बदस्तूर जारी है म.प्र. में शिक्षा का भगवाकरण
Author: समयांतर डैस्क Edition : October 2013
जावेद अनीस
हमारे संविधान की उद्देशिका के अनुसार भारत एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। संविधान के अनुसार राजसत्ता का कोई अपना धर्म नहीं होगा। उसके विपरीत संविधान भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने का अधिकार प्रदान करता है।
लेकिन मध्य प्रदेश में इसका बिलकुल उल्टा हो रहा है। पिछले करीब एक दशक से भाजपा शासित सूबे मध्य प्रदेश में शिक्षण संस्थानों में एक खास तरह का राजनीतिक एजेंडा बड़ी खामोशी से लागू किया जा रहा है।
इसकी ताजा बानगी एक बार फिर से तब देखने को मिली, जब बीते 1 अगस्त 2013 को प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने मध्य प्रदेश राजपत्र में अधिसूचना जारी कर मदरसों में भी गीता पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया था। इसमें मध्य प्रदेश मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त सभी मदरसों में कक्षा तीन से आठ तक सामान्य हिंदी की तथा पहली और दूसरी की विशिष्ट अंग्रेजी और उर्दू की पाठ्यपुस्तकों में भगवतगीता में बताए प्रसंगों पर एक एक अध्याय जोड़े जाने की अनुज्ञा की गई थी और इसके लिए राज्य के पाठ्य पुस्तक अधिनियम में बाकायदा जरूरी बदलाव भी किए गए थे। विधानसभा चुनावों से मात्र चार महीने पहले लिए गए इस फैसले ने बड़ा विवाद पैदा कर दिया था। खुद को भाजपा के 'वाजपेयी इन वेटिंग' बनाने में लगे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भारी विरोध और अपनी अपेक्षाकृत 'उदार छवि' को नुकसान पहुंचने के डर के चलते बड़ी आनन-फानन में यह निर्णय वापस लेना पड़ा।
दरअसल, मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पहले से ही गीता पढ़ाई जा रही है। राज्य सरकार ने 2011 में गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने की घोषणा की थी। इंदौर में 13 नवंबर 2011 को स्कूलों में गीता पढ़ाने के निर्णय की घोषणा करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा था कि 'हिंदुओं का पवित्र ग्रंथ गीता' स्कूलों में पढ़ाया जाएगा, भले ही इसका कितना ही विरोध क्यों न हो।' इसका नागरिक संगठनों और अल्पसंख्यक समाज द्वारा पुरजोर विरोध किया गया था। यह मामला हाई कोर्ट तक भी गया था। मगर इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि माननीय उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश सरकार के राज्य के स्कूलों में 'गीता सार' पढ़ाने के निर्णय पर अपनी मुहर लगाते हुए कहा कि 'गीता मूलत: भारतीय दर्शन की पुस्तक है, किसी भारतीय धर्म की नहीं।'
अदालत का यह निर्णय कैथोलिक बिशप काउंसिल द्वारा दायर एक याचिका पर आया था जिसमें यह मांग की गई थी कि केवल गीता ही नहीं,बल्कि सभी धर्मों में निहित नैतिक मूल्यों से स्कूली विद्यार्थियों को परिचित कराया जाना चाहिए। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि चूंकि गीता दार्शनिक ग्रंथ है, धार्मिक नहीं इसलिए राज्य सरकार गीता का पठन-पाठन जारी रख सकती है और स्कूलों में अन्य धर्मों द्वारा प्रतिपादित नैतिक मूल्यों का ज्ञान दिया जाना आवश्यक नहीं है। इस आदेश के बाद सरकार के शिक्षा विभाग का हौंसला बढ़ा, जिसका परिणाम ये एक अगस्त की अधिसूचना थी जिसमें गीता के पाठ पढ़ाये जाने को मदरसों में भी अनिवार्य कर दिया गया था।
इसी तरह राज्य सरकार ने शासकीय स्कूलों में योग के नाम पर 'सूर्य नमस्कार' अनिवार्य कर दिया था, बाद में उसे ऐच्छिक विषय बना दिया गया। परंतु चूंकि अधिकांश हिंदू विद्यार्थी शालाओं में योग सीखते हैं, अत: अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं का स्वयं को अलग-थलग महसूस करना स्वाभाविक ही होगा। इसी तरह स्कूल शिक्षकों के लिए ऋषि संबोधन चुना गया था। इसी कड़ी में राज्य शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनिस द्वारा राज्य के सभी सरकारी स्कूलों को दिया गया यह आदेश भी काफी विवादित रहा था कि स्कूलों में मिड डे मील के पहले सभी बच्चे भोजन मंत्र पढ़ेंगे।
इसी तरह वर्ष 2009 में मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका देवपुत्र को सभी स्कूलों में अनिवार्य तौर पर पढ़ाए जाने का फैसला लिया था। हाल ही में इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए बीते 29 जुलाई 2013 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश योग परिषद की बैठक को संबोधित करते हुए घोषणा की थी कि 'प्रदेश की शालाओं में पहली से पांचवी कक्षा तक योग शिक्षा अनिवार्य की जाएगी।' उन्होंने योग परिषद को निर्देश भी दिया कि वह व्यावहारिक और सिद्धांतिक योग शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम तैयार करे!
ऐसा लगता है सरकार की दिलचस्पी शालाओं में शिक्षा का स्तर सुधारने के बजाए इस तरह के विवादित फैसलों को लागू करने में ज्यादा रहती है, अगर सरकार इसी तत्परता के साथ शिक्षा की स्थिति को लेकर गंभीर होती, तो प्रदेश में शिक्षा का हाल इतना बदहाल नहीं होता।
शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए तीन साल बीत चुके हैं, लेकिन प्रदेश अभी भी बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने में काफी पीछे है। मध्य प्रदेश में शिक्षा की स्थिति कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इन कुछ आंकड़ों से लगाया जा सकता है।
मध्य प्रदेश शिक्षकों की कमी के मामले में देश में दूसरे स्थान पर है। शिक्षा के अधिकार कानून के मानकों के आधार पर देखा जाए तो प्रदेश में 42.03 प्रतिशत शिक्षकों की कमी है। इस मामले में मध्य प्रदेश अरुणाचल के बाद दूसरे स्थान पर है।
2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार मध् य प्रदेश उन बद्तर राज्यों में चौथे नंबर पर है, जहां कक्षा 3 से 5 तक के केवल 23.1 प्रतिशत बच्चे ही गणित में घटाव कर सकते हैं, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 40.7 प्रतिशत है। इसी प्रकार प्रदेश उन पांच बद्तर राज्यों में शामिल है, जहां कक्षा 3 से 5 तक के केवल 39.3 प्रतिशत बच्चे ही कक्षा 1 की किताब पढ़ सकते हैं। प्रदेश में आठवीं कक्षा के केवल 24 प्रतिशत विद्यार्थी ऐसे हैं, जो अंग्रेजी में वाक्य पढ़ सकते हैं। उपरोक्त आंकड़ों से साफ जाहिर है कि सूबे के स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर महज खानापूर्ति हो रही है।
दूसरी तरफ प्रदेश की शालाओं में बुनियादी अधोसंरचना की भी भारी कमी है। प्रदेश के 52.52 प्रतिशत शालाओं के पास स्वयं का भवन नहीं है, 24.63 प्रतिशत प्राथमिक एवं 63.44 प्रतिशत माध्यमिक शालाओं में पानी की उपलब्धता नहीं है। प्रदेश के 47.98 प्रतिशत प्राथमिक एवं 59.20 प्रतिशत माध्यमिक शालाओं में शौचालय की अनुपलब्धता है।
मध्याह्न भोजन को लेकर भी स्थिति अच्छी नहीं है। मध्य प्रदेश में पिछले साल मध्याह्न भोजन को लेकर की गयी शिकायतों में से 70 फीसदी शिकायतों पर कार्रवाई नहीं हुई है। तीन साल के आंकड़े देखें तो राज्य सरकार तक 239 शिकायतें पहुंचीं, जिनमें से 90 शिकायतों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
उपरोक्त स्थितियां बताती हैं कि मध्य प्रदेश को सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने को लेकर अभी कितना लंबा सफर तय करना है, लेकिन वर्तमान सरकार की दिलचस्पी प्रदेश में शिक्षा की स्थिति सुधारने की बजाय किसी खास विचारधारा का एजेंडा लागू करने में ज्यादा दिख रही है। प्रदेश के बच्चों और शिक्षा व्यवस्था के लिए यह दुर्भाग्य है कि शालाओं को इस तरह की राजनीति का अखाड़ा बनाया जा रहा है।
आमतौर पर खुद को विनम्र और सभी वर्गों का सर्वमान्य नेता दिखाने की कोशिश में लगे रहने वाले भाजपा के 'वाजपेयी इन वेटिंग' शिवराज सिंह चौहान बड़ी मुस्तैदी और सावधानी के साथ प्रदेश में संघ का एजेंडा लागू कर रहे हैं।
जरूरत इस बात की है कि मध्य प्रदेश में शिक्षा को धर्म के साथ घालमेल करने की कवायद पर रोक लगाई जाए और शिक्षा में आने वाली वास्तविक अड़चनों को दूर करने के लिए गंभीरता से प्रयास किए जाएं, ताकि सूबे के सभी बच्चों को अनिवार्य शिक्षा मिल सके साथ ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को हासिल किया जा सके।
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