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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, February 27, 2014

‘गण’ के लिये नये ‘तंत्र’ की दरकार है

'गण' के लिये नये 'तंत्र' की दरकार है

लेखक : पवन राकेश :::: वर्ष :: :

कौन कहता है आसमाँ में सुराख नहीं होता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!

aap-ki-krantiअरविंद केजरीवाल ने 'आम आदमी पार्टी' के माध्यम से इस गणतंत्र में उम्मीदों और सम्भावनाओं का पत्थर तो उछाल ही दिया है। सुराख होगा या नहीं यह तो भविष्य ही बतायेगा, पर उसकी उछाल ने एक खदबदाहट तो पैदा कर ही दी है। नाकारेपन, भ्रष्टाचार और सरकारी दादागिरी से तंग आ गये 'गण' को यह लगने लगा है कि अभी कुछ होने की सम्भावनाएँ मरी नहीं हैं और यदि सही सोच और प्रक्रिया सामने आए तो वह कुछ कर सकता है।

गणतंत्र के 64 साल का लेखाजोखा देखा जाय तो विकास और असमानता साथ-साथ बढ़ते नजर आते हैं। एक तरफ हमारा मंगल मिशन है, दूसरी तरफ लगातार दम तोड़ती खेती है। एक तरफ स्वास्थ्य सेवाओं को स्वास्थ्य पर्यटन से जोड़ा जाता है, दूसरी ओर डाक्टर, नर्स व अन्य स्टाफ की कमी से सारे अस्पताल जूझ रहे हैं। ढेर सारे इंस्टीट्यूट, विश्वविद्यालय, कॉलेज खुलते जा रहे हैं। उधर आपको योग्य अध्यापक/ट्यूटर नहीं मिलते। यदि समाचार पत्रों में प्रकाशित नौकरियों के विज्ञापनों पर नजर डालें, जो रोज प्रकाशित होते हैं और रोज नई नियुक्तियों से भरे होते हैं तो हर हाथ को रोजगार मिल ही जाना चाहिए। फिर भी बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है। खेती हो या व्यापार, शिक्षा हो या चिकितसा यह विरोधाभास हर क्षेत्र में दिखता है।

जिस भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने के लिए लोगों ने अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल को सिर आँखों पर बिठाया वह एक अनिवार्य बुराई के रूप में समाज में जड़ जमा चुका है। इसका एक कारण पुराने पड़ चुके कानून भी हैं। सालों पहले बने कानून आज की परिस्थितियों में, आज के सन्दर्भ में अपनी अर्थवत्ता खो चुके हैं। लेकिन वह उसी रूप में चले आ रहे हैं जिसका लाभ कभी अधिकारी उठाते हैं और कभी जनता। इनको जाँचने और दुरुस्त करने के बजाय ऐसे ही ढोते रहने का परिणाम ही न्यायालयों में बढ़ते मुकदमों के ढेर के रूप में देखा जा सकता है। आज जितने मुकदमे निजी स्तर पर हैं उनसे ज्यादा मुकदमे सरकार बनाम जनता के हैं।

आम आदमी पार्टी को मौका मिला था कि वे इस व्यवस्था को ठीक करने के लिए कुछ कदम उठाते लेकिन वह अति उत्साह में जिन बातों में उलझ गये हैं उससे उसकी ऊर्जा अब बँट जायेगी। मुख्य कार्य पर ध्यान लगाने के बजाय फालतू बातों को निपटाने में ही वक्त और ऊर्जा लगेगी जिससे बचा जा सकता है। भारतीय मानसिकता का एक अजब विरोधाभास है, जिसे समझ कर ही उसकी ऊर्जा को एक सकारात्मक दिशा दी जा सकती है। हमारा सामाजिक मनोविज्ञान यह है कि हम कितने ही बुरे हों, अराजक हों, कमीने हों, हिंसक हों लेकिन हम इन सबको पसन्द नहीं करते और इनके विरोध में खड़े हो जाएँगे। आज इस मनोविज्ञान को बदलने की सख्त जरूरत है। हमें लगता है कि सारी अच्छाइयाँ दूसरों में होनी चाहिए- हमारी तो कोई बात नहीं।

पैंसठवाँ गणतंत्र दिवस मनाते हुए यह कचोट गहरी हो जाती है कि हमारी सरकारें विश्वबैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जेसी संस्थाओं की गिरवी हैं। कर्ज को ही अर्थव्यवस्था की खुशहाली का पैमाना माने जाने लगा है। राज्य सरकारें इस बात पर गर्व करती हैं कि हमारी योजनाएँ इस या उस संस्था के पैसे से चल रही हैं। इसका परिणाम ? सरकार की नीतियाँ इन संस्थाओं के मनमाफिक बन रही हैं, जिसने न केवल हमारी राष्ट्रीय भावना को खत्म कर दिया है, वरन् हमारा 'ब्रेन वॉश' भी कर दिया है। आज हम अपने बच्चे को सिर्फ कॉरपोरेट बनाना चाहते हैं ताकि वह पैसा कमाये। इसी का नतीजा है कि हमारे पास सैनिकों, सिपाहियों अधिकारियों, अध्यापकों का टोटा पड़ गया है और जो हैं भी उनकी गुणवत्ता को हम खुद ही कोसते रहते हैं। देश के प्रति जिम्मेदारी का जज्बा बहुत दूर की कौड़ी लगती है।

ऐसे हालातों के बीच केजरीवाल की तनी मुट्ठी ने एक लौ तो दिखाई है कि हम आज भी कुछ कर सकते हैं। 2014 का आसन्न चुनाव हमें एक मौका दे रहा है कि हम ऐसे लोगों को अपना नेतृत्व करने को चुनें जो हमें अगले पाँच साल तक सिर्फ कोसने का ही मौका न दें वरन् एक नया 'तंत्र' बनाएँ जो इस 'गण' का हो, आम आदमी का हो।

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