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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, February 23, 2014

बहसतलब ,हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे?कृपया खुलकर लिखें।

बहसतलब ,हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे?कृपया खुलकर लिखें।


पलाश विश्वास


बहसतलब ,हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे?कृपया खुलकर लिखें।

कवियों को हमने कविता में रायदेने की छूट दे रखी है और मानते भी हैं हम कि हर बंद दरवाजे पर दस्तक के लिए कविता से बेहतर कोई हाथ नहीं। हम यह बहस आपकी राय मिलने के बाद ही समेटेंगे।

बहस की पहली किश्त यह प्रस्तावना है।जिसे हम जारी कर रहे हैं।विषय विस्तार अगली किश्तों में होगा।


हमारे परम मित्र आदरणीय आनंद तेलतुंबड़े का मानना है कि अंबेडकरी विचारधारा का मूल एजंडा जाति उन्मूलन है।समयान्तर के ताजा अंक में उनका लेख छपा है इसके अलावा इस अंक के तमाम लेख जीति समस्या पर केंद्रित है।गिरिराजकिशोर जी संपादित अकार के ताजा अंक में पुनर्वास कालोनियों के बच्चो का आत्मकथ्य है।जो एकदम ताजा बयार जैसी है इस अनंत गैस चैंबर में।विचारधारा की नियति पर लंबा मेरा आलेख जो उन्होंने वर्षों से लटका रखी है,इस करतब से उसका हिसाब बराबर कर दिया है गिरराज किशोर जी और अकार टीम ने।इन बच्चों की जुबानी मैं खुद को अभिव्यक्त होता हुआ महसूस कर रहा हूं रिटायर दहलीज पर


अंबेडकरवादी विचारक तेलतुंबड़े की तर्ज पर हमारे गांधी वादी सामाजिक कार्यकर्ता ने भी लिखा है।वर्षों से सनी सोरी और दंडकारण्य के हक हकूक की लड़ाई लड़ रहे हिमांशु जी की मैं इसलिए भी तारीफ करता हूं कि सोनी सोरी के आप में शामिल होने के बावजूद उनकी वह आत्मीयता भंग नहीं हुई है।अब तक कारपोरेट राज और पूंजीबाद का सार्वाजनिक विरोद के जरिये वोटबैंक गणित ाधने वालों का पूंजीपरस्त आचरण हम देख चुके हैं।अगर केजरीवाल जुबानी तौर पर पूंजी वाद के हक में बात करें और जमीन पर कारपोरेट राज का विरोध,तो इसपर भी हमें पेट मरोड़ नहीं होना चाहिए।

हिमांशु जी ने लिखा हैः

जाति को तो मिटाना है भाई ,

याद रखना जातिवाद को मजबूत करने वाला कोई काम नहीं करना है .


जाति का विरोध करने वाले साथी जातिवादी घृणा फैलाने के आकर्षण में फंसने से बचें .


इसमें मज़ा तो बहुत आता है लेकिन इससे हमारी जाति के लोगों की स्तिथी में कोई सुधार नहीं आता .


मार्टिन लूथर किंग जब अश्वेतों की बराबरी की लड़ाई लड़ रहे थे तो उन्होंने श्वेतों के विरुद्ध घृणा का कोई भी वाक्य कभी नहीं बोला .


बल्कि उस लड़ाई में बहुत बड़ी संख्या में गोरे भी शामिल थे .


जब उनके एक साथी ने एक बार गलती से गोरी महिलाओं के विरुद्ध एक अपमानजनक गीत बनाया


तो मार्टिन लूथर किंग ने उसे रोक दिया था .

संचार क्रांति और तकनीक की वजह से अब मीडिया कारोबार कंडोम कवायद है। जिसमें जनप्रतिबद्धता,जनमत,विचारधारा,संवाद की कोई जगह नहीं है।भारतीय समाज में अखबार अब तक जनमत जनादेश निर्माण में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन अब वे अखबार रंग बिरंगे कंडोम सुगंधित हैंं।


जबकि भारतीय जनता कुल मिलाकर गुलामी की महाजनपद व्यवस्था है।हम सारे लोग प्रजाजन हैं।नागरिक बनने के लिए भी जाति उन्मूलनका एजंडा  प्रस्थानबिंदू बनना चाहिए।


इसी सिलसिले में राज्यसभा चैनल में श्याम बेनेगल के धारावाहिक संविधान देखना भी प्रासंगिक हो सकता है।

जनजागरण,सशक्ती करण,जन सुनवाई,जनहिस्सेदारी और वैचित्र के मध्यवैचित्र के सम्मान के साथ सामाजिक न्याय और समता आधारित समाज के निर्माण के लिए जाति उन्मूलन से बड़ा कोई एजंडा नहीं है।


हमारे युवा साम्यवादी साथियों ने दशकों के बाद इस दिशा में पहल की है।अभिनव सिन्हा सत्यनारायण ने भी अलग से बहस छेड़ी है।अनेक बिंदुओं पर असहमति के बावजूद हम उनकी इस पहल का तहेदिल स्वागत करते हैं।सहमति का विवेक और असहमति का साहस ही संवाद का आधार होना चाहिए।


बहसतलब इसबार यह है कि हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे।


आनंद तेलतुंबड़े ने अपने आलेख में बहुत साफ साफ लिखा हैः

पिछले छह दशक के दौरान हम जाति उन्मूलन के आंबेडकर के सपने को पूरा कर पाने में न सिर्फ नाकाम रहे हैं बल्कि उस सपने से हम कोसों दूर भी चले आए हैं। आंबेडकर के तथाकथित शिष्य ही इस सपने को दफनाने में सबसे आगे रहे हैं जिन्होंने अपनी-अपनी पहचान के झंडे उसकी कब्र पर गाढ़ दिए हैं। ऊंची जातियों को तो अपने जातिगत लाभ बचाए रखने में दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन निचली जातियों को स्वेच्छा से अपनी कलंकित पहचानें ओढ़े रखने में क्या दिलचस्पी हो सकती है? जाति उन्मूलन की आंबेडकरवादी दृष्टि अकेले निचली जातियों की बेहतरी के लिए नहीं इस्तेमाल की जानी थी, बल्कि यह अनिवार्यतः समूची भारतीय जनता के लिए बनी थी। जाति महज भेदभाव या उत्पीड़न का मामला नहीं है। यह एक ऐसा वायरस है जो समूचे राष्ट्र को अपनी जकड़़ में बांधे हुए है। भारत की हर बुराई और लगातार उसके पिछड़ेपन के पीछे मुख्य कारक यही वायरस है। इसे एक क्रांति से रेचन करके ही शरीर से निकाला जा सकता है। कोई भी ऊपरी सुधार इस वायरस को नहीं हटा सकता बल्कि एक संपूर्ण लोकतांत्रिक क्रांति ही जमे हुए वर्गों को उनकी जगह से खत्म करेगी और भारत के समाजवादी भविष्य का रास्ता प्रशस्त करेगी। क्रांति समर्थक ताकतों को यह बात पूरी तरह अपने भीतर बैठा लेने की जरूरत है कि जब तक दलित उनके साथ नहीं आएंगे तब तक क्रांति का उनका सपना पूरा नहीं हो पाएगा। इसी तरह जाति विरोधी दलितों के लिए ध्यान देने वाली बात यह है कि जब तक उनके वर्ग के लोग उनकी ताकत नहीं बनाते, तब तक जाति उन्मूलन का सपना पूरा नहीं हो सकता। इससे यह बात निकलती है कि इन दोनों खेमों को अपनी ऐतिहासिक गलतियां और भूल दुरुस्त करने के लिए एक समान सरोकार के इर्द-गिर्द साथ आकर रणनीति बनानी होगी।


दलितों के लिए यह समझना रणनीतिक अपरिहार्यता है कि जाति सिर्फ सांस्कृतिक या धार्मिक मसला नहीं है बल्कि यह जीवन के हर पहलू के साथ गुंथी हुई है। अधिकतर दलित या तो खेत मजदूर के रूप में या फिर शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों में कामगारों के रूप में मुश्किल से अपना पेट भर पा रहे हैं। उनका दलित होना उनकी आर्थिक स्थिति के साथ उलझा हुआ है। उनके ऊपर होने वाले उत्पीड़न से यह बात आसानी से समझी जा सकती है, जो उन्हें आतंकित कर घुटने टेक देने के लिए विवश करती है। कई मामलों में यह समर्पण दरअसल उच्च जातियों के वर्चस्व में आर्थिक और राजनीतिक लाभ को सुनिश्चित करता है, हालांकि वर्चस्व की ऐसी कार्रवाइयां उसी धर्म के लोगों द्वारा की जाती हैं जो दलित उत्पीड़ितों के वर्ग से ही आते हैं। ऐसे उत्पीड़न इसलिए संभव हो पाते हैं क्योंकि दलित वित्तीय रूप से कमजोर होते हैं, आर्थिक रूप से निर्भर, नैतिक रूप से खोखले और अपने वर्ग से असम्पृक्त होते हैं। इसीलिए आरक्षण की दवा उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए दी गई है ताकि अपनी आजीविका के साधनों पर उनका नियंत्रण हो सके और वे किसी भी तरह के अन्याय का प्रतिकार करने में नैतिक रूप से मजबूत बन सकें व उच्च जातियों के लोगों के साथ वर्गीय एकजुटता कायम कर सकें। इसका निदान व्यवहारिक तौर पर वही है जो बाबासाहब आंबेडकर ने 1936 में अपने प्रसिद्ध लेख ''मुक्ति कौन पथे'' में प्रस्तुत किया था जिसमें उन्होंने इस आंदोलन के लोगों के धर्मांतण का तर्क मुहैया कराया था। पहला कदम उन्हें जमीन दिलवाना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलवाना और स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाना होगा; दूसरा, संघर्ष में आस्था की वैचरिकता बहाली का होगा और तीसरा, अन्य जातियों के साथ वर्गीय एकजुटता कायम करना होगा। कार्यक्रम के स्तर पर विचारधारात्मक तैयारी और वर्ग एकजुटता को पहले होना होगा ताकि सशक्तीकरण के साधनों के लिए संघर्ष को प्रभावी तौर से चलाया जा सके।



ऐसा वर्ग विरोधी और जाति विरोधी आंदोलनों को दोबारा गढ़ने से ही संभव होगा। एक तरफ दलित आंदोलन को जाति के मसलों पर संघर्ष करते हुए खुद को वर्ग की लाइन पर लाना होगा तो दूसरी ओर वाम आंदोलन को इस तरह से निर्देशित किया जाना होगा कि वह जाति के यथार्थ को पहचान सके और संघर्षरत दलितों के साथ एकजुटता कायम करने की जरूरत को महसूस कर सके। यह पहल हालांकि वाम आंदोलन की ओर से ही पूरे वैचारिक संकल्प के साथ की जानी होगी जो उसकी ओर से अब तक बकाया है तथा इस क्रम में खुद को सही मानने की अपनी प्रवृत्ति को उसे छोड़ना होगा। जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक एंटी इम्पीरियलिज्म एंड एनिहिलेशन ऑफ कास्ट्स में लिखा था, एक बार इस प्रक्रिया की शुरुआत हो गई तो यह एक ऐसे सिलसिले में तब्दील हो जाएगी जिसका अंत बहुप्रतीक्षित भारतीय क्रांति में ही होगा। मुझे कोई और विकल्प नहीं दिखाई देता।


हम आनंद से सहमत हैं लेकिन इस बहस को जनसुनवाई में तब्दील करना चाहते हैं ताकि आतमघाती राजनीति और कंडोम मीडिया के घन घटाटोप में कोई रोशनी की किरण हमेारे लिए नई दिशा खोल सकें।


कृपया राय दर्ज करने से पहले आनंद का लिखा पढ़े जरुर।समयांतर का ताजा अंक नहीं मिला तो अभिषेक के जनपथ और मेरे ब्लागों में पूरा आलेख देख सकते हैं।

http://antahasthal.blogspot.in/2014/02/blog-post_16.html


हम फेस बुक वाल पर विश्वप्रसिद्ध कवि उदय प्रकाश की इस पोस्ट की तर्ज पर पहले ही उन सभी मित्रों से माफी मांगते हैं,जिनके मुखातिब हम हो नहीं पा रहे हैं,लाख कोशिशों के बावजूद,क्योंकि उनमें से ज्यादातर कंडोम से घिरे हुए हैं।

कुछ दोस्तों से न मिल पाने के लिए क्षमा मांगते हुए

February 23, 2014 at 3:42pm

आप बिल्कुल भी आहत न हों

क्योंकि बाहर निकलने के मामले में हमेशा से

काहिल और लद्धड़ रहा हूं. आपको तो मेरे बारे में यह खूब

पता ही है. अपनी गोदी में

मैं अपनी नन्हीं-सी बेटी को किसी कदर

संभाले हुए हूं. मेरे घुटनों पर चढ़ा हुआ है

मेरा प्यारा-सा छोटा बेटा, जिसने

बस अभी-अभी बोलना शुरू किया है

और बाकी के सारे के सारे

बेतहाशा बिना रुके बोले ही चले जा रहे हैं

वे मेरे कपड़ों को पकड़ कर झूल रहे हैं और मेरे हर कदम पर

मेरे साथ-साथ रेंगते हैं

मैं अपने घर के दरवाज़े के बाहर बहुत दूर तक

निकल ही नहीं पाऊंगा

मुझे डर है , सचमुच बहुत खेद है, मैं

आपके फाटक-दहलीज़ तक पहुंच ही नहीं पाऊंगा.

बिल्कुल बुरा न मानें. मुआफ़ी.

मेई-याओ चेन

(अनु : उदय प्रकाश / केनेथ रेक्सरोथ के अंग्रेज़ी अनुवाद के आधार पर)


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