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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, February 28, 2014

बाकी बच गया अण्डा / नागार्जुन दूर तक चुप्पी सबसे ज्यादा खतरनाक है।ख्वाबों की मौत से भी ज्यादा खतरनाक।

बाकी बच गया अण्डा / नागार्जुन

दूर तक चुप्पी सबसे ज्यादा खतरनाक है।ख्वाबों की मौत से भी ज्यादा खतरनाक।


पलाश विश्वास


नरेंद्र मोदी ने कहा है कि देश में कानून बहुत ज्यादा हैं और ऐसा लगता है कि सरकार व्यापारियों को चोर समझती है। उन्होंने हर हफ्ते एक कानून बदल देने का वायदा किया है।कानून बदलने को अब रह ही क्या गया है,यह समझने वाली बात है।मुक्त बाजार के हक में सन 1991 से अल्पमत सरकारे जनादेश की धज्जियां उड़ाते हुए लोकगणराज्य और संविधान की हत्या के मकसद से तमाम कानून बदल बिगाड़ चुके हैं।मोदी दरअसल जो कहना चाहते हैं,उसका तात्पर्य यही है कि हिंदू राष्ट्र के मुताबिक देश का संवैधानिक ढांचा ही तोड़ दिया जायेगा।


मसलन डा.अमर्त्य सेन के सुर  से सुर मिलाकर तमाम बहुजन चिंतक बुद्धिजीवी की आस्था मुक्त बाजार और कारपोरेट राज में है। लेकन ये तमाम लोग अपना अंतिम लक्ष्य सामाजिक न्याय बताते अघाते नही है। कारपोरेट राज के मौसम के मुताबिक ऐसे तमाम मुर्ग मुसल्लम सत्ता प्लेट में सज जाते हैं।जबकि बाबासाहेब अंबेडकर ने जो संवैधानिक प्रावधान किये, वे सारे के सारे मुक्त बाजार के खिलाफ है।वे संसाधनों के राष्ट्रीयकरण की बात करते थे,जबकि मुक्त बाजार एकतरफा निजीकरण है। वे निःशुल्क शिक्षा के प्रावधान कर गये लेकिन उदारीकृत अमेरिकी मुक्त बाजार में देश अब नालेज इकोनामी है। संविधान की पांचवीं छठीं अनुसूचियों के तमाम प्रावधान जल जंगल जमीन के हक हूक के पक्ष में हैं, जो लागू ही नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया कि जमीन जिसकी संसाधन उसीका,लेकिन सुप्रीम कोर्ट की अवमानना  करते हुए अविराम बेदखली का सलवा जुड़ुम जारी है। स्वायत्तता भारतीय संविधान के संघीय ढांचे का बुनियादी सिद्धांत है ,जबकि कश्मीर और समूचे पूर्वोत्तर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत बाबासाहेब के अवसान के बाद 1958 से लगातार भारतीय नागरिकों के खिलाफ आंतरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की पवित्र अंध राष्ट्रवादी चुनौतियों के तहत युद्ध जारी है।


अंबेडकर अनुयायी सर्वदलीय सहमति से इस अंबेडकर हत्या में निरंतर शामिल रहे हैं। अब कौन दुकानदार कहां अपनी दुकान चलायेगा,इससे बहुजनों की किस्मत नहीं बदलने वाली है।लेकिन बहुजन ऐसे ही दुकानदार के मार्फत धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की पैदल सेनाएं हैं।


मोदी व्यापारियों के हक हकूक में कानून बदलने का वादा कर रहे हैं और उसी सांस में व्यापारियों को वैश्विक चुनौतियों का समना करने के लिए भी तैयार कर रहे हैं।असली पेंच दरअसल यही है। कारोबार और उद्योघ में अबाध एकाधिकारवादी कालाधन वर्चस्व और विदेशी आवारा पूंजी प्रवाह तैयार करने का यह चुनाव घोषणापत्र अदृश्य है।


हमारे युवा साथी अभिषेक श्रीवास्तव ने अमेरिकी सर्वेक्षणों और आंकड़ों की पोल खोल दी है।हम उसकी पुनरावृत्ति नहीं करना चाहते। लेकिन जैसा कि हम लगातार लिखते रहे हैं कि भारत अमेरिकी परमाणु संधि का कार्यान्वयन न कर पाने की वजह अमेरिका अपने पुरातन कारपोरेट कारिंदोंं की सेवा समाप्त करने पर तुला है।अमेरिका को शिकायत है कि इस संधि के मुताबिक तमाम आर्थिक क्षेत्रों में अमेरिकी बाजार अभी खुला नहीं है और न ही अमेरिकी युद्धक अर्थव्यवस्था संकट से उबर सकी है।


इसके अलावा खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर अमेरिकी जोर है,जिसका विरोध करने की वजह से कारपोरेट मीडिया आप के सफाये के चाकचौबंद इंतजाम में लगा है।खुदरा बाजार में एफडीआई को हरी झंडी का पक्का इंतजाम किये बिना मोदी को अमेरिकी समर्थन मिलना असंभव है।अब समझ लीजिये कि छोटी और मंझोली पूंजी, खुदरा कारोबार में शामिल तमाम वर्गों के लोगों का हाल वही होने वाला है जो देश के किसानों,मजदूरों और अस्पृश्य नस्लों और समुदायों का हुआ है,जो उत्पादन प्रणाली,उत्पादन संबंधों और श्रम संबंधों का हुआ है।


तमाम दलित व पिछड़े मसीहा,आत्मसम्मान के झंडेवरदार डूबते जहाज छोड़कर भागते चूहो की तरह केशरिया बनकर कहीं भी छलांग लगाने को तैयार हैं।कहा जा रहा है कि दस साल से जो काम कांग्रेस ने पूरा न किया, वह नमोमय भारत में जादू की छड़ी घुमाने से पूरा हो जायेगा।बंगाल के बारासात से विश्वविख्यात जादूगर जूनियर को टिकट  दिया गया है और शायद उनका जादू अब बहुजनों के काम आये।


इसी बीच संजय पासवान के मार्फत भाजपा ने हिंदुत्व ध्रूवीकरण के मकसद से आर्थिक आरक्षण का शगूफा भी छोड़ दिया है लेकिन किसी प्रजाति के बहुजन की कोई आपत्ति इस सिलसिले में दर्ज हुई हो ऐसी हमें खबर है नहीं।आपको हो तो हमें दुरुस्त करें।



इसी बीच कोलकाता जनसत्ता के संपादक शंभूनाथ शुक्ल ने खुलासा किया हैः


एक वामपंथी संपादक ने मुझसे कहा कि गरीब तो ब्राह्मण ही होता है। हम सदियों से यही पढ़ते आए हैं कि एक गरीब ब्राह्मण था। हम गरीब तो हैं ही साथ में अब लतियाए भी जा रहे हैं। उन दिनों दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत में लोग जातियों में बटे हुए थे बजाय यह सोचे कि ओबीसी को आरक्षण देने का मतलब अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण है न कि अन्य पिछड़ी जातियों को। मंडल आयोग ने अपनी अनुशंसा में लिखा था कि वे वर्ग और जातियां इस आरक्षण की हकदार हैं जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से अपेक्षाकृत पिछड़ गई हैं। मगर खुद पिछड़ी जातियों ने यह सच्चाई छिपा ली और इसे पिछड़ा बनाम अगड़ा बनाकर अपनी पुश्तैनी लड़ाई का हिसाब बराबर करने की कोशिश की। यह अलग बात है कि इस मंडल आयोग ने तमाम ब्राह्मण और ठाकुर व बनिया कही जाने वाली जातियों को भी आरक्षण का फायदा दिया था। पर जरा सी नासमझी और मीडिया, कांग्रेस और भाजपा तथा वामपंथियों व खुद सत्तारूढ़ जनता दल के वीपी सिंह विरोधी और अति उत्साही नेताओं, मंत्रियों द्वारा भड़काए जाने के कारण उस राजीव गोस्वामी ने भी मंडल की सिफारिशें मान लिए जाने के विरोध में आत्मदाह करने का प्रयास किया जो ब्राह्मणों की आरक्षित जाति में से था। और बाद में उसे इसका लाभ भी मिला।


यह खुलासा बेहद मह्त्वपूर्ण है।


अब हमें 1991 में मनमोहन अवतार से पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर सरकारों के दौरान हुई राजनीति का सिलसिलेवार विश्लेषण करना होगा कि कैसे वीपी सिंह मंडल ब्रहास्त्र का इस्तेमाल करते हुए अपने राजनीति खेल को नियंत्रित नहीं रख सकें।

हमने 1990 के मध्यावधि चुनावों के दौरान बरेली में दो बार वीपी से लंबी बातचीत की जो तब दैनिक अमरउजाला में छपा भी। लेकिन वीपी इसे मिशन ही बताते रहे। जबकि आनंद तेलतुंबड़े ने जाति अस्मिता को राजनीतिक औजार बनाने का टर्रनिंग प्वायंट मानते हैं इसे।तबसे आत्मघाती अस्मिता राजनीति बेलगाम है और तभी से मुक्त बाजार का शुभारंभ हो गया। जब लंदन में वीपी अपना इलाज करा रहे थे, तब भी मंडल प्रसंग में आनंद तेलतुंबड़े की उनसे खुली बात हुई थी।बेहतर हो कि आनंद यह किस्सा खुद खोलें।



हम इस मुद्दे पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।


फिलहाल यह समझ लें कि संघपरिवार ने सवर्णों के पिछड़े समुदायों को आरक्षम भी मंजूर नहीं किया और पूरे देश को खूनी युद्धस्तल में बदलने के लिए कमंडल शुरु किया।


आनंद से आज हमारी इस सिलसिले में विस्तार से बात हुई तो उन्होंने बताया कि अनुसूचित जातियों के अलावा जाति आधारित आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है।ओबीसी का मतलब अन्य पिछड़ी जातिया नहीं, अदर बैकवर्ड कम्युनिटीज है,यानी अन्य पिछड़ा वर्ग।


पिछड़े वर्गों के हितों के विरुद्ध इतनी भयानक राजनीतिक खेल करने वाला संघ परिवार बहुजनों और देस के बहुसंख्य जनगण के हितों के मुताबिक अब क्या क्या करता है,देखना बाकी है।


मुक्त बाजार को स्वर्ण काल मानने और ग्लोबकरण  को मुक्ति की राह बताने वालों के विपरीत आनंद तेलतुंबड़े का कहना है कि बाजार में खरीददारी की शक्ति के बजाय गर्भावस्था से ही बहुजनों के बच्चों की निःशुल्क क्वालिटी शिक्षा का इंतजाम हो जाये तो बहुजनों के उत्तान क लिए और कुछ नहीं चाहिए।


हमारे डायवर्सिटी मित्र तमाम समस्याओं के समाधान के लिए संसाधनों और अवसरों का अंबेडकरी सिद्धांत के मुताबिक न्यायपूर्ण बंटवारे को अनिवार्य मानते हैं। हम उनसे सहमत है।संजोग से दुसाध एकमात्र बहुजन बुद्धिजीवी है जिन्होंने आर्थिक आरक्षण के संघी एजंडे को दुर्भाग्यपूर्ण माना है।


हम लेकिन कारपोरेट राज और मुक्त बाजार दोनों के खिलाप जाति उन्मूलन के एजंडे के प्रस्थानबिंदू मान रहे हैं।


अनेक साथी बिना मतामत दिये फेसबुक और नाना माध्यम से इस बहस को बेमतब बताते हुए गाली गलौज पर उतारु हैं।हम उनके आभारी हैं और मानते हैं कि गाली गलौज उनकी अभिव्यक्ति का कारगर माध्यम हो सकता है।


हमें तो उन लोगों पर तरस आता है जो सन्नाटा बुनते रहने के विशेषज्ञ है।


कवि मदन कश्यप के शब्दों में यह दूर तक चुप्पी सबसे ज्यादा खतरनाक है।ख्वाबों की मौत से भी ज्यादा खतरनाक।

हमारे प्राचीनतम कविमित्र मदन कश्यप का चौथा कविता संग्रह दूर तक चुप्पी का प्रकाशन हुआ है।धनबाद में दैनिक आवाज में काम करते हुए झारखंड आंदोलन और कोयला मजदूर आंदोलन में सक्रियता के मध्य मदन जी और संजीव जी की रचना प्रक्रिया का वर्षों साक्षी रहा हूं।मदनजी शुरु से बेहतरीन कवि रहे हैं। उनकी कविताओं में सही मायने में कोयलांचल की भूमिगत आग की आंच रही है। उम्मीद है कि राजधानी के कंक्रीट जंगल में वह आग बुझी नहीं होगी।


दरअसल जनपक्षधर कविता अंधेरे में रोशनी फैलाने का काम करती है।दिशा हीनता और अंधकार में इसीलिए फिर फिर हमें मुक्तिबोध के अंधेरे से दिशा खोजने की जरुरत महसूस होती है। इसी संदर्भ में आज के सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में मित्रों की ओर से उद्धृत बाबा नागार्जुन की कविता हमें सामने रखनी पड़ रही है।


दरअसल कविता की रचनाप्रक्रिया जनता के हक हकूक,समता,सामाजिक न्याय,नागरिक व मानवाधिकार और मुक्तिकामी जनता की आकांक्षाओं का एक अनवरत अनिवार्य युद्ध है। व्यवस्था के विरोध में दुनियाभर के अलावा  समस्त भारतीय भाषाओं में प्रतिरोध की गौरवशाली परंपरा है नदियों की तरह निरंतर प्रवाहित होती हुईं। पुरस्कृत प्रतिष्ठित कवियों के अलावा कभी कभार एकदम अजनबी कवि की पक्ति में वह कालजयी अभिव्यक्ति हमें आलोकित कर देती है।


इसी वजह से हमने देश केज्वलंत मुद्दों पर कवियों को कविता में अपनी राय देने की छूट दे रखी है। हम अपनी ओर से भी लगातार अच्छी कविताओं की खोज में लगे रहते हैं।जहां भी उस कविता की आहट सुनायी पड़ती है,हम उसकी राह में पलक पांवड़े बिछा देते हैं।


ईश्वर और धर्म में हमारी कोई आस्था नहीं है। लेकिन कविता में हमारी आस्था अखंड है। हम यकीन करते हैं कि दुनिया के किसी कोने में जबतक कोई आखिरी जनपक्षधर कविता बची रहेगी और उसकी गूंज हमें सुनायी देती रहेगी,बची रहेगी मनुष्यता और बची रहेगी पृथ्वी।


हम बदलते मौसम के लिए,अपने असंभव ख्वाबों के लिए तब तक लड़ते रहेंगे साथी।



मेरे पिता के यायावरी जीवन को जो हम बचपन से देखते रहे,यायावर कवि बाबा नागार्जुन से हमारी आत्मीयता की शायद सबसे बड़ी वजह यही रही होगी।हम कोई बड़े लेखक पत्रकार आदि कभी न थे। बाबा से खतोकितवत होती रहती थी।जैस अश्क जी या अम़त लाल नागर से।


कोलकाता में जनसत्ता में आने के बाद अचानक नई दिल्ली के सादातपुर से उनका पत्र आया कि हम सोदपुर में तुम्हारे यहां ठहरेंगे।तब टुसु छोटा था और हमारे पास एक ही कमरा था।


हालांकि मैंने तदर्थ तौर पर मकान मालिक से कहकर उनके खाली पड़े एक कमरे का बंदोबस्त बाबा को ठहराने के लिए कर लिया था,लेकिन हम सोचते रह गये कि कोलकाता में बाबा इतने लोकप्रिय हैं कि किसी के यहां चले जायेंगे और हमें याद भी नहीं करेंगे।हम दफ्तर चले गये।


उनकी ट्रेन आने से पहले हमारे तत्कालीन समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह ने कहा,तुम यहां क्या कर रहे हो।स्टेशन पर न पहुंचोगे तो बाबा डंडा लेकर यहीं आ धमकेंगे।


मित्र कृपाशंकर चौबे से तीन सौ रुपये लेकर में त्तकाल हावडा़ पहुंचा तो ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी और तमाम लोग बाबा को लेने वहां पहुंच चुके थे।सबका आग्रह था कि बाबा उनके साथ चलें।


बाबा लेकिन एक ही रट लगाये हुे थे,पलाश कहां है।मुझे तो सोदपुर जाना है।


बाबा हमारे यहां आये।किताबों के ढेर लेकर साथ में शोभाकांत जी।


वे तब भी अमेरिका से सावधान पढ़ रहे थे।हमें उन्होंने साम्राज्यवाद के बारे में बेहद देशी सबक सिखाया।देश दुनिया और साहित्य के बारे में खूब बतियाते।


या फिर सविता के साथ रसोई में जम जाते।


जो खाने को मन होते ,तुरंत लाने के लिए हम बाजार दौड़ पड़ते।


हमारे पिता तो हमारे साथ कभी नहीं रहे।जब भी आये,आकर तुकरंत निकल पड़े। लेकिन बाबा ने तो धुनि जमा ली।

कोलकाता से लोग आते जाते।

लेकिन हमारे पास तब टेलीफोन भी न था।

बच्चे शोर मचाते रहते थे,शरारत करते रहते थे,इससे वे तंग भी रहने लगे।

फिर एकदिन सोदपुर से डेरा उठाकर कोलकाता गीतेशजी के जनसंसार में चले गये।


बाबा बहुत मौज में कविताें सुनाया करते थे।


यह कविता सुनाते जब थे, तो अजीब सी चमक होती थी उनकी आंखों में और हंसते ठीक उसीतरह थे,जैसे सविता के हाथों बनी सूरण की चटनी चाखने के बाद।


आज फिर वह कविता आज के ज्वलंत संदर्भ में पेश करते हुए बाबा नागार्जुन की वह हंसी याद आ गयी।


बाबा के साथ जो वक्त हमने बिताया,वह बहुत निजी रहा है,जिसे आज तक हमने साझा नहीं किया किसी के साथ।इन पंक्तियों के मिजाज के खुलासे के लिए यह निजी ब्यौरा भी।


दरअसल जितनी सरल लगती हैं ये पंक्तियां,उतनी सरल हैं भी नहीं।

यह कविता दरअसल हमारी दृष्टि में मुक्तिबोध के अंधेरे का ही सहजिया विस्तार है।

बाकी बच गया अण्डा / नागार्जुन

February 28, 2014 at 3:43pm


पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार

गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार


चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन

देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन


तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो

अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो


दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक

चिपक गया है एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक


एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झण्डा

पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अण्डा


1950 के आसपास लिखी गई कविता



मंत्र कविता

ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है..

ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द, और श‌ब्द, और श‌ब्द

ॐ प्रण‌व‌, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें

ॐ व‌क्तव्य‌, ॐ उद‌गार्, ॐ घोष‌णाएं

ॐ भाष‌ण‌...

ॐ प्रव‌च‌न‌...

ॐ हुंकार, ॐ फ‌टकार्, ॐ शीत्कार

ॐ फुस‌फुस‌, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार

ॐ आस्फाल‌न‌, ॐ इंगित, ॐ इशारे

ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे


ॐ स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, स‌ब कुछ

ॐ कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं

ॐ प‌त्थ‌र प‌र की दूब, ख‌रगोश के सींग

ॐ न‌म‌क-तेल-ह‌ल्दी-जीरा-हींग

ॐ मूस की लेड़ी, क‌नेर के पात

ॐ डाय‌न की चीख‌, औघ‌ड़ की अट‌प‌ट बात

ॐ कोय‌ला-इस्पात-पेट्रोल‌

ॐ ह‌मी ह‌म ठोस‌, बाकी स‌ब फूटे ढोल‌


ॐ इद‌मान्नं, इमा आपः इद‌म‌ज्यं, इदं ह‌विः

ॐ य‌ज‌मान‌, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ क‌विः

ॐ क्रांतिः क्रांतिः स‌र्व‌ग्वंक्रांतिः

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः स‌र्व‌ग्यं शांतिः

ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः स‌र्व‌ग्वं भ्रांतिः

ॐ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ

ॐ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ

ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ

ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ


ॐ द‌लों में एक द‌ल अप‌ना द‌ल, ॐ

ॐ अंगीक‌रण, शुद्धीक‌रण, राष्ट्रीक‌रण

ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टीक‌रण

ॐ ऎत‌राज़‌, आक्षेप, अनुशास‌न

ॐ ग‌द्दी प‌र आज‌न्म व‌ज्रास‌न

ॐ ट्रिब्यून‌ल‌, ॐ आश्वास‌न

ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌

ॐ छ‌ल‌-छंद‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़

ॐ ब‌क‌वास‌, ॐ उद‌घाट‌न‌

ॐ मारण मोह‌न उच्चाट‌न‌


ॐ काली काली काली म‌हाकाली म‌हकाली

ॐ मार मार मार वार न जाय खाली

ॐ अप‌नी खुश‌हाली

ॐ दुश्म‌नों की पामाली

ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार

ॐ अपोजीश‌न के मुंड ब‌ने तेरे ग‌ले का हार

ॐ ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ

ॐ ह‌म च‌बायेंगे तिल‌क और गाँधी की टाँग

ॐ बूढे की आँख, छोक‌री का काज‌ल

ॐ तुल‌सीद‌ल, बिल्व‌प‌त्र, च‌न्द‌न, रोली, अक्ष‌त, गंगाज‌ल

ॐ शेर के दांत, भालू के नाखून‌, म‌र्क‌ट का फोता

ॐ ह‌मेशा ह‌मेशा राज क‌रेगा मेरा पोता

ॐ छूः छूः फूः फूः फ‌ट फिट फुट

ॐ श‌त्रुओं की छाती अर लोहा कुट

ॐ भैरों, भैरों, भैरों, ॐ ब‌ज‌रंग‌ब‌ली

ॐ बंदूक का टोटा, पिस्तौल की न‌ली

ॐ डॉल‌र, ॐ रूब‌ल, ॐ पाउंड

ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड


ॐ ॐ ॐ

ॐ ध‌रती, ध‌रती, ध‌रती, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌

ॐ अष्ट‌धातुओं के ईंटो के भ‌ट्टे

ॐ म‌हाम‌हिम, म‌हम‌हो उल्लू के प‌ट्ठे

ॐ दुर्गा, दुर्गा, दुर्गा, तारा, तारा, तारा

ॐ इसी पेट के अन्द‌र स‌मा जाय स‌र्व‌हारा

ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त, ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त‌


भाई दिलीप खान ने एकदम सही लिखा है






दलित होना एक बात है, दलित मुद्दों की राजनीति करना दूसरी बात। राम विलास छंटे हुए अवसरवादी हैं। उन्हें खुद के लिए, बेटे के लिए और भाइयों के लिए टिकट चाहिए। दलित राजनीति के मूल में इन्क्लूसिव होना छिपा है, लेकिन रामविलास सिर्फ़ परिवार के सदस्यों की हिस्सेदारी को लेकर इन्क्लूसिव हैं। यही वजह है कि पार्टी खड़ी नहीं हो पाई। परिवार के अलावा पार्टी है ही नहीं। पिछली बार लोकसभा चुनाव में खाता नहीं खुला था। बहुत ज़ोर लगाएंगे तो शायद इस बार खुल जाए। बाक़ी बिहार में रेलेवेंस तो कुछ बचा नहीं है महोदय का।

जगदीश्वर चतुर्वेदी ने सूचना दी हैः

मनमोहन सरकार के कारपोरेट हितैषी फ़ैसले-१-


वर्ष 2007 से 2013 के बीच उनके फंसे हुए कर्ज में 5 लाख करोड़ रुपये और शामिल हो गए। जिन फंसे हुए कर्ज को माफ किया गया उनमें से 95 फीसदी बड़ी कंपनियों का कर्ज था। यह बात खुद आरबीआई के डिप्टी गवर्नर के सी चक्रवर्ती ने स्वीकार की थी। यह बात ध्यान देने वाली है कि संप्रग के आलोचक 60,000 करोड़ रुपये की कर्ज माफी और 30,000 करोड़ रुपये की रोजगार गारंटी योजना का जिक्र तो करते हैं लेकिन अमीरों की भारी कर्ज माफी उनके लिए चर्चा का विषय नहीं है।


Jagadishwar Chaturvedi

शुक्रवार को कैबिनेट ने महंगाई भत्ता में 10 पर्सेंट बढ़ोतरी करने का फैसला किया। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सरकारी कर्मचारियों का महंगाई भत्ता मौजूदा 90 पर्सेंट से बढ़ाकर 100 पर्सेंट करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दिया है। इससे 50 लाख कर्मचारियों और 30 लाख पेंशनभोगियों को लाभ होगा।


आदरणीय मोहन क्षोत्रिय की व्याख्या है

‪#‎उत्तरआधुनिकतावाद‬ की विकृतियों के सबसे बड़े पैरोकार हैं, ‪#‎साहेब‬ !


इन्होंने इतिहास को अप्रासंगिक बना दिया है !


जहां वह खड़े होते हैं, बोलने के लिए, वहां ‪#‎इतिहासदमतोड़देताहै‬ !


यह ध्यान रहे, ‪#‎इतिहासकेअंत‬ में ‪#‎स्वप्नकाअंत‬ भी निहित है ! ‪#‎यथार्थकाअंत‬ भी इससे जुड़ा हुआ है ही ! तो फिर राजनीति के नाम पर यह सारा ‪#‎तमाशा‬ सिर्फ़ ‪#‎गद्दी‬पा लेने तक ही सीमित है न?

जगदीश्वर जी के इस सवाल का भी जवाब दें

आम आदमी पार्टी और वामपंथी दलों को छोड़कर देश का कोई भी राजनीतिक दल बड़े कारोबारी घरानों की खुली लूट और सरकारी छूट पर सवाल नहीं उठा रहा है। बाक़ी दल क्या कारपोरेट ग़ुलाम हैं ?

तनिक दयानंद पांडेय जी के लिखे पर भी गौर करें


तो क्या सामाजिक न्याय और धर्मनिर्पेक्षता की दुहाई सिर्फ़ और सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी नहीं है? अगर नहीं है तो यह तमाम-तमाम राजनीतिक दल भाजपा और मोदी से लड़ने के लिए एक क्यों नहीं हो जाते? इस बिना पर दक्षिण में करुणानिधि-जयललिता, पश्चिम बंगाल में वाम और ममता, उत्तर प्रदेश में मायावती-मुलायम, बिहार में लालू-नीतीश आदि-आदि क्यों नहीं एक हो जाते? आखिर इन सब की धर्मनिर्पेक्षता और सामाजिक न्याय की हुंकार तो एक ही है। और हां, कांग्रेस से भी यह सब एक साथ क्यों नहीं मिल जाते और मिल कर चुनाव लड़ते। साथ में आम आदमी पार्टी और उस के नेता केजरीवाल को भी जोड़ लेते। सब का एजेंडा भी एक है। यह सब जो एक हो जाएं तो मोदी और उन की भाजपा से मुकाबला दिलचस्प हो जाए। आखिर सांप्रदायिक शक्तियों से देश को बचाना बहुत ज़रुरी है। बहुत मुमकिन है मोदी का रथ तो क्या एक पहिया भी न हिल पाए, आगे बढ़ना या विजय की तो बात खैर नहीं ही हो पाएगी। लेकिन इन लफ़्फ़ाज़ों को तनिक भी शर्म नहीं आती। खाने के और दिखाने के बहुतेरे हैं। इन का पाखंड और इन पाखंडियों का कुछ तो प्रतिकार और इलाज होना ही चाहिए।


शहनवाज मलिक के इस अनुभव पर हो सके तो थोड़ी सी शर्म भी महसूस कर लें।

दिल्ली चुनाव में मोदी की पहली रैली कवर करने रोहिणी के जापानी पार्क गया था। भाषण शुरू होने से पहले मैं वहां जुटी भीड़ में दाखिल हो गया। तमाम सवालों के बीच एक यह भी था कि आप मोदी को वोट क्यों देंगे? तकरीबन आधा दर्जन लोगों से बातचीत के बाद मेरा सवाल सुन एक मोदीभक्त मेरे पास आकर बोला 'ताकि हम मुसलमानों को मार सकें।' मैंने मुस्कुराते हुए अपने सवाल जारी रखे और जाते वक्त उसे अपना नाम बताता गया। लेकिन यह इकलौता मोदीभक्त नहीं है जिसके मन में हिंसा के ख्याल इस हद तक हावी चुके हैं। मोदी के नाम पर बढ़ते उन्माद और हिंसक भीड़ को शातिराना ढंग से 'राष्ट्र विकास के लिए दीवानगी और मोदी लहर' का नाम दिया जा रहा है। विकास के लिए ऐसी दीवानगी पहले कभी नहीं देखी गई। यह देश असल में उन्मादियों और अशिष्टों से अटा पड़ा है जहां सलमान ख़ुर्शीद को शिष्टता का पाठ पढ़ाया जाता है।

अब अनवर सुहैल के इस दर्द को भी तो महसूस करें

Anwar Suhail

माफ़ी माँगना होगा

हुंह...काहे की माफ़ी

का कौनो अपराध हुआ है

मुसल्लों को मारना कोई अपराध होता है क्या

अरे...ई तो कुछु नाही है

सुकर मनाएं लोग

कि कम्मे लोग मारे गये

थोरा और ढील देये कि जरुरत रही

का करें, हमरा दिल ही अईसा है

कि दया आ गई

वरना, अईसा मौका बार-बार थोरई आता है


हुंह...काहे की माफ़ी

अरे, कित्ते ढेर सारे

बचा दिए फिर भी...

जादा, चूं-चां न करें लोग

कह दो, ई सब बचा नही पायेंगे

जउन लोग फफड-दलाली कर रहे हैं

उनके बूता नही कि बचा सकें तुम लोगन को

मारेंगे हमहीं...और बचावे की गारंटी भी

देंगे हमहीं...समझे....

समझे कि नही समझे...

अनिल जनविजय जी ने फेसबुक वाल पर पोस्ट किया है

नेहा नरुका की कविता 'पार्वती योनि'


ऐसा क्या किया था शिव तुमने ?

रची थी कौन-सी लीला ? ? ?

जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग

माताएं बेटों के यश, धन व पुत्रादि के लिए

पतिव्रताएँ पति की लंबी उम्र के लिए

अच्छे घर-वर के लिए कुवाँरियाँ

पूजती है तुम्हारे लिंग को,


दूध-दही-गुड़-फल-मेवा वगैरह

अर्पित होता है तुम्हारे लिंग पर

रोली, चंदन, महावर से

आड़ी-तिरछी लकीरें काढ़कर,

सजाया जाता है उसे

फिर ढोक देकर बारंबार

गाती हैं आरती

उच्चारती हैं एक सौ आठ नाम


तुम्हारे लिंग को दूध से धोकर

माथे पर लगाती है टीका

जीभ पर रखकर

बड़े स्वाद से स्वीकार करती हैं

लिंग पर चढ़े हुए प्रसाद को


वे नहीं जानती कि यह

पार्वती की योनि में स्थित

तुम्हारा लिंग है,

वे इसे भगवान समझती हैं,

अवतारी मानती हैं,

तुम्हारा लिंग गर्व से इठलाता

समाया रहता है पार्वती योनि में,

और उससे बहता रहता है

दूध, दही और नैवेद्य...

जिसे लाँघना निषेध है

इसलिए वे औरतें

करतीं हैं आधी परिक्रमा


वे नहीं सोच पातीं

कि यदि लिंग का अर्थ

स्त्रीलिंग या पुल्लिंग दोनों है

तो इसका नाम पार्वती लिंग क्यों नहीं ?

और यदि लिंग केवल पुरूषांग है

तो फिर इसे पार्वती योनि भी

क्यों न कहा जाए ?


लिंगपूजकों ने

चूँकि नहीं पढ़ा 'कुमारसंभव'

और पढ़ा तो 'कामसूत्र' भी नहीं होगा,

सच जानते ही कितना हैं?

हालांकि पढ़े-लिखे हैं


कुछ ने पढ़ी है केवल स्त्री-सुबोधिनी

वे अगर पढ़ते और जान पाते

कि कैसे धर्म, समाज और सत्ता

मिलकर दमन करते हैं योनि का,


अगर कहीं वेद-पुराणऔर इतिहास के

महान मोटे ग्रन्थों की सच्चाई!

औरत समझ जाए

तो फिर वे पूछ सकती हैं

संभोग के इस शास्त्रीय प्रतीक के-

स्त्री-पुरूष के समरस होने की मुद्रा के-

दो नाम नहीं हो सकते थे क्या?

वे पढ़ लेंगी

तो निश्चित ही पूछेंगी,

कि इस दृश्य को गढ़ने वाले

कलाकारों की जीभ

क्या पितृसमर्पित सम्राटों ने कटवा दी थी

क्या बदले में भेंट कर दी गईं थीं

लाखों अशर्फियां,

कि गूंगे हो गए शिल्पकार

और बता नहीं पाए

कि संभोग के इस प्रतीक में

एक और सहयोगी है

जिसे पार्वती योनि कहते हैं


(नेहा नरुका महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में शोध सहायक हैं.)


Navbharat Times Online

नरेंद्र मोदी ने कहा है कि देश में कानून बहुत ज्यादा हैं और ऐसा लगता है कि सरकार व्यापारियों को चोर समझती है। पढ़ें पूरी खबर और कॉमेंट के जरिए दें अपनी राय...


खबर: http://navbharattimes.indiatimes.com/india/national-india/narendra-modi-advocates-online-trade-criticises-congress/articleshow/31114624.cmsनरेंद्र मोदी ने कहा है कि देश में कानून बहुत ज्यादा हैं और ऐसा लगता है कि सरकार व्यापारियों को चोर समझती है। पढ़ें पूरी खबर और कॉमेंट के जरिए दें अपनी राय...    खबर: http://navbharattimes.indiatimes.com/india/national-india/narendra-modi-advocates-online-trade-criticises-congress/articleshow/31114624.cms

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The Economic Times

Lok Sabha polls 2014: Nandan Nilekani heats up battle in India's Silicon Valley.


Nilekani is taking on BJP's five-term MP and former Union Minister H N Ananth Kumar. The rookie Aam Admi Party is unlikely to miss the Bangalore opportunity.


Read the full story here http://ow.ly/u5pYDLok Sabha polls 2014: Nandan Nilekani heats up battle in India's Silicon Valley.    Nilekani is taking on BJP's five-term MP and former Union Minister H N Ananth Kumar. The rookie Aam Admi Party is unlikely to miss the Bangalore opportunity.     Read the full story here http://ow.ly/u5pYD

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The Economic Times

Sensex may touch 22,000 level before general elections: Experts


Sensex may hit 22,000 level before the general elections on hopes that a stable government at the Centre after polls will be able to unleash strong measures to revive economic growth, experts have said.http://ow.ly/u4SsQSensex may touch 22,000 level before general elections: Experts     Sensex may hit 22,000 level before the general elections on hopes that a stable government at the Centre after polls will be able to unleash strong measures to revive economic growth, experts have said. http://ow.ly/u4SsQ

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The Economic Times

Top performing employees to get 15.3% hikes compared to an average 10%: Aon Hewitt Survey | Share your views


Read the full story here http://ow.ly/u30WHTop performing employees to get 15.3% hikes compared to an average 10%: Aon Hewitt Survey | Share your views    Read the full story here http://ow.ly/u30WH

Seema Mustafa

Bring Modi to Justice , British MPs hold meet in UK Parliament; readwww.thecitizen.in

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Satya Narayan

अब जब कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी दायरों से लेकर आम जनान्दोलनों तक में समूची पूँजीवादी व्यवस्था के विकल्प का सवाल अभूतपूर्व से रूप से महत्वपूर्ण हो गया है, तो यह एक उपयुक्त समय है कि 20वीं सदी के महान समाजवादी प्रयोगों की सफलताओं और असफलताओं का नये सिरे से आलोचनात्मक मूल्यांकन किया जाये। पूरी दुनिया में समाजवादी संक्रमण पर आजकल काफ़ी कुछ लिखा भी जा रहा है। सोवियत संघ और समाजवादी चीन में समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर भी तमाम बहसें चल रही हैं। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर और साथ ही अकादमिकों के बीच भी यह नये सिरे से चर्चा का विषय बन गया है। 21वीं सदी में समाजवादी परियोजना के बारे में पिछले पाँच-छह वर्षों में ही दर्जनों किताबें आयी हैं। सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों की समस्याओं पर ही इस दौर में कई शोध कार्य और पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। कई लोगों ने यहाँ तक प्रश्न खड़ा किया है कि सोवियत संघ और चीन में जो था उसे समाजवाद कहा भी जा सकता है या नहीं; कुछ ने इन प्रयोगों का विश्लेषण करते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया है; कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने लेनिन पर प्रतिस्थापनवाद (सब्स्टिट्यूशनिज़्म) का और पार्टी का अधिनायकत्व स्थापित करने का आरोप लगाया है तो कुछ अन्य ऐसे हैं जिन्होंने माओ पर सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान पार्टी के प्राधिकार को खण्डित करने का आरोप लगाया है; एक तबका ऐसा भी है जो सोवियत समाजवाद और चीनी समाजवाद के प्रति अनालोचनात्मक रवैया अख़्तियार करता है और किसी भी प्रकार के विश्लेषण की ज़रूरत को ही ख़ारिज करता है; कई नये अभिलेखागारों के खुलने के बाद स्तालिन के दौर के भी पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता पैदा हो गयी है और कई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन और बुद्धिजीवी स्तालिन प्रश्न पर भी नये सिरे से चिन्तन कर रहे हैं; कुछ अन्य ऐसे भी हैं जो लातिन अमेरिका के तथाकथित 'बोलिवारियन विकल्प' और यूनान में सिरिज़ा के प्रयोग को 21वीं सदी का समाजवाद घोषित कर रहे हैं; कुछ उत्तर-मार्क्‍सवादी चिन्तक हैं जो उत्तर-मार्क्‍सवादी कम्युनिज़्म की बात कर रहे हैं और 20वीं सदी के समाजवादी प्रयोगों को एक 'विपदा' बताकर सिरे से ख़ारिज कर रहे हैं; निश्चित रूप से, वे विचारधारात्मक विभ्रम फैला रहे हैं और इन उत्तर-मार्क्‍सवादी विचार-सरणियों की एक सुसंगत आलोचना की ज़रूरत है; महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति पर भी नये सिरे से चिन्तन की ज़रूरत है जिसने समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के हल की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बढ़ाये थे। ऐसे और भी कई मुद्दे हैं जो समाजवादी संक्रमण पर नये सिरे से जारी चर्चा में अहम बन गये हैं। लेकिन एक सामान्य थीम जो इन सभी बहसों के प्रतिच्छेद बिन्दु (इण्टरसेक्शन पॉइंट) के रूप में सामने आ रही है वह है समाजवादी संक्रमण के दौरान हिरावल पार्टी, वर्ग और राज्यसत्ता के बीच के सम्बन्ध का प्रश्न। इन तमाम बहसों में से कुछ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच चल रही हैं, तो कुछ मार्क्‍सवादी अकादमिकों व बौद्धिकों के बीच। लेकिन इससे इन सभी बहसों के महत्व पर कोई असर नहीं पड़ता। ये सभी बहसें टुकड़ों-टुकड़ों में उन अहम सवालों को उठा रही हैं जिन पर आज प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को सोचना ही होगा।

आमंत्रण : पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी

scribd.com

हमारे प्रिय दिवंगत साथी अरविन्द की स्मृति में 'अरविन्द स्मृति न्यास' की ओर से हम 2009 से अब तक चार अरविन्द स्मृति संगोष्ठियों का आयोजन कर चुके हैं। दिल्ली व गोरखपुर में आयोजित पहली दो संगोष्ठियों का विषय मज़दूर आन्दोलन की चुनौतियों और भूमण्डलीकरण के दौर में उसके नये रूपों और रणनीतियों पर केन्द्रित थ...

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एक नायक की कलंक गाथा..

-शम्भूनाथ शुक्ल||

पत्रकारिता के संस्मरण पार्ट- १२

वह एक नायक था धीरोदात्त और नायकत्व के सारे गुणों से युक्त. वह राजा भी था और रंक भी. पर उसके हर नायक के जीवन की कटुताओं की भांति उसके भी हहिस्से में कलंकगाथाएं ज्यादा आईं और अलौकिकता कम. अपनी इन कलंकगाथाओं पर उस नायक ने एक बार एक विवाह समारोह में दुखी मन से कहा था कि दरअसल उन्होंने भादों के अंधियारे पाख में चौथ का चाँद देख लिया था इसलिए कलंकगाथाएं उनकी नियति हैं. यह नायक था विश्वनाथ प्रताप सिंह. जब मुख्यमंत्री रहे तब भी और जब प्रधानमंत्री रहे तब भी कलंकगाथाओं ने उनका पीछा नहीं छोड़ा.vp-singh

प्रधानमंत्री राजीव गांधी से उनके तनाव तब ही शुरू हो गए थे जब बतौर वित्त मंत्री उन्होंने इन्फोर्समेंट डिपार्टमेंट को असीम शक्तियां प्रदान कर दी थीं तथा इस विभाग ने एकदम से धीरूभाई अंबानी के आवास पर छापा मार दिया था और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बालसखा अमिताभ बच्चन को भी घेर लिया था. नतीजा वही हुआ जिसकी आशंका थी. राजीव ने उनसे वित्त मंत्रालय छीन लिया और रक्षा मंत्री बना दिया. पर वहां वीपी सिंह ने बोफोर्स डील पकड़ ली. उनसे ऊबे राजीव ने उनसे मंत्रीपद ले लिया. वीपी सिंह ने पार्टी छोड़ दी तथा लोकसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया और इलाहाबाद सीट से उपचुनाव जीत कर पुन: लोकसभा में आ गए.

राजीव कैबिनेट के अरुण नेहरू तथा आरिफ मोहम्मद खान को लेकर उन्होंने जन मोर्चा बनाया और धीरे-धीरे कांग्रेस से ऊबे लोग वहां आने लगे. 11 अक्टूबर 1988 को जेपी के जन्मदिन पर जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस एस ने मिलकर जनता दल बनाया. इसके अध्यक्ष वीपी सिंह चुने गए. राजीव गांधी की सरकार से मिलकर लडऩे के लिए कई क्षेत्रीय दलों जैसे एनटी रामराव की तेलगू देशम, द्रमुक, असम गण परिषद ने वीपी सिंह के साथ हाथ मिलाकर एक राष्ट्रीय मोर्चा तैयार किया. इसके संयोजक वीपी सिंह बने, एनटी रामराव अध्यक्ष और पी उपेंद्र को महासचिव चुना गया. 1989 के आम चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी और वाम दलों ने मिलकर कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए वीपी सिंह को मदद करने की रणनीति बनाई. बहुत कम बहुमत से ही सही पर राष्ट्रीय मोर्चा सत्ता में आ गया. तब भाजपा और वामदलों ने सरकार में शामिल होने की बजाय बाहर से सपोर्ट करने का वायदा किया.

दो दिसंबर 1989 से लेकर 10 नवंबर 1990 तक वीपी सिंह की सत्ता रही पर इस बीच जनता दल ने यूपी, बिहार, हरियाणा, गुजरात और ओड़ीसा में तो अपनी सरकारें बना लीं तथा राजस्थान में भाजपा की और केरल में वामदलों की सरकार बनवा दी. इसके अलावा राष्ट्रीय मोर्चा की तरफ से असम में प्रफल्ल कुमार महंत की, आंध्र मेंं रामराव की और तमिलनाडु मेंं द्रमुक की सरकार बनी. पर सरकार बनते ही वीपी सिंह का पहला एसिड टेस्ट तो तब हुआ जब केंद्र के गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी को कश्मीरी आतंकवादियों ने अगुआ कर लिया. इसके एवज में उन्हें उन आतंकियों की मांगें माननी पड़ीं. और कुछ खूंखार आतंकियों को रात के अंधेरे में रिहा करना पड़ा. इसके बाद भाजपा के दबाव में उन्होंने जम्मू कश्मीर में पूर्व नौकरशाह जगमोहन को राज्यपाल बनाया. इसी तरह पंजाब से सिद्धार्थशंकर राय जैसे कैड़े राज्यपाल को हटाकर एक अन्य नौकरशाह निर्मल मुखर्जी को राज्यपाल बनाया. वीपी सिंह बगैर किसी सुरक्षा बंदोबस्त के स्वर्ण मंदिर गए और आपरेशन ब्लू स्टार के लिए सिख समुदाय से माफी मांगी. इसी मरहम का नतीजा था कि पंजाब में लोकतांत्रिक प्रक्रिया चालू हुई और वहां विधानसभा चुनाव के आसार बने. इसके अलावा वीपी सिंह ने विवाद की जड़ भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) को श्रीलंका से वापस बुलवा लिया.

जनता दल बनी ही थी उत्तर भारत के समाज में पिछड़ वर्गों को सामाजिक न्याय दिलाने के वास्ते इसलिए अगस्त 1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अन्य पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिलाने हेतु बने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया. यह आरक्षण व्यवस्था वर्षों से पिछड़े समुदायों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए उन्हें नौकरियों में आरक्षण की सुविधा देती है. वीपी सिंह ने इसे लागू कर एक तरह से अपने एजंडे पर ही अमल किया था. पर मीडिया और कांग्रेस व भाजपा ने इसे युवा विरोधी बताकर ऐसा खूनी खेल शुरू करवा दिया जिसकी कलह और जलन आज तक नहीं मिट सकी है. यह खेल इतना खतरनाक था कि उसके सामने 1947, 1984 और 2002 भी फीके पड़ गए.

(जारी)



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पहलू बदलकर मंडलीय अड्डेबाजी..

शंभूनाथ शुक्ल||

पत्रकारिता के संस्मरण पार्ट-१३30_SM_P_3_MANDAL_1222366f

अगस्त, सितंबर और अक्टूबर १९९० के बहुत उमस भरे दिन थे वे। राजधानी में चारों तरफ त्राहि-त्राहि मची थी। हर ओर बेचैनी थी। चाहे वे कांग्रेसी रहे हों अथवा भाजपाई या वामपंथी सब बहस करते समय बार-बार पहलू बदलते। चाय की दूकानों पर, चौराहों पर किसी भी मैदान की बेंचों पर बैठे बुजुर्गों, जवानों और महिलाओं में बस एक ही चर्चा होती कि अब क्या होगा? अखबारों ने अपनी अपनी सुविधा से अपना पाला चुन लिया था। नवभारत टाइम्स ने अपना तो टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपना। जनसत्ता साइलेंट मोड पर था लेकिन इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी ने वीपी सिंह के खिलाफ एक मोर्चा खोल लिया था। दिल्ली विश्वविद्यालय और जनेयू में आग लगी हुई थी। रोज कोई न कोई छात्र आत्मदाह करने की कोशिश करता। हर चौराहे, बाजार और सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शन। इससे निपटने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ता। एक जगह पुलिस आग बुझाती तत्काल उसके पड़ोस में लग जाती। बंद, टांसपोर्ट ठप, बाजारों में सन्नाटा पसरा रहता। रोज अखबार से गाड़ी आती, हमें ले जाती और छोड़ जाती। ऐसा पहला मौका था जब अपने ही दफ्तरों की गाड़ी के ड्राइवर से न तो हम बात करते और न ही वे वाचाल ड्राइवर हमसे। यहां तक कि नमस्कार तक नहीं होती थी।

एक वामपंथी संपादक ने मुझसे कहा कि गरीब तो ब्राह्मण ही होता है। हम सदियों से यही पढ़ते आए हैं कि एक गरीब ब्राह्मण था। हम गरीब तो हैं ही साथ में अब लतियाए भी जा रहे हैं। उन दिनों दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत में लोग जातियों में बटे हुए थे बजाय यह सोचे कि ओबीसी को आरक्षण देने का मतलब अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण है न कि अन्य पिछड़ी जातियों को। मंडल आयोग ने अपनी अनुशंसा में लिखा था कि वे वर्ग और जातियां इस आरक्षण की हकदार हैं जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से अपेक्षाकृत पिछड़ गई हैं। मगर खुद पिछड़ी जातियों ने यह सच्चाई छिपा ली और इसे पिछड़ा बनाम अगड़ा बनाकर अपनी पुश्तैनी लड़ाई का हिसाब बराबर करने की कोशिश की। यह अलग बात है कि इस मंडल आयोग ने तमाम ब्राह्मण और ठाकुर व बनिया कही जाने वाली जातियों को भी आरक्षण का फायदा दिया था। पर जरा सी नासमझी और मीडिया, कांग्रेस और भाजपा तथा वामपंथियों व खुद सत्तारूढ़ जनता दल के वीपी सिंह विरोधी और अति उत्साही नेताओं, मंत्रियों द्वारा भड़काए जाने के कारण उस राजीव गोस्वामी ने भी मंडल की सिफारिशें मान लिए जाने के विरोध में आत्मदाह करने का प्रयास किया जो ब्राह्मणों की आरक्षित जाति में से था। और बाद में उसे इसका लाभ भी मिला।

नवभारत टाइम्स के संपादक राजेंद्र माथुर ने चुप साध ली थी और सुरेंद्र प्रताप सिंह की टीम हमलावर मूड में थी। रोज वहां तमाम ऐसे लोगों के लेख ढूंढ़-ढूंढ़कर छापे जाते जिसमें ब्राह्मणों और अन्य सवर्ण जातियों की निंदा की जाती। अथवा कहना चाहिए कि कमर के नीचे हमला किया जाता। तभी रामबिलास पासवान का एक बयान आया कि उनके कलेजे में ठंड तब पहुंचेगी जब उनके घर की महरी ब्राह्मणी होगी। अब वीपी सिंह भी लाचार थे और वे अपनी टीम पर काबू नहीं कर पा रहे थे। वीपी सिंह ने पासवान के ऐसे बयान का विरोध किया मगर खुलकर वे कुछ नहीं कह पा रहे थे। वे घिर गए थे। अपनी ही बनाई लकीर में और अपने ही लोगों ने उन्हें बंद कर दिया था। वे खुली दुनिया में नहीं आ पा रहे थे। हालांकि वे स्वयं चाहते थे कि ऐसे आग लगाऊ बयान बंद हों पर न तो वीपी सिंह इस पर काबू कर पा रहे थे न उनके टीम के अन्य लोग। दो काम हुए। इंडियन एक्सप्रेस से अरुण शौरी को हटा दिया गया। और सुरेंद्र प्रताप सिंह की पकड़ नवभारत टाइम्स में कमजोर पडऩे लगी। कारपोरेट हाउसेज ने अपना धंधा संभाला। वे जातिगत लड़ाइयों में अपना धंधा नहीं मंदा करना चाहते थे। जनसत्ता में न तो मंडल सिफारिशों के समर्थन में कोई लेख छप रहा था न विरोध में। ऐसे सन्नाटे में मैने एक लेख लिखा आरक्षण की फांस। इसमें मैने लिखा कि नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलेगा तो उसे ही जो संपन्न होगा तथा पढ़ा-लिखा होगा। अब मैकू जाटव और मैकू सुुकुल दोनों ही मेरे गांव में खेतिहर मजदूर हैं और उन दोनों को ही आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता। इसलिए मध्यवर्ग के सवर्णों में इसे लेकर बेचैनी है गरीब सवर्ण को तो भड़काया जा रहा है। इस लेख के छपने के बाद ही केंद्रीय मंत्री रामपूजन पटेल हमारे दफ्तर आए और प्रभाष जी के पास जाकर मुझे बुलवाया। मुझसे हाथ मिलाते हुए उन्होंने कहा कि शुक्ला जी आप पहले ब्राह्मण तो क्या सवर्ण पत्रकार हैं जिन्होंने आरक्षण के समर्थन में लेख लिखा। मैं आपका आभारी हूं।

इसी दौर में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह का एक लेख नवभारत टाइम्स में छपा जिसमें बताया गया था कि वीपी सिंह में नया करने की ललक तो है पर शऊर नहीं है।

जारी



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Himanshu Kumar

दयामनी बरला भी लोक सभा चुनाव लडेंगी . अच्छी खबर है .


Activist Dayamani Barla likely to contest LS on AAP ticket

thehindu.com

Dayamani Barla, award-winning tribal activist and journalist, is likely to contest Lok Sabha election on an Aam Admi Party (AAP) ticket, party leaders said on Saturday. She is likely to contest the elections from Khunti.

Amalendu Upadhyaya

भारत की जनता ने दंगे को ठुकरा दिया। गुजरात में जो कुछ हुआ, वह दंगा नहीं, एक सरकार व पार्टी द्वारा प्रायोजित नरसंहार था।

अगर गोडसे मुसलमान होता ?

hastakshep.com

उज्ज्वल भट्टाचार्या गांधी का हत्यारा मुसलमान भी हो सकता था। हिन्दू और मुस्लिम संप्रदायवादी उस नासमझ, भोले फ़कीर के जानलेवा दुश्मन थे। नासमझ, क्योंकि वह भारत के विभाजन को मानने के लिये तैयार नहीं था, ज़मीनी हक़ीक़त को नकारते हुये अपने...

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Vidya Bhushan Rawat via Surendra Grover

Save us from the survey's of these agencies. India's crony corporate media has now crossed all its limits. It is thoroughly discredited. It is time government must act to rein on such farce. Election Commission must ban these surveys.

नमो को सबसे पसंदीदा प्रधानमन्त्री पद का दावेदार बताने वाला अमेरिकी सर्वे फर्जी निकला..मीडि

mediadarbar.com

बारह बरस से भटकती रूहें और एक चुनाव सर्वे: प्‍यू रिसर्च सेंटर का ओपिनियन पोल... -अभिषेक श्रीवास्‍तव|| इतिहास गवाह है कि प्रतीकों को भुनान

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Mangalesh Dabral via Giriraj Kiradoo

BBC Hindi - भारत - हिंदू है...... इसे जाने दो !

bbc.co.uk

दस वर्ष पहले गुजरात दंगों के दौरान किस तरह उन्हें दंगाइयों की भीड़ का सामना करना पड़ा और कैसे उनकी जान बची,बता रहे हैं रेहान फ़ज़ल

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Jagadishwar Chaturvedi

मोदी की कारपोरेट भक्ति-२-


नरेंद्र मोदी देश भर में घूमघूमकर कांग्रेस की आलोचना कर रहे हैं लेकिन वे जिस वायुयान पर सवार होकर यह काम कर रहे हैं उसके पाश्र्व में काफी बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है- अदाणी!

अदाणी समूह को गुजरात सरकार ने महज 60 करोड़ रुपये में 55 वर्ग किलोमीटर औद्योगिक भूमि उपलब्ध कराई है। इसके लिए एक रुपये से 30 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से भुगतान किया गया है।

यहां तक कि वर्ष 2003-07 के दौरान भी मोदी ने जो 100 उड़ानें भरीं उनमें से 68 रिलायंस, अदाणी आदि के चार्टर्ड विमानों में भरी गईं। ये आंकड़े गुजरात सरकार के हैं। गुजरात में मोदी के कार्यकाल में जो विनिर्माण वृद्घि दर्ज की गई है वह दो अल्ट्रा मेगा रिफाइनरियों से ही है। इनका स्वामित्व एस्सार और रिलायंस के पास है। ऐसे में हमारे पास कांग्रेस और मोदी के अलावा तीसराविकल्प खोजने पर ध्यान देना होगा ।

The Economic Times

IIM-A to offer infrastructure naming rights at its campus to raise fundshttp://ow.ly/u5v7NIIM-A to offer infrastructure naming rights at its campus to raise funds http://ow.ly/u5v7N

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Jagadishwar Chaturvedi

अण्णा हज़ारे का अ-राजनीतिक खेल खुलगया है । वे ममता और मोदी के बीच में सेतु के तौर पर काम कर रहे हैं । अण्णा ने जिस तरह केजरीवाल की दिल्ली विजय के लिए बयान तक जारी नहीं किया और ममता के लिए बयान दिया और प्रचार भी करेंगे। इससे यह साफ़ हो गया है कि अण्णा और केजरीवाल में तीन- तेरह का संबंध है ।

ममता के लोगों पर गंभीर करप्शन चार्ज हैं जबकि केजरीवाल अभी तक करप्शन मुक्त है । करप्शनमुक्त केजरीवाल को अण्णा ने क्यों समर्थन नहीं दिया ?

भ्रष्ट ममता को समर्थन देकर वे साफ़ संदेश देना चाहते हैं कि अण्णा की पूजा करो तो सब ठीक है ।

केजरीवाल में यह गुण है कि वह किसी नेता की पूजा नहीं करता और न अण्णा की ही पूजा करता है। आगामी लोकसभा चुनाव में अंधभक्ति को धूल चटाना पहली ज़िम्मेदारी है हम सबकी।

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Status Update

By Afroz Alam Sahil

आज से ठीक तीन साल पहले आज ही के दिन स्वतंत्र व निष्पक्ष पत्रकारिता के उद्देश्य से http://beyondheadlines.in/ की शुरूआत हुई थी. वेबसाइट की शुरूआत करते समय ही हमारा उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट था. हम बिना किसी के दबाव में या किसी विशेष वर्ग के लिए काम करने के बजाए समाज व जनहित में जानकारियां लाना चाहते थे. हमारा उदेश्य था कि सच अपने पूर्ण स्वरूप में पाठकों के समक्ष पहुंचे.


बीते 3 सालों में कई ऐसी खबरें हैं जो अगर BeyondHeadlines न होता तो शायद किसी दूसरे माध्यम से यह खबर आपको कभी नहीं मिल पाती. जैसे अरविन्द केजरीवाल के दोस्त मनीष सिसोदिया को फोर्ड फाउंडेशन से चंदा मिलना, बाबा रामदेव का भाजपा को चंदा दिया जाना, और भाजपा द्वारा डाऊ केमिकल्स से चंदा लिया जाना, देश के वर्तमान सरकार का चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से रिश्तें... स्वास्थ्य के नाम पर दवा कम्पनियों की मनमानियां, देश में स्वास्थ्य के हर स्कीमों में होने वाले घोटाले... हज सब्सिडी के नाम पर पांच सालों में 790 करोड़ा का घोटाला, अल्पसंख्यकों के नाम पर चलने वाले तमाम स्कीमों की सच्चाईयां... पवन बंसल के कारनामे... चम्पारण में गांधी की दूर्दशा और प्रकाश झा के अपने ही गांव वालों के साथ धोखा... नीतिश का मीडिया मैनेजमेंट तो वहीं मेडिकल कॉलेज के नाम पर करोड़ों का घोटाला... और न जाने क्या-क्या...??? इतना ही नहीं, कई मामलों में हम खबरों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि खबरों से आगे जाकर सरकार के पास अपनी शिकायत दर्ज कराई और उस पर एक्शन भी करवाया... हमारी कई खबरों पर पीआईएल दाखिल की गई और कुछ में सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला भी आया.


इन तीन सालों में हमारी सैकड़ों खबरों को देश की तथाकथित मीडिया प्रकाशित व प्रसारित करने को मजबूर हुई. इतना ही नहीं, इंटरनेशल मीडिया ने भी हमारी खबरों की चर्चा की. इन तीन सालों में हम तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया के चेहरे से नकाब हटाने का काम भी करते रहे. हंसी तो तब आती है जब 'गवर्नेंस नाऊ' जैसे पत्रिका हमारी खबर को हूबहू कॉपी करके फोटो के साथ अपनी कवर स्टोरी बनाता है... इन सबके बीच हमें खुशी तब मिलती जब हम इस देश के आम आदमी को अपनी बात रखने का पूरा-पूरा मौका देते हैं. हमने यह साबित किया कि एक चौकीदार व रिक्शे वाले को अपनी बात रखने का पूरा-पूरा अधिकार है. उससे भी अधिक खुशी तब मिलती जब एक बच्चा जो अप्लास्टिक अनेमिया का शिकार होता है और एम्स जैसे संस्थान में 3.5 लाख का खर्च बताया जाता है और हम उसकी खबर को लिखते हैं और हमारे पाठक यानी आप 3 दिन के अंदर 3.5 लाख उसके एकाउंट में डाल देते हैं. बात यहीं खत्म नहीं होती... एक गरीब छात्रा को यूनाइटेड नेशन कांफ्रेस में शामिल करवाने का श्रेय भी हमारे पाठको को जाता है. दो तीन में लोगों ने हमारे एक अपील पर 60 हज़ार की मदद आप सबने ही की है... खैर, बातें काफी सारी हैं. हम खुद कन्फ्यूज़ हैं कि अपनी कितनी सारी उपलब्धियों को आपके समक्ष रखें...


आखिर में बस इतना ही कहना चाहेंगे कि इन 3 सालों में आपका प्यार, समर्थन व स्नेह हर समय मिलता रहा है. साथ ही आपकी आलोचनाएं भी हमें निरंतर बेहतर करती रही हैं. हमारा प्रयास रहेगा कि अपनी निष्पक्ष, स्वतंत्र व सटीक पत्रकारिता से आपके जीवन को बेहतर बनाते रहें. हम मानकर चलते हैं कि जानकारी ही सब कुछ है. यदि पाठकों के पास सही जानकारी होगी तो वो सही फैसले ले पाएगा. इसलिए हमेशा की तरह आगे भी हमारा उदेश्य नई नई जानकारियां निकाल कर आप तक पहुंचाना होगा. देश व समाज हित की वो जानकारियां जो बड़े-बड़े दफ्तरों में धूल खाती हैं, जिन पर किसी दबाव में आकर पर्दा डाल दिया जाता है. हम हर खतरे को उठाते हुए, हर हद तक जाते हुए उन जानकारियों को लाते हैं और आगे भी लाते रहेंगे...

Bhanwar Meghwanshi

बंजारा समुदाय को मुख्यधारा में लाए - मेघवंशी

मंगलवाड़ के समीप स्थित तितरड़ा गांव के विजय सिंह बंजारा (बामणिया) ने भगवान शिव का मंदिर बनवाया जिसकी प्राण प्रतिष्ठा 27 फरवरी 14 गुरूवार को किया गया। अविनाशी महादेव मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के उपलक्ष पर आयोजित कार्यक्रम में राजस्थान सरकार के मुख्य सचेतक कालू लाल गुर्जर, प्रसिद्ध गौभक्त अशोक कोठारी, दलित आदिवासी एवं घुमन्तु अधिकार अभियान राजस्थान के संस्थापक भंवर मेघवंशी, रूरल अवेयरनेस सोसायटी के उपाध्यक्ष प्रहलाद राय मेघवंशी सहित कई उपस्थित थे।

समारोह को सम्बोधित करते हुए भंवर मेघवंशी ने कहा कि बंजारा समुदाय का गौरवशाली इतिहास रहा हैै। उन्होंने कहा कि बंजारा समुदाय के लोगों का मुख्य व्यापार नमक व पशु खरीदने-बेचने का रहा है लेकिन कुछ समय से नमक का व्यापार न के बराबर रहा है वहीं पशु खरीदने-बेचने पर भी इनके खिलाफ गायों को कत्ल के लिए ले जाने के फर्जी केस लगाए गए है। उन्होंने कहा कि बंजारा समुदाय के सैकड़ों लोगों पर फर्जी मुकदमें लगाए गए है, घुमन्तु आयोग में इस समुदाय के लोगों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला है वहीं इनके आवास, पट्टे तथा व्यवसाय के लिए सरकार ने कभी ध्यान नहीं दिया है। उन्होंने मुख्य सचेतक कालू लाल गुर्जर से आग्रह किया कि वे बंजारा समुदाय की समस्याओं से सरकार को अवगत करावें।बंजारा समुदाय को मुख्यधारा में लाए - मेघवंशी  मंगलवाड़ के समीप स्थित तितरड़ा गांव के विजय सिंह बंजारा (बामणिया) ने भगवान शिव का मंदिर बनवाया जिसकी प्राण प्रतिष्ठा 27 फरवरी 14 गुरूवार को किया गया। अविनाशी महादेव मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के उपलक्ष पर आयोजित कार्यक्रम में राजस्थान सरकार के मुख्य सचेतक कालू लाल गुर्जर, प्रसिद्ध गौभक्त अशोक कोठारी, दलित आदिवासी एवं घुमन्तु अधिकार अभियान राजस्थान के संस्थापक भंवर मेघवंशी, रूरल अवेयरनेस सोसायटी के उपाध्यक्ष प्रहलाद राय मेघवंशी सहित कई उपस्थित थे।   समारोह को सम्बोधित करते हुए भंवर मेघवंशी ने कहा कि बंजारा समुदाय का गौरवशाली इतिहास रहा हैै। उन्होंने कहा कि बंजारा समुदाय के लोगों का मुख्य व्यापार नमक व पशु खरीदने-बेचने का रहा है लेकिन कुछ समय से नमक का व्यापार न के बराबर रहा है वहीं पशु खरीदने-बेचने पर भी इनके खिलाफ गायों को कत्ल के लिए ले जाने के फर्जी केस लगाए गए है। उन्होंने कहा कि बंजारा समुदाय के सैकड़ों लोगों पर फर्जी मुकदमें लगाए गए है, घुमन्तु आयोग में इस समुदाय के लोगों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला है वहीं इनके आवास, पट्टे तथा व्यवसाय के लिए सरकार ने कभी ध्यान नहीं दिया है। उन्होंने मुख्य सचेतक कालू लाल गुर्जर से आग्रह किया कि वे बंजारा समुदाय की समस्याओं से सरकार को अवगत करावें।

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Virendra Yadav

अटल बिहारी वाजपेयी जी की भांजी मध्यप्रदेश की भाजपा नेता करुणा शुक्ला ने आज नरेन्द्र मोदी के विरोध स्वरुप भाजपा छोड़ने की घोषणा करते हुए यह बयान दिया कि 'जिसने पतिधर्म का निर्वाह नहीं किया ,राजधर्म नहीं निबाहा वह 'राष्ट्रधर्म ' क्या निभाएगा ?' Hitting out at Mr Modi, Ms Shukla said the BJP has declared such a person its prime ministerial candidate "who did not fulfill the duty of a husband or rajdharma when he was chief minister.http://www.ndtv.com/article/election-2014/atal-bihari-vajpayee-s-niece-karuna-shukla-joins-congress-slams-narendra-modi-489116

Mohan Shrotriya

तो ‪#‎भगतसिंह‬ को अंडमान जेल में बंद करा ही दिया ‪#‎साहेब‬ ने !


अगले भाषण में उन्हें ‪#‎सावरकर‬ का शिष्य भी घोषित किया ही जा सकता है.


संघ की एक वेबसाइट ‪#‎लेनिन‬ के बारे में यह बता ही चुकी है कि ‪#‎वह‬ (लेनिन) सावरकर से सलाह लिया करते थे.


इतिहास की ‪#‎कौनसी‬ किताबें पढ़ी हैं इन लोगों ने?

Madan Kashyap

अन्ततः मेरा चौथा कविता संकलन आ ही गया, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली सेअन्ततः मेरा चौथा कविता संकलन आ ही गया, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से

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Lenin Raghuvanshi and Shruti Nagvanshi shared a link.

Voice of voiceless: Change is possible: We can

testimonialtherapy.org

  • Lenin Raghuvanshi
  • Sarai is successful example of sandwich model of our initiative. One hand on the grass- root level breaking the culture of silence and eliminating the fear through psycho-social and the legal support and pressure from ground and above on the administration and state Government by National Human Rights Commission, Supreme Court, National and International players. If social movements are supporting most marginalized people on grass- root level and HRIs of this country become empathetic for the rights of most marginalized then you have model like Sarai village.

  • http://www.testimonialtherapy.org/2014/02/change-is-possible-we-can.html

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Surendra Grover

कुछ समय पहले रामविलास पासवान को कोस रहे थे और आज वही मोदी प्रधानमंत्री बनने की चाहत को पूरा करने इसी पासवान से लाड लड़ा रहे हैं.. मतलब कोई एक स्टैंड नहीं.. येन केन प्रकारेण प्रधानमंत्री बना दो बस..

यह वीडियो अभी एक मित्र Sheetal P Singh ने उपलब्ध करवाया..

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Mangalesh Dabral

http://timesofindia.indiatimes.com/india/Modi-sends-Bhagat-Singh-to-Andaman-jail/articleshow/31125855.cms?fb_action_ids=10152076871787885&fb_action_types=og.likes&fb_source=other_multiline&action_object_map=%5B1412347569015469%5D&action_type_map=%5B%22og.likes%22%5D&action_ref_map=%5B%5D

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Bhargava Chandola with Rajiv Lochan Sah and 40 others

................................."सच परेशां जरुर है प्राजित नहीं"

आम आदमी पार्टी उत्तराखंड के प्रदेश भर के सभी कार्यकर्ताओं को सूचित किया जाता है आम आदमी पार्टी ने उत्तराखंड की लोकसभा चुनाव के लिए अल्मोड़ा सीट पर प्रदेश संयोजक श्री हरीश चन्द्र आर्य जी को लड़ाने का निर्णय लिया है | सभी अल्मोड़ा लोकसभा के कार्यकर्ताओं के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वो कैसे अपने प्रतियासी को अपने छेत्र के विकास के लिए एकजुट होकर संसद भेजते हैं और भाई अरविंद केजरीवाल के हाथों को मजबूत कर व्यवस्था परिवर्तन में सहयोग करते हैं ?

.

साथ ही आम आदमी पार्टी कार्यकर्ताओं को सूचित किया जाता है कल मसूरी के कैम्पटी में एक अहम् कार्यशाला प्रात: 10 बजे से शुरू होगी जिसमें प्रदेश के चुनाव अभियान समिति के सदस्य कार्यकर्ताओं के साथ संवाद स्थापित करेंगे | अत: आप सभी का पहुँचना अति आवश्यक है|................................."सच परेशां जरुर है प्राजित नहीं"  आम आदमी पार्टी उत्तराखंड के प्रदेश भर के सभी कार्यकर्ताओं को सूचित किया जाता है आम आदमी पार्टी ने उत्तराखंड की लोकसभा चुनाव के लिए अल्मोड़ा सीट पर प्रदेश संयोजक श्री हरीश चन्द्र आर्य जी को लड़ाने का निर्णय लिया है | सभी अल्मोड़ा लोकसभा के कार्यकर्ताओं के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वो कैसे अपने प्रतियासी को अपने छेत्र के विकास के लिए एकजुट होकर संसद भेजते हैं और भाई अरविंद केजरीवाल के हाथों को मजबूत कर व्यवस्था परिवर्तन में सहयोग करते हैं ?  .  साथ ही आम आदमी पार्टी कार्यकर्ताओं को सूचित किया जाता है कल मसूरी के कैम्पटी में एक अहम् कार्यशाला प्रात: 10 बजे से शुरू होगी जिसमें प्रदेश के चुनाव अभियान समिति के सदस्य कार्यकर्ताओं के साथ संवाद स्थापित करेंगे | अत: आप सभी का पहुँचना अति आवश्यक है|

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The Economic Times

Poll sops? Cabinet hikes dearness allowance to 100 per cent


This increase in the dearness allowance by the UPA-2 government comes ahead of the imposition of the model code of conduct by the Election Commission.


Read the full story here http://ow.ly/u5x9h

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Udit Raj Ex Irs shared Udit Raj's photo.Udit Raj's photo.

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Navbharat Times Online

आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया कि मुकेश अंबानी 6,530 करोड़ की हेराफेर में शामिल रहे हैं...


पढ़ें खबर और कॉमेंट करें...http://nbt.in/BwehyYआम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया कि मुकेश अंबानी 6,530 करोड़ की हेराफेर में शामिल रहे हैं...    पढ़ें खबर और कॉमेंट करें...http://nbt.in/BwehyY

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Jayantibhai Manani shared his photo.

2012 के विश्व हंगर इंडेक्स के अनुसार भारत में 41.16% बच्चे आज भी कुपोषण-भुखमरी के शिकार है. गुजरात में 45% बच्चे कुपोषण- भुखमरी के शिकार है. जिस में गुजरात में प्रति 100 आदिवासी बच्चो में से 88, एससी के 100 बच्चो में से 75 और ओबीसी के 100 बच्चो में से 45 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार है. जय हो गरवी गुजरात हो रहा है विकास..2012 के विश्व हंगर इंडेक्स के अनुसार भारत में 41.16% बच्चे आज भी कुपोषण-भुखमरी के शिकार है. गुजरात में 45% बच्चे कुपोषण- भुखमरी के शिकार है. जिस में गुजरात में प्रति 100 आदिवासी बच्चो में से 88, एससी के 100 बच्चो में से 75 और ओबीसी के 100 बच्चो में से 45 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार है. जय हो गरवी गुजरात...

2012 के विश्व हंगर इंडेक्स के अनुसार भारत में 41.16% बच्चे आज भी कुपोषण-भुखमरी के शिकार है. गुजरात में 45% बच्चे कुपोषण- भुखमरी के शिकार है. जिस में गुजरात में ...See More

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BBC World News

Flamboyant Indian tycoon, Subrata Roy has been arrested:

http://bbc.in/1bQJ8F0


India's Supreme Court had ordered the arrest of the Sahara group chief on Wednesday after he failed to appear before judges in a case of fraud.Flamboyant Indian tycoon, Subrata Roy has been arrested:   http://bbc.in/1bQJ8F0    India's Supreme Court had ordered the arrest of the Sahara group chief on Wednesday after he failed to appear before judges in a case of fraud.

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Jayantibhai Manani shared his photo.

1. वास्तविकता क्या है?

गुजरात की ही बात करे तो गुजरात में 55% भाजपा और 45% कोंग्रेस की स्थिति राज्य में प्रवर्तमान है. इस स्थिति में भाजपा को 16 और कोंग्रेस को 12 सिट मिल सकती है. सिर्फ 1 ही सिट कम ज्यादा हो सकती है. गुजरात में 20 सिट की धारणा गलत है. 16 से ज्यादा सिट पाना मुश्किल है. यानि कि धारणा से 20% सिट कम मिलेगी. अब 6 राज्यों में 137 में से 25% गलत धारणा को कम करे तो इन 6 राज्यों में भाजपा को 248 में से 105 से ज्यादा सिट मिलनी मुश्किल है.


2. यूपी में क्या होगा?

यूपी में 2009 में भाजपा को 10 सिट मिली थी ये क्या मुजफ्फरनगर के दंगे की वजह से बढ़कर 35 सिट कैसे हो जायेगी? क्या सपा और बसपा का यूपी में कोई वजूद ही नहीं है? यूपी में भाजपा और कोंग्रेस के बिच में न. 3 के लिए स्पर्धा होगी. न, 1 की स्पर्धा में सपा और बसपा ही रहेंगे?


3. बिहार में क्या होगा?

बिहार में 2009 में जेडीयू के साथ गठबंधन के चलते भाजपा को 12 सिट मिली थी. अब 2014 में भाजपा की सिट 12 में से कम ही होगी बढ़कर 17 कैसे होगी?


4. 2014 में क्या होगा?

दिल्ही भाजपा से और कोंग्रेस से दूर ही रहेगी. तीसरे मोरचे के लिए दिल्ही 2014 में नजदीक ही रहेगी और शासन की पूरी संभावना रहेगी...2014 में  संघपरिवार के लिए दिल्ही कितनी दूर?  भाजपा ने अपना पूरा ध्यान 6 राज्यों पर लगा दिया है। ये राज्य हैं-गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र। इन सभी राज्यों में लोकसभा की कुल 248 सीट हैं। पार्टी की कोशिश है कि इनमें से कम से कम 137 सीट जीती जाएं। इनके अलावा दिल्ली की 7 में से 5 और छत्तीसगढ़ की 11 में से 9 लोकसभा सीटें जीतने का भी भरोसा पार्टी को है। इस तरह से बीजेपी अपने बूते पर ही 151 सीटें जीतने का हिसाब लगाए बैठी है.     01. 026 में से 020(11) गुजरात में....  02. 028 में से 015(--) कर्णाटक में...  03. 029 में से 020(--) मध्यप्रदेश में.  04. 025 में से 020(04) राजस्थान में..  05. 048 में से 025(--) महाराष्ट्र में...  06. 040 में से 017(12) बिहार में....  07. 080 में से 035(10) उतरप्रदेश में..  08. 011 में से 009(--) छतीसगढ़ में...  09. 007 में से 005(--) दिल्ही में.......  10. 005 में से 004(--) उतराखंड में....  11. 004 में से 003(--) हिमाचलप्रदेश.  12. 010 में से 004(--) हरियाणा......  ----------------------------------------------  - - - 313 में से 177(--) बाकि बची 230 में से 95 ही सिट चाहिए..    01. 026 में से 020(15) गुजरात में....  02. 029 में से 020(--) मध्यप्रदेश में.  03. 025 में से 020(04) राजस्थान में..  04. 048 में से 025(--) महाराष्ट्र में...  05. 040 में से 017(12) बिहार में....  06. 080 में से 035(10) उतरप्रदेश में..  -----------------------------------------------  - - - 248 में से 137 - भाजपा जितना चाहती है.    1. वास्तविकता क्या है?   गुजरात की ही बात करे तो गुजरात में 55% भाजपा और 45% कोंग्रेस की स्थिति राज्य में प्रवर्तमान है. इस स्थिति में भाजपा को 16 और कोंग्रेस को 12 सिट मिल सकती है. सिर्फ 1 ही सिट कम ज्यादा हो सकती है. गुजरात में 20 सिट की धारणा गलत है. 16 से ज्यादा सिट पाना मुश्किल है. यानि कि धारणा से 25% सिट कम मिलेगी.   अब 6 राज्यों में 137 में से 25% गलत धारणा को कम करे तो इन 6 राज्यों में भाजपा को 248 में से 105 से ज्यादा सिट मिलनी मुश्किल है.  2. यूपी में क्या होगा?  यूपी में 2009 में भाजपा को 10 सिट मिली थी ये क्या मुजफ्फरनगर के दंगे की वजह से बढ़कर 35 सिट कैसे हो जायेगी? क्या सपा और बसपा का यूपी में कोई वजूद ही नहीं है? यूपी में भाजपा और कोंग्रेस के बिच में न. 3 के लिए स्पर्धा होगी. न, 1 की स्पर्धा में सपा और बसपा ही रहेंगे?  3. बिहार में क्या होगा?  बिहार में 2009 में जेडीयू के साथ गठबंधन के चलते भाजपा को 12 सिट मिली थी. अब 2014 में भाजपा की सिट 12 में से कम ही होगी बढ़कर 17 कैसे होगी?   4. 2014 में क्या होगा?   दिल्ही भाजपा से और कोंग्रेस से दूर ही रहेगी. तीसरे मोरचे के लिए दिल्ही 2014 में नजदीक ही रहेगी और शासन की पूरी संभावना रहेगी...  http://www.bhaskar.com/article/NAT-bjp-preparing-gameplan-4425798-NOR.html?seq=3

2014 में संघपरिवार के लिए दिल्ही कितनी दूर?

भाजपा ने अपना पूरा ध्यान 6 राज्यों पर लगा दिया है। ये राज्य हैं-गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान ...See More

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dit Raj added a new photo.Udit Raj's photo.

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Satya Narayan

वे जनता के साहित्य की समृद्ध परम्परा का अध्ययन तो कम करते हैं, पर बुर्जुआ संस्कृति की भारी खुराकें हरदम लेते रहते हैं और हीनग्रन्थि का शिकार बने रहते हैं। साथ ही, भारतीय समाज के सदियों पुराने कूपमण्डूकता के दलदल में वे सिर के बल धँसे रहते हैं। तर्कपरकता और वैज्ञानिक इतिहास दृष्टि उनके लिए खोखले शब्द मात्र हैं। वे अपढ़ हैं। भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचन्द, निराला और मुक्तिबोध हों या गोर्की, ब्रेष्ट, आइजेंस्ताइन, स्तानिस्लावस्की, लू शुन, नेरूदा और नाजिम हिकमत – इन सबके बारे में उनकी जानकारी प्रायः 'सेकेण्ड हैण्ड' और सतही होती है। और इसी के आधार पर वे अन्तहीन, बाँझ बहसों में उलझे रहते हैं।

http://ahwanmag.com/archives/1709

प्रगतिशील साहित्य के युवा पाठकों से . . .

ahwanmag.com

वह अपने को प्रगतिशील और जनवादी कहता है तो सिर्फ इसलिए कि आज साहित्य के बाज़ार में इसी ''प्रगतिशीलता'' और ''जनवाद'' की कीमत है, इसलिए कि निर्वीर्य बुर्जुआ समाज 'अन्त के दर्शन' के अतिरिक्त अब और कोई ...

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Xavier Dias via Debal Deb

You Don't Know What You Think You "Know" About... The Communist Revolution and the REAL Path to...

revcom.us

The short-lived Paris Commune of 1871, the Russian revolution of 1917-1956, and the Chinese revolution of 1949-1976 were titanic risings of the...

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Sundeep Nayyar and Abhinav Sinha shared a link.

ठेका प्रथा उन्मूलन विधेयक पारित कराने के लिए दिल्ली सचिवालय पर हज़ारों मज़दूरों का विशाल...

workerscharter.in

आज केजरीवाल सरकार का चरित्र साफ़ हो गया है। यह पूर्ण रूप से मज़दूर विरोधी है। अपने चुनावी घोषणापत्र में आम आदमी पार्टी ने मज़दूरों से जो-जो वायदे किये थे, वह अब...


Ak Pankaj shared आदिवासी साहित्य - Adivasi Literature's photo.

मास्टरजी बोले, 'तुम सब अच्छा खेल रहे हो. इससे आनंद तो आता है पर ज्ञान नहीं बढ़ता. तुमलोग चोर-सिपाही का खेल खेलो.'


सारे आदिवासी बच्चे एक-दूसरे को देखने लगे. एक आगे आ कर बोला, 'मास्टरजी, हमलोग आनंद के लिए खेलते हैं. जीतने-हारने के लिए नहीं. आपका खेल अच्छा नहीं है. हम नहीं खेलेंगे. आपका खेल गंदा है.'आदिवासी दर्शन कथा - 9  --------------------------------  स्कूल में दोपहर के अवकाश का समय था. इस अवकाश में कुछ आदिवासी बच्चे मिलजुल कर कोई खेल खेल रहे थे. खेल का नाम था 'बादल-जंगल'. कुछ बच्चे बादल तो कुछ बच्चे पेड़-पौधे का अभिनय करते हुए जंगल बने थे. खेल ऐसा था - जब बादल बच्चे लहरा-लहरा कर बरसते तो जंगल बने बच्चे झूमते हुए गाने लगते.     स्कूल के बरामदे में बैठे गैर-आदिवासी मास्टरजी यह सब देख रहे थे. अचानक उठ कर वे खेलते हुए बच्चों के पास पहुंच गए. बोले, 'तुम सब अच्छा खेल रहे हो. इससे आनंद तो आता है पर ज्ञान नहीं बढ़ता. तुमलोग चोर-सिपाही का खेल खेलो. एक चोर बन जाए और बाकी बचे सारे लोग सिपाही. चोर को जो सिपाही बच्चा पकड़ लेगा उसकी जीत होगी और चोर की हार. इस खेल में मजा भी आएगा और तुमलोगों की सूझबूझ भी बढ़ेगी.'    मास्टरजी की बात सुन कर सारे आदिवासी बच्चे एक-दूसरे को देखने लगे. उनमें से एक आदिवासी बच्चा आगे आ कर बोला, 'मास्टरजी, हमलोग आनंद के लिए खेलते हैं. जीतने-हारने के लिए नहीं. आपका खेल अच्छा नहीं है. हम नहीं खेलेंगे.'

आदिवासी दर्शन कथा - 9

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स्कूल में दोपहर के अवकाश का समय था. इस अवकाश में कुछ आदिवासी बच्चे मिलजुल कर कोई खेल खेल रहे थे. खेल का न...See More

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Satya Narayan

संसदीय वामपंथी और उनके सगे भाई ट्रेड यूनियनवादी मौकापरस्त शुरू से ही मज़दूर आन्दोलन के भितरघातियों के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं। आज इनका यह चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। मज़दूरों की भारी असंगठित आबादी के बीच तो इनकी उपस्थिति ही बहुत कम है। विकल्पहीनता में कहीं-कहीं मज़दूर इन बगुला भगतों के चक्कर में पड़ भी जाते हैं तो जल्दी ही उनकी असलियत पहचानकर दूर भी हो जाते हैं। यह एक अच्छी बात है। लेकिन चिन्ता और चुनौती की बात यह है कि सही नेतृत्व की कमज़ोरियों और बिखराव के कारण मज़दूरों का क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी संगठित नहीं हो पा रहा है। किसी विकल्प के अभाव, अपनी चेतना की कमी और संघर्ष के स्पष्ट लक्ष्य की समझ तथा आपस में एका न होने के कारण बँटी हुई मज़दूर आबादी अभी धन्धेबाज़ नेताओं के जाल में फँसी हुई है।


भाँति-भाँति के चुनावी वामपंथी दलों की ट्रेड यूनियन दुकानदारियों में सबसे बड़े साइनबोर्ड सीटू और एटक के हैं जो क्रमश: माकपा और भाकपा से जुड़े हुए हैं। ये पार्टियाँ मज़दूर क्रान्ति के लक्ष्य और रास्ते को तो पचास साल पहले ही छोड़ चुकी हैं और अब संसद और विधानसभाओं में हवाई गोले छोड़ने के अलावा कुछ नहीं करतीं। जहाँ और जब इन्हें सत्ता में शामिल होने का मौका मिलता है वहाँ ये पूँजीपतियों को मज़दूरों को लूटने की खुली छूट देने में किसी से पीछे नहीं रहतीं। लेकिन अपना वोटबैंक बचाये रखने के लिए इन्हें समाजवाद के नाम का जाप तो करना पड़ता है और नकली लाल झण्डा उड़ाकर मज़दूरों को भरमाते रहना पड़ता है, इसलिए बीच-बीच में मज़दूरों की आर्थिक माँगों के लिए कुछ कवायद करना इनकी मजबूरी होती है।


इनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि आज पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मज़दूरों के उन आर्थिक हितों और सीमित राजनीतिक अधिकारों की हिफाज़त करने की भी गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है जिनके लिए आवाज़ उठाने की कमाई माकपा-भाकपा जैसी पार्टियाँ और सीटू-एटक जैसी यूनियनें खाती रही हैं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों ने अर्थवाद और संशोधनवाद की नकली मज़दूर राजनीति की ज़मीन ही खिसका दी है। जो भी पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार चलायेगा, उसे पूँजीवादी संकट का समाधान व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर ही ढूँढ़ना होगा। और समाधान के मामले में विकल्प सिकुड़ते जा रहे हैं। इसलिए आज एटक और सीटू जैसी ट्रेड यूनियनों के नेता कुछ हवाई गोले छोड़ने और विरोध के नाम पर अपनी नपुंसकता के प्रदर्शन के सिवा कर भी क्या सकते हैं? मज़दूर वर्ग इन मीरजाफरों और जयचन्दों से पीछा छुड़ाकर ही ऐसी लड़ाई में उतर सकता है जो पूँजीवाद के बूढ़े राक्षस को उसकी कब्र में धकेलने के बाद ही ख़त्म हो।


असली चुनौती मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली क्रान्तिकारी ताकतों के सामने है जो आज भी खण्ड-खण्ड में बिखरी हुई हैं और उनमें आगे बढ़ने के स्पष्ट लक्ष्य और दिशा का अभाव है। उन्हें देश और दुनिया की नयी परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करने और विचारधारात्मक भटकावों से मुक्त होने के साथ ही मज़दूर आन्दोलन में सही क्रान्तिकारी जनदिशा अपनाकर काम करना होगा। उन्हें विशाल मज़दूर वर्ग के बीच सघन क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार और संगठन काम काम तेज़ करना होगा। मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार और उसके राजनीतिक एवं आर्थिक आन्दोलनों में भागीदारी की प्रक्रिया मज़दूर वर्ग की सच्ची हिरावल पार्टी के निर्माण की प्रक्रिया को भी तेज़ करेगी। उन्हें भयंकर पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न और अपमान से कसमसा रहे मज़दूर वर्ग को यह समझा देना होगा कि अपने तमाम लाव-लश्कर के बावजूद पूँजीवाद का कवच अभेद्य नहीं है। यदि मज़दूर वर्ग सही राजनीति पर संगठित होकर लड़े और व्यापक मेहनतकश अवाम की अगुवाई करे तो उसे चूर-चूर किया जा सकता है। इसलिए पराजय की मानसिकता से, निराशा से मुक्त होना होगा और नये सिरे से संघर्ष की ठोस तैयारी में लग जाना होगा।

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  • Parthadeb Chanda Satyanarayan ji aap sab trade union o ko kaise kah sakte hai ki o kebal hawaigole chorte hai bharat mei trade union ki larai kuch kam nahi hai main khud jis tu (fmrai) ka sadasya hu uski larai ke bare mei thik se bislesan kijiye

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  • Satya Narayan Parthadeb Chanda सब ट्रेड युनियन तो कहा ही नहीं है। आज मुख्‍यधारा की जितनी ट्रेड युनियन उनके बारे में ये सच है।

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Ajit Wadnerkar

जिन भोपाल नई वेख्या उह जनम्या ही नई...1.जिन भोपाल नई वेख्या उह जनम्या ही नई...1.

Unlike ·  · Share · 4 hours ago ·



সাক্ষাত্কার...


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জাতপাতের রাজনীতি 'পশ্চাৎপদ' নয়

জাতপাত আমাদের সমাজে আছে এবং সময় এসেছে নীচের তলার লোকগুলির

কথা শোনার, এই সরল সত্যটাকে মেনে নিয়েই এগোতে হবে। সেটাই হবে প্রকৃত

প্রগ্রেসিভ রাজনীতি ও সমাজনীতি। বলছেন নিউজিল্যান্ডে ভিক্টোরিয়া ইউনিভার্সিটি

অব ওয়েলিংটন-এ ইতিহাসের শিক্ষক শেখর বন্দ্যোপাধ্যায়। শুনলেন সেমন্তী ঘোষ।



১৯৮৯ সালে প্রধানমন্ত্রী বিশ্বনাথপ্রতাপ সিংহ মণ্ডল কমিশনের রিপোর্ট কার্যকর করার সিদ্ধান্ত ঘোষণা করলেন, উত্তর ভারতের রাজনীতিতে একটা যুগান্তর ঘটে গেল। ভি পি সিংহের এই সিদ্ধন্ত কি ভুল ছিল? না কি, জাতপাতভিত্তিক সংরক্ষণ ভারতীয় সমাজে অনিবার্য ছিল দেশের সামাজিক বাস্তবকে রাজনীতির কাঠামোয় এই ভাবে স্বীকার করতেই হত?

মণ্ডল কমিশন রিপোর্ট অনেক দিন টেবিলে পড়েছিল। ভি পি সিংহ রাজনৈতিক কারণে এটা খুঁজে বার করলেন এবং গ্রহণ করলেন, বিজেপি'র অগ্রগতি রোধ করার জন্য, যাতে হিন্দু সমাজের মধ্যে একটা বিভাজন উসকে দেওয়া যায়। অর্থাৎ সংরক্ষণের প্রয়োজনীয়তা আছে কি নেই, এই প্রশ্নটা নিয়ে কোনও বিতর্ক ছাড়াই, শুধু রাজনীতি করার জন্যই এই রিপোর্ট বলবৎ করা হল, এর সপক্ষে কোনও সামাজিক ঐকমত্য তৈরি করার চেষ্টা হল না। এখানে আমাদের মনে রাখতে হবে, যখন সংবিধান প্রণেতারা সংরক্ষণের নীতিকে সংবিধানের অঙ্গ করলেন, তখন এর পিছনে যুক্তিটা কী ছিল। সমগ্র জনসংখ্যার মধ্যে তফসিলি জাতি ও জনজাতির মানুষের যা অনুপাত, ক্ষমতার বিন্যাসে তাঁদের প্রতিনিধিত্ব সেই অনুপাতে ছিল না। এই অসামঞ্জস্য দূর করার জন্য অন্তত কিছু দিন তাঁদের কিছু বিশেষ সুবিধা দেওয়া দরকার। তাঁরা আশা করেছিলেন, দশ বছরের মধ্যে এই অসামঞ্জস্য দূর হবে। কিন্তু আজও তা হয়নি। বিশ্ববিদ্যালয়ের স্নাতক, আমলাতন্ত্র, রাজনৈতিক নেতৃত্ব অথবা কর্পোরেট জগতে এঁদের প্রতিনিধিত্ব এখনও জনসংখ্যায় এঁদের অনুপাতের সমান হয়নি। মণ্ডল কমিশন দেখালেন যে, অন্যান্য পিছিয়ে-পড়া জাতিগুলিও এই সকল বিষয়ে পিছনে পড়ে আছেন। তাই সংরক্ষণের প্রয়োজন আছে এবং আজও তা ফুরোয়নি। কিন্তু এই যুক্তিগুলি জনসাধারণকে না বুঝিয়েই নতুন সংরক্ষণের নীতি চালু করা হল। ফল যা হল, তা তো আমরা দেখেইছি।

সংরক্ষণের পিছনে আর একটা যুক্তি আছে। যে সমস্ত জনগোষ্ঠী অতীতে বহু দিন ধরে অবদমিত হয়ে এসেছে, তাদের সেই ঐতিহাসিক অবিচারের জন্য ক্ষতিপূরণ দেওয়া দরকার। এটা সমাজ ও রাষ্ট্রের কর্তব্য। এর ফলে অবশ্য বর্ণহিন্দুদের অসুবিধা হবে, তাঁদের কিছু ছাড়তে হবে। হচ্ছেও, এবং তাই সংরক্ষণ নীতির বিরুদ্ধে তাঁদের এত উষ্মা। কিন্তু মনে রাখতে হবে, আজ তাঁরা যে না-পাওয়ার অসুবিধা ভোগ করছেন, কয়েকশো বছর ধরে দলিত শ্রেণির মানুষেরা সেই অসুবিধা ভোগ করে এসেছেন। যাঁরা মুক্ত প্রতিযোগিতার কথা বলেন তাঁদের মনে রাখা উচিত যে, কয়েক প্রজন্ম ধরে যাঁরা বঞ্চিত হয়ে এসেছেন এবং অশিক্ষিত থেকেছেন, তাঁদের পরিবারের একটি ছেলেকে বা মেয়েকে যদি কোনও উচ্চবর্ণের ধনী উচ্চশিক্ষিত পরিবারের কোনও ছেলে বা মেয়ের সঙ্গে একই প্রতিযোগিতায় নামতে হয়, তবে সেটা সম-প্রতিযোগিতা হবে না। অনেকে বলতে পারেন, উচ্চবর্ণের অনেক পরিবারই তো অশিক্ষিত, সেই সব পরিবারের ছেলেমেয়েরা কেন এই সুযোগ পাবে না? এখানে মনে করিয়ে দেওয়া যেতে পারে যে, তাদের শিক্ষিত হওয়ার পথে কোনও কাঠামোগত বাধা ছিল না, কিন্তু দলিতদের ক্ষেত্রে ছিল। আজও কোথাও কোথাও প্রাথমিক বিদ্যালয়ে দলিত ছাত্রদের আলাদা বসতে হয়! কাজেই ঐতিহাসিক কারণেই জাতভিত্তিক সংরক্ষণের প্রয়োজনীয়তা আছে। এটা মেনে নেওয়ার জন্য সামাজিক শিক্ষা চাই, যার দ্বারা একটা সামাজিক ঐকমত্য গড়ে তোলা যেতে পারে। কিন্তু এই বিষয়টি নিয়ে শুধুই রাজনীতি করে আমরা সেই সুযোগটা হাতছাড়া করেছি।

তবে এটাও ঠিক যে, শুধু সংরক্ষণ নীতি দিয়ে পিছিয়ে-পড়া মানুষগুলির সার্বিক উন্নতি করা যাবে না। এই নীতির পাশাপাশি আরও অনেক রকম উন্নয়নমূলক প্রকল্পের প্রয়োজন আছে, যার ফর্দ দিয়ে শেষ করা যাবে না। রাজনৈতিক দলগুলি সেই সব প্রকল্পের কথা ভাবে না। সাম্প্রতিক কালে উদারপন্থী অর্থনীতির ফলে ভারতে ধনী ও দরিদ্রের মধ্যে তফাতটা ক্রমেই বেড়ে যাচ্ছে, এ কথা আমি অনেক অর্থনীতিবিদকেই স্বীকার করতে শুনেছি। এই নীতির পাশাপাশি তাই দরিদ্রদের উন্নতির জন্য অন্যান্য নানা রকমের উন্নয়ন পরিকল্পনা চাই। সেগুলির কথা না ভেবে শুধুমাত্র সংরক্ষণ নীতিকে দায়ী করাটা আমার মনে হয় রাজনীতির কারণেই।

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আদিপর্ব। বিশ্বনাথপ্রতাপ সিংহ। ব্রিগেড প্যারেড

গ্রাউন্ড, কলকাতা। ১৬ ডিসেম্বর, ১৯৯০। ছবি: রাজীব বসু।

কংগ্রেস এবং বামপন্থী দলগুলি ক্রমশ দুর্বল হয়ে পড়ার ফলেই কি বিভিন্ন রাজ্যে ভোটে জেতার জন্য জাতভিত্তিক সামাজিক ভোটব্যাঙ্ক তৈরি করা আরও বেশি সহজ হয়েছে?

এখানে একটা কথা মেনে নেওয়া ভাল। আমাদের সমাজে জাতপাতের বিভাজন সংরক্ষণ থাকলেও আছে, না থাকলেও থাকবে। তাই সেই ১৯৫২'র প্রথম নির্বাচন থেকেই, কংগ্রেস তো বটেই, এমনকী কমিউনিস্ট পার্টিও জাতপাতের ব্যাপারটা মাথায় রেখেই তাদের প্রার্থী নির্বাচন করেছে কেউ জানিয়ে-শুনিয়ে, কেউ চুপিসাড়ে। শুধু উত্তর নয়, পশ্চিম এবং দক্ষিণ ভারতেও সেই প্রথম নির্বাচন থেকে একই ব্যবস্থা চলে এসেছে। এমনকী কমিউনিস্ট পার্টিও যে যে অঞ্চলে যে জাতের আধিক্য বেশি সেখানে সেই জাতের ব্যক্তিকে মনোনয়ন দিয়েছে, যার খবর আমরা মণিকুন্তলা সেনের আত্মজীবনীতে পাই। আর অন্য দিকে, এই দলগুলির শীর্ষ নেতৃত্ব সব সময়েই উঁচু জাতের বর্ণহিন্দুদের কুক্ষিগত থেকেছে এবং, আমার ধারণা, আজও তা-ই আছে। অর্থাৎ জাতপাতের রাজনীতি আজ কিছু নতুন ঘটছে না, তবে আজ আর রাখঢাকটা নেই, কারণ যাঁরা এত দিন পিছিয়ে ছিলেন তাঁরা আজ বুঝতে পেরেছেন যে, তাঁরা নিজেরা সংগঠিত না হলে বা সরব না হলে কেউ তাঁদের কথা শুনবে না।

আসলে সমস্যা হল, ১৯৫০-এর 'রিপ্রেজেন্টেশন অব দ্য পিপ্ল অ্যাক্ট' ভারতীয়দের ব্যক্তিনাগরিক বা 'ইন্ডিভিজুয়াল সিটিজেন' হিসেবে চিহ্নিত করেছিল। এই ব্যক্তিনাগরিক প্রার্থীদের নীতিগুলিকে যুক্তির ভিত্তিতে বিশ্লেষণ করে তাঁর ভোট দেবেন। ইলেকশন কমিশন যে নিয়মকানুন জারি করল তা-ও এই ব্যক্তিনাগরিকের ধারণাটিকে মাথায় রেখে। কিন্তু ভারতীয়েরা সামাজিক ভাবে কখনওই শুধুমাত্র ব্যক্তি-কেন্দ্রিক নয় আমরা সমষ্টির অঙ্গ। এই সমষ্টির প্রতি আনুগত্য থেকে বেরিয়ে এসে শুধুমাত্র নিজের বিচার-বুদ্ধি-যুক্তির ভিত্তিতে ভোট দেওয়া বেশির ভাগ ভারতীয়েরই চিন্তার মধ্যে ছিল না। তাই জাতপাত বা ধর্মীয় আনুগত্য বরাবরই নির্বাচনে কাজ করেছে কমবেশি, এবং আজ তা খানিকটা রাখঢাক ছেড়ে সোজাসুজি হচ্ছে। তার কারণ, এক দিকে যেমন হিন্দুত্বের রাজনীতি মান্যতা অর্জন করেছে, তেমনই অন্য দিকে পিছিয়ে-পড়া গোষ্ঠীগুলি এত দিনের চেষ্টাতেও ক্ষমতার শীর্ষে উঠতে না পেরে খোলাখুলি জাতের আনুগত্যকে সংঘবদ্ধ করার চেষ্টা করছে। এটা না করলে মূলস্রোতের রাজনৈতিক দলগুলির ভিতর দিয়ে এ-সব জাতের নেতারা কোনও দিন মুখ্যমন্ত্রী হতে পারতেন কি না সন্দেহ।


তা হলে কি এই জাতভিত্তিক রাজনীতি থেকে এখনও একটা নিষ্ক্রমণের রাস্তা খোঁজা যায় সুপরিকল্পিত উন্নয়নের লক্ষ্যে ধর্মনিরপেক্ষ, অগ্রবর্তী, দরিদ্রবান্ধব একটা বৃহত্তর রাজনীতির রাস্তা?

এই আধুনিক জাতপাতের রাজনীতিকে পশ্চাৎপদ বলে চিহ্নিত করে এর থেকে বেরনোর রাস্তা খোঁজা সম্ভব বলে আমার মনে হয় না। 'এথনিক লবি' তো সব পশ্চিমী গণতন্ত্রেই কাজ করে। মার্কিন নির্বাচনে আফ্রো-আমেরিকান বা হিস্পানিক ভোটব্যাঙ্কের কথাও আমরা জানি। তাকে তো পশ্চাৎপদ রাজনীতি বলি না! তবে দলিত বা যাদব রাজনীতিকেই বা কোন যুক্তিতে পশ্চাৎপদ রাজনীতি বলব? হিন্দুত্বের রাজনীতিকে তো আমরা ঠেকাতে পারি না। এই সব ধরনের রাজনীতি তো আইডেন্টিটি পলিটিক্স বা পরিচিতির রাজনীতির সঙ্গে যৃুক্ত। আর এই পরিচিতির রাজনীতি শুধুমাত্র অর্থনৈতিক অবস্থার ওপর নির্ভর করে না, এর সঙ্গে স্বীকৃতির একটা প্রশ্ন জড়িয়ে আছে। গরিব ব্রাহ্মণের জাত্যভিমান একটি সাংস্কৃতিক পুঁজি, যা দলিতদের নেই। অন্য দিকে, এক জন দলিত ছাত্র পড়াশুনো করে মধ্যবিত্ত শ্রেণিতে উন্নীত হলেও জাতের কারণে তাকে নানা রকম তির্যক মন্তব্য ও অপমান সহ্য করতে হয়। এই অস্বীকৃতি বা অপমানটা তার মনে বাজে। এর ফলেই পরিচিতির রাজনীতি বেঁচে থাকে। তাই শুধু দারিদ্র দূর করলেই হবে না, জাতপাতের কারণে কিছু লোককে যে প্রতিনিয়ত অপমানিত হতে হয়, এ কথা মেনে নিয়ে জনশিক্ষার মাধ্যমে সেটা দূর করার চেষ্টা করতে হবে। এ ব্যাপারে কোনও উচ্চবর্ণের রাজনৈতিক নেতার উৎসাহ থাকবে বলে মনে হয় না, কারণ এতে তাঁর ভোট বাড়বে না, বরং কমবে। যাঁরা ভুক্তভোগী, এতে একমাত্র তাঁদেরই উৎসাহ থাকতে পারে।


কী মনে হয়, নব্বইয়ের দশকের গোড়ার দিকে মণ্ডলায়নের আদি পর্বে ভারতীয় রাজনীতিতে জাতপাতের যে ভূমিকা ছিল, আজও কি তা-ই আছে? না কি, জাতপাতের রাজনীতির চেহারা চরিত্র বদলে গেছে?

আজ যে সি পি আই এমের মধ্যে থেকেও আবদুর রেজ্জাক মোল্লা সামাজিক সুবিচার মঞ্চের দাবি তুলছেন, দলের শীর্ষ নেতৃত্বে দলিত ও সংখ্যালঘুর প্রতিনিধিত্বের কথা বলছেন তার কারণ, গত ছয় দশকেরও বেশি সময়ে সেটা ঘটেনি। এই কারণেই মণ্ডল কমিশন রিপোর্ট। তার কুড়ি বছর বাদেও যে একই দাবি উঠছে তার কারণ, অবস্থা একই রয়েছে। তবে পরিবর্তন অবশ্যই দেখা যাচ্ছে পশ্চিম, উত্তর এবং দক্ষিণ ভারতে কিছু বেশি। পশ্চিমবঙ্গে সেই অম্বেডকর-পরবর্তী সামাজিক সচেতনতা সবে দেখা দিতে শুরু করেছে। পরিবর্তন যেটা লক্ষ করা যাচ্ছে সেটা হল, দলিত ও অন্যান্য পিছিয়ে-পড়া জাতিগোষ্ঠীগুলি এখন অনেক বেশি সংগঠিত হয়েছে। কিছু রাজ্যে তারা ক্ষমতাতেও এসেছে। সরকার চালাতে গিয়ে তারা এটাও বুঝেছে যে ক্ষমতা ধরে রাখতে হলে অন্যান্য জাত ও দলের সঙ্গে সমঝোতা করে চলতে হবে। আর সেই সমঝোতাটা তখনই সমানে সমানে হবে যখন তারা নিজস্ব সংগঠনের শক্তির ওপর দাঁড়িয়ে দর কষাকষিটা করতে পারবে। আমার ধারণা সেটাই এখন হচ্ছে, আর আমরা, বর্ণহিন্দু আধুনিকতাবাদীরা অস্বস্তিতে পড়েছি, কারণ এই লোকগুলির সঙ্গে সমঝোতা করার অভ্যেস ও মানসিকতা আমাদের কোনও দিন ছিল না বা এখনও তৈরি হয়নি। জাতপাত আমাদের সমাজে আছে এবং এখন সময় এসেছে নীচের তলার লোকগুলির কথা শোনার, এই সরল সত্যটাকে মেনে নিয়েই আমাদের এগোতে হবে। আমার মনে হয় সেটাই হবে প্রকৃত প্রগ্রেসিভ রাজনীতি ও সমাজনীতি।

http://www.anandabazar.com/27edit3.html


Dr Amarty Sen speaks on his faith in open market economy emphasizing social justice.What an excellent economic stance to support unipolar zionist corporate imerialism of a Rothscild in law!

বাজারকে বিশ্বাস করি, আবার সামাজিক ন্যায়েও বিশ্বাস করি

Jan 9, 2014, 12.04PM IST


PRESIDENCY

জানালেন প্রণব বর্ধন৷ সম্প্রতি প্রকাশিত হয়েছে তাঁর স্মৃতিকথা 'স্মৃতিকণ্ডূয়ন'৷ আনুষ্ঠানিক উদ্বোধন করেছেন অমর্ত্য সেন৷ স্মৃতির সেই সূত্র ধরে উঠে আসা নানা খোলামেলা কথা৷ শিক্ষা, অর্থনীতি ও রাজনীতির বিভিন্ন দিগন্ত ছুঁয়ে যাওয়া৷ আলাপে বৈজয়ন্ত চক্রবর্তী


বৈজয়ন্ত চক্রবর্তী: আপনার এই 'স্মৃতিকণ্ডূয়ন'-এর তাগিদটা কেন এল? সাধারণত ধরে নেওয়া হয় যে, জীবনের একটা স্তরে লোকে পৌঁছলে এটা করে৷ আপনি তো এখনও প্রচণ্ড ভাবে সক্রিয়?

প্রণব বর্ধন: (হেসে) আমারও মেঘে মেঘে বেলা কম হল না৷ কাজ করছি ঠিকই৷ কাজ করেও যাব, যতদিন পারি৷ আসলে আড্ডা দিতে ভালোবাসি৷ আড্ডার প্রচুর গপ্পো জমে গিয়েছে৷ অনেকেই বলছে এই গপ্পোগুলো লিখে ফেল৷ তাই নানা কাজের ব্যস্ততার মধ্যেও খুব তাড়াতাড়ি এটা লিখেছি৷ গপ্পো করাই মূল উদ্দেশ্য৷


অর্থনীতিতে এলেন কেন? অমর্ত্য সেন বার বার বলেন যে, দুর্ভিক্ষ দেখেছেন, তার ফলে অর্থনীতিতে আসা৷ আপনার ক্ষেত্রে কারণটা কী?


আমার ক্ষেত্রে কারণটা ওই রকম নয়৷ স্কুল থেকে শুরু করে, কলেজেও প্রথম দিকে, আমার সবচেয়ে বেশি উত্‍সাহ ছিল, ইতিহাস আর সাহিত্যে৷ সাহিত্যটা এখনও পড়তে ভালো লাগে৷ কিন্ত্ত বিষয় হিসাবে আমার ইতিহাসে খুব উত্‍সাহ৷ কলেজে যখন গেলাম, কলেজের বেশ কিছু বন্ধু মার্কসবাদী ইতিহাসের দিকে আমার মনটাকে নিয়ে গেল৷ প্রেসিডেন্সি কলেজে মার্কসবাদী ইতিহাসের একটা ঐতিহ্য ছিল৷ এক সময় সুশোভন সরকারের মতো অধ্যাপকরা পড়াতেন৷ কাজেই আমি তখন প্রচুর মার্কসবাদী ইতিহাস পড়ি৷ পরে মার্কসবাদী ইতিহাস সম্বন্ধে আমার মনে কিছু প্রশ্ন জাগতে লাগল৷ যেগুলো মার্কসবাদীরা খুব একটা আলোচনা করত না৷ এমনিতেও এই ধারার মূল ব্যাপার ছিল ইতিহাসের অর্থনৈতিক ব্যাখ্যা৷ কাজেই অর্থনীতির কতগুলি জিনিস বোঝবার জন্য আমি অর্থনীতির দিকে আকৃষ্ট হলাম৷ আমার সবকিছুতে একটা প্রশ্ন করার স্বভাব আছে৷ আমার বাবারও ছিল৷ সব কিছু সঙ্গে সঙ্গে একেবারে প্রশ্নাতীত ভাবে না নিয়ে, যাচাই করে নেওয়া৷ যাচাই করতে গেলে দুটো জিনিস লাগে- ডিডাকটিভ লজিক, আর ইনডাকটিভ লজিক৷ অর্থনীতির পদ্ধতি এটাই৷ যুক্তি দিয়ে তত্ত্ব নির্মাণ, এবং তথ্য দিয়ে সেই তত্ত্বকে যাচাই করা৷ সুতরাং, যখন অর্থনীতি পড়তে লাগলাম, এই পদ্ধতিটা আমাকে আকৃষ্ট করল৷ অর্থাত্‍, যতই ভালো কথা হোক, যুক্তি এবং তার পরে যুক্তিকে মিলিয়ে তথ্য দিয়ে প্রমাণ না করলে আমরা সেটা মানব না৷


আপনি এক জায়গায় লিখেছেন, ভারতীয় অর্থনীতিবিদদের মধ্যে বাঙালিদের এত রমরমা তার একটা কারণ প্রেসিডেন্সি কলেজে অর্থনীতি শিক্ষার মান৷ এক সময় প্রেসিডেন্সির মান পড়ে গেছে অভিযোগ উঠেছে৷ এবং এখন আবার চেষ্টা হচ্ছে প্রেসিডেন্সির পুনর্গঠনের জন্য৷ কিন্ত্ত এই নিয়ে দুটো সমালোচনা হচ্ছে৷ অনেকে বলছেন শুধু প্রেসিডেন্সিকে একটা এলিট ইনস্টিটিউশন হিসাবে তৈরি করলে সার্বিক শিক্ষার মান উন্নত হবে না৷ দ্বিতীয়ত, আমাদের রাজনৈতিক আবহে স্বায়ত্তশাসন কি আদৌ সম্ভব?


আমার নিজের ধারণা হচ্ছে, উচ্চশিক্ষায় যদি উত্‍কর্ষ আনতে হয়, সেটা এলিটিস্ট হতে বাধ্য৷ পৃথিবীতে উচ্চশিক্ষার দিক থেকে উন্নত দেশগুলোতে, যেমন আমেরিকা বা জার্মানিতে, ওরা সাধারণদের জন্য শিক্ষা সবার মধ্যে ছড়িয়ে দেয়৷ স্কুল থেকে যারা ছেড়ে বেরিয়েছে, তাদের অনেককে বৃত্তিমূলক শিক্ষা দেওয়া হয়৷ জার্মানিতে এই দিকে জোরটা বেশি৷ আর যারা বৃত্তির দিকে যাচ্ছে না, সাধারণ বিষয় নিয়ে পড়ছে, আমেরিকাতে তাদের জন্য কমিউনিটি কলেজ৷ একটা প্রবেশিকা পরীক্ষা দিয়ে ঢুকতে হয়৷ কমিউনিটি কলেজগুলো অঞ্চলভিত্তিক৷ স্থানীয় ছেলেমেয়েরা প্রবেশিকা পরীক্ষা পাশ করলে, কী ব্যাকগ্রাউন্ড, স্কুলে কী নম্বর পেয়েছে, সে সব দেখবে না৷ যে কেউ প্রায় বিনামূল্যে পড়তে পারে৷ এইটা হচ্ছে একটা সাধারণ শিক্ষা ছড়িয়ে দেওয়া৷ তার পরে এই কমিউনিটি কলেজে যারা খুব ভালো করছে, তাদের ভালো ইউনিভার্সিটিতে নিয়ে যায়৷ অর্থাত্‍ এটা হচ্ছে ছে‌েঁক নেওয়া৷ খুব উচ্চশিক্ষা, গবেষণা ইত্যাদি সাধারণের জন্যে নয়৷ এটা কিন্ত্ত শুধু ধনতান্ত্রিক দেশেই নয়৷ সোভিয়েত রাশিয়াও তা-ই করত৷ সেরা বিজ্ঞানীদের অ্যাকাডেমিতে উত্তরণ হত৷ চিনের অ্যাকাডেমিগুলোও সম্পূর্ণ এলিটিস্ট৷ কিন্ত্ত খালি এটাই করলে এবং সাধারণ শিক্ষাটা না দিলে এলিটিজ্ম্ সম্পর্কে লোকের আপত্তি থাকবেই৷ কাজেই সাধারণ মানুষ যেখানে যায়, স্কুলে এবং স্কুলের ঠিক পরে ওই বৃত্তিগত এবং সর্বসাধারণের কলেজে, তাদের শিক্ষার মান বাড়াতেই হবে৷ কিন্ত্ত উচ্চতম শিক্ষা এলিটিস্ট হবেই৷ এখন সেটা প্রেসিডেন্সি হবে না যাদবপুর হবে সেটা অন্য ব্যাপার৷ উত্‍কর্ষের দিক দিয়ে এলিটিজম ছাড়া উপায় নেই৷ কিন্ত্ত আমি সেটা মানব তখনই যখন সাধারণের শিক্ষার দিকটা দেখা হচ্ছে৷ এবার স্বায়ত্তশাসন৷ আমি সব সময় স্বায়ত্তশাসনের পক্ষে৷ কেননা, ভারতবর্ষে শিক্ষার অনেকগুলো সমস্যার মধ্যে একটা বড়ো সমস্যা হচ্ছে সরকারি এবং রাজনৈতিক হস্তক্ষেপ৷ পশ্চিমবাংলায় বিশেষ করে৷ এক সময় আলিমুদ্দিনে ঠিক হত, এখন গভর্নিং বডিগুলোয় তৃণমূলের লোকেরা রাজত্ব করেছে৷ সুতরাং, এটা আমাদের দলীয় রাজনীতির ঐতিহ্য৷ এটা না কাটিয়ে যদি কোনও নেতা বলেন তিনি শিক্ষায় উত্‍কর্ষ আনতে চান, তিনি ভণ্ডামি করছেন৷ আমার মতামত হল, শিক্ষা প্রতিষ্ঠান চালানোর ব্যপারে কোনও রাজনীতিবিদের, এমনকী শিক্ষা দফতরের আমলাদেরও কোনও কিছু বলার থাকবে না৷ তোমার পাবলিক ইউনিভার্সিটিকে টাকা দেওয়ার থাকে দিয়ে দাও, মাঝে মাঝে দেখো যে টাকা তছনছ হচ্ছে কি না, অডিট করো৷ কিন্ত্ত কাকে নিয়োগ করা হবে বা কী নিয়ে গবেষণা হবে তাতে রাজনীতিবিদদের বা আমলাদের কোনও হস্তক্ষেপ থাকা উচিত নয়৷ সুতরাং, আমি পুরোপুরি স্বায়ত্তশাসনের পক্ষে৷ কিন্ত্ত স্বায়ত্তশাসনের একটা সমস্যা আছে৷ ধরো একটা কলেজ স্বায়ত্তশাসন পেয়ে গেল৷ কিন্ত্ত তাতেই যে উত্‍কর্ষ বাড়বে এমন কোনও কথা নেই৷ পরিচালকরা হয়তো নিজেদের পেটোয়া লোকদের নিয়ে এল যারা খালি স্বজনপোষণ করবে বা কোনও দলের তল্পিবাহক হবে৷ স্বায়ত্তশাসনের মধ্যে এই জিনিসটা হতে থাকে এবং হয়ও৷ এইটা অন্য দেশে কেন হয় না? আমেরিকায় এর কারণ কালচার অফ কম্পিটিশন৷ প্রতিযোগিতার সংস্কৃতি৷ আমাদের দেশেও এটা আনা দরকার, কিন্ত্ত আনতে অনেক সময় লাগবে৷ যদি পেটোয়া রাজ তৈরি হয়, পড়াশুনা বা গবেষণার মানটা ভালো থাকবে না৷ তখন যাঁরা সত্যিই ভালো শিক্ষক, বা গবেষক, তাঁরা অন্য জায়গায় চলে যাবেন৷ কিন্ত্ত কেউ ছেড়ে চলে গেলেই সঙ্গে সঙ্গে ছাত্রদের কাছে খবরটা চলে আসে, যে অমুক জায়গায় কিন্ত্ত অনেকে ছেড়ে চলে যাচ্ছেন৷ তখন ওরা আর ওইখানে যাবে না৷ অর্থনীতিতে ও কিছু অন্যান্য বিষয়ে আমাদের ভালো ছাত্ররা অনেক সময় দিল্লিতে গিয়ে পড়েছে৷ কেন গিয়েছে? এই প্রতিযোগিতার জন্য৷ কিন্ত্ত অত দূরে যাওয়ার একটা পয়সাকড়ি দরকার, বা যোগাযোগ দরকার৷ এখন যা কম্পিটিশন, তাতে কিছু ছাত্র এখান থেকে ছেড়ে ওখানে যেতে পারছে৷ এটা যাতে সবাই পারে, যথেষ্ট আর্থিক সাহায্য বা ঋণের ঢালাও ব্যবস্থার মারফত, সেটা দেখতে হবে৷ এবং সবাই পারলে, এদের টনক নড়বে৷ কারণ ছাত্র না পেলে তো পয়সাও আসবে না৷ কাজেই স্বায়ত্তশাসনের সঙ্গে প্রতিযোগিতার সংস্কৃতিকে মেলাতে হবে৷ এবং এই দুটো এক সঙ্গে থাকলে আমি স্বায়ত্তশাসনের পক্ষে৷


আপনি লেখায় বামপন্থী গোঁড়ামির উল্লেখ করেছেন অনেক বার৷ কিন্ত্ত এই মুহূর্তে যদি আমি অর্থনীতির দিকে তাকাই, মানে মূল স্রোতের অর্থনীতি বিশেষ করে নীতি প্রণয়নের ক্ষেত্রে, সে ক্ষেত্রেও কি একটাও গোঁড়ামি নেই?


মানে তুমি বলছ যাঁরা অর্থনৈতিক সংস্কারের কথা বলছেন সেটা একটা গোঁড়ামি কি না?


মানে শুধু যেন ওইটাই একমাত্র পথ হিসেবে বেছে নেওয়া হয়েছে৷


নিশ্চয়ই, সেটা তো আছেই৷ যেমন, অর্থনৈতিক সংস্কার অমর্ত্য সেনও চান৷ কিন্ত্ত উনি বলছেন খালি অর্থনৈতিক সংস্কারে হবে না৷ যে মতটা আমার নিজের কাছাকাছি মত৷ আমি নিজে মনে করি অর্থনৈতিক সংস্কারটা দরকারি৷ এইটার সঙ্গে, আমি স্বায়ত্তশাসনের প্রসঙ্গে যেটা বললাম, তার একটা যোগ আছে৷ অনেক সময় অনেক বামপন্থীরা কী করেছে? এটা বাজারকে দেব না, রাষ্ট্র করবে৷ কিন্ত্ত রাষ্ট্রের তো প্রতিযোগী নেই৷ কাজেই প্রতিযোগিতাও নেই৷ তখন রাষ্ট্র অদক্ষ বা দুর্নীতিপরায়ণ হয়ে পড়ে৷ শান্তিনিকেতনে আমাদের যে বাড়ি ছিল, এক সময় তার জমিটার খাজনা ছিল দশ আনা৷ সেই দশ আনা খাজনা দিতে বাবাকে মাসের পর মাস ঘোরাত৷ বাবা রোদের মধ্যে ছাতা নিয়ে লাইন দিয়ে খাজনার অফিসে গিয়ে শুনতেন 'অফিসার আজকে আসেননি'- এই ভাবে দিনের পর দিন ঘোরাত৷ আবার খাজনা না দিলে জরিমানা হবে৷ পরে মনে হয়েছে ওরা আসলে বাবার কাছে ঘুষ চাইছিল৷ বাবা সেটা বুঝতে পারেননি৷ ঘুষটা কেন? এক জন অর্থনীতিবিদের কছে ঘুষটা হচ্ছে সরকারি একচেটিয়া ব্যবস্থার দক্ষিণা৷ বাজারে ব্যবসায়ী মুনাফাটা করছে৷ আর এই একচেটিয়া ব্যবস্থায় কিছু দুর্নীতিগ্রস্ত রাজনীতিবিদ আর আমলা সুযোগটা নিচ্ছে৷ তফাত্‍টা কোথায়? সেই জন্য আমার কাছে দু'পক্ষের গোঁড়ামিটাই সমস্যা৷ কিন্ত্ত প্রতিযোগিতাকে সত্যিকারের হতে হবে৷ যেমন এখন দেশে অনেকগুলো জাতীয় ব্যাঙ্ক আছে৷ এটা ঠিক প্রতিযোগিতা নয়৷ কেন? কারণ, কাল যদি স্টেট ব্যাঙ্ক দেউলিয়া হয়ে যায়, ম্যানেজার জানে কোনও ঝামেলা নেই৷ অর্থমন্ত্রক বেইল আউট বা ত্রাণ করবে৷ লোকসান বেশি গেলে পুষিয়ে দেবে৷ এটাকে আমি এক জায়গায় বলেছি 'কম্পিটিশন উইদাউথ টিথ'৷ মানে ধার নেই৷ দারিদ্র্য মোচন ইত্যাদি উদ্দেশ্যের ব্যাপারে বামপন্থীদের সঙ্গে আমার খুব একটা তফাত্‍ নেই৷ কিন্ত্ত বেশির ভাগ বামপন্থীই বাজারে বিশ্বাস করেন না, আমি করি৷ বাজারের শাঁসটা হচ্ছে প্রতিযোগিতা৷ প্রতিযোগিতা হলেই এক দল আর মুনাফা লুটতে পারবে না, সে আমলা, রাজনীতিবিদ, বা ব্যবসায়ী, যে-ই হোক৷ এক দলের হাতে মুনাফাটা থাকবে না৷ তার ফলে মুনাফাটা কমে যাবে৷ ক্রেতাদের সুবিধা হবে৷ এই অর্থে আমি বাজারকেও বিশ্বাস করি আবার সামাজিক ন্যায়েও বিশ্বাস করি৷


আপনি চিন নিয়ে প্রচুর কাজ করেছেন৷ চিনের সংস্কারের পরিপ্রেক্ষিতে অনেকেই অভিযোগ করেন যে এক দিকে যেমন সংস্কার হচ্ছে, তার ফলে প্রচুর 'সোয়েট শপ' তৈরি হয়েছে, অসাম্য বাড়ছে৷ সেটাকে কী ভাবে আপনি দেখেন?


আসলে 'সোয়েট শপ' ইত্যাদি কথাগুলো যারা ব্যবহার করে তারা জানে না যে কী বলছে তারা৷ 'সোয়েট শপ' মানে কী? তাদের কাজের পরিবেশ খারাপ, মজুরি কম৷ এই প্রশ্ন এলেই আমার প্রথম প্রশ্ন হচ্ছে- এই 'সোয়েট শপ'টা না থাকলে কি মজুররা ভালো থাকত? এই 'সোয়েট শপ'-এ যা পাচ্ছে তার অর্ধেকও হয়তো পেত না৷ সে তো নিজের ইচ্ছেতে আসছে, তাকে জোর করে তো কেউ নিয়ে আসছে না৷ কেন আসছে? কারণ তার আয় বাড়ছে৷ অন্যদের কাছে সেই কারখানা দেখে যতই নোংরা মনে হোক, যতই 'সোয়েট শপ' মনে হোক, যতই দেখুক লোকে ঘাম ফেলছে৷ কিন্ত্ত গ্রামে সে যে ঘাম ফেলছিল আরও কম মজুরিতে বা বেকার ছিল, সেটা লোকে দেখছিল না৷ ঠিক যেমন বাংলাদেশে৷ আমার কাছে কাজের পরিবেশের নিরাপত্তা খুব গুরুত্বপূর্ণ৷ ওটার জন্য কোনও রকম আপস করা উচিত না৷ যেটা বাংলাদেশের সমস্যা৷ কিন্ত্ত বাংলাদেশের যে সব মেয়েরা আজ বাংলাদেশে বস্ত্রশিল্পে কাজ করছে, এত দিন তারা কী করেছে? গ্রামে তাদের কোনও কর্মসংস্থানই ছিল না৷ ১৫-১৬ বছর বয়সেই বিয়ে দিয়ে দিত৷ ফলে বাংলাদেশের জন্মহার খুব বেশি ছিল৷ এখন কমে গিয়েছে৷ ভারতের থেকেও বেশি হারে কমেছে৷ একটা প্রধান কারণ হল, এই মেয়েরা এখন বিয়ে করছে ২২-২৩ বছরে৷ আগে বিয়ে করত ১৪-১৫ বছরে৷ মেয়েরা এখন স্বাবলম্বী হতে পারছে৷ শুধু 'সোয়েট শপ' বলে এই ব্যবস্থা তুলে দেওয়ার কথা তাই মানব না৷ যদি দেখাতে পার যে বিকল্প উন্নততর কোনও ব্যবস্থা ছিল তা হলে মানব৷


বিকল্পের বিষয়টা ইন্টারেস্টিং৷ আপনাদের একটা সমীক্ষার ফলাফল পড়ছিলাম৷ তাতে বলা হয়েছে, পশ্চিমবঙ্গে ভোটে সিঙ্গুর নন্দীগ্রামের থেকে অনেক বেশি গুরুত্বপূর্ণ স্থানীয় রাজনীতি৷


আমাদের সমীক্ষায় অন্যান্য প্রশ্নও ছিল, কিন্ত্ত মূলত আমরা বুঝতে চেষ্টা করেছি, এত দিন পরে বামফ্রন্ট হারল কেন? আমরা ২৪০০-র বেশি বাড়িতে পুঙ্খানুপুঙ্খ প্রশ্ন করেছি৷ এই একই বাড়িগুলিতে আমরা ২০০৪-০৫ সালেও সমীক্ষা করেছিলাম৷ তার পরই পরিবর্তনটা দেখতে পাচ্ছি৷ সবাই বলে যে সিঙ্গুর-নন্দীগ্রামের জন্য বামফ্রন্ট হেরেছে৷ সেইটা কতটা সত্যি? আমরা দেখলাম সিঙ্গুর-নন্দীগ্রামের প্রভাব আছে৷ সিঙ্গুরের প্রভাব আছে সিঙ্গুরের ১৫০ কিলোমিটারের মধ্যে৷ নন্দীগ্রামেরও তাই৷ কিন্ত্ত পশ্চিমবঙ্গের বেশির ভাগ গ্রাম এদের থেকে তো অনেক দূরে৷ সেখানে দেখলাম সিঙ্গুর-নন্দীগ্রামের অতটা প্রভাব পড়েনি৷ গ্রামের নির্বাচনে অনেক ত্রুটি থাকা সত্ত্বেও লোকে নেতাদের, সে স্থানীয় হোক বা কলকাতার হোক, তাদের কাজের বহর বা পারফর্মেন্স সম্পর্কে লোকে কী ভাবছে, ভোটে তার একটা প্রভাব পড়েই৷ আমরা তাদের গ্রামের, কলকাতার বা জেলার নেতাদের নম্বর দিতে বলেছি৷ ১ থেকে ৫-এর মধ্যে৷ তারা কতটা বিরক্ত বা নিরাশ৷ '৫' হল সব থেকে বেশি নিরাশ ও '১' হল খুব ভালো৷ তার পর গড়ে আমরা দেখছি তৃণমূল বা বামফ্রন্ট- দু'দলেরই নেতাদের নিয়েই মানুষের প্রচুর আপত্তি আছে৷ দু'দলেরই নম্বর বেশ খারাপ৷ তার পর দেখেছি এই নম্বরগুলো পরিসংখ্যানগত দিক থেকে আলাদা কি না৷ দু'দলই খারাপ কিন্ত্ত ২০১১-এর পর দেখছি অনেকগুলো ব্যাপারেই, যেমন শিক্ষা, স্বাস্থ্য, সেচ বা পার্টির ব্যবহার ইত্যাদির ক্ষেত্রে বামফ্রন্ট নিয়ে আপত্তিটা বেশি৷ সাদা চোখে দেখলে মনে হয় নম্বর দু'দলেরই খারাপ৷ কিন্ত্ত পরিসংখ্যানের কিছু টেস্ট করলে তফাত্‍টা ধরা পড়ে৷ দু'একটা জিনিসে ওরা তৃণমূলকে বেশি খারাপ বলছে৷ যেমন সামর্থ্য ও বিচক্ষণতা তৃণমূলের বেশি খারাপ৷


আপনাদের সমীক্ষা অনুসারে যে সিঙ্গুর-নন্দীগ্রামের প্রভাব স্থানীয়৷ কিন্ত্ত ২০০৬ সালে বামফ্রন্ট বিশাল ভোটে জিতেছিল এবং ২০১১ সালে হেরেছে৷ তার মানে কি এই পাঁচ বছরটাই সব থেকে গুরুত্বপূর্ণ? নাকি তার আগের...


আসলে, এ রকম হতে পারে যে আমি নানা কারণে ক্ষুব্ধ৷ কিন্ত্ত আমি সেটাকে প্রকাশ করছি না৷ কেননা পার্টি আমাকে কিছু কিছু সুযোগসুবিধা দিচ্ছে৷ পু্রোপুরি প্রাপ্য দিচ্ছে না হয়তো৷ কিন্ত্ত ওরা এত দিকে ছড়ি ঘোরাচ্ছে যে আমি কিছু বললে হয়তো যা পাচ্ছি সেটুকুও বন্ধ হয়ে যাবে৷ এবার আস্তে আস্তে লোকের বিশ্বাস হল যে অন্য দলটার জেতার সম্ভাবনা আছে৷ ১৯৯৫-তে বা ২০০৪ সালেও যেটা ছিল না, আর কেউ জিতবে বলে কারও কোনও ধারণাই ছিল না৷ তখন আমার ক্ষোভ থাকলেও কেন আমি প্রকাশ্যে ক্ষোভ প্রকাশ করব? আমরা বলছি কিন্ত্ত প্রধানত পঞ্চায়েত নির্বাচন প্রসঙ্গে৷ কিন্ত্ত যখন দেখা যায় অন্য পার্টির জেতার সম্ভাবনা আছে, তখন আস্তে আস্তে ওই দিকে সরতে শুরু করে৷ কাজেই তুমি শুধু সুযোগটা চাইলেই হয় না, যে দেবে বলছে তার জেতার সম্ভাবনা কতটা, সেটাও গুরুত্বপূর্ণ৷ আমরা এটাকে বলছি- 'মডেল অফ ক্লায়েন্টেলিজম'৷ অর্থাত্‍ তুমি আমাকে ভোট দেবে আর আমি তোমাকে কিছু পাইয়ে দেব৷ বাংলায় যাকে 'পাইয়ে দেবার রাজনীতি' বলে৷ এবং আমরা বলছি পশ্চিমবঙ্গে এই পাইয়ে দেওয়ার রাজনীতির প্রকোপটা বেশি৷ দু'দলের তরফেই৷

http://eisamay.indiatimes.com/editorial/interviews/interview-with-Pranab-Bardhan/articleshow/28585138.cms



'চাষার ব্যাটা' রেজ্জাককে তাড়িয়েই দিল সিপিএমp1-Rezzaq

অবশেষে দলবিরোধী কাজের অভিযোগে বহিষ্কৃত রেজ্জাক মোল্লা৷ লাগাতার দলীয় নেতৃত্বের বিরুদ্ধে বিষোদ্গার, দলকে না-জানিয়ে আলাদা মঞ্চ গঠন, ২০১৬ সালের বিধানসভা ভোটে লড়ার কথা ঘোষণা করায় সিপিএম বহিষ্কার করল রাজ্য কমিটির এই প্রবীণ সদস্য ও টানা আট বারের বিধায়ককে৷ বুধবার সিপিএম রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীর বৈঠকে এই সিদ্ধান্ত গ্রহণ করা হয়েছে৷ রাতেই বিমান বসু তাঁর সংক্ষিপ্ত বিবৃতিতে জানিয়েছেন, 'গঠনতন্ত্রের ১৯ নং ধারার ১৩ নং উপ-ধারায় পার্টি থেকে বহিষ্কারের সিদ্ধান্ত নেওয়া হয়েছে৷' তার আগে সিপিএম রাজ্য নেতৃত্ব কেন্দ্রীয় নেতৃত্বের সঙ্গে একান্তে আলোচনা সেরে নেন৷ কেন্দ্রীয় নেতৃত্বের 'ইনফরমাল' অনুমোদন নিয়েই রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলী রেজ্জাক মোল্লাকে 'গুরুতর পার্টি বিরোধী কার্যকলাপ ও পার্টি ভাবমূর্তিকে জনসমক্ষে হেয় করার' অভিযোগে দল থেকে বহিষ্কারের সিদ্ধান্ত নেয়৷ এই বহিষ্কারের সিদ্ধান্ত দলের আসন্ন কেন্দ্রীয় কমিটির বৈঠক এবং পরবর্তী রাজ্য কমিটির বৈঠকে অনুমোদন করতে হবে, যা নেহাত্‍ আনুষ্ঠানিক প্রক্রিয়া মাত্র৷




রেজ্জাক মোল্লার বিরুদ্ধে শাস্তিগ্রহণ ছাড়াও এ দিন আর এক বিদ্রোহী নেতা লক্ষ্মণ শেঠকে নিয়েও আলোচনা হয় রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলীতে৷ তবে দলীয় তদন্ত কমিশনের রিপোর্ট পেশ না-হওয়া পর্যন্ত তাঁর বিরুদ্ধে আপাতত কোনও শাস্তিমূলক ব্যবস্থা নেওয়া হচ্ছে না বলে দলীয় সূত্রের খবর৷ রেজ্জাক মোল্লা তাঁর বহিষ্কারকে স্বাগত জানিয়েছেন৷ তবে দল বহিষ্কার করলেও এখনই বিধায়ক পদ থেকে ইস্তফা দেবেন কি না, তা নিয়ে কোনও সিদ্ধান্ত নেননি ক্যানিং পূর্বের এই প্রবীণ বিধায়ক৷ আগামী ২৮ ফেব্রুয়ারি দিল্লি যাচ্ছেন তিনি৷ সেখানে তিনি কয়েকটি সংখ্যালঘু সংগঠনের সঙ্গে কথা বলবেন৷ দিল্লি থেকে ফিরে এসে তাঁর গড়া সামাজিক ন্যায় বিচার মঞ্চের অন্তর্গত সংগঠনগুলির নেতৃত্বের সঙ্গে কথা বলবেন৷ একইসঙ্গে ক্যানিং বিধানসভা এলাকার অনুগামী নেতা-কর্মীদের সঙ্গেও কথা বলবেন বিদ্রোহী রেজ্জাক৷ তাঁর কথায়, 'সবার সঙ্গে কথা বলে সিদ্ধান্ত নেব বিধায়ক পদ থেকে ইস্তফা দেব কি না৷' একইসঙ্গে মঞ্চের নেতাদের সঙ্গে কথা বলেই তিনি সিদ্ধান্ত নেবেন, আসন্ন লোকসভা ভোটে এই মঞ্চের তরফে প্রার্থী দেওয়া হবে কি না৷ এই সামাজিক ন্যায়বিচার মঞ্চকে রাজনৈতিক দলে পরিণত করার সমস্ত প্রস্ত্ততি ইতিমধ্যেই নিয়েছেন রেজ্জাক৷ দলের গঠনতন্ত্র, কর্মসূচি, দলীয় প্রতীক সবই চূড়ান্ত হয়ে গিয়েছে৷ ফলে লোকসভা ভোটে প্রার্থী দেওয়া খুব একটা সমস্যা হবে না বলে মনে করছেন তিনি৷ লোকসভা ভোটের মুখে হজ ফেরত সংখ্যালঘু এই নেতাকে দল বহিষ্কার করায় তার প্রভাব দক্ষিণ ২৪ পরগনার একাংশে পড়বে বলে আশঙ্কা করছেন সিপিএমের এই জেলার বেশ কয়েক জন নেতা৷ এ ছাড়া, ক্যানিং ও ভাঙড় এলাকায়ও দলীয় সংগঠনে ভাঙন ধরারও আশঙ্কা করছেন তাঁরা৷ তবে লোকসভা ভোটের প্রাক্কালে রেজ্জাকের মতো নেতাকে বহিষ্কারের ঝুঁকি নিয়ে রাজ্য নেতৃত্ব দলের বিক্ষুব্ধ অংশকে এই বার্তাও দিতে চাইলেন, তাঁরা দলীয় শৃঙ্খলার প্রশ্নে হাজার সঙ্কটেও কোনও আপস করবেন না৷ সংখ্যালঘু নেতাকেও রেয়াত করা হবে না৷




সিপিএমের অভ্যন্তরীণ রাজনীতিতে রেজ্জাক মোল্লা দীর্ঘদিন ধরে 'বিদ্রোহী' হিসেবে পরিচিত৷ ২০০৬ সালের বিধানসভা নির্বাচনের পর থেকে দলীয় নেতৃত্বের বিভিন্ন সিদ্ধান্তের বিরুদ্ধে প্রকাশ্যে মুখ খুলতে শুরু করেন৷ সিঙ্গুর-সহ বিভিন্ন ক্ষেত্রে শিল্পের জন্য কৃষিজমি অধিগ্রহণের প্রশ্নে তত্‍কালীন মুখ্যমন্ত্রী বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য ও নিরুপম সেনের বিরুদ্ধে প্রকাশ্যে মুখ খোলেন তিনি৷ বিধানসভা ভোটের ফল প্রকাশের সঙ্গে সঙ্গে বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য 'হেলে ধরতি পারে না কেউটে ধরতি গেছে' বলে কটাক্ষ করেন তিনি৷ নিরুপম সেনকে 'নাটের গুরু' বলে চিহ্নিত করেন৷ তারপর থেকে লাগাতার বুদ্ধদেব ভট্টচার্য-সহ অনেক নেতার বিরুদ্ধে বিষোদ্গার করেছেন তিনি৷ এর জন্য সিপিএম রাজ্য কমিটি তাঁকে একাধিকবার 'সেন্সর' করে৷ রাজ্য সম্পাদক বিমান বসু তাঁকে কয়েকবার আলিমুদ্দিনে ডেকে পাঠিয়ে সতর্ক করেন৷ রাজ্য কমিটির বৈঠকেও রেজ্জাক একাধিকবার সমালোচিত হন৷ প্রকাশ্যে মুখ খুলে ভুল করেছেন বলে রাজ্য কমিটিতে কবুলও করেন রেজ্জাক৷ রেজ্জাককে কেন শাস্তি দেওয়া হচ্ছে না, তা নিয়ে রাজ্য কমিটির বৈঠকে বিমান বসুও প্রশ্নের মুখে পড়েছিলেন৷ এত সবের পরও দলীয় নেতৃত্বের বিরুদ্ধে তোপ দাগায় এবং আলাদা মঞ্চ গঠন করায় চরম শাস্তির পথই বেছে নিল সিপিএম রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলী৷

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The Economic Times

Design grads get 50% higher salaries than engineers


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Chaman Lal Jnu

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Satya Narayan

जनता को क्रान्ति के लिए तैयार करने का साहस तो इनमें है नहीं, मेहनतक़शों के बीच उतरने में तो नानी मरती है, पर इससे क्‍या फ़र्क पड़ता है? नकली 'बूँदी का किला' बनाकर वर्ग-युद्ध जारी है! कॉफी हाउस में, संगोष्‍ठी कक्षों और ड्राइंग रूमों में अध्‍ययन चक्र और व्‍याख्‍यान हो रहे हैं। कौन हैं ये लोग? एन.जी.ओ. और मीडिया प्रतिष्‍ठानों के मुलाज़ि‍म, प्रोफेसर, सरकारी अफ़सर... .... लाखों नहीं, करोड़ों की सम्‍पत्ति है, कई शहरों में फ्लैट-बंगले हैं, बाल-बच्‍चे यदि हैं तो विदेशों में हैं या देशी उच्‍च प्रतिष्‍ठानों में व्‍यवस्थित हैं! इनमें से अधिकांश कभी किसी कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी संगठन में काम करते थे और अब रिटायर होकर खुशहाल घरबारू जीवन बिता रहे हैं। सिद्धान्‍त-चर्वण के अतिरिक्‍त यह जमात दिल्‍ली बलात्‍कार या मुजफ्फरनगर जैसी घटनाओं पर कुछ रस्‍मी धरना-प्रदर्शन भी कर देती है। इनकी हर कार्रवाई 1920 और 1930 दशक के उन यूरोपीय सामाजिक जनवादियों की याद दिलाती है जो निर्णायक समय में फासिस्‍टी डण्‍डे के डर से या तो घरों में दुबक गये थे या फिर पूरी तरह से घुटने टेक दिये थे।

Kavita Krishnapallavi

क्रान्तिकारी संकट का दौर और राजनीतिक लफंगे

--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

'दूसरे इण्‍टरनेशनल का पतन' शीर्षक अपनी प्रसिद्ध रचना में लेनिन ने क्रान्तिकारी परिस्थिति के जो तीन लक्षण गिनाये हैं, उनके अनुसार देखें तो आज की दुनिया और आज का भारत निश्‍चय ही एक क्रान्तिकारी परिस्थिति के दौर से गुजर रहे हैं। यहाँ लेनिन का यह कथन भी याद रखना ज़रूरी है कि हर क्रान्तिकारी संकट क्रान्ति को जन्‍म नहीं देता। जबतक क्रान्तिकारी वर्ग क्रान्तिकारी जनकार्रवाई के द्वारा व्‍यवस्‍था को तोड़ देने में सक्षम न हो, तबतक क्रान्तिकारी संकट या क्रान्तिकारी ...Continue Reading


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