राष्ट्रवादी (!) संघ परिवार के प्रधानमंत्रित्व का चेहरा इतना राष्ट्रद्रोही !
इतना अनैतिक कैसे है नैतिकता की दुहाई देने वाला संघ परिवार
पलाश विश्वास
आदरणीय ईश मिश्र का जवाब आया है। उनका आभार।
उन्होंने लिखा है-
उदितराज अपने रामराजी दिनों से ही एक धुर अवसरवादी और सत्ता लोलुप किस्म का व्यक्ति रहा है। जेएनयू में देवीप्रसाद त्रिपाठी का झोला ढोते हुये सीपीएम का झंडाबरदार था। 1983 में त्रिपाठी के पतित होकर इंदिरा-ब्रिगेड में शामिल होने के उनके ज्यादातर चेले उधर-उधर भागना शुरू हो गये थे क्योंकि वे राजनीतिक समझ से नहीं निजी सम्बंधों के आधार पर सीपीएम में थे। पिछले महीने अलीगढ़ एक सेमिनार में मुलाकात हयी और उसने मुझे दिल्ली तक अपनी लम्बी गाड़ी में दिल्ली तक लिफ्ट दिया। रास्ते में अपने एक समर्थक के घर गया। अपने समर्थकों को साथ उसका व्यवहार ऐसा था जैसे अँग्रेज हिन्दुस्तानी कर्मचारियों के साथ करते थे। बताया कि मायावती अपने पार्टी कार्यकताओं को नौकर-चाकर समझती है। मैंने मजाक किया कि इसीलिये तुम भी वैसा कर रहे हो। तो बोला नहीं ये लोग श्रद्धा में सम्मान करते हैं। पता नहीं किससे सुरक्षा के लिये उसे दो बंदूकधारी सुरक्षाकर्मी मिले हैं। रास्ते भर ड्राइवर और सुरक्षाकर्मियों को ऐसे डाँटते आया जैसे वह सामन्त हो और वे सब उसके नौकर। मुझे उसके भगवामय होने पर आश्चर्य नहीं हुआ। अलीगढ़ से दिल्ली तक मेरी दलित पक्षधरता की तारीफ करते हुये मुझे अपनी पार्टी में आने का प्रलोभन देता रहा। खैर, मैं तो एक साधारण जनपक्षीय शिक्षक हूँ और मेरा काम अपनी सीमित शक्ति से जनवादी जनचेतना के प्रचार-प्रसार में योगदान करना है। बहुजन सत्ता के इन दलालों को खुद सबक सिखाएगा। इतिहास गवाह है कि संघ-परिवार एक दैत्याकार घड़ियाल है जो इन दलितवादियों को मनुवादी एजेण्डे के निवाले में निगल जायेगा। हम वास्तविक वामपंथियों की औकात मोदी के फासीवादी अभियान को रोक पाने की नहीं है, इसलिये फिलहाल, जैसा पलाश जी ने कहा हमें केजरीवाल की बधिया बिखेरने से बचना चाहिए, यद्यपि वह भी कॉरपोरेटी राजनीति का ही पक्षधर है किन्तु फिलहाल उसने मोदियाये गिरोह में बेचैनी पैदा कर दी है। आगे देखा जायेगा। वक्त पार्टियों से बाहर के वामपंथियों के लिये आतममंथन और संगठित होने का है। पलाश भाई, आप इतना और इतना अच्छा लिखते हैं।
संघ परिवार ने अपने लौह पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी, देश की इस वक्त की शायद सबसे बेहतरीन वक्ता सुषमा स्वराज, तीक्ष्ण दिमाग अरुण जेटली जैसे दिग्गजों को ठुकराकर नरेंद्र मोदी की तर्ज पर जिस अदूरदर्शी व्यक्ति को भारत के भावी प्रधानमंत्री बतौर पेश किया है, वह देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा के संवेदनशील मुद्दों में ऐसे उलझ रहा है, जिसकी मिसाल नहीं है।
उनका इतिहासबोध ऐसा कि कक्षा दो तीन में पढ़ने वाले बच्चों को भी अवाक हो जाना पड़े। उनकी वाक्शैली ऐसी कि प्रवचन फेल। संवाद के बजाय जैसे वे सामने के हर शख्स को डाँट-डपट कर एक ही सुर में रटंति मुद्रा में सबक सिखा रहे हों। उनकी रैलियों के नाम ऐसे जैसे देशभर में राजसूय यज्ञ चल रहा हो और दसों दिशाओं में उनके अश्वमेध के घोड़े दौड़ रहे हों और हवा में तलवारें भाँजते हुये खुली चुनौती दे रहे हों कि जिसने माँ का दूध पिया हो मैदान में आकर दो-दो हाथ आजमा लें।
जनादेश माँगने का अंदाजा उनका ऐसा, जैसे अपने इलाके का मस्तान हफ्ता वसूली पर निकला हो। इतना आक्रामक। इतना अलोकतांत्रिक। प्रतिपक्ष के प्रति न्यूनतम सम्मानभाव भी नहीं।
वे गुजरात का महिमामंडन करते हुये क्षेत्रीय अस्मिताओं का खुला असम्मान कर रहे हैं देश भर में, आज तक प्रधानमंत्रित्व के दावेदार किसी नेता ने ऐसा किया हो, साठ के दशक से मुझे याद नहीं है। हमने नेहरू, लोहिया और अंबेडकर को साक्षात् नहीं देखा है और न सरदार पटेल को।
राजनीति का पहला सबक विनम्रता है। राजनेता बाहुबलि नहीं होता। गणतंत्र में उसकी हैसियत जनसेवक की होती है।
कांग्रेसी नेताओं की बात तो छोड़ ही दें, आम तौर पर देश भर में लोग यह मानते हैं कि विचारधारा और धर्म कर्म चाहे जो हो संघी लोग बेहद विनम्र, संवाद कुशल और मीठे होते हैं। संघ के प्रचारक से प्रधानमंत्रित्व के स्तर तक उन्नीत व्यक्ति में संघ परिवार के आम प्रचारक के बुनियादी गुण सिरे से गायब हैं।
अर्थशास्त्र का अभ्यास किये बिना अर्थशास्त्र पर जिस अंदाज में गुजरात माडल के दम पर वे बोलते हैं। ऐसी कुचेष्टा शायद सपने में भी वाजपेयी, आडवाणी, जेटली, राजनाथ और सुषमा स्वराज करें।
संघ परिवार का अपना राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक दर्शन हैं, हममें से बहुत लोग उस केसरिया दर्शन के कठोर निर्मम आलोचक हैं। लेकिन गणतंत्र में पक्ष प्रतिपक्ष को अपना घोषणापत्र, विजन, दर्शन और परिकल्पनाएं पेश करने का पूरा अधिकार है। लेकिन तथ्यों से तोड़ मरोड़ करने की इजाजत किसी गंभीर राजनेता को होती नहीं है। खासकर जो राष्ट्रीय नेतृत्व के दावेदार हों।
बाकी देश को गुजरात बनना चाहिए या नहीं, देश तय करेगा, लेकिन तथ्यों को तोड़ने- मरोड़ने की जो दक्षता मोदी दिखा रहे हैं, वह हैरतअंगेज हैं।
इतिहास पर उनका हर सुवचन हास्यास्पद है। अर्थशास्त्र पर उनके सारे तथ्य गलत हैं। विदेशनीति पर उनकी सिंहदहाड़ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये बेहद खतरनाक। चीन के खिलाफ जो मोर्चा उन्होंने खोल दिया है,वह न केवल नेहरू की ऐतिहासिक भूल की आत्मघाती पुनरावृत्ति है, बल्कि वाजपेयी की राजनयिक उपलब्धियों का गुड़ गोबर हैं।
स्मरणीय है कि भारतीय संविधान का मसविदा बाबासाहेब अंबेडकर ने जरूर तैयार किया है, लेकिन उसको अन्तिम रूप देने में सभी पक्षों का सक्रिय योगदान रहा है। सहमति और असहमति के मध्य भारतीय लोक गणराज्य का निर्माण हुआ। तो केसरिया विमर्श की अभिव्यक्ति के हक को हम खारिज नहीं कर सकते। लेकिन भारतीय संविधान में घृणा अभियान की कोई गुंजाइश नहीं है। अपने समरसता के राष्ट्रीय दर्शन के बावजूद संघ परिवार की राजनीति का मुख्य हथियार असंवैधानिक अमानवीय हिंसा सर्वस्व घृणा ही है। मगर संघ परिवार के राष्ट्रीय नेता इस घृणा कारोबार के विपरीत उदार आचरण करते दीखते रहे हैं।
पंडित दीन दयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी जी की तुलना तो आज के संघी राजनेताओं से की ही नहीं जा सकती, जो संघ और पार्टी के नेता बाद में थे, भारतीय नेता पहले, बल्कि संघ की आक्रामक केसरिया राजनीति का श्रेय जिन लालकृष्ण आडवाणी जी की है, वे भी अत्यंत संवाद कुशल, व्यावहारिक और संसदीय राजनेता हैं। खास बात तो यह है कि संवेदनशील मुद्दों पर संघी नेताओं के मत भले बाकी देश से अलग रहे हों, उन्होंने तथ्यों से खिलवाड़ करने की बाजीगरी से हमेशा बचने की कोशिश की है। मसलन कश्मीर के मामले में, सशस्त्र सैन्य विसेषाधिकार कानून के बारे में संघ का पक्ष धर्मनिरपेक्ष भारत के प्रतिकूल हैं। वे धारा 370 का विरोध करते रहे हैं। श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु भी इसी विरोध के मध्य हयी। लेकिन कश्मीर या पूर्वोत्तर की संवेदनशील परिस्थितियों का विस्तार देश भर में करने की उनकी रणनीति शायद नहीं थी। संघ परिवार के इंतजारी प्रधानमंत्री तो पूरे देश को या तो गुजरात का कुरुक्षेत्र बनाना चाहते हैं या फिर कश्मीर का कारगिल।
हम संघ परिवार के प्रबल विरोधी हैं।
हम जानते हैं कि धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का स्थायी भाव घृणासर्वस्व नस्ली सांप्रदायिक हिंसा है तो उसका सौंदर्यबोध अविराम युद्धोन्माद है। ऐसा युद्दोन्माद जिसमें भरपूर राजनीतिक हित हों, लेकिन राष्ट्रहित तनिक भी नहीं।
हम जनादेश निर्माण में हस्तक्षेप करने की हालत में कतई नहीं हैं लेकिन हम यह कभी नहीं चाहेंगे कि हिटलर जैसा कोई युद्धोन्मादी देश की बागडोर संभाले। गणतंत्र में अगर जनादेश उनके पक्ष में हो तो हम उस युद्धोन्मादी सत्ता के खिलाफ लड़ेगे। यकीनन लड़ेगे साथी। लोकतांत्रिक तरीके से लड़ेंगे। लोकतंत्र और संविधान की रक्षा करते हुये जनादेश का सम्मान करते हुये लड़ेंगे साथी।
लेकिन उस संधिकाल से पहले यह बेहद जरुरी है कि स्वयंभू राष्ट्रहितरक्षक संघ परिवार तनिक अपनी अंतरात्मा से कुछ जरूरी सवाल पूछ ही लें। हमें जवाब देने की जरूरत नहीं है। हम तो उनके महामहिमों से लेकर छुटभैय्यों की तुलना में नितांत साधारण प्रजाजन हैं, नागरिक भी नहीं पूरी तरह। लेकिनहर संघी अपनी अंतरात्मा से पूछें कि वे कितने पक्के राष्ट्रभक्त हैं।
स्वस्थ गणतंत्र के लिये बुनियादी मसला यही है कि नैतिकता की दुहाई देने वाला संघ परिवार अनैतिक कैसे है।
हम तो सिरे से नास्तिक हैं, लेकिन स्वस्थ गणतंत्र के लिये बुनियादी मसला यही है कि धर्मराष्ट्र के सिपाहसालार इतने धर्मविरोधी कैसे हैं।
राष्ट्रवादी संघपरिवार के प्रधानमंत्रित्व का चेहरा इतना राष्ट्रद्रोही कैसे है कि वे अरुणाचल में पूर्वोत्तर के राज्यों में गिने चुने संसदीयक्षेत्रों में कमल खिलाने की गरज से अटल बिहारी की गौरवशाली राजनय को तिलांजलि देकर नेहरु की तर्ज पर बाकायदा चीन के खिलाफ युद्धघोषणा कर आये।
अगर नमोमय भारत बन ही गया और परमाणु बटन उन्हीं के हाथ में रहे तो कहां कब वे परमाणु बटन ही दाब दें, इसकी गारंटी तो शायद अब संघ परिवार भी नहीं ले सकता। पाकिस्तान के साथ ही नहीं, चीन समेत बाकी देशों के प्रति उनका यह युद्धोन्मादी रवैय्या भारत देश के लिये कितना सुखकर होगा, इसमें हमारा घनघोर संदेह है।
हमने इंतजारी प्रधानमंत्री की अरुणाचल यात्रा पर हिंदी में अब तक नहीं लिखा, लेकिन उसी दिन अंग्रेजी में लिखा था, क्योंकि तत्काल पूर्वोत्तर को संबोधित करना फौरी कार्यभार था।
बहरहाल चीन ने बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के 'विस्तारवादी सोच' वाले बयान को खारिज करते हुये कहा कि उसने किसी की एक इंच भी जमीन हड़पने के लिये कभी हमला नहीं किया। चीन को अरुणाचल का मसला नये सिरे से उठाने का अवसर दे दिया मोदी ने।
क्या संघपरिवार ने संवेदनशील सीमाक्षेत्र में भारत चीन सीमा विवाद को चुनावी मुद्दा बनाने की रणनीति बनायी है,यह सवाल पूछा जाना चाहिए।
चीन से संम्बंध सुधारने की अटल बिहारी वाजपेयी की निरंतर कोशिशों के परिमामस्वरुप आज 1962 के नेहरु के हिमालयी भूल से जो युद्ध हुआ, वह अतीत बन गया है,क्या संघ परिवार ने उस अतीत को दोहराने का ठेका नरेंद्र मोदी को दिया है, यक्षप्रश्न यही है।
हर राष्ट्रभक्त को यह सवाल करना ही चाहिए कि संवेदनशील राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों को सत्ता संघर्ष का मुद्दा बनने देना चाहिए या नहीं। इससे पहले ऐसी मारत गलती किसी संघी नेता ने भी की हो तो हमें मालूम नहीं। भारत के इंतजारी प्रधानमंत्री न केवल पूरे देश को गुजरात बनाना चाहते हैं, बल्कि वे इस देश के हर हिस्से को कश्मीर विवाद में तब्दील करने का खतरनाक खेल खेल रहे हैं।
देश का जो होगा, वह होगा। हम मानते हैं कि भारत लोक गणराज्य है और जनादेश के तहत निर्वाचित सरकार को सत्ता सौंपने की जो स्वस्थ एकमात्र परंपरा है, उसका निर्वाह होना ही चाहिए। अतीत में 1977 में संघियों ने केंद्र में गैरकांग्रेसवाद की आड़ में सत्ता संभाला है और अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में राजग गठबंधन ने भी पांच साल तक सत्ता की बागडोर संभाली है। राज्यों में संघी सरकारें इफरात हैं। सत्ता में जाने के बाद तो वाजपेयी को राजकाज के धर्म का निर्वाह ही करना पड़ा।
छुट्टा के बजाय बँधा हुआ साँड कम खतरनाक होता है। सत्ता की जिम्मेदारियाँ संघ परिवार को खुल्ला खेल खेलने से रोक भी सकती हैं।
फिर लोकतंत्र में सभी विचारों का स्वागत होना चाहिए।
चेयरमैन माओ भी सहस्र पुष्प खिलने के पक्ष में थे। धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद पर कोई अकेली भाजपा का एकाधिकार नहीं है।
गुजरात नरसंहार के बरअक्स हमारे सामने सिख नरसंहार की मिसाल भी है। लेकिन इतिहास साक्ष्य देगा और यकीनन देगा कि भले ही अमेरिका ने मोदी के प्रधानमंत्रित्व का अनुमोदन कर दिया है, भले ही कॉरपोरेट आवारा और दोस्ताना पूँजी दोनों नमोमय भारत निर्माण के लिये एड़ी चोटी का जोर लगा रही हो, चाहे बाजार की सारी शक्तियाँ संघ परिवार के हिंदूराष्ट्र के पक्ष में लामबंद हो और मीडिया अति सक्रिय होकर रुक-रुक कर हिमपात की तर्ज पर एक के बाद एक सर्वेक्षण प्रस्तुत करके मोदी के प्रधानमंत्रित्व की नींव ठोंक रहा हो, संघ परिवार ने देश का अहित किया हो या नहीं, अपने पांव पर कुल्हाड़ी जरूर मार ली है।
संघ परिवार के इतिहास में इतना अगंभीर, इतना बड़बोला, राष्ट्रीय सुरक्षा के संवेदनशील मुद्दों के प्रति इतने खिलंदड़ और आंतरिक सुरक्षा के मामले में इतने अगंभीर नेतृत्व की कोई दूसरी मिसाल हों तो खोजकर शोधपूर्वक हमें जरूर इत्तला दें।
हम गोवलकर जी की सोच के साथ असहमत रहे हैं।
हम सावरकर को राष्ट्रनिर्माता नहीं मानते।
हम श्यामा प्रसाद मुखर्जी के तीव्र आलोचक हैं।
हम दीनदयाल उपाध्याय के पथ को भारत का पथ नहीं मानते।
हम वाजपेयी जी के नरम उदार हिंदुत्व को कांग्रेसी धर्मनिरपेक्ष हिंदुत्व से कम खतरनाक नहीं मानते।
हम लालकृष्ण आडवाणी की मंडल जवाबी कमंडलयात्रा और नतीजतन बाबरी विध्वंस के लिये आजीवन कठघरे में खड़ा करते रहेंगे।
लेकिन इन नेताओं ने राष्ट्र हितों का ख्याल नहीं रखा हो, ऐसा अभियोग नहीं कर सकते। सांप्रदायिक राजनीति इन्होंने खूब की है। सन बयालीस में वाजपेयी जी की भूमिका को लेकर विवाद है। लेकिन स्वतंत्र भारत में राष्ट्रनेता बतौर उन्होंने कोई गैर जिम्मेदार भूमिका निभायी हो, ऐसा आरोप अनर्गल ही होगा।
कुल मिलाकर राष्ट्रद्रोह का संघपरिवार में निजी विचलन और अपवादों के अलावा कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं रहा है।
इसी प्रसंग में स्मरणीय है कि बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान भारतीय सैन्य हस्तक्षेप से पहले विश्व समुदाय में इसके पक्ष में समर्थन जुटाने की जिम्मेदारी श्रीमती इंदिरा गांधी ने आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी जी को सौंपा था।
हिंद महासागर में सातवें नौसैनिक बेड़े की मौजूदगी के बावजूद अमेरिका के शिकंजे से बांग्लादेश की स्वतंत्रता के सकुशल प्रसव के लिये जितनी बड़े कलेजे का परिचय दिया इंदिरा गांधी ने, आर्थिक नतीजों से बेपरवाह रहने के लिये अशोक मित्र जैसे अर्थशास्त्रियों ने जो भरोसा दिलाया, युद्धक्षेत्र में तीन दिन में पाक सेना को आत्मसमर्पण के लिये बंगाल में नक्सलवादी चुनौती से निपट रही भारतीय सेना ने जो उपलब्धि हासिल की है, उससे कम वजनदार नहीं है अटल बिहारी वाजयेयी जी की राजनय।
अगर हम जैसे अपढ़ को आप इजाजत दें तो हम कहना चाहेंगे कि संजोग से अब भी जीवित और संघी हिंदू राष्ट्र में अप्रासंगिक बन गये माननीय अटल बिहारी वाजयपेयी जी ने भारतीय राजनय को जिस स्तर तक पहुँचाया, वहाँ से भारतीय राजनय की शवयात्रा ही निकली है।
मेरे दिवंगत पिताजी का वाजपेयी जी से आजीवन मधुर संम्बंध रहा है और उनकी राय वाजयपेयी जी के बारे में बदली कभी नहीं बदली। राजनीति में वाजपेयी के नेतृत्व को मैं शायद सौ में से दस नंबर भी न दूँ, लेकिन बतौर भारत के राजनयिक प्रतिनिधि और इस देश के सबको लेकर चल सकने वाले प्रधानमंत्री बतौर हम वाजपेयी जी की भूमिका ऐतिहासिक मानते हैं।
अब वाजपेयी को भूलकर, लौहपुरुष रामरथी आडवानी को किनारे करके और सुषमा स्वराज की अनदेखी करके संघ परिवार भारत देश पर कैसा गैर जिम्मेदार प्रधानमंत्री थोंपने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगा रहा है, बाकी देश इस पर सिलसिलेवार विचार करें, इससे पहले नमोमय भारत निर्माण उत्सव मना रहे संघी इस पर सिलसिलेवार विचार कर ले तो वह राष्ट्र के लिये मंगलमय तो होगा ही और संघ की प्रासंगिकता बनाये रखने के लिये अनिवार्य भी।
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