राजतंत्र : फर्जी मुठभेड़ों से संविधानेत्तर अस्तित्व तक
Author: समयांतर डैस्क Edition : August 2013
पिछले दिनों भारत के तमाम समाचारपत्रों, पत्रिकाएं एवं न्यूज चैनलों पर सी.बी.आइ. (केंद्रीय जांच ब्यूरो) द्वारा इशरत जहां के साथ एक फर्जी मुठभेड़ में 15 जून 2004 को अहमदाबाद के नरोडा कातरपुर वाटर वर्क्स के समीप उसके तीन साथियों को गुजरात पुलिस द्वारा मारने की खबर छाई रही। यह बड़ी बात नहीं है। दिल्ली में ही इस तरह की कई घटनाएं घट चुकी हैं। लेकिन यह घटना सनसनीखेज खबर बनी। इस जांच एजेंसी द्वारा गुजरात में नियुक्त तत्कालीन आइ.बी. (इंटेलिजेंस ब्यूरो या खुफिया ब्यूरो) के अतिरिक्त निदेशक राजिंदर कुमार की इस फर्जी मुठभेड़ में सहभागिता से। एजेंसी ने अपने आरोपपत्र में स्पष्ट किया कि कुमार इस फर्जी मुठभेड़ के सूत्रधार थे। उन्होंने गुजरात पुलिस को अपने इंटिलिजेंस इनपुट में सूचित किया था कि इशरत जहां और उसके साथियों में जावेद शेख उर्फ प्राणेश पिल्ले के तार आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा से जुड़े हुए हैं। यहां तक तो ठीक था। लेकिन आगे बढ़कर उन्होंने इस ग्रुप को एक फर्जी मुठभेड़ में मारने का षड्यंत्र रचा और इस ऑपरेशन के बाद उनसे बरामद हथियार भी पुलिस को उपलब्ध कराए। आइ.बी. की भूमिका राज्य सरकार या केंद्र सरकार को इंटेलिजेंस इनपुट देने भर की होती है। कुमार पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने अपने ब्रीफ देने की सीमा का उल्लंघन किया। यह गंभीर आरोप है। पहली बात तो यह है कि आइ.बी. (खुफिया ब्यूरो) एक गुप्त एजेंसी है। इसकी कार्यप्रणाली सार्वजनिक रूप से उद्घाटित नहीं होती। संभवत: यह पहली बार हुआ है कि जांच एजेंसी ने इसकी गोपनीयता को भंग करते हुए इसे सार्वजनिक राडार पर ला दिया है। इसके पीछे भी राजनीति है। आइ.बी. गृहमंत्रालय के अधीन है और सी.बी.आइ. कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय के। यदि इन दो एजेंसियों में टकराहट हो रही है, तो यह अस्वाभाविक नहीं है। इसके पीछे राजनीति है। सी.बी.आइ. के संप्रति निदेशक रणजीत सिन्हा की नियुक्ति अहमद पटेल की सिफारिश पर हुई थी। आइ.बी. के वर्तमान निदेशक आसिफ इब्राहिम की नियुक्ति नेशनल सेक्युरिटी के डिप्टी एडवाइजर निश्चल संधू (आइ.बी. के भूतपूर्व निदेशक) की राय से। सी.बी.आइ. के बीच यह रस्साकशी वस्तुत: वर्चस्व की लड़ाई है। इसमें अहं की भूमिका प्रमुख है। सी.बी.आइ. को अपने काम में आइ.बी. का दखल अब मंजूर नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि अभी तक आइ.बी. न केवल उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय के जजों, गृह सचिव सहित भारत सरकार के अन्य सचिवों की नियुक्ति में भी दखल देती रही है। आइ.बी. की संस्तुति पर ही भारतीय सेना के तीन अंगों को जनरलों की नियुक्ति होती है। पारा मिलिटरी फोर्सेस् के बी.एस.एफ, सी.आर.पी.एफ., आइ.टी.बी.पी., एस.एस.बी., नारकोटिक्स ब्यूरो, सी.आइ.एस.एफ., बी.पी.आर. एंड डी. और दिल्ली पुलिस के कमिश्नर की नियुक्ति में भी इसकी प्रमुख भूमिका रहती है। यहां तक कि रिसर्च एंड एनालिसस विंग, सी.बी.आइ. के निदेशक का चुनाव भी आइ.बी. करती है। ऐसी स्थिति में यह सहज स्वाभाविक है कि टकराहट हो। लेकिन सी.बी.आइ. की यह टकराहट आइ.बी. को बेनकाब करने की है। आप याद रखें, आइ.बी. बहुत पुरानी संस्था है। लेकिन बेलगाम संस्था है। इसे संसदीय अकांउंटेबिलिटि की जद में लाने की जरूरत है।
अब आप भारत की शीर्ष खुफिया एजेंसी आइ.बी. के इतिहास पर गौर करें। भारत लगभग दो सौ वर्षों तक पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश सरकार का गुलाम रहा। भारत पर ब्रिटिश सरकार ने 1857 ई. के विद्रोह के बाद शिकंजा कसा। इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार का दमनचक्र आरंभ हो गया। 'तार', जो अभी 15 जुलाई को बंद हो गया है, उसी से दिल्ली में विद्रोह के बाद तार भेजकर अतिरिक्त सेना ईस्ट इंडिया कंपनी ने बुलाई थी। 1858 में ब्रिटिश सरकार ने भारत पर शासन का अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी से लिया। 1870 ई. के आसपास उन्होंने भारत में शासन के लिए दो काडर – आइसीएस (भारतीय सिविल सर्विस) और आइपी (इंडियन पुलिस) की प्रतियोगिता परीक्षा आयोजित की। 1880 ई. के आसपास पूरब और संयुक्त प्रदेश और मध्यभारत में जब ठगी, डकैती और पिंडारियों का आतंक बहुत बढ़ गया तो ब्रिटिश सरकार ने ठगी, डकैती निरोधक संस्था की स्थापना की। 1887 ई. में वर्तमान आइबी का जन्म इसी संस्था के रूप में हुआ। इसी संस्था ने ब्रिटिश सरकार को सलाह दी थी कि भारत के लोग अलग-अलग मंच से ब्रिटिश सरकार का विरोध कर रहे हैं, उन्हें एक मंच पर लाने की जरूरत है। कहना न होगा कि ह्यूम के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी का गठन हुआ। बीसवीं सदी में इस संस्था की भूमिका बदल गई। अनुमानत: 1920 के आसपास, तिलक की मृत्यु के बाद, जब गांधी ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का बिगुल बजाया, देश की परिस्थिति नाजुक थी। जलियांवाला बाग कांड (1919) के बाद असहयोग आंदोलन का नारा गांधी ने दिया। फिर साइमन कमीशन में लाला लाजपत राय लाठियों के प्रहार से घायल हुए और इसी कारण बाद में उनकी मृत्यु हुई। 1930 में इस ठगी, डकैती निरोधक संस्था का नाम बदलकर सेंट्रल सीआईडी किया गया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान इस संस्था की बेहद घृणित भूमिका थी। यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो राष्ट्रीय अभिलेखागार में इसकी भूमिका देख सकते हैं। इस संस्था ने उन दिनों स्वतंत्रता सेनानियों पर जिस तरह जुल्म किए, रोंगटें खड़े करने वाले हैं।
अनुमानत 1940 के आसपास इस खुफिया एजेंसी ने अपना नया नाम 'इंटेलिजेंस ब्यूरो' चुना था। मजेदार यह है कि आइ.बी. के आजादी के बाद हिंदी में कई नामकरण हुए – गुप्तचर्चा ब्यूरो, गुप्तचर ब्यूरो और अब खुफिया ब्यूरो।
पल-पल परवर्तित संज्ञा से अभिहित वर्तमान आइबी (खुफिया ब्यूरो) अब चारों तरफ से आक्रमण से घिर गई है। गृहमंत्री शिंदे चुप हैं। बताने की जरूरत नहीं कि आइबी का आकाश-पाताल का घेरा गृह मंत्रालय की सरहद से बाहर है। न कहें तो भी सच यह है कि अब तक आइबी इतनी शक्तिशाली थी कि ब्रिटिश संसद की तरह पुरुष और स्त्री के लिंग परिवर्तन के सिवा कुछ भी कर सकती है।
आजादी के बाद आइबी का भी विभाजन हुआ – पाकिस्तान और हिंदुस्तान की सरहद पर। स्वतंत्र भारत के आइबी के पहले निदेशक हुए डी. राजा और दूसरे निदेशक थे बीएन मलिक। वे आइपी थे और 1934 में उत्तर बिहार के एक शहर में सब डिविजनल पुलिस ऑफिसर रह चुके थे। उन्होंने एक किताब लिखी – माई ईयर्स विद नेहरू, आप याद करें, यह आइबी का स्वर्णकाल था। तब आइबी एकमात्र सर्वतंत्र स्वतंत्र निरंकुश संस्था थी। भारत के प्रधानमंत्री नेहरू की मृत्यु 1964 में हुई। इसके बाद भारतीय राजनीति में बिखराव हुआ। 1969 में आइबी के दूसरे वरिष्ठ अधिकारी आरएन काव की घनिष्ठता इंदिरा गांधी से हुई और आइबी से अलग एक नई संस्था रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (आरएंडब्ल्यू या रॉ) का गठन किया गया। आइबी तब तक सबसे प्रभुत्वशाली एकमात्र खुफिया एजेंसी थी। इस संस्था के निर्माण से उसके पर कतर दिए गए। सीबीआइ का गठन तो बहुत बाद में हुआ। लेकिन फिर भी भारतीय राजनीति के परिदृश्य पर आइबी का वर्चस्व बना रहा।
ऐसा नहीं है कि आइबी की संप्रभुता और वर्चस्व को पहले चुनौती नहीं दी गई। वस्तुत: आइबी भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) के अधिकारियों का नया उपनिवेश है। आप कल्पना नहीं कर सकते कि इस संस्था में नियुक्त आइपीएस अधिकारियों की संख्या भारत के आधे राज्यों में नियुक्त अधिकारों से ज्यादा है – लगभग 200 से ऊपर। विभिन्न राज्यों के कॉडर में नियुक्त ये आइपीएस अधिकारी आइबी में डेपुटेशन में आते हैं और यहीं से अवकाश ग्रहण करते हैं। भारत सरकार के नियम के अनुसार सेंट्रल सर्विसेज के अधिकारियों की नियुक्ति तीन साल के लिए होती है। एएस अधिकारियों की नियुक्ति के बारे में तो यह नियम लागू है, लेकिन आइपीएस अधिकारियों के बारे में नहीं। ताज्जुब की बात यह है कि आइबी में डेपुटेशन के बाद भी वे नौकरीपर्यंत डेपुटेशन पर बने रह सकते हैं, साथ ही यूनिफार्म वेस्टिंग एलाउंसेज भी लेते हैं। यह एक विचित्र स्थिति है। भारत सरकार को इस पर गौर करने की जरूरत है।
ऐसा नहीं है कि आइ.बी. की कार्यप्रणाली पर पहले ऊंगली नहीं उठाई गई। 1979 में जब जनता सरकार आई थी, इंटिलेंस ब्यूरो के कर्मचारियों ने – आइबीइए (इंटिलेंज ब्यूरो इम्पाइलज एसोसिएशन) बनाया था। यही नहीं कि आइबी ने इसको बनने नहीं किया। बल्कि, इस एसोसिएशन के तीन पदाधिकारियों को देशद्रोह के आरोप में बर्खास्त ही कर दिया गया। यह 1980 की बात है। उन तीन वरिष्ठ अधिकारियों के अचानक बर्खास्त किए जाने पर उच्चतम न्यायालय में दायर एक अपील पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की गंभीर टिप्पणी थी :
"वे कैसे रहेंगे? क्या सरकार उनको डकैत और स्मगलर बनाना चाहती है या उनकी पत्नियों को वेश्यावृति में धकेलना चाहती है? सरकार ऐसा कदम क्यों उठाती है? ''
लेकिन आइबी ने उन तीनों अधिकारियों को देशद्रोह के मामले में बाहर ही रखा। उच्चतम न्यायालय ने उन्हें थोड़ी राहत भी दी। कुल मिलाकर यह मामला आज भी उच्चतम न्यायालय में लंबित है। उन्हीं दिनों अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सपे्रस (15 सितंबर, 1980) में एक खबर छपी थी – भारत सरकार की इंटिलेजिंस एजेंसी इन दिनों खबरों में है। खासकर उत्तर पूर्व के क्षेत्र में अपनी असफलता के लिए। इसी खबर में लिखा गया था कि "चाहे यह 1962 का भारत-चीन युद्ध हो या 1965 का भारत-पाक युद्ध, आइबी ने भारत को अपने तमाम नेटवर्क के बावजूद शर्मसार किया। हद तो तब हो गई जब पिछले वर्ष इसने लोकनायक जयप्रकाश की मृत्यु की घोषणा की। …'' आगे कहा गया था कि आइबी को संपूर्णता में इसकी संरचना को बदलने की जरूरत है।
भारत की शीर्ष संस्था – आइबी ने एक बड़ा अलोकतांत्रिक काम यह किया कि इसने देश के प्रतिभाशाली युवकों को लॉलीपॉप दिखाकर – असिस्टेंट सेंट्रल इंटिलिजेंस ऑफिसर-2 (सब इंस्पेक्टर ऑफ पुलिस) के रूप में नियुक्ति किया। नियुक्त अधिकारियों में लगभग 59 एम.ए. में फर्स्ट क्लास थे। फिर इन्हें कहीं और जाने की इजाजत नहीं दी और इस तरह उनके भविष्य को चौपट कर दिया।
वस्तुत: आइबी ने केवल एक गैर कानूनी, असंवैधानिक संस्था है, बल्कि यह किसी के प्रति एकाउंटेबिलिटि से स्वतंत्र बेहद निरंकुश और अराजक संस्था है। इस विवाद से एक अच्छी बात यह हुई है कि इसकी कार्यप्रणाली पर सार्वजनिक तौर पर चर्चा होने लगी है। साफ है कि इस औपनिवेशिक बर्बर संस्था को लेकर असली मुद्दा इसे संसद के प्रति जवाब देह बनाना ही नहीं हैबल्कि इसे सार्वजनिक एकाउंटेबिलिटि के दायरे में लाना भी है। गोकि इशरत जहां वाले मामले में लीपापोती करने के लिए यह कहा जा रहा है कि यह एक अफसर की निजी प्रतिबद्धता के कारण ऐसा हुआ है पर सच यह है कि अगर यह मामला इस तरह से जांच के दायरे में न आया होता तो आइबी की भूमिका का कभी पता ही न चलता। दूसरी बात इसको लेकर यह है कि आखिर कोई एक अफसर बिना अपने वरिष्ठों को बतलाए किस तरह से निजी स्तर पर मनचाहा निर्णय ले सकता है? यह घटना ही बतलाती है कि इस संस्थान में कुछ आधारभूत गड़बड़ है जिसे तत्काल दूर किया जाना जरूरी है। जब तक ऐसा नहीं होगा इशरत जहां जैसे न जाने कितने लोगों को बलि चढ़ती रहेगी।
No comments:
Post a Comment