चरण सिंह का 'सेक्युलरिज्म'
Author: समयांतर डैस्क Edition : October 2013
एक संवाददाता
मुजफ्फरनगर-शामली के गांवों में भयानक सांप्रदायिक हिंसा के बाद पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह और भारतीय किसान यूनियन और जाटों की बालियान खाप के दिवंगत मुखिया महेंद्र सिंह टिकैत को एक फैशन की तरह याद किया जा रहा है। गोया वे होते तो इन गांवों में सेक्युलरिज्म की 'गंगा' बह रही होती। गोया उन्होंने अपनी जिंदगी समाज में सांप्रदायिक भाईचारा कायम करने में ही बिताई हो। अब जबकि इन प्रभावी किसान नेताओं के अनुयायियों के गांवों में ऐसे किसी गुमान की परछाइयां तक खाक कर दी गई हों तो थोड़ा पीछे मुड़कर इन नेताओं की राजनीति की पड़ताल करना बुरा न होगा। आखिर ऐसे किसी भ्रम में रहने से क्या हासिल कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस रास्ते से चलकर इन गांवों में पहुंचा, उसकी राह पहले से मौजूद नहीं थी।
चरण सिंह इसी मुजफ्फरनगर-शामली से सटे बागपत इलाके के नूरपुर गांव के एक बेहद आम गरीब जाट किसान परिवार से आए पढ़े-लिखे नेता थे और गैरकांग्रेसवाद की डगर पर चलने से पहले दूसरे तमाम नेताओं की तरह कांग्रेस का सफर कर चुके थे। उन्होंने यूपी में मंत्री से मुख्यमंत्री तक के सफर में गरीबी से जूझते किसानों के लिए कई बड़े फैसले लिए थे। बागपत और उससे सटा कैराना (शामली इलाका ही) उनके सबसे मजबूत गढ़ों में से थे। दलितों और अति पिछड़ों ने इन गांवों में चौधरियों की इच्छा के खिलाफ वोट करने की हिमाकत तो दूर सालोंसाल बूथ तक जाना भी उचित नहीं समझा। उनके वोट डालने का काम चरण सिंह के अनुयायी खुद ही कर लिया करते थे। शामली जिले के ऊन कस्बे में कांग्रेस के उम्मीदवार लाला सलेक चंद की नृशंस हत्या और दूसरे अनेक खौफनाक किस्से ठप्पेबाजी के दौर से जुड़ी मामूली बातें हैं। यह ऐसी सियासत थी जो गांवों के इन चौधरियों को ताकत के निरंकुश इस्तेमाल के लिए प्रेरित करती थी और बदले में उन्हें सहज संरक्षण देती थी। खुद को मार्शल रेस कहने वाले दूसरी जातियों के बाहुल्य वाले गांवों की कहानी भी यही थी। ऐसी कड़ी जमीन में सेक्युलरिज्म के बीज फूट भी कैसे सकते थे?
चरण सिंह की पॉलिटिक्स की जिस सोशल इंजीनियरिंग में वेस्ट यूपी के जाट-मुसलमान गठबंधन की दुहाई दी जा रही है, उसे समझना भी दिलचस्प है। जैसा कि ऊपर जिक्र हो चुका है कि चरण सिंह किसी सामंती घराने से नहीं आए थे बल्कि उनकी जड़ें उस जमाने में बदकिस्मती से जूझने वाले आम किसान परिवारों में थीं। उन्होंने मुख्यमंत्री बनते ही एक बड़ा काम उन ऑनरेरी मजिस्ट्रेटों के बिस्तर गोल करने का किया था जो अंग्रेजों के जमाने से ही अपने पैसे, ताकत और चापलूसी के बूते जनता के मुकदमों के फैसले सुनाया करते थे। लेकिन, अपनी सियासी दुनिया में उन्होंने इन तबकों को खूब तरजीह दी। खासकर, बड़े मुसलमान घराने जिनमें किले वाले खान साहब, काजी और मुस्लिम लीग से जुड़े रहे नवाब शामिल थे, चौधरी साब का टिकट पाते और गरीब मुसलमान रियाया मुग्ध भाव से उन्हें वोट नजर कर आती। इस सामंती मुसलमान तबके को पॉवर पॉलिटिक्स से आगे जाकर जनता के असल मुद्दों के बारे में सोचना कभी गवारा नहीं हुआ। उनसे यह उम्मीद करना कि वे चरण सिंह के नेतृत्व में जनता के सेक्युलराइजेशन के लिए किसी तरह के ठोस कार्यक्रम चलाते, ज्यादती के सिवा क्या होगा? देखना चाहें तो इसकी मिसाल इस वक्त और भी भयावह शक्ल में मौजूद है। जब एक छोटे से खित्ते के एक लाख से ऊपर लुटे-पिटे मुसलमान कैंपों में और रिश्तेदारियों में पड़े हैं, उनकी आंखों के सामने उनके परिवार के लोगों के बेरहमी से कत्ल किए गए हैं और उनके परिवारों की औरतों-बच्चियों की अस्मतें लूटी गई हैं, तब भी ताकतवर और दंगों के जनक ठहराए जा रहे आजम खान और अमीर आलम खान न तो ऐसी सरकार को ठोकर ही मार पा रहे हैं और न ही इस लुटी-पिटी आबादी की शिकायत पुलिस के कागजों तक में दर्ज करा पा रहे हैं। एक जमाने तक चरण सिंह के हमराह रहे गंगोह के ताकतवर काजी परिवार का युवक इमरान मसूद अपने चाचा रसीद मसूद से नाराज होकर ठीक इसी वक्त समाजवादी पार्टी में शामिल हो जाता है। अजित सिंह की रहनुमाई वाली राष्ट्रीय लोकदल के एमएलसी मुश्ताक चौधरी अपने गांवों में मची इस मारकाट पर बयान जारी करने तक की हैसियत नहीं रखते हैं। हालांकि, यह स्थिति इन मुसलमान नेताओं की सत्ता केंद्रित राजनीति के साथ इस आजाद मुल्क में उनकी बेचारगी को भी सामने लाती है।
वोटों के लिए खड़े किए गए इस गठबंधन का सामाजिक सेक्युलराइजेशन कभी मकसद ही नहीं था और उसे सांप्रदायिक तूफान में इसी तरह बह जाना था। खुद चरण सिंह ने मुल्क के दूसरे बहुत से नेताओं की तरह अपनी तमाम अच्छाइयों, अपने तेवरों, अपनी करिश्माई छवि के बावजूद सेक्युलर मूल्यों के प्रति कभी कुछ दांव पर नहीं लगाया। उर्दू जबान को लेकर तो उनका बयान खासा निराशाजनक था। लोहिया की तरह वे भी जनसंघ से लव एंड हेट रिलेशनशिप में झूलते रहे थे। शायद यह सियासी महत्त्वाकांक्षाओं की मजबूरियां हों जो उन्हें प्रधानमंत्री पद तक तो ले गईं पर इसके लिए उन्हें खासी रुसवाई उठानी पड़ी। उनके उत्तराधिकारी अजित सिंह जो राजनीतिक व्यक्तित्व के मामले में अपने पिता का शतांश भी नहीं हैं, ने तो कभी इस गठबंधन को संभाले रखने तक की परवाह नहीं की। शायद उनमें यह कुव्वत भी नहीं थी और उन्हें मंत्री पद के लिए एनडीए और यूपीए के बीच इधर से उधर झूलते हुए इसकी फुरसत भी नहीं थी। आखिरी विधानसभा चुनाव में अजित की रालोद भारतीय जनता पार्टी के साथ थी और उनकी पार्टी की सबसे ताकतवर नेत्री अनुराधा चौधरी (फिलहाल सपा में) ने मुजफ्फरनगर शहरी लोकसभा सीट जीतने के लिए इस ऐतिहासिक बताए जा रहे जाट-मुस्लिम गठबंधन की थोड़ी-बहुत लिहाज भी तार-तार कर दी थी। उन्हें बीजेपी में बिताए दिनों का तजुर्बा था। उन्होंने गौकशी जैसे मसलों पर तूफान खड़ा करके और वरुण गांधी के कुख्यात भाषण कराकर जीत हासिल करने की नाकाम कोशिश की थी। कवाल कांड के बहाने आरएसएस और बीजेपी जाटों की भावनाओं को उन्माद की हद तक ले जाने में और अपनी लंबी तैयारियों के बूते मिशन मोदी को गांवों तक में कामयाब बना रही थी तो रालोद के लोग या तो कठपुतलियों की तरह उनके इशारे पर नाच रहे थे या फिर पूरी तरह अप्रासंगिक हो गए थे। यह पहली बार था कि बीजेपी जाटों के बीच से चौधरी परिवार के उत्तराधिकारियों के लिए सार्वजनिक रूप से गुस्से का इजहार कराने और मोदी को उनका नया मसीहा प्रचारित करने में भी कामयाब रही। ऐसी विरासत का ऐसा हश्र अतार्किक भी नहीं है। कहते हैं कि अब अजित के पास दो ही रास्ते हैं। पहला, केंद्र सरकार से जाटों के लिए आरक्षण की घोषणा करा लें और दूसरा, फिर से बीजेपी का दामन थाम लें।
भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष महेंद्र सिंह टिकैत का मुख्य अनुयायी वर्ग वही जाट किसान था जो रालोद का अनुयायी था। कई बड़े किसान आंदोलनों (जो अपने परिणामों को लेकर हमेशा ही विवादास्पद रहे) के बावजूद भाकियू और टिकैत का बड़ा महत्त्व जाटों के लिए अपनी हनक बनाए रखना था। उन्होंने भले ही राजनीतिक तौर पर अजित को नेता बनाए रखा और टिकैत समर्थित प्रत्याशियों को घास नहीं डाली लेकिन टिकैत के तौर पर अपनी सामाजिक ताकत को भी कभी आंच नहीं आने दी। बिजनौर की पंचायत में टिकैत ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को लेकर जातिवादी और अश्लील टिप्पणी की तो संकट में फंसे 'महात्मा' टिकैत को जाटों ने गुटों और पार्टियों से ऊपर उठकर समर्थन दिया। मामला चूंकि दलित महिला सीएम से जुड़ा था, तो बाकी सवर्ण जातियां भी भावनात्मक रूप से उनके साथ थीं। बेशक, उनकी पंचायतों में हर-हर महादेव और अल्लाह-ओ-अकबर के नारे साथ गूंजने का प्रतीकात्मक महत्त्व था लेकिन यह सांप्रदायिक एकता खुद उनके लिए कितना महत्त्व रखती थी, 1991 के चुनाव में साफ हो चला था। राम मंदिर आंदोलन के घोड़े पर सवार बीजेपी ने मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से नरेश बालियान को और भाकियू की राजधानी कहे जाने वाले सिसौली गांव से संबंधित शाहपुर विधानसभा सीट से सुधीर बालियान को टिकट दिए थे। टिकैत जाटों की इसी बालियान खाप के चौधरी थे और उन पर बालियानों का बीजेपी को समर्थन घोषित करने का भारी दबाव था। इस मुद्दे पर हुई पंचायत में उन्होंने राम और आत्मा के नाम पर वोट देने का आह्वान किया और बीजेपी ने चरण सिंह और किसान यूनियन की इस बेल्ट में शानदार जीत के साथ प्रवेश कर लिया। अब इतने सालों बाद, इस बेल्ट के गांवों में संगठित और सुनियोजित रूप से अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया तो भाकियू नेता राकेश टिकैत का हैरान होना हास्यास्पद लगता है। कवाल कांड के बाद जिस तरह इन गांवों और पंचायतों की डोर आरएसएस के हाथों में चली गई थी, राकेश टिकैत खुद एक पंचायत से अलग रहने के बाद इस डोर से बंधे पीछे-पीछे हो लिए थे। महेंद्र सिंह टिकैत के जीतेजी उनके जैसा असर न रख पाए गठवाला खाप के मुखिया हरिकिशन मलिक और दूसरी खापों के कई चौधरी तो इस मुहिम के अगुवा ही बन गए थे। कभी आर्य समाज के भारी असर में रही इस जाट बेल्ट में यूं भी ऐसी सियासत के लिए पर्याप्त जगह थी।
लेकिन, यह सिर्फ रालोद और भाकियू की ही कहानी नहीं है, राष्ट्रीय परिदृश्य की तरह पश्चिमी यूपी और मुजफ्फरनगर जिले में भी सेक्युलरिज्म स्थापित नेताओं की दिल की आवाज कभी न था। चरण सिंह के साये में राजनीति शुरू कर बाद में कांग्रेस और फिर चरण सिंह के साथ रहे जिले के एक अन्य दिग्गज नेता वीरेंद्र वर्मा पंजाब-हरियाणा का राज्यपाल रह चुकने के बाद भी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं का संवरण नहीं कर सके तो वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर कैराना सीट से लोकसभा पहुंचे। ताउम्र मुसलमानों का वोट पाते रहे और एक सियासी जीवन के लिहाज से तमाम बसंत देख चुके और जाटों में 'फादर फिगर' की हैसियत पा चुके इस नेता के इस आखिरी कदम से मुसलमानों पर क्या गुजरी होगी और इसका गांवों पर क्या असर पड़ा होगा, समझना मुश्किल नहीं है। कैराना इलाके के ताकतवर गुर्जर घराने से ताल्लुक रखने वाले भाजपा विधानमंडल दल के नेता हुकुम सिंह सेना में केप्टन का पद छोड़कर वाया वकालत राजनीति में आए थे। वे अपने इलाके के हिंदू और मुसलमान गूर्जरों में निर्विवाद रूप से 'बाबूजी' बने रहे। नौकरशाही और प्रदेश में तमाम दलों के मुखियाओं से गहरे रिश्ते रखने में माहिर हुकुम सिंह अविभाजित मुजफ्फरनगर जिले के सबसे वरिष्ठ जीवित राजनीतिज्ञ हैं। चरण सिंह और कांग्रेस दोनों के साथ रहे हुकुम को कांग्रेस के बेहद बुरे दिनों में तिवारी कांग्रेस के टिकट पर भी वोटों की कमी नहीं हुई और उनके कैराना विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी की जमानत जब्त होती रही। लेकिन, तेज-तर्रार युवा मुस्लिम गुर्जर नेता मुनव्वर हसन का उदय और भाजपा को हासिल होने वाले थोड़े से वोट ही उनकी लगातार तीन पराजयों की वजह बने तो वे भी भगवा ब्रिगेड में शामिल हो लिए। हैरानी हो सकती है कि उनके बहुत सारे मुसलमान समर्थक उनके लिए कमल के फूल पर भी वोट करते रहे। पर 'अभी नहीं तो कभी नहीं' जैसी स्थिति से जूझ रहे नरेंद्र मोदी के लिए यूपी में चुनाव की कमान संभालने आए अमित शाह मॉडल को लागू करने में जुटी फौज की जिले में अगुवाई कर रहे हुकुम सिंह की कहानी भी अब मुसलमानों में गहरे अफसोस के साथ बयां की जाती है। शुक्र यह रहा कि इन दंगों के दौरान गुर्जर गांवों ने अपना धैर्य बनाए रखा। शायद, शामली जिले के दूसरे मजबूत गुर्जर नेता समाजवदी पार्टी के (वैसे पुराने लोकदली) वीरेंद्र सिंह और उनके बेटे शामली जिला परिषद अध्यक्ष मनीष चौहान के राजनीतिक समीकरणों ने भी इन गांवों को इस आग से बचाए रखने में मदद की हो।
मुजफ्फरनगर-शामली दोनों जिलों में कांग्रेस के एकमात्र विधायक पंकज मलिक (शामली) अपने पिता पूर्व सांसद हरेंद्र मलिक की कद्दावर छवि के बूते विधानसभा पहुंचते हैं। हिंदू और मुसलमान दोनों ही वोटों की दरकार रखने वाले हरेंद्र मलिक और बहुजन समाज पार्टी के पूर्व मंत्री योगराज सिंह दोनों ही, यह जानते हुए भी कि कवाल कांड को लेकर चल रही मुहिम की डोर आरएसएस के लोगों के हाथों में चली गई है, अपने आधार जाट वोटरों में अलग-थलग न पड़ जाने के डर से महापंचायत में पहुंचे थे। सिर्फ वोटों के गठबंधन की राजनीति से देर-सवेर ऐसे संकट पैदा होना स्वाभाविक भी था। कवाल कांड से पहले ही और बाद में भी आए दिन यहां-वहां गांवों और रेलगाडिय़ों में मुसलमानों पर सुनियोजित हमले कराए जा रहे थे तो भी कोई नेता आगे आकर इस आग को शांत करने की कोशिश करता नजर नहीं आ रहा था। लगता यही था कि जो हो रहा है, आरएसएस-बीजेपी की इच्छाओं के अनुरूप हो रहा है, बाकी पार्टियों के नेताओं में या तो इच्छाशक्ति ही नहीं है या फिर बाबरी मस्जिद गिराए जाने से मोदी युग तक बहुसंख्यकों के दिलों पर आए असर को सभी ने नियति मान लिया है। मुजफ्फरनगर में वकीलों के एक शांति मार्च को छोड़ दें तो कोई पार्टी या संगठन इस तरह के औपचारिक प्रयास भी नहीं कर सका।
मुजफ्फरनगर के 1989 के दंगों में वयोवृद्ध नेता ठाकुर विजयपाल सिंह कफ्र्यू के बीच ही अकेले शांति की अपील वाले पम्फलेट लेकर सड़क पर निकले थे। मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से चरण सिंह को पराजित कर चर्चित हुए विजयपाल सिंह पुराने कम्युनिस्ट थे जो बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए थे। शायद ये उनके पुराने वामपंथी संस्कार रहे हों, जिन्होंने उन्हें कफ्र्यू के बीच घर से निकलने को मजबूर किया हो। अव्वल तो कम्युनिस्ट पार्टियां इन इलाकों में किसी हैसियत में ही नहीं रह गई हैं पर विडंबना यह रही कि मुजफ्फरनगर में इन पार्टियों के प्रमुख पदाधिकारी जो ताकतवर किसान पृष्ठभूमि से भी आते हैं, खामोश बने रहे। बाद में जब सीपीआईएम की सुभाषिनी अली यहां दौरे पर आईं और उन्होंने जो रिपोर्ट जारी की, वह भी स्थिति की भयावहता को ठीक-ठीक दर्ज कर पाने में नाकाम थी। उसकी हालत सामने पड़ी सचाई तक पहुंचने के बजाय राजनीतिक पार्टियों की 'समझदारी' भरी रिपोर्ट जैसी ही थी। दिग्गज वामपंथी नेता मेजर जयपाल सिंह गंगा-जमना के इसी दोआबे में एक जाट परिवार में पैदा हुए थे। अंग्रेजों के खिलाफ अपनी किंवदंती सरीखी संघर्ष गाथा और फिर आजादी के बाद भी इसी संघर्ष के नतीजे में जेल और मुकदमे का सामना करने वाले मेजर आजीवन कम्युनिस्ट रहे। पार्टी ने उन्हें एक बार वीरेंद्र वर्मा जैसे पॉपुलर और ताकतवर नेता के खिलाफ उम्मीदवार बनाया था। वे जीत तो नहीं सके लेकिन उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया। उस वक्त उनके असर में बहुत सारे युवा कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़े थे। ताकत की राजनाति के इर्द-गिर्द घूमने के आदी जिले के लोगों ने धीरे-धीरे उन्हें बिसरा दिया। लेकिन, लगता है कि खुद उनके ही असर में रहे जिले के उस जमाने के युवाओं ने भी अंतत: उनकी स्मृति से पिंड छुटा लिया है।
अब ये सब सामान्य बातें हैं जैसे इंसाफ और मानवीय गरिमा कोई शब्द ही न हों। जैसे सेक्युलरिज्म की अब कोई जरूरत ही न हो। जैसे लुटे-पिटे कैंपों में पड़ी इतनी बड़ी आबादी इंसानों की आबादी ही न हो। जैसे इस आबादी को उसकी औकात दिखा दिए जाने के बाद बाकी बची बिरादरियों में अब किसी बैर, किसी लालच, किसी नाइंसाफी, कमजोरों के उत्पीडऩ की कोई गुंजाइश ही न हो। जैसे मोदी के पीएम बनने से पहले ही दोआबे के गांवों में रामराज स्थापित हो गया हो।
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