उत्तराखंड : खनन माफिया और सत्ता का गठजोड़
Author: त्रेपन सिंह चौहान Edition : September 2013
हाल में 16/17 जून को धर्म गंगा ने बूढ़ा केदार नाथ क्षेत्र में जो तबाही मचाई है, उसके पीछे इस क्रशर के गैरकानूनी कामों को भी एक बड़ा कारण माना जा रहा है। क्योंकि क्रशर धर्मगंगा के तट पर लगा था और वह सिर्फ अगुंडा गांव में ही पत्थरों का चुगान नहीं कर रहा था, बल्कि बूढ़ा केदार से लेकर झाला तक का दस किलोमीटर क्षेत्र उसका चारागाह बन गया था। गांव के लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि आसपास की पहाडिय़ों से भी अवैध तरीके से काफी पत्थर निकाले गए हैं।
केदारनाथ के साथ उत्तराखंड में हुई तबाही और उत्तर प्रदेश के नोएडा की एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल का निलंबन हालांकि दो अलग घटनाएं हैं, लेकिन कुछ चीजें ऐसी हैं जो इन दोनों घटनाओं को एक जगह लाकर खड़ा करती हैं और पहाड़ की इन तबाहियों की पड़ताल करने के कई नए सिरे पकड़ में आने लगते हैं।
जब हम खनन माफिया की बात करते हैं, तो हमें खनन के लिए बदनाम हल्द्वानी की गोला नदी, ऋषिकेश, मुनि की रेती की खारा श्रोत नदी और अब देहरादून ऋषिकेश मार्ग के रानी पोखर के पास से बहने वाली जाखन नदी का ही खनन दिखाई देता है। गोला इसलिए भी ज्यादा बदनाम है क्योंकि इस नदी पर कई बार खुले रूप से खूनी गैंगवार हो चुके हैं। इस प्रकार के गैंगवार से जिसको सबसे ज्यादा फायदा होता है, वह पहाड़ों के अंदर के खनन माफिया को ही होता है। बालू और पत्थर चुगान के लिए पहाड़ को हर स्तर पर सुरक्षित माना जाता रहा है। अगर कभी पहाड़ के अंदर खनन माफिया पर चर्चा होती भी है, तो वह बागेश्वर और अल्मोड़ा में खडिय़ा खनन पर ही केन्द्रित रहती है। जबकि बूढ़ा केदार के गांव में जो क्रशर लगा था और यहां की नदियों में लगातार पनप रहा खनन माफिया कभी चर्चा में नहीं रहा। न ही कभी सवाल पूछे गए कि आखिर पहाड़ों में बनने वाले इतने होटल, आश्रम, धर्मशालाएं और आवासीय भवनों के लिए रेत तथा गिट्टी कहां से आती है? नित नए उग आ रहे कंक्रीट के जंगलों के लिए सीमेंट-सरिया तो मैदानों से ढोया जाता है, लेकिन रेत-गिट्टी और लकडिय़ां तो कभी मैदान से आती हुए नहीं दिखाई देती! इससे पहले स्थानीय स्तर के कई छोटे काश्तकारों या घोड़े -खच्चर वालों की आजीविका भी नदी किनारे या गधेरों से रेत आदि ढोने से चल जाती थी। जिला प्रशासन एवं जंगलात विभाग ने इन गरीबों की इस आजीविका पर रोक लगा दी है। अब बड़े खिलाड़ी खुले रूप में इस धंधे को चला रहे हैं।
अब पुन: केदारनाथ से बात शुरू करें। केदारनाथ में जितनी धर्मशालाएं, होटल और आश्रम हैं, इतने बड़े निर्माण कार्य में लगने वाली सामग्री (सीमेंट और सरिया को छोड़कर) कहां से आई? इसका जवाब सीधे तौर पर न तो प्रशासन के पास है, न ही मंदिर समिति और न ही केदारनाथ मंदिर पर पलने वाले पंडा समाज के पास, जो आज केदारनाथ त्रासदी से सबसे ज्यादा शिकार हुआ है।
खनन माफिया के तंत्र को इस तरह भी समझ सकते हैं कि दस कमरों का एक औसत होटल करीब 3000 वर्ग फिट में बनता है। 3000 वर्ग फिट के लिए अनुमानित 625 बोरी सीमेंट चाहिए। औसत पांच बोरी बालू प्रति बोरी सीमेंट के हिसाब से 3125 बोरी (एक 50 किलो बोरी सीमेंट पर चिनाई के लिए 50 किलो के छह बोरा बालू और लेंटर के लिए 4 बोरा बालू प्रयोग में लाया जाता है। ) यानी 16 ट्रक बालू की आवश्यकता होती है और 2000 बोरी गिट्टी की (लेंटर और आरसीसी के एक बोरा सीमेंट के लिए छह बोरा गिट्टी का मानक तय है। गिट्टी चिनाई को छोड़कर खंभों, स्लैब और छत डालने के लिए इस्तेमाल की जाती है। )।
केदार नाथ जैसे ज्यादा ऊंचाई की जगहों में मैदानों से ईंट ले जाना काफी खर्चीला हो जाता है। इन स्थानों में या तो पत्थरों की चिनाई से दीवारें बनेंगी या वहीं स्थानीय स्थर पर गिट्टी, बालू और सीमेंट से ईंटें बनाई जाती हैं। इस तकनीकी का इस्तेमाल टिहरी बांध के निर्माण में काफी हुआ है। इसमें सीमेंट, बालू और गिट्टी की खपत कई गुना बढ़ जाती है। जब यही होटल तीनमंजिला बनाया जाए तो निश्चित तौर पर इसमें लगने वाली सामग्री ढाई गुना बढ़ जाती है। केदारनाथ जैसे स्थानों पर प्रति ट्रक बालू रुपए 15, 000 और गिट्टी रुपए 12, 000 तक का पड़ता है। चिनाई में इस्तेमाल होने वाले पत्थरों का हिसाब अलग है।
इतने बड़े मुनाफे को कोई भी ठेकेदार आसानी से नहीं छोड़ सकता है, इसलिए इस धंधे में उसकी हिस्सेदारी काफी ऊपर तक जाती रही है। दूरस्थ इलाकों में सीमेंट-सरिया पहुंचाना मजबूरी है। चिनाई के लिए पत्थर, बालू और गिट्टी वहीं स्थानीय स्तर से उपलब्ध करवाई जाती रही हैं। धर्मशालाओं, होटलों, आश्रमों के लिए जो खनन किया गया है उसका असर हिमालय के वातावरण पर कितना पड़ा होगा, इसकी कहीं चर्चा नहीं होती। जबकि भूवैज्ञानिक लगातार हिमालय की संवेदनशीलता को लेकर चेताते रहे हैं।
अब सवालों का उठना लाजिमी है कि भूवैज्ञानिकों की चेतावनी को नजरअंदाज क्यों किया जाता रहा है? इस तरह के निर्माण कार्यों पर रोक क्यों नहीं लगाई गई? उन्हें नियंत्रित क्यों नहीं किया गया? इतने बड़े स्तर पर हो रहे निर्माण कार्यों से स्थानीय स्तर पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है, इसकी पड़ताल कभी क्यों नहीं की गई? वन विभाग अब तक क्या कर रहा था? वैसे भी राज्य के वन विभाग को वनों की सुरक्षा के लिए उतना नहीं जाना जाता, जितना कि वह अवैध कमाई के लिए बदनाम है या स्थानीय लोगों को उनके हक-हकूक से वंचित करने के लिए कुख्यात है।
उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री और यमुनोत्री दो विख्यात नदियों के धाम हैं। गंगोत्री में अधिसंख्य होटल और धर्मशालाएं तीन मंजिल से भी ऊंची हैं और वे सब कंक्रीट की हैं। भैरो घाटी का प्रस्तावित बांध गंगोत्री मंदिर से महज छह किमी दूर है। गंगोत्री तथा बदरीनाथ सीमांत क्षेत्र होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। इस क्षेत्र में फौज भी काफी सक्रिय है। राजनीतिक रूप से संवेदनशील होने के कारण यहां भारी वाहनों की आवाजाही काफी रहती है। कमजोर पहाड़ों पर इसका काफी असर पड़ता है, इसलिए भूस्खलन के रूप में तबाही मचती रहती है।
फौज की गतिविधियों को छोड़ भी दिया जाए तो यह सवाल अपनी जगह पर मौजूद रहेगा कि गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे मध्य हिमालय के इन उच्च शिखरों में दिल्ली, नैनीताल तथा मसूरी की तर्ज पर उग आए कंक्रीट के जंगलों पर आज तक कोई बात क्यों नहीं की गई। इन पवित्र धामों में अगर राज्य सरकार को पर्यटन के नाम पर होटल व्यवसाय को खुली छूट देनी थी, तो भी यहां के संवेदनशील भूगोल को मद्देनजर रखते हुए इस प्रकार से भवनों का डिजाइन क्यों नहीं किया गया, जो कम से कम यहां के भूगोल के अनुकूल होते?
आज उत्तरकाशी बाजार के भविष्य को लेकर कई सवाल किए जाने लगे हैं। उत्तरकाशी में जहां वरुणावृत पर्वत लगातार मौत बरसा रहा है, वहीं भागीरथ का तट इतना ऊंचा हो गया है कि हर साल बरसात में दर्जनों होटल एवं मकान उसकी चपेट में आ जाते हैं। सैकड़ों परिवार अब तक इससे प्रभावित हो चुके हैं। हर साल उत्तरकाशी में अस्सी गंगा जैसे हालात कई जगह देखे जा सकते हैं। इस जिले के गंगोत्री और यमुनोत्री घाटी में निर्माणाधीन बांधों और रेत माफिया द्वारा किया गया खनन एवं इधर-उधर उग आए होटल, आश्रमों तथा धर्मशालाओं ने प्रकृति को जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी कीमत अब स्थानीय लोगों को चुकानी पड़ रही है। पर्यटन व्यवसाय के नाम पर नदियों की घनघोर अनदेखी की जा रही है। इसका ठोस उदाहरण प्रदेश सरकार द्वारा संचालित गढ़वाल मंडल विकास निगम के वे आधा दर्जन होटल हैं, जो इन तीन प्रभावित जिलों-उत्तरकाशी, चमोली और रुद्रप्रयाग में जून माह की भयावह तबाही से नदी में समा गए हैं।
ऋषिकेश में मुनी की रेती के खारा श्रोत नदी और देहरादून-ऋषिकेश मार्ग के पास रानी पोखरी के अंदर जाखन, नदी पर सैकड़ों ट्रक नदी में रेता ढोते हुए कभी भी देखे जा सकते हैं। उत्तराखंड में विजय बहुगुणा सरकार के आने के बाद सबसे पहले कोसी, शारदा, नदोर, दाबका और गोला सहित कई नदियों को खनन के लिए खोल दिया। आज हालात यह हैं कि जहां आए दिन वहां रेत और खनन माफिया में गैंगवार की संभावना बनी रहती है, वहीं राजनीति में इस तरह के पैसे के लगने के बाद राजनेताओं की माफिया से सांठ-गांठ या माफिया को राजनीतिक पार्टियों का टिकट देना और उनका विधानसभा में पहुंचना देखा जा सकता है।
पर्यावरण और भौगोलिक रूप से निहायत संवेदनशील यह राज्य दिनोंदिन तबाही के कगार पर क्यों पहुंच रहा है। इसके लिए जितना यहां का राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार है, उससे कहीं ज्यादा यहां का नौकरशाह जिम्मेदार है। नोएडा की एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल अगर राजनीतिक माफिया की शिकार होती है, तो उसके पक्ष में सारे देश से आवाज सुनाई देती है। चाहे अखिलेश सरकार अपनी नंगई पर कितना ही उतर आए। उत्तराखंड का नौकरशाह तो इस मामले में यहां के स्थानीय माफिया से कई गुना आगे जाता हुआ नजर आता है। उसका एक उदाहरण यहां के एक आइएएस अधिकारी राकेश शर्मा हैं। शर्मा का मामला राज्य के बाहर भी चर्चित है। यह मुख्यमंत्री के सबसे लाडले अधिकारियों में से हैं। इस व्यक्ति ने सिडकुल की जमीन को ठिकाने लगाने में जो किया सो तो किया ही, विगत वर्ष हरिद्वार में गंगा नदी को 41 दिन तक रेत तथा क्रशर माफिया के लिए पूरी तरह खोल दिया था। इस आशय का एक पत्र गंगा नदी को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा मात्री सदन मुख्यमंत्री को लिख चुका है।
इतना ही नहीं शराब माफिया पौंटी चड्ढा हत्याकांड के दौरान नामधारी सिंह के साथ घटनास्थल पर जिस अधिकारी के मौजूद होने की बात सामने आई थी, वह और कोई नहीं यही महानुभाव थे। राज्य में शिक्षा के नाम पर जो खुली लूट मची हुई है, उसका सूत्रधार भी मुख्यमंत्री का यही लाडला अधिकारी बतलाया जाता है। इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल यह अधिकारी अब इस अभागे राज्य के मुख्य सचिव का पद संभालने जा रहा है। कह सकते हैं कि यह इस राज्य की नौकरशाही का प्रतिनिधि चेहरा है। ऐसे में यह राज्य और इसके निवासी कितना सुरक्षित रह पाएंगे, इस सवाल का जवाब हर साल होने वाली तबाही दे रही है।
राज्य सरकार : मुआवजे का अधूरा पैमाना
केदारनाथ की तबाही पर काफी बातें हो चुकी हैं। राज्य सरकार ने इस त्रासदी में 6, 000 से अधिक मौतें होने की घोषणा कर दी है और पीडि़तों के परिजनों को मुआवजा भी बांटा जाने लगा है। मौतों के अंाकड़े के लिए गुम हुए लोगों के परिजनों ने जो एफआईआर दर्ज की है, उसी को मानक मान लिया गया है। जबकि सच्चाई यह है कि चमियाला टिहरी गढ़वाल के एक बड़े ठेकेदार स्वर्गीय जगदीश प्रसाद सेमवाल के नौजवान लड़के की एफ आईआर इस आशा से दर्ज नहीं की गई कि उसकी दादी और मां को आशा है कि उनका लड़का सुरक्षित वापस लौट आएगा। अभी सात माह पहले स्वर्गीय जगदीश प्रसाद की मौत केदारनाथ में ही हार्ट-अटैक से हुई थी। यह अभागा लड़का अपने पिता के अधूरे ठेके को पूरा करने के लिए अपने मामा और मुंशी के साथ उस दिन केदारनाथ में ही था।
यह कोई अकेला मामला नहीं है। सेमवाल परिवार के अलावा भी कई लोगों ने इस आशा से रिर्पोट दर्ज नहीं करवाई की शायद उनके परिजन कहीं सुरक्षित हैं और लौट आएंगे। केदारनाथ त्रासदी में गुम हुए कंडी, डांडी, घोड़े, खच्चर, निर्माण कार्यों के साथ होटल, ढाबों में काम कर रहे हजारों नेपालियों के बारे में कोई बात करने वाला नहीं है। न ही वे गरीब नेपाली अपने देश से अपने परिजनों के गुम होने की एफ आईआर लिखवाने भारत आ सकते हैं। सवाल है कि अगर कोई आ भी गया, तो क्या राज्य सरकार उनकी एफ आईआर दर्ज करेगी?
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