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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, February 13, 2014

हाशिए से : चर्चा आफत की या रावत की

हाशिए से : चर्चा आफत की या रावत की

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disaster-2013आपदा की इस घड़ी में भी उत्तराखंड के बुद्धिजीवी किस तरह से गोटियां बैठाने में लगे हैं, यह घटना उसका एक और प्रतिनिधि उदाहरण है। गोकि यह उतना वीभत्स नहीं है जितना कि सत्ता के लठैतों की तरह काम करना पर इसे बुद्धिजीवीय ईमानदारी भी नहीं माना जा सकता है। यह उदाहरण इसका भी संकेत है कि सत्ता ने राज्य के बुद्धिजीवियों को किस तरह भ्रष्ट कर दिया है। दिल्ली में ऐसे पत्रकारों की बड़ी जमात है जो राज्य के सत्ताधारियों और बंाध निर्माण कंपनियों के लिए देश की राजधानी में शर्मनाक तरीके से पीआर का काम करते हैं।

आपदा के बीच हरक सिंह रावत के उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने की कामना जोरशोर से की जाए तो कैसे लगेगा? थोड़ा अटपटा है ना! अटपटा नहीं भी हो सकता है, यदि गुटों में बंटी कांग्रेस का कोई नेता ऐसा कहे तो। जैसे हरीश रावत के गुट वालों का सतत प्रयास है कि उनका नेता मुख्यमंत्री बने। पर कमजोर आपदा प्रबंधन पर चर्चा हो रही हो और ऐसी चर्चा के बीच में विद्वान विशेषज्ञ कहें कि हमारा दुर्भाग्य है कि "हरक सिंह रावत जी हमारे मुख्यमंत्री नहीं हैं'', तो यह ना केवल अटपटी बात होगी बल्कि अखरेगी भी। पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जनेवि) में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेश पंत की उत्तराखंड के कृषि मंत्री हरक सिंह रावत के प्रति ऐसी अंध श्रद्धा है कि उन्हें कमजोर आपदा प्रबंधन की चर्चा के बीच हरक सिंह रावत की तारीफ में कसीदे पढऩा ज्यादा जरुरी लगा।

बात 29 जून की है। बीबीसी हिंदी के 'इंडिया बोल' कार्यक्रम में चर्चा का विषय था-'क्यों धरा का धरा रह जाता है आपदा प्रबंधन'। चर्चा में उत्तराखंड के कृषि मंत्री हरक सिंह रावत शामिल थे और विशेषज्ञ के तौर पर प्रोफेसर साहब। पुष्पेश जी की ख्याति कभी जनेवि के अंतराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर के तौर पर सुनी जाती थी। एक साप्ताहिक पत्रिका में पाक कला पर भी उनका नियमित स्तंभ देखने में आता है। यह उनका पुराना प्रेम है। किसी जमाने में जब पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह मुशर्रफ मियां भारत की सरकारी यात्रा में आए तो कहा जाता है पुष्पेष पंत ने उनके लिए आगरा प्रवास के दौरान मछली बनाई थी। यानी वह पाक (यहां इसका इस्तेमाल शुद्ध संस्कृत शब्द के तौर पर किया गया है) कला से लेकर कूटनीति तक के मामलों में विशेषज्ञ हैं यह तो सब जानते थे पर किसी मंत्री के स्तुति गान में भी सिद्ध हैं, यह बीबीसी के इस कार्यक्राम को सुनकर ही पता चला। हरक सिंह की तारीफ पुष्पेश पंत ने कोई एक-आध बार नहीं की। बल्कि लगभग आधे घंटे के कार्यक्रम में जब-जब उन्हें बोलने का मौका मिला, उनके मुंह से हरक सिंह के लिए फूल ही झड़ते रहे।

[इस चर्चा को आप यहाँ सुन सकते हैं।]

कार्यक्रम की शुरुआत में एंकर ने हरक सिंह रावत से पूछा कि लोगों की शिकायत है कि राहत ठीक से नहीं पहुंच रही, तो सरकार आपदा से किस तरह निपट रही है? जवाब में हरक सिंह रावत ने अपने राजनीतिक करियर के दौरान देखी प्राकृतिक आपदाओं का बखान करते हुए, इस आपदा को सबसे बड़ा बता कर, आपदा से निपटने की लचर तैयारियों से पल्ला झाडऩे का प्रयास किया। आपदा से निपटने की कमजोर तैयारियों के संदर्भ में जब पुष्पेश पंत की टिपण्णी मांगी गई तो कमजोर तैयारियों से पहले पंत जी को हरक सिंह रावत की तारीफ में कसीदे पढऩा जरुरी लगा। दिल्ली में रहते हुए भी उत्तराखंड के जनता के तरफ से वह ऐलानिया तौर पर कहते हैं कि जनता में हरक सिंह रावत की "विश्वसनीयता असंदिग्ध है''। फिर वह मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को कोसते हुए कहते हैं कि मुख्यमंत्री विकास का मॉडल बदलने को तैयार नहीं हैं। मुख्यमंत्री की वाजिब आलोचना करते हुए पुष्पेश जी, जिस तरह से हरक सिंह रावत को तमाम आरोपों से मुक्त करते हैं, वह बेहद चौंकाने वाला है।

यह सही बात है कि इस समय जो विकास का मॉडल उत्तराखंड में चल रहा है, वह मुनाफापरस्त, लूटेरा और ठेकेदारों के विकास का मॉडल है। पर प्रश्न सिर्फ इतना है कि क्या हरक सिंह को इस मॉडल से कोई नाइत्तेफाकी है? आज तक ऐसा देखा तो नहीं गया। पिछला विधानसभा का चुनाव हरक सिंह रावत रुद्रप्रयाग से धनबल के दम से जीत कर आए हैं, इसकी खूब चर्चा रही है। तब कैसे पुष्पेश पन्त जैसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के ज्ञाता और भारतीय राजनीति के हर पक्ष पर लिखनेवाले को आपदा की इस घड़ी में लग रहा है कि विजय बहुगुणा के विकल्प के तौर पर हरक सिंह रावत एकदम दूध के धुले, निष्पाप, निष्कलंक हैं ! यह विकल्प नहीं एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, महोदय। इनके अहंकार, शातिरता और अकड् में उन्नीस-बीस का अंतर हो भी सकता है और ऐसा भी संभव है कि ना हो।

मामला इतने पर ही ठहर जाता तो एकबारगी बर्दाश्त किया जा सकता था। पुष्पेश पन्त तो जैसे ठान कर आए थे कि बाढ़-बारिश की पृष्ठभूमि में हो रही इस चर्चा में हरक सिंह रावत की तारीफ में गंगा, जमुना, अलकनंदा, मंदाकिनी सब एक साथ बहा देनी है। आपदा ग्रस्त रुद्रप्रयाग जिले में पीडि़तों को राहत पहुंचाने के लिए रात-दिन एक किये हुए शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता गजेन्द्र रौतेला फोन के जरिये इस कार्यक्रम में शामिल हुए। रौतेला ने रावत से मुखातिब होते हुए कहा कि मंत्री जी से वह और उनके साथी 17 जून की शाम को देहरादून में मिले थे और मंत्री जी को केदारनाथ की तबाही में सब नष्ट हो जाने की बात, उन्होंने बतायी थी। लेकिन मंत्री जी ने उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया। हरक सिंह रावत ने स्वीकार किया कि ये लोग उनसे मिले थे। इन लोगों की बात को गंभीरता से ना लेने के आरोप से उन्होंने इनकार किया। लेकिन मंत्री महोदय यह नहीं बता पाए कि गंभीरता से उन्होंने किया क्या? वे मौसम खराब होने और लोगों द्वारा घेरे जाने का बहाना बनाने लगे। गौरतलब है कि गजेन्द्र रौतेला द्वारा मंत्री के आपदा पीडि़तों के प्रति उपेक्षा पूर्ण व्यवहार की पोल खोले जाने से पहले, यही हरक सिंह रावत लंबी-लंबी हांक रहे थे कि उन्होंने आपदा प्रबंधन की व्यवस्था ठीक से हो, इसके लिए नौकरशाही से बड़ा संघर्ष किया। गजेन्द्र रौतेला ने मंत्री द्वारा आपदा की विभीषिका बताये जाने के बावजूद उसको अनसुना करने का किस्सा बयान कर मंत्री जी की डींगों की हवा निकाल दी थी। मंत्री लडख़डाने लगे और केवल इतना ही बोल पाए कि गंभीरता कोई रो कर या दिखा कर थोड़े होती है। अन्य कोई व्यक्ति यह कहता तो यह सामान्य बात होती। लेकिन विधान सभा चुनाव जीतने के लिए बुक्का फाड़ कर रोने वाले हरक सिंह रावत, जेनी प्रकरण में फंसने के दौरान भी घड़ी-घड़ी आंसू बहाने वाले हरक सिंह जब कहते हैं कि गंभीरता रो कर थोड़े दिखाई जाती है तो इसपर हंसी आती है। ना जी, लोगों के फंसे होने पर क्यूं रोना, उनके मरने पर क्या अफसोस करना। रोना तो चुनाव में ताकि भोली-भाली जनता आंसुओं में बहे और चंट-चालाक ठेकेदार टाईप नोटों में बहें।

बहरहाल गजेन्द्र रौतेला द्वारा मंत्री को आपदा पीडि़तों के प्रति अगंभीर बताये जाने और रावत द्वारा गंभीर होने के दावे के बीच एंकर ने फिर पुष्पेश पंत से इस मसले पर टिपण्णी मांगी। गोया पुष्पेश जी के पास कोई रिक्टर स्केल टाइप गंभीरता मापक स्केल हो कि तत्काल बता सकें कि मंत्री जी गंभीर थे कि नहीं। पुष्पेश जी ने तो ठान रखी थी कि हरक सिंह की तारीफ में सब धरती कागद कर देनी है और सात समुद्र की मसि घिस देनी है। सो तपाक अपनी चिर-परिचित एक सौ अस्सी किलोमीटर प्रति घंटे के रफ्तार से भागती जुबान से उन्होंने ऐलान कर डाला कि "रौतेला साहब की बात जायज है और मुझे लगता है कि रावत साहब की बात भी अपनी जगह पे जायज है''। एक आदमी कह रहा है कि हमने मंत्री जी को बताया कि हमारे इलाके में सब तबाह हो गया है, आप कुछ करो। मंत्री जी मान रहे हैं कि हां ऐसी गुहार लगायी गई थे, लेकिन कार्यवाही के नाम पर उनके पास कई बहाने हैं। लेकिन पंच परमेश्वर फरमाते हैं कि जिसने कार्यवाही करने को कहा और कार्यवाही नहीं हुई, वो भी सही है तथा जिसके कंधे पर कार्यवाही का जिम्मा था, उसने कुछ नहीं किया लेकिन उसके पास सफाई में बहाने ही बहाने हैं – वो भी सही है ! कुतर्क इसके अलावा कोई दूसरे किस्म की चीज होती है क्या?

इतने पर ही पुष्पेश जी नहीं थमे। और आगे बढ़ कर उन्होंने ऐलान कर डाला कि "रावत साहब हमारे दुर्भाग्य से, हमारे सूबे के मुख्यमंत्री नहीं हैं''। जरा इस पर भी नजर डाल लें कि जिन हजरत के मुख्यमंत्री ना होने को पुष्पेश जी अपना दुर्भाग्य कह रहे हैं, इन महानुभाव में काबिले तारीफ क्या है? 1991 में उत्तरकाशी भूकंप के समय राहत में धांधली के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और इन हजरत के खिलाफ मुकदमा हुआ था। (तब ये कमल के फूल वाली पार्टी में थे, अब अप्रैल फूल बनाने वाली में)। राज्य बनने के बाद पटवारी भर्ती में घपला भी इन्हीं की छत्र-छाया में फला-फूला। वर्तमान सरकार में भी लाभ के पद का मामला, इनके विरुद्ध गर्माया तो इन्होने उस पद से इस्तीफा दिया। इनकी संवेदनशीलता का नमूना तो इस आपदा के दौरान दिखा कि आपदाग्रस्त क्षेत्रों को जाने वाले हेलिकॉप्टर में पत्रकार घूम सकें, इसके लिए इन्होंने राहत सामग्री उतरवा दी। पुष्पेश पंत क्षमा करें, इसे अगर आप अपना दुर्भाग्य समझते हैं तो आप, अपना एक नया राज्य या देश, जो चाहें बसाएं। फिर हरक सिंह रावत को उसमें आप मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, महाराजाधिराज और जिस भी पदवी से नवाजना चाहें, नवाज लें। खुद आप भी उनके सलाहकार-इन-चीफ, महामात्य आदि-आदि जो होना चाहें, हो लें। उत्तराखंड की जनता को ऐसा कोई अफसोस नहीं है। उसे अगर कोई अफसोस है तो वह, यह कि अब तक जितने मुख्यमंत्री-मंत्री हुए, क्या इन्हीं के लिए, उसने कुर्बानियों से यह राज्य बनाया था। उसका दुर्भाग्य इनका मुख्यमंत्री और मंत्री होना है, इनका मुख्यमंत्री ना होना, नहीं।

एक छोटी जगह का अध्यापक है जो बिना किसी भत्ते, इंक्रीमेंट की चाह रखे, रात-दिन एक कर आपदा पीडि़तों की मदद में लगा हुआ है। अपनी पीड़ा और संवेदनाओं के चलते, बिना नौकरी की परवाह किये, वह राज्य के शक्तिशाली और दबंग मंत्री को कठघरे में खड़ा करने से भी नहीं चूक रहा है। एक दूसरा बड़ा भारी नामधारी प्राध्यापक है, जो टीवी-रेडियो स्टूडियो में बैठ कर शब्द जाल भी अपने हिडन-एजेंडे के साथ रच रहा है। शायद आपदाओं की एक भूमिका यह भी होती है कि वे बता देती हैं कि कौन कितने पानी में है।

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