खाद्य सुरक्षा बिल से कौन डरता है?
Author: समयांतर डैस्क Edition : August 2013
एक संवाददाता
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने हाल में दो ऐसे फैसले किए हैं जिनमें से एक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल, जिसे अध्यादेश के जरिए लागू किया गया है, पर काफी तीखी बहस छिड़ी हुई है। दूसरा फैसला प्राकृतिक गैस की कीमत में बढ़ोतरी से जुड़ा है पर आश्चर्यजनक रूप से उस पर गहरी खामोशी है। यह मीडिया तक ही सीमित नहीं है बल्कि राजनीतिक दलों तक पसरी है। मनमोहन सरकार ने अगले पांच साल तक के लिए प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ाने का फैसला किया। यह फैसला अगले साल अप्रैल से लागू होगा और गैस के दाम सीधे दोगुने यानी 8.4 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू हो जाएंगे। इसके बाद ये अगले पांच साल तक बढ़ते रहेंगे। गैस के दामों में बढ़ोतरी की मांग रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड लंबे समय से कर रही थी। इस बढ़ोतरी का सबसे बड़ा फायदा रिलायंस को ही होने जा रहा है। इसे लेकर विशेषज्ञ यहां तक कह रहे हैं कि गैस की कीमत में एक डॉलर की बढ़ोतरी का मलतब है कि रिलायंस को 7.30 करोड़ डॉलर का मुनाफा। (रिलायंस की इस लूट पर पिछले अंकों में समयांतर में लगातार सामग्री प्रकाशित होती रही है)। गैस की कीमत में बढ़ोतरी का प्रभाव यह होगा कि सरकार को सब्सिडी के रूप में एक बहुत बड़ी राशि वहन करनी होगी। जाहिर है कि यह राशि करदाताओं की होगी।
इसका गुणागणित कुछ इस तरह से है। 'ऊर्जा सयंत्रों के लिए हर साल 46, 360 करोड़ रुपए, यूरिया उत्पादन के लिए हर साल 3, 155 करोड़ रुपए, एलपीजी उत्पादन के लिए प्रति वर्ष 1620 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार वहन करना होगा। यह राशि प्रति वर्ष 51, 135 करोड़ रुपए बैठेगी। अगर डॉलर की वर्तमान कीमत के हिसाब से इसे देखा जाए तो यह राशि हर वर्ष 54, 500 करोड़ रुपए होगी। ' (आउटलुक, 15 जुलाई, 2013) यानी मुकेश अंबानी की कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए सरकारी खजाने को 54, 500 करोड़ का बोझ उठाना होगा। लेकिन वामदलों और अन्नाद्रमुक को छोड़कर किसी भी राजनीतिक दल ने सरकार के इस फैसले के खिलाफ बोलने की जहमत तक नहीं उठाई, राजनीतिक रूप से दिखावे के लिए भी नहीं।
इसने यही दर्शाया है कि भारत में कॉरपोरेट लॉबी इतनी ताकतवर है कि उसने सत्ता प्रतिष्ठानों और राजनीतिक दलों को पूरी तरह से बौना कर दिया है। यह इस खतरनाक हद तक पहुंच गया है कि एक कंपनी अपने हित में फैसला कराने के लिए सरकार के साथ हुए करार में लिखित शर्तों का खुलेआम उल्लंघन करती है। केजी बेसिन डी-6 गैस ब्लॉक के मामले में रिलायंस ने जानबूझकर उत्पादन गिराया और इसके लिए उस पर जो जायज जुर्माना लगाया गया उसकी वसूली तक सरकार नहीं कर पा रही है। इतना ही नहीं कैग के बार-बार कहने पर रिलायंस ऑडिट कराने के लिए भी राजी नहीं हो रही है। यह देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट और सरकारी खजाने में सेंधमारी का ऐसा ज्वलंत उदाहरण है जिस पर वे लोग सबसे ज्यादा खामोश हैं जो राष्ट्रवाद और देश की तरक्की का सबसे ज्यादा राग अलापते थकते नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद का सबसे 'चमत्कारी नायक' गैस की कीमतों में बढ़ोतरी के मामले में न केवल खामोश है बल्कि पूरी निल्र्लजता से रिलायंस के मालिक के साथ गलबहियां करता दिखाई देता है। भारत के इस कथित विकास पुरुष का हिंदू राष्ट्रवाद दरअसल कॉरपोरेट घरानों की चौखट में मियमियाता नजर आता है।
वहीं दूसरी ओर, मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा, अधिकतर राजनीतिक दल, कॉरपोरेट घरानों के प्रमुख और बहुत सारे आर्थिक विश्लेषक इन दिनों इस चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल से सब्सिडी के रूप में सरकारी खजाने पर बहुत बड़ा भार पड़ेगा। अगर यह मान भी लिया जाए कि उनकी चिंता बाजिब है, लेकिन इस पर तब शंका पैदा होती है जब रिलायंस को फायदा पहुंचाने के लिए किए गए फैसले से सरकारी खजाने पर प्रति वर्ष पडऩे वाले 54, 500 करोड़ रुपए के बोझ पर वे खामोश रहते हैं। यह दोगलापन बहुत सारे सवालों को जन्म देता है। अगर गरीबों को सस्ता अनाज मुहैया कराने से अर्थव्यवस्था की सेहत खराब होती है तो उद्योगों को करों और अन्य छूटों तथा उनके हित में फैसले करने से अरबों-खरबों रुपए का जो लाभ दिया जाता है क्या उससे भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत खराब नहीं होती है? भारत का शासक वर्ग आखिर यह क्यों चाहता है कि सिर्फ कॉरपोरेट घरानों को ही राजनीतिक सब्सिडी मिले, गरीबों को नहीं।
यह सही है कि सबको भोजन अधिकार संबंधी खाद्य सुरक्षा अध्यादेश यूपीए सरकार का एक राजनीतिक दांव है। अगर वह सचमुच में इसे लेकर ईमानदार होती तो चुनाव से चंद महीने पहले इसे लागू करने के बजाय काफी पहले लागू करती। लोकतंत्र में चुनाव जीतने के लिए सिर्फ कॉरपोरेट घरानों को ही खुश करने से काम नहीं चलता। दरअसल, आजाद भारत में अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार का तमगा हासिल कर चुकी मनमोहन सरकार अपनी तमाम जनविरोधी नीतियों को मात्र एक लोकलुभावन योजना के सहारे छिपाना चाहती है। इसे एक बड़ी सामाजिक कल्याणकारी पहलकदमी के बतौर देखा जा रहा है, जिसके जरिए पहली बार भोजन के लिए कानूनी अधिकार की गारंटी दी जा रही है। खाद्य सुरक्षा विधेयक एक तरह से कुछ ठोस प्रावधानों के साथ वर्तमान अंत्योदय अन्न योजना का ही विस्तार है। इस योजना के तहत खाद्यान्न प्राप्त करने का हकदार पुरुष या महिला अपने मासिक राशन का निर्धारित कोटा नहीं मिलने पर शिकायत दायर कर सकता/सकती है। इस अध्यादेश के अनुसार यह योजना 75 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरी आबादी को लाभ पहुंचाएगी। एक अरब 20 करोड़ आबादी में से 80 से 81 करोड़ की आबादी यानी 67 प्रतिशत आबादी को यह योजना कवर करेगी। इसमें खाद्यान्न का आवंटन प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से होगा। इसमें हर चिह्नित लाभार्थी को हर माह पांच किलो गेहूं, चावल या मोटा अनाज मिलेगा, जबकि अंत्योदय अन्न योजना में परिवार को 35 किलो अनाज मिलता था। चाहे वह परिवार दस लोगों का हो या दो लोगों का। खाद्य सुरक्षा योजना के तहत लाभार्थी को दो रुपए किलो की दर से गेहूं, तीन रुपए किलो की दर से चावल और एक रुपए किलो की दर से मोटा अनाज मिलेगा। जब यह योजना पूरी तरह से कार्यान्वित हो जाएगी तो केंद्र सरकार की सब्सिडी बोझ हर साल 125, 000 करोड़ रुपए से अधिक हो जाएगा, जबकि वर्तमान में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के चलते सब्सिडी का यह बोझ 90 हजार करोड़ रुपए है। यानी सरकार का सब्सिडी बोझ 35 हजार करोड़ रुपए बढ़ेगा, जो कि रिलायंस को फायदा पहुंचाने के लिए उठाए जाने वाले 54, 500 करोड़ रुपए से 19, 500 करोड़ रुपए कम ही बैठता है।
आर्थिक पंडितों के एक व्यापक हिस्से और कॉरपोरेट हलकों से यह भी कहा जा रहा है कि सब्सिडी के सहारे आप आम जनता का भला नहीं कर सकते हैं। यहां यह सवाल पैदा होता है कि जब सब्सिडी से आम आदमी का भला नहीं हो सकता तो उद्योग जगत को तमाम तरह की छूट मिलने से उनका भला कैसे हो सकता है। कहा जा रहा है कि विकास इस तरह का हो जिससे हर व्यक्ति लाभान्वित हो। लेकिन हम यह कैसे भूल सकते हैं कि आर्थिक उदारीकरण के इन 22 सालों में मात्र 20 फीसदी लोगों को ही लाभ हुआ है। जबकि खुद सरकार 2013 में यह मान रही है 65 फीसदी भारतीय गरीब हैं। 28 जुलाई 2013 की टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार गरीब और अमीर के बीच आय की असमानता तेजी से बढ़ी है। वहीं शिशु कुपोषण पर यूनीसेफ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में पांच साल से कम आयु के छह करोड़ दस लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। ऐसे में अगर 67 प्रतिशत गरीबों को वोट के चक्कर में ही सही लोकलुभावन योजना के नाम पर सस्ता अनाज मिलता है तो इसमें बुरा क्या है।
दरअसल इस योजना को लेकर जो मुख्य विरोध हो रहा है उसके मूल में इसकी खामियां होने के बजाय यह डर और चिंता ज्यादा है कि कहीं इस तरह की योजनाएं एक कल्याणकारी राज्य की वापसी का मार्ग ही न प्रशस्त कर दें। इसलिए सब्सिडी को लेकर इतना हो-हल्ला मचाया जा रहा है। जबकि बीते 22 साल के आर्थिक उदारीकरण के दौरान सरकार का जिस तरह से कॉरपोरेटीकरण हो चुका है उससे इसकी उम्मीद कतई नहीं की जा सकती है कि समाजवाद से मुकाबले के लिए पूंजीवाद ने कल्याणकारी राज्य की जो नकाब ओढ़ी थी उसे वह फिर से ओढऩे जा रहा है। लोकतंत्र में चुनावी मजबूरियों के कारण राजनीतिक दलों को इस तरह के एक-आध फैसले न चाहते हुए भी करने पड़ते हैं और खाद्य सुरक्षा को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। इससे कांग्रेस की नीतियों में कोई चमत्कारी परिवर्तन नहीं होने जा रहा है। सवाल यह है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार कैसे हो और सरकार को इसके लिए किस तरह से बाध्य किया जाए। साथ ही इस तरह की योजनाओं में भ्रष्टाचार होना अब आम बात हो गई है जिसमें राजनीतिक दल और शासक वर्ग एक अहम भूमिका अदा करते है, जो सब्सिडी से ज्यादा चिंता की विषय है। मनरेगा का उदाहरण हमारे सामने है, लेकिन इसकी आड़ में यह कहना कि सरकार को इस तरह की योजनाएं लानी ही नहीं चाहिए, एक खतरनाक प्रवृत्ति को बढ़ावा देना ही है। चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि कॉरपोरेट घरानों की करों से लेकर हर तरह की छूटें क्यों मिलती हैं। बहस इस पर होनी चाहिए कि रिलायंस जैसी कंपनियों को हर तरह की लूट की छूट क्यों दी जा रही है।
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