नेपाल : कहीं कोई रास्ता है?
Author: समयांतर डैस्क Edition : September 2013
विष्णु शर्मा
नेपाल अनावश्यक रूप से जटिल देश है। यहां की राजनीति, संस्कृति या अर्थतंत्र, किसी भी क्षेत्र में तारतम्यता खोजना एक श्रमसाध्य काम है। चीजें इतनी अधिक गड्ड मड्ड हो गई हैं कि कोई भी राजनीतिक विश्लेषण जो रात को सही लगता है सुबह तक उसके मायने बदल जाते हैं। राजतंत्र की समाप्ति के बाद नेपाल को संभालने-संवारने की जिम्मेदारी जिन्हें मिली, वे इस काम में बुरी तरह असफल साबित हुए। दो साल के लिए गठित संविधान सभा के कार्यकाल को चार साल तक 'खींचने' के बाद भी अंतत: इसे विघटित कर दिया गया। इस वर्ष नवंबर में दूसरी बार संविधान सभा के चुनाव होने न होने, होने की शर्तों और होने के खिलाफ सक्रिय प्रतिरोध की घोषणाओं के बीच नेपाल की राजनीति आज वहीं खड़ी है, जहां 2006 में थी। उससे भी बुरा यह है कि नेपाल आज साम्राज्यवादी और विस्तारवादी ताकतों के बीच राजनीतिक-कूटनीतिक उठापटक के अखाड़े में तब्दील हो चुका है।
16 जुलाई के काठमांडो पोस्ट के हवाले से खबर थी कि नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष सुशील कोईराला ने मोहन बैद्य 'किरण' के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी को चुनाव के लिए तैयार करने की गुहार चीन से लगाई है। एक तरह से यह नेपाली राजनीति में चीन के प्रभाव की स्वीकृति भी थी। पिछले दो सालों पर एक सरसरी नजर दौड़ाएं, तो जो बात साफ समझ आती है वह यह है कि चीन नेपाल की राजनीति में सक्रिय भूमिका चाहता है। 2006 के बाद चीन के कई राजनीतिक प्रतिनिधि मंडलों ने नेपाल का भ्रमण किया है। इन भ्रमणों में चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ का नेपाल भ्रमण सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसके अलावा चीन के आमंत्रण पर कई नेपाली नेता लगातार चीन जा-आ रहे हैं।
नेपाल में चीन की सक्रियता की वजह एकीकृत कम्युनिष्ट पार्टी माओवादी का पूरी तरह भारत समर्थक लाइन ले लेना है। 2006 में पार्टी के मुख्यधारा में आने के बाद नेपाल की राजनीति में स्वतंत्र विचार एवं निष्पक्ष लाईन की संभावना दिख रही थी। 1996 से ही (माओवादी पार्टी द्वारा जनयुद्ध की शुरुआत करने के वर्ष) माओवादी पंचशील सिद्धांत के तहत देश की विदेश नीति लागू करने और तटस्थ रहने की लाईन की वकालत करते आए थे। साथ ही, तिब्बत को चीन का अंग मानने और एक चीन की नीति को स्वीकारना भी उनकी विदेश नीति की रूपरेखा में शामिल था। लेकिन मुख्यधारा में प्रवेश के बाद माओवादियों की नीति में परिवर्तन आया और यह पूरी तरह भारत उन्मुख हो गई। यही वजह है कि चीन को अब यह विश्वास हो गया है कि नेपाल की वर्तमान राजनीति को वहां के नेताओं के भरोसे छोडऩा एक जोखिम भरा काम है।
दूसरी ओर, नेपाल की राजनीतिक पार्टियों के अंदर कलह जारी है। हर पार्टी में कई गुट हैं, जो पार्टी में अपने वर्चस्व के लिए संघर्षरत हैं। नेपाली कांग्रेस में शेखर कोईराला बनाम रामचंद्र पौडेल, एमाले में माधव नेपाल और केपी ओली बनाम झलनाथ खनाल और एकीकृत कम्युनिष्ट पार्टी माओवादी में प्रचंड बनाम बाबुराम भट्टाराई। जानकारों का मानना है कि पार्टी के भीतर वर्चस्व की लड़ाई नेपाल की राजनीति में नई बात नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में यह खुलकर सामने आई है। एकीकृत माओवादी पार्टी में यह एक नई परिघटना है। एक दशक के भूमिगत जीवन में माओवादी पार्टी में नेतृत्व के सवाल पर आज जितनी उग्र या पार्टी को विभाजन तक पहुंचा सकने वाली बहस कभी सामने नहीं आई। 2003-04 में बहुत ही अल्प समय के लिए पार्टी में प्रचंड के नेतृत्व को बाबुराम भट्टाराई ने चुनौती देने का प्रयास किया था। उस वक्त भट्टाराई और उनकी पत्नी हसिला यामि को 15 दिन तक पार्टी ने कैद कर दिया था। 2006 में संसदीय राजनीति में आने के बाद और खासतौर पर नया जनवाद की लाईन को छोडऩे के बाद से पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई नए स्तर पर पहुंच गई है। जब तक किरण समूह पार्टी में था, तब तक मध्य विचार वाले प्रचंड बाबुराम और किरण दोनों को स्वीकार्य थे। लेकिन पार्टी के विभाजन के बाद बाबुराम के रूप में उन्हें ताकतवर और निरंतर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
साथ ही, वर्ष 2012 के बाद नेपाल के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में बहुत बदलाव आया है। पिछली संविधान सभा की सबसे बड़ी पार्टी एकीकृत नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) ने 2012 में औपचारिक तौर पर संसदीय बहुदलीय प्रणाली के अंतर्गत समाजवाद के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष को अपनी लाईन घोषित कर दिया है। (इस कारण पार्टी में विभाजन भी हो गया है और नया जनवाद की लाईन को मानने वाले पार्टी सदस्यों ने मोहन वैद्य 'किरण' के नेतृत्व में पार्टी को पुनर्गठित कर लिया। ) नेपाल में समाजवादी क्रांति का सवाल पार्टी के केंद्र से हटा दिए जाने के बाद पद और वर्चस्व की लड़ाई की शुरुआत होना कोई बड़ी बात नहीं है। पार्टी के तमाम नेता लगभग एक ही उम्र के हैं, इसलिए कोई भी इंतजार करने को तैयार नहीं है।
पहली संविधान सभा के बिना परिणाम विघटित हो जाने के बाद दूसरी बार संविधान सभा के चुनाव को लेकर नेपाल के राजनीतिक गलियारों में कानाफूसी का दौर है। आमतौर पर यह बात कही जा रही है कि नेपाल की कोई भी पार्टी चुनाव के लिए तैयार नहीं है। नेपाल की संविधान सभा की पूर्व सांसद और विघटित संविधान सभा के 21 दलित सांसदों में से एक संतोषी विश्वकर्मा ने एक बातचीत में इस लेखक को बताया कि किरण के नेतृत्व वाली पार्टी द्वारा चुनाव बहिष्कार की घोषणा इन पार्टियों के लिए एक गुप्त वरदान है, जो चुनाव न करने की अपनी मंशा को ढांकने और इसकी जिम्मेदारी का ठीकरा किरण के नेतृत्व वाली माओवादी के सर पर फोडऩे के लिए भविष्य में काम आएगा। वे चीजों को स्पष्ट करती हुई कहती हैं, 'अन्य संसदीय पार्टियों की तरह ही एकीकृत माओवादी को भी विश्वास के संकट का सामना करना पड़ रहा है। पार्टी में पूरी तरह से अराजकता व्याप्त है। पार्टी के भीतर और बाहर नेता एक दूसरे को कमजोर बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं। वहीं, पहाड़ी क्षेत्र से पार्टी का जनाधार पूरी तरह से खत्म हो गया है। यही वजह है कि पिछली बार काठमांडो और रोल्पा से भारी मतदान से चुनाव जीतने वाले प्रचंड ने इस बार तराई के चितवन जिले से चुनाव लडऩे की घोषणा की है।'
पार्टी में बाबुराम भट्टाराई ही एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनकी लोकप्रियता में कुछ हद तक इजाफा हुआ है। सरकारी तंत्र के मध्य और निचले कर्मचारी वर्ग में बाबुराम के प्रति सम्मान है। बाबुराम ने अपने अर्थ मंत्री रहते हुए और बाद में प्रधानमंत्री के रूप में इनके वेतन में वृद्धि की थी। साथ ही 'एक दिन एक गांव', 'प्रधानमंत्री को पत्र', वृद्धा एवं विधवा पेंशन में इजाफा करने एवं अन्य लोकप्रिय योजनाओं को लागू करने से उन्हें लोगों के बीच प्रसिद्धि मिली है। पिछले संविधान सभा में जीतकर आने वाले नेताओं ने जहां अपने क्षेत्र को भुला डाला, वहीं बाबुराम ने हर महीने, ईमानदारी से, अपने क्षेत्र का भ्रमण किया। इसके अलावा भ्रष्टाचार के मामले में जहां प्रचंड और उनके संबंधी एवं मित्र बदनाम हुए, वहीं बाबूराम पर कभी प्रत्यक्ष आरोप नहीं लगा। इन सबके मद्देनजर यदि चुनाव होते हैं और माओवादी पार्टी खराब प्रदर्शन भी करती है, तो भी बाबुराम का ही कद ऊंचा होगा, इसलिए प्रचंड के निकट के लोग चुनाव के प्रति बहुत उत्साहित नजर नहीं आते।
आज नेपाल के किसी भी बड़े नेता के पास नेपाल के भविष्य को लेकर कोई योजना अथवा खाका नहीं है। नेपाल के दिग्गज विचारक माने जाने वाले बाबुराम भट्टाराई भी नेपाल के भविष्य को भारत के भविष्य के साथ जोड़कर देखने लगे हैं। 15 अगस्त को अंगे्रजी दैनिक द हिंदू में अपने एक लेख में बाबुराम कहते है, 'हमारे (नेपाल) प्रबुद्ध हित के लिए यह जरूरी है कि हम भारत में होने वाले बदलावों पर नजर रखें और उसी के तहत अपने कदम आगे बढ़ाएं।' आज नेपाल अपने अस्तित्व के सबसे संकटपूर्ण समय में है। यदि जल्द कोई हल नहीं निकला, तो यह इसके अस्तित्व को ही संकट में डाल देगा।
लंबे समय तक भूमिगत जीवन जीने के बाद सांसद बने एक मित्र ने इस लेखक से कहा, 'काठमांडो की सड़कों के साथ चलती दीवारों में लिखे राजनीतिक नारों को सिनेमा के पोस्टरों और चमकीले लिबास में बाजार बेचती मॉडलों के बड़े पोस्टरों ने ढक लिया है।'
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