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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, February 12, 2014

स्‍त्री-विमर्श : जातीय उत्‍पीड़न का स्‍त्री पक्ष


दलित उत्पीडऩ व जातीय समस्याओं का आधार पितृसत्ता का सामंती रूप और उसका पुनर्गठन है। इस तरह की घटनाओं का जातीय पक्ष इतना प्रबल होता है कि अंतर्निहित लैंगिक समस्या की ओर ध्यान नहीं दिया जाता या उन्हें गौण मान लिया जाता है। इन समस्याओं की जड़ें वास्तव में लैंगिक हिंसा का परिणाम हैं, जिन्हें जातीयता के आधार पर की जाने वाली राजनीति बढ़ावा देती है। जातीय समस्या के साथ-साथ इन घटनाओं पर स्त्रीपरक दृष्टि से विचार करना भी आवश्यक है। पंचायत जैसी व्यवस्था ग्रामीण समाज की परंपरागत मानसिकता को बनाए रखने की कोशिश करती है। सरकार ग्रामीण परिवेश को सुरक्षित रखने के जो प्रयास करती रही है, वे संरचना के स्तर और संसाधनों के विकास के स्तर परंपरागत संकीर्णताओं को भी कायम रखते हैं।

जिस तरह की भौतिक स्थितियों को ग्रामीण परिवेश का आधार माना जाता है वे न केवल स्थानीय व क्षेत्रीय राजनीति को सुनिश्चित करते हैं, बल्कि वहां के परिवेश की खास विशेषताओं पर अत्यधिक बल देने के कारण कई आवश्यक बदलावों को अनदेखा कर देते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि इस तरह की घटनाएं व समस्याएं ग्रामीण समाज के अंदरूनी इलाकों में क्यों हो रही हैं, एक वर्ग विशेष के बीच ही क्यों हो रहीं हैं और पुलिस या कानून द्वारा सुरक्षा अपर्याप्त क्यों है? समुदाय विशेष व कुछ परिवारों द्वारा दबाव क्यों बनाया जा रहा है? इस तरह की घटनाओं के बाद समुदाय विशेष के लोगों के बाच परस्पर निर्भरता खतरे में पड़ जाती है। इसका नुकसान राजनीतिक-आर्थिक रूप से दुर्बल वर्ग के समुदाय को उठाना पड़ता है। अत्यधिक गरीबी, असुरक्षा, भुखमरी व रोजगार का अभाव आदि समस्याओं के कारण संकीर्ण व परंपरागत मानसिकता को राजनीतिक रूप दिया जाता है।

किसी समाज विशेष के विकास का सही अवलोकन करना हो, तो उस समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को मापा जाना चाहिए। कुल आबादी में स्त्रियों की संख्या कितनी है, मतदान करने में स्त्रियों की कितनी भागीदारी है, शिक्षा व रोजगार का स्तर, मां बनने की आयु आदि आंकड़ों द्वारा देखा जा सकता है कि समाज विशेष में विकास का स्तर क्या है। चमार, वाल्मीकि, नाई, कुम्हार, बढ़ई आदि जातियों में स्त्रियों की स्थिति का सवाल ही नहीं उठाया जाता, क्योंकि इन समुदायों की समस्याओं को समग्रता में देखा जाता है। जातीय सामुदायिक पहचान के आधार पर ही अध्ययन-विश्लेषण किया जाता है और आंकड़े इक_े किए जाते हैं। इसलिए यह समझने की आवश्यकता है कि जातीय हिंसा की अधिकतर घटनाओं में कहीं न कहीं असमानता और भेदभाव का मूल आधार लैंगिक असमानता की स्थिति है, जिसे अक्सर पीछे धकेल दिया जाता है। इसे अंतर्जातीय विवाहों में हिंसा और अन्य समाज में कई तरह के प्रतिबंध के माध्यम से देखा व समझा जा सकता हैं।

फैक्ट फाइंडिंग टीम की रिपोर्ट (समयांतर, अंक- जून 2013) के अनुसार 'पबवाना गांव में चमार जाति का, ईंट-भट्ठा मजदूरी करने वाले का बेटा जो खुद छोटी-मोटी नौकरी करता है और गरीबी रेखा (बी.पी.एल.) के दायरे में आता है, वह रोड़ जाति की एक लड़की से प्रेम विवाह करता है। रोड़ भी गरीब किसान की श्रेणी में आते हैं, जिनके खेतों में भिन्न दलित जातियों के गरीब मजदूर काम करते हैं और रोजगार के लिए इन्हीं पर निर्भर हैं।' इस वर्गीय जातीय अंतर के कारण यह मामला अंतर्जातीय विवाह का भी है, जिसके बारे में पंचायत फैसला सुनाती है कि रोड़ बिरादरी की लड़की को चमार जाति का लड़का भगाकर ले गया, जिससे बिरादरी की नाक कट गई है। इसके परिणामस्वरूप हिंसा की वारदातें हुईं जिसमें चमारों के घरों को जलाने, तोड़-फोड़ और रक्तपात जैसे अपराध जायज तरीके से किए गए।

इस पूरे मसले के सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं—एक, बिरादरी की नाक—जिसका आधार घर परिवार और समुदाय की स्त्रियां हैं जिनके जीवन से जुड़े निर्णय लेने का हक केवल समुदाय के पुरुषों का है। दूसरा पक्ष है दलित बहुजन समुदाय के भीतर के अंतर्विरोध, अन्य पिछड़ी जातियों और निम्न जातियों के बीच भेदभाव, ऊंच-नीच और वर्गीय स्थिति का अंतर। सरकार का पक्ष भी जातीय भेदभाव को बनाए रखने का होता है, जिसमें न्याय-व्यवस्था बहुसंख्यक, प्रबल और आर्थिक-राजनीतिक रूप से सशक्त वर्गों का साथ देती है। अंतर्जातीय विवाह कर लेने पर लड़की के पिता द्वारा आत्महत्या कर लेना, परिवार के मर्दों द्वारा लड़के के घरवालों पर हमला करना, जाति विशेष को आधार बनाकर क्षेत्रीय राजनीति करने वाली पार्टियों व संगठनों का दखल और पूरे मामले को हिंसा की घटना में तब्दील करने वाली स्थितियां सामने आई हैं। यदि इनकी तह में जाएं तो देखा जा सकता है कि घर-परिवार, समाज, राजनीति, सरकार, न्याय-कानून आदि सभी स्तरों पर स्त्री की स्वायत्ता और सामाजिक स्थिति का सवाल महत्त्वपूर्ण है। स्त्री को ही जातीय मान-मर्यादा का प्रतीक बनाया गया है, जिसका खामियाजा लड़की के घरवाले तो उठाते ही हैं, दूसरे समुदाय का पुरुष समाज भी उठाता है। इस तरह तथाकथित राजनीतिक वर्ग को लाभ मिलता रहता है।

इसी तरह की घटना तमिलनाडु के धर्मापुरी जिले में हुई, जिसमें न केवल घृणित जातीय भेदभाव व पूर्वाग्रह के कारण हिंसा व हत्या जैसे अपराध हुए, बल्कि भारतीय समाज में परिवारों की मानसिकता व जातीयता को बनाए रखने वाले राजनीतिक दलों की असलियत भी सामने आई। दलित समुदाय के युवक इलावरासन की मृत्यु से कई सवाल सामने आए। उसकी पत्नी दिव्या वनिय्यार समुदाय की थी, जिससे उसने प्रेम विवाह किया। विवाह के बारे में पता चलने पर दिव्या के पिता न केवल इस विवाह से नाखुश थे, बल्कि अपमान की गहरी वेदना से भर गए जो वास्तव में परिवार और समाज के प्रतिगामी विचारों के कारण थी। पिता अपने प्रतिगामी विचारों के कारण अपमान को सहन नहीं कर सके और आत्महत्या कर लेते हैं। उनके लिए पिछड़े विचारों और पूर्वाग्रहों के चलते मान-मर्यादा को खंडित होते देखना बर्दाश्त से बाहर हो गया।

सामाजिक दबाव और विचारों का प्रतिगामी रूप इस तरह की संकीर्णताओं को बनाए रखता है, जिसके दुष्परिणाम सिर्फ जातीय भेदभाव तक सीमित नहीं हैं। तमिलनाडु का वनिय्यार समुदाय भी कभी पिछड़ा माना जाता था, पर संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के चलते उन्होंने स्वयं को उच्च जाति में शामिल कर लिया। द्रविड़ राजनीति दलितों के प्रति पूर्वाग्रहों को समाप्त नहीं कर पा रही। दलितों के प्रति अलगाव, अवहेलना, घृणा को बढ़ाने वाली राजनीति प्राय: अन्य सामाजिक संकीर्णताओं का भी सहारा लेती है। इस तरह की घटनाओं को हिंसक रूप देने के लिए स्त्रियों के प्रति सामाजिक संकीर्णताओं का आसानी से इस्तेमाल किया जाता है। राजनीतिक चेतना का विकास व सशक्तिकरण की तथाकथित सरकारी परियोजना तब तक अधूरी रहेगी, जब तक जमीनी स्तर पर लैंगिक व जातीय समस्याओं से निजात नहीं मिल जाती।

अस्मिता की राजनीति द्वारा अगर हाशिए के राजनीतिकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई है, तो वहीं इन अस्मिताओं की राजनीति का संकीर्ण दायरों में सिमट जाना और कट्टर होते जाना देखा जा सकता है। वर्तमान में जातीय अस्मिताएं कुछ विशेष वर्गों व समूहों में अधिक कठोर हुई हैं, जो हमारे सामाजिक जीवन की जटिलताओं और समस्याओं को खत्म करने में नाकाम रही हैं। पूर्ण सांस्कृतिक बदलाव की मांग व्यापक राजनीतिक आंदोलन की प्रक्रिया से जुड़ी हुई है, जिसके लिए जातीय, क्षेत्रीय व लैंगिक भेदभावों तथा असमानताओं से लडऩा जरूरी है। आज भी अगर जातीय भेदभाव के चलते एक पिता अपनी बेटी के फैसले को स्वीकार करने के बजाय अपमानित महसूस करता है, सामाजिक पूर्वाग्रहों से लडऩे या उनका सामना करने के बजाय शर्मिंदगी महसूस करता है और इससे छुटकारा पाने का आखिरी रास्ता उसके लिए आत्महत्या करना है, तो यह हमारे समाज के लिए संक्रमण की स्थिति है।

मीडिया व अखबारों से यह तथ्य भी सामने आए कि इसमें तमिलनाडु की स्थानीय राजनीतिक पार्टी पी.एम.के. (पट्टाली मक्काली काटची) का दखल है। इस पार्टी की पूरी राजनीति वनिय्यार समुदाय की जातीय अस्मिता पर केन्द्रित है। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए पी.एम.के. ने इस विवाह के बाद हिंसा को बढ़ाने का काम किया। वनिय्यार समुदाय के लोगों ने, जो वास्तव में पी.एम.के. के कार्यकत्र्ता थे, उन्होंने कई दलितों के घरों पर हमला किया। नायासिकेन कोट्टी गांव, जिला धर्मपुर में नवंबर 2012 को दिव्या के पिता की मृत्यु के बाद पीएमके ने इस विवाह को सामाजिक रूप से अवैध बताते हुए इसके विरुद्ध नारे लगवाए। पीएमके नेता एस. रामादौस ने खुलेआम इस विवाह के विरोध में बयान दिया कि एक दलित लड़का किसी भी वनिय्यार समुदाय की लड़की के साथ विवाह नहीं कर सकता। इसे वनिय्यार समुदाय की अस्मिता के लिए खतरा मानते हुए जाति की मान-मर्यादा के खिलाफ बताया गया। एक जाति विशेष की मर्यादा का पूरा भार दिव्या के कंधों पर डाल दिया गया। वनिय्यार जो मूलत: गरीब व निम्न जाति के थे, लेकिन शहरीकरण व अन्य भौतिक स्थितियों में बदलाव के कारण ये अपने लिए विकास के अवसर, जमीन, संपत्ति आदि जुटाने में सफल रहे हैं और ऐसा माना जाता है कि इस समुदाय ने आरक्षण का भरपूर लाभ उठाया है।

नि:संदेह यह गंभीर रूप से जातीय भेदभाव का मसला है पर उतना ही स्त्री की देह, पवित्रता और सामाजिक अस्मिता से जुड़ा सवाल भी है। पीएमके नेता रामादौस ने अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार निरोधक 1989 के कानून में भी संशोधन की मांग की, जो दलितों को किसी भी तरह के अपमान व अत्याचार से बचाने के लिए बनाया गया था। इस तरह की मांग क्षेत्रीय राजनीति की संकीर्णता और खतरों की ओर भी संकेत है। जाति की पवित्रता को संक्रमित होने से बचाने के लिए अंतर्जातीय विवाहों पर पाबंदी लगाने की मांग आने लगी। इस तरह के प्रतिगामी विचारों को राजनीतिक लक्ष्य बनाकर समाज में स्थापित करने का प्रमुख कारण भविष्य की चुनावी प्रक्रिया भी है, जिसमें अक्सर व्यवस्था के सबसे कमजोर तबके यानि स्त्रियों और दलितों के उत्पीडऩ के माध्यम से राजनीतिक स्पेस बनाने की कोशिश की जाती है।

अलग प्रांत की मांग, संकीर्ण राजनीति और हिंसा में स्त्रियों की प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं होती, वे ज्यादातर मूकदर्शक या 'उत्पीडि़त' होती हैं। संकीर्ण राजनीति के माध्यम से इस तरह की राजनीतिक पार्टियां सत्ता में सौदेबाजी कर अपना विस्तार करने की कोशिश करती हैं। इस तरह की राजनीतिक मांगें अत्यधिक ह्रासपूर्ण, पृथकतावादी अलगाववाद को बढ़ाने वाली, कट्टर व उन्मादी होती हैं जिसके पीछे सत्तालोलुपता व सत्ता पाने के निहित स्वार्थ होते हैं। कभी धर्म के नाम पर तो कभी जात-बिरादरी के नाम पर स्त्रियों को 'आबरू' का प्रतीक बना दिया जाता है और उनके नागरिक अधिकारों का पूरी तरह से हनन किया जाता है। अनेक प्रकार की संकीर्ण संरचनाओं पर टिकी पितृसत्ता कमजोर पुरुषों के दमन का कारण भी बनती है, लेकिन इस समस्या को संजीदगी से समझने की जरूरत है।

अगर जातीय संबंधों व पूर्वाग्रहों का आधार समाज में स्त्री पुरुष संबंध व सगोत्र विवाह हैं, तो इससे साफ पता चलता है कि पितृसत्ता के कारण ही जातीय व वर्गीय समाज व्यवस्थाएं टिकी हुई हैं। भारत के अधिकतर प्रांतों में कहीं जात-पात तो कहीं गोत्र के नाम पर प्रतिद्वंद्विता मौजूद है, जिसमें आरक्षण का मुद्दा सत्ता की बंदरबांट का खेल बन जाता है। जिसमें वास्तव में स्त्रियों का नियंत्रण व निर्णय लेने की शक्ति वास्तव में न्यून है। इस तरह की घटनाएं अस्मिता की राजनीति करने वालों की सीमाओं को उजागर करती हैं, जो वास्तव में जात-पात के नाम पर सत्ता में जगह पाने के लिए पृथकतावादी और अलगाववादी राजनीति से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। आंबेडकर का मानना था कि व्यक्तिगत मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती, जब तक हम अपने समाज के परंपरागत व रूढ़ संस्थानों से मुक्त नहीं हो जाते। संस्थानों की गुलामी और बंधन से मुक्त होने के लिए वे राजनीतिक समाधानों को आवश्यक मानते थे। सगोत्र विवाह को वे जातीय संरचना को बनाए रखने का सबसे सशक्त माध्यम मानते थे। वे यह भी कहते थे कि राजनीतिक और संवैधानिक सुधार भी तभी सफल हो सकते हैं, जब वे व्यापक सामाजिक सुधार आंदोलनों और जातीय समस्या के निवारण व उन्मूलन से जुड़े होंगे। (एनिहिलेशन ऑफ कास्ट) जातीय तंत्र और धार्मिक मतांधता को बनाए रखने के लिए स्त्री की सामाजिक स्थिति को गुलाम की भूमिका में रखा जाता है और जैसा कि सभी जानते हैं सत्ता को भली-भांति वही नियंत्रित कर पाता है, जो अपने गुलामों पर शासन करने में सफल होता है।

किसी भी समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए जरूरी है कि राज्य द्वारा सभी नागरिकों को उनकी व्यक्तिगत स्वाधीनता समान रूप से प्रदान की जाए, राज्य उन्हें सुरक्षित रखने व जिम्मेदार बनाने का दायित्व उठाए, अच्छी शिक्षा और मनचाहे साथी से विवाह करने की आजादी दे जिसमें किसी भी तरह का जातीय बंधन अवरोध बनकर सामने न आए। जातीय व्यवस्था को तोडऩे के लिए यह बहुत जरूरी है कि हमारे समाज के लोग विभिन्न जातियों व उप-जातियों में विवाह करें, जिनका कार्यक्षेत्र ही अलग न हो वे विभिन्न प्रांतों और भाषाओं को बोलने वाले भी हों।

यह भी एक विडंबना है कि भारत जैसे देश में जातीय व्यवस्था की कट्टरता की तरह ही हरियाणा जैसे प्रांत में सगोत्र विवाह करने पर पंचायत (खाप) और संकीर्ण राजनीति ने कानून से बाहर जाकर अपने तरीके से न्याय करने का अपराध किया। यह भी एक तरह से जातीय कट्टरता और संकीर्णता का प्रमाण है, जो हमारे समाज में मौजूद प्रतिगामी विचारों के राजनीतिकरण और खतरों को दर्शाता है। व्यक्तिगत रूप से नैतिक स्वायत्ता भी तभी मिल सकती है, जब हमारा राजनीतिक यथार्थ वर्चस्वशाली संस्थानों जैसे जाति, हिंदू विवाह प्रणाली व परिवार आदि को बदलने के प्रयास करने व इनके विकल्प तैयार करने की नैतिक जिम्मेदारी लेगा। जैसे अदालतों द्वारा कानूनों को सक्रिय रूप से लागू करने, भेदभाव निराकरण करने वाली सरकारी योजनाओं को सख्ती से लागू करने आदि की आवश्यकता आजादी के लगभग सात दशक पूरे होने पर भी बनी हुई है।

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