एकाधिकार पर खतरे से डरी हुई पितृसत्ता
Author: समयांतर डैस्क Edition : September 2013
मोहसिना खातून
विगत 31 जुलाई 2013 को सभी अर्थों में प्रगतिशील माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में कई तरह के हथियारों से लैस एक छात्र ने अपनी साथी छात्रा पर न केवल बर्बरतापूर्वक हमला किया, बल्कि खुदकुशी भी कर ली। अगर वह जिंदा पकड़ा भी जाता तो पुलिस, न्याय, प्रशासन और तथाकथित सभ्य समाज में भले ही अपराधी माना जाता, लेकिन अपने अंतर्मन में खुद को किसी हीरो से कम नहीं समझता, बल्कि अभी भी कई ऐसे मर्द मिल जाएंगे जो उसे सही ठहराकर कहीं न कहीं अपनी चोट खाई मर्दानगी को सहला रहे होते हैं।
जेएनयू में जो हुआ, वह पहली बार हुई कोई घटना नहीं है। इसी साल नौ जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला देते हुए तेजाब की खुलेआम बिक्री पर रोक लगाने के संबंध में कड़े कायदे-कानूनों का पालन करने के आदेश दिए थे। जबकि इसके ठीक सत्रह दिन बाद, यानी 26 जुलाई को गाजियाबाद की एक विवाहित महिला पर तेजाब फेंक दिया गया। महिला का कसूर बस इतना था कि वह चार साल से पड़ोस में रहने वाले एक आदमी की बदनीयती को पूरा नहीं होने दे रही थी।
बारह अगस्त को उत्तर पूर्वी दिल्ली के जीटीबी एन्क्लेव इलाके में मोटरसाइकिल सवार दो युवकों ने इक्कीस वर्षीय युवती पर तेजाब डाल दिया। हैरानी की बात यह थी कि यह घटना दो पुलिसकर्मियों के सामने हुई। छानबीन में पता चला कि युवती का एक रिश्तेदार उस पर शादी करने के लिए दबाव डाल रहा था, जिसे उसने ठुकरा दिया था। इसके बाद उस आदमी ने युवती को चेहरा बिगाडऩे की धमकी दी थी।
इसी तरह सत्ताईस अगस्त को इलाहाबाद के कर्नलगंज की बैंक रोड पर बीटेक की एक छात्रा पर उसके एक पुरुष मित्र ने पेट्रोल में भीगी टीशर्ट फेंक कर उसे जलाने की कोशिश की। हमलावर पहले से ही छात्रा का मित्र था और इलाहाबाद आ जाने के बाद भी दोनों फोन और फेसबुक से एक दूसरे के संपर्क में थे। लेकिन इस बीच लड़की की दोस्ती किसी दूसरे लड़के से हो गई थी और हमलावर छात्र ने इलाहाबाद आकर अपनी दोस्त के मोबाइल पर उसके नए दोस्त के साथ बढ़ती दोस्ती से गुस्से में आकर यह कदम उठाया।
ये चंद गिनी-चुनी घटनाएं हैं। अगर हम बीते कुछ सालों के आंकड़े देखें तो वाकई चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे। आए दिन महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा कोई नई बात नहीं है। हां, इसमें अगर कुछ नया है तो वह यह कि लगातार पितृसत्तात्मक कुंठाएं ज्यादा विकृत रूप में सामने आ रही हैं। इन हिंसात्मक घटनाओं को देखने और इनका विश्लेषण करने का सामाजिक नजरिया भी बड़ा दिलचस्प है। गौरतलब है कि इस तरह की घटनाओं को लेकर अक्सर लोग बिना सोचे-समझे इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि या तो लड़की ने लड़के को धोखा दिया, या फिर एकतरफा प्यार में हाथ आई निराशा और अपमान का बदला युवक ने लड़की को सबक सिखाकर ले लिया। जाहिर है, ये पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष सोच से प्रभावित निष्कर्ष हैं। लेकिन यह बात और भी दिलचस्प है कि इस तरह के नतीजों पर पहुंचने में कहीं-न-कहीं हमारे दिमाग के एक कोने में उस हमलावर नौजवान के प्रति हमदर्दी का भाव और दूसरी ओर लड़की के चरित्र पर संदेह का भाव भी छिपा रहता है।
लेकिन मुद्दा यह है कि यह 'मानसिकता' आती कहां से है? कैसे एक लड़की के 'अपनी पसंद' के मौलिक अधिकार को अनदेखा कर या खारिज कर कोई सिरफिरा आशिक ऐसा बर्बर और घिनौना काम कर बैठता है? एक लड़की के चेहरे को बिगाड़कर उसका 'घमंड' तोड़ा जाता है, ताकि जिंदगी भर उसे और उसके जैसी हर उस लड़की को पल-पल यह याद दिलाया जा सके कि वह अब एक वस्तु के रूप में अपना मोल खो चुकी है या अब वह किसी दूसरे पुरुष के योग्य भी नहीं रह गई है।
मुझे लगता है कि यह महिलाओं, उनकी आजादी और उनकी सेक्सुअलिटी को और अधिक नियंत्रित न रख पाने की हताशा से उपजी कुंठा है। यह पितृसत्ता की वे जड़ें हैं, जो पहले'लव मैरिज' करने से आहत होती थीं, मगर आज वैश्वीकरण के दौर में प्रेम संबंधों में भी चुनने की आजादी या पसंदगी के कारण कमजोर हो रही हैं। आज स्त्री घर की चारदिवारी से निकल कर अपना आसमान खुद तलाशना चाह रही है और उसमें कामयाब भी हो रही है। वह अपनी जिंदगी के छोटे-बड़े फैसले खुद लेना चाहती है और ले भी रही है। कैरिअर, शिक्षा और यहां तक कि प्रेम संबंधों को अपनी शर्त पर जीना चाहती है। इसी चाह में जाने-अनजाने स्त्रियां उस 'मर्दानगी' पर चोट भी कर रही हैं, जो रिश्तों में एक औरत को 'चुनने' का अधिकार नहीं देना चाहती और इस तरह उस पर अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहती है। यही नहीं, इससे भी बढ़ कर कई बार वह जो 'गुस्ताखी' कर जाती है, वह है अपने प्रेमी या एक पुरुष को ठुकराने का साहस। ऐसा वह अधिकार के बतौर कर रही है। 'रिजेक्ट' करना या 'छोड़ देना' जैसे हक का इस्तेमाल दरअसल अब तक मर्द की 'बपौती' की तरह स्त्री पर काबिज था। लेकिन आज की नौकरीपेशा, आर्थिक रूप से सबल स्त्री भी न सिर्फ ठुकराने के फैसले ले रही है, बल्कि जरूरत पडऩे पर बेहतर रिश्ते की संभावना में पुराने रिश्ते को 'विदा' कहने में भी संकोच नहीं कर रही है। इस प्रवृत्ति को अब तक सिर्फ पुरुष के 'विशेषाधिकार' के तौर पर देखा जाता रहा है और उससे किसी को कोई शिकायत नहीं होती थी।
आज की लड़कियां पहले के मुकाबले ज्यादा समझदार और ताकतवर हैं। एक बार 'कुंवारापन' खत्म हो जाने को नैतिकता के तराजू पर खुद को अपराधी करार नहीं देतीं और न ही किसी प्रेम संबंध को जन्म-जन्म का बंधन मानकर ताउम्र उसका बोझ ढोने को तैयार हैं। बल्कि आज औरत कदम-कदम पर जिंदादिली से हर भावनात्मक उलझन का सामना करती है। 'आई डोंट थिंक इट्स वर्किंग एनी मोर' के दोटूक वाक्य पर यकीन रखते हुए वह आगे बढ़ती है। लेकिन समाज उसकी इस 'हिमाकत' के लिए उसे सजा देना चाहता है। क्योंकि उसकी इस बहादुरी से प्रेम, परिवार और विवाह की पारंपरिक नींव ढीली पड़ती है।
कुछ ही समय पहले टीवी पर अमिताभ बच्चन, वहीदा रहमान और संजीव कपूर अभिनीत फिल्म 'त्रिशूल' देखकर एक खयाल आया कि कुछ साल पहले तक साथी का चुनाव, धोखा या छोड़ देने का अधिकार पुरुष के पास था और पुरुष के धोखा देने का अर्थ था समाज से बहिष्कृत एक नाजायज बच्चे की मां। इसी तरह मिथुन चक्रवर्ती और रति अग्निहोत्री की एक फिल्म 'मुझे इंसाफ चाहिए' का एक संवाद है, जिसमें प्यार में धोखा खाई गर्भवती नायिका जब नायक के पास शादी करने की मिन्नतें करने पहुंचती है तो वह मर्दानगी के नशे में चूर कहता है कि 'ऊपर वाले ने औरत को कोख देकर हम मर्दों का काम काफी आसान कर दिया है।'
लेकिन आज की नायिका उतनी कमजोर और बेबस नहीं है। हाल में 'लव, सेक्स और धोखा' और 'रांझणा' जैसी कई फिल्में आई हैं, जिन्होंने युवतियों को एक तरह की नई संस्कृति दी है। इसमें एक रिश्ते के खत्म होने पर मातम करने के बजाय आगे बढऩे का हौंसला भी दिखाई देता है। मुझे इन बदलावों के पीछे 'पूंजीवादी बाजार संस्कृति' के उन गर्भनिरोधक साधनों की भी कुछ भूमिका दिखती है, जिन्होंने आज की महिला को कुछ हद तक बच्चे पैदा करने के मामले में चुनाव करने या फैसला करने के अधिकार दिए हैं। इन गर्भनिरोधक साधनों के दुष्परिणामों पर गौर करना चाहिए, लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि इससे महिलाओं को विवाह से पहले गर्भधारण करने जैसे 'सामाजिक ट्रॉमा' से मुक्ति मिली है।
इन साधनों की आसान उपलब्धता ने प्रेम संबंधों के मायने भी बदल दिए हैं। अब महिलाएं इस डर में नहीं जीतीं कि लड़का उन्हें गर्भवती करके भाग सकता है। बल्कि महिलाएं अब अपनी इस कमजोरी से उबर रही हैं और यही 'निडर', और 'बेलगाम' औरत पितृसत्ता के लिए खतरा है, क्योंकि यहीं से उसकी सत्ता की कुर्सी के पाए कमजोर होते हैं या छिन जाने की जमीन बनती है।
दूसरी ओर, अगर उन हमलावर युवकों की बात करें तो समाज उनके हमलों को औरत के हाथों धोखा खाए मासूम नौजवान के गुस्से में हो गई किसी गलती की तरह देखता है। मीडिया हो या प्रशासन, हमलावर के प्रति संवेदनशील नजर आते हैं। ऐसी हिंसात्मक वारदात के पीछे जो कारण है, वह और भी भयानक है, क्योंकि स्त्री के 'खारिज करने' के अधिकार को समाज पुरुष की कमजोरी मानता है। यहां तक कि उसकी 'मर्दानगी' पर सवाल उठाता है। ये हिंसात्मक घटनाएं हमारे समाज के भीतर की उस दकियानूसी झुंझलाहट को दर्शाती हैं, जो एक औरत को हमेशा लाचार-बेबस वस्तु के रूप में देखने को इच्छुक है, न कि आगे बढ़कर आत्मनिर्भर दुस्साहसी औरत की भूमिका में।
लाज-शर्म को औरत का गहना मानने वाला समाज जिस तरह औरत को खुद आगे बढ़कर 'प्रपोज' करने का अधिकार नहीं देता, फिर वह चुनाव का अधिकार भला कैसे बर्दाश्त कर सकता है। हिंसा को वास्तव में एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है और सामंती मानसिकता वाला समाज आज भी औरत से उसकी तमाम शिक्षा-उन्नति के बावजूद वही पारंपरिक भूमिका की अपेक्षा रखता है। पिछले दिनों की यौन हिंसा या शारीरिक हमलों से जुड़ी कोई भी ऐसी खबर लीजिए, लिखने वाले, पढऩे वाले सभी पीडि़त की सामाजिक और नैतिक पृष्ठभूमि जानने में अधिक दिलचस्पी लेते दिखाई देते हैं, बजाय कि उसकी शारीरिक और मानसिक हालत कैसी है।
चूंकि महिलाओं की सेक्सुअलिटी, यानी यौनिकता को नियंत्रित रखने में ही परिवार, विवाह, प्रेम और समाज की 'भलाई' है, इसलिए उनके खिलाफ बलात्कार, यौन-हिंसा और शारीरिक हिंसा जैसे तरीके अपनाए जा रहे हैं। लेकिन जिस बात की हमें तारीफ करनी चाहिए, वह यह है कि इतना सब होते रहने के बावजूद स्त्री लगातार आगे बढ़ रही है। समाज की तमाम तरह की बौखलाहट के बावजूद उनकी हिम्मत बरकरार है। मानसिक-शारीरिक हिंसा झेलने के बाद भी आज महिलाएं आगे बढऩे में यकीन रखती हैं, जिंदगी के लिए संघर्ष करती हैं। हमें उनके हौंसले की सराहना करनी चाहिए।
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