिक चीजों में नहीं है, बल्कि वो ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा बटोरना चाहते हैं।' (अध्याय-12, पेज 230)
जाहिर है यह मालिकानों की नीयत में आया बदलाव नहीं है। उनका ध्येय बिल्कुल साफ है। वे किसी भी हद तक जाकर अपना मुनाफा बढ़ाना चाहते हैं। यहां एक और आयाम इस घटना के साथ जोड़ा जा रहा है जो कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वह है मुकेश अंबानी द्वारा इससे से दो लक्षों को एक साथ साधना। पहला वह इस निवेश के लिए एक ट्रस्ट बना कर संभावित क्रास मीडिया निवेश की सीमा से बाहर हो गए हैं और दूसरा वह इसके जरिये अपने टेलीक्म्युनिकेशन के धंधे को मजबूत करने की नींव डाल चुके हैं। यानी अब नेटवर्क-18 के चैनल मुख्यत: इन्फोटेल के कंटेंट प्रोवाइडर का काम करेंगे और यह काम कम लोगों के माध्यम से किया जा सकेगा।
अब आखिरी सवाल। जिन पत्रकारों की छंटनी हुई है, उनकी चुप्पी का संदेश क्या है? एक कारण शुरू में ही बताया गया है कि मीडिया में प्रतिरोधी आवाज का मतलब बाकी मीडिया घरानों में भी नौकरी मिलने की संभावना को गंवाना है। लेकिन, उनमें से कुछ फेयरवेल पार्टी के बाद सुख-दुख के भाव को तय नहीं कर पा रहे।
बड़े पदों पर रहे लोगों को एकमुश्त 5-10 लाख रुपए मिल गए। इस स्थिति को कुछ लोग 'ठीक है' की शक्ल में टालना चाहते हैं। बाकी कुछ ऐसे लोग हैं जो चाहते हैं कि उनको लेकर विरोध तो दर्ज हो, लेकिन उसमें उनके हस्ताक्षर न हों। अपना पूरा जीवन मजदूर विरोधी खबरों को लिखने-दिखाने में लगाने वाले ऐसे लोगों के साथ कोई हमदर्दी भी मुश्किल से दिखाई जा सकती है, जोकि रैली या आंदोलन को 'जाम' के फ्लेवर में टीवी स्क्रीन पर परोसने में आनंद पाते हों। लेकिन इस सबके बावजूद अगर व्यापक चुप्पी बाहर वालों की तरफ से भी बरकरार रही तो साफ हो जाएगा कि पत्रकारों से ज्यादा कमजोर, लोलुप और असुरक्षित कौम शायद इस देश में कोई नहीं है।
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