Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, February 13, 2014

कालाधन के दम पर ही चलती है कालाधन के खिलाफ जिहाद करने वालों की सारी राजनीति

कालाधन के दम पर ही चलती है कालाधन के खिलाफ जिहाद करने वालों की सारी राजनीति

कालाधन के दम पर ही चलती है कालाधन के खिलाफ जिहाद करने वालों की सारी राजनीति

अगर हम आम जनता के खिलाफ एकाधिकारवादी कॉरपोरेट राज के खिलाफ हैं तो रिलायंस के खिलाफ मुकदमे से हमें क्यों परेशान होना चाहिए?

अरविंद केजरीवाल और आम आदमी की पार्टी की राजनीति और उनका भविष्य चाहे कुछ भी हो, भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के तहत उन्होंने पहली बार कोई ठोस पहल की है।

पलाश विश्वास

इस पर आगे चर्चा से पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बतौर माले नेता जिस अखिलेंद्र प्रताप सिंह को करीब तीन दशक से हम जानते रहे हैं, उनसे गुजारिश है कि हमारे अग्रज और वैकल्पिक मीडिया के पुरातन सूत्रधार आनंद स्वरूप वर्मा की अपील मानकर वे अपना अनशन तुरन्त तोड़ दें। सारी माँगें जायज होने के बावजूद इस राज्यतन्त्र से सुनवाई की उम्मीद नहीं है। चौदह साल से लगातार आमरण पर चल रही इरोम शर्मिला का मामला हमारे सामने हैं। आगे लोकसभा चुनाव के बाद इस देश में बदलने वाली आर्थिक नीतियों के तहत कम से कम  तीस फीसद जनता के सफाये का जो खुला एजेण्डा है, उसके मुकाबले राष्ट्रव्यापी जनपक्षधर मोर्चा के निर्माण का कार्यभार हमारे सामने है। ऐसे में असंवेदनशील सत्ता से न्याय की उम्मीद रखकर अखिलेंद्र जैसे साथी के आमरण अनशन का हमें औचित्य समझ में नहीं आ रहा है। उनकी सेहत और वक्त का तकाजा है कि वे हम सबकी अपील पर ध्यान दें।

अब याद करें, दिवंगत लौह महिला इंदिरा गांधी की कृपा से सारे नियम ताक पर रखकर रिलायंस समूह को देश की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी बनाने की कथा।

जिनकी याददाश्त कमजोर है या जो नई पीढ़ी के लोग हैं, उनके लिये मुंबइया फिल्म गुरु का दर्शन ही बताने को काफी है कि कैसे मुकेश अंबानी का साम्राज्य गढ़ा गया।

कृपया दिमाग पर जोर डालें और याद कर लें कि सत्तर और अस्सी के दशक में अंबानी समूह के अनियमित उत्थान के विरुद्ध राजनीति और मीडिया में क्या क्या भूचाल आया था। जिस व्यक्ति ने तब तमाम घोटालों का राज खोलकर खोजी पत्रकारिता के कीर्तिमान और मानक स्थापित किये थे, याद करें कि भारतीय नवउदारवादी अश्वमेध के तहत वे देश के पहले विनिवेश मंत्री बने और देश बेचो अभियान की शुरुआत भी उन्होंने ही की।

तब जो लोग अंबानी और रिलायंस के खिलाफ सबसे मुखर थे, वे तमाम लोग और राजनीतिक दल केंद्र और राज्यों में सत्ता में आकर रिलायंस के खिलाफ खामोशी बनाये रखी और इंदिरा गांधी के खिलाफ रिलायंस के मुद्दे पर जमीन आसमान एक करने वाले वे तमाम लोग किस हद तक पालतू हो गये, इतिहास के पन्ने पर तमाम नोट दर्ज हैं। पुराने अखबारों की फाइलें पलट कर देख लें।

मुख्यधारा की राजनीति को न अबाध पूँजी प्रवाह से कोई विरोध है और न जनसंहार की नीतियों की आलोचना करते रहने के बावजूद सर्वदलीय सहमति और समन्वय से उन्हें लागू करने के लिये कायदे कानून और संविधान तक बदल डालने में कभी कोई हिचक हुयी हो तो बतायें। नस्ली भेदभाव के तहत देश भर में टुकड़ा-टुकड़ा विदेश बनाकर उनके खिलाफ खुली युद्धघोषणा के तहत मनुष्यता, प्रकृति और पर्यावरण के सर्वनाश के कॉरपोरेट उपक्रम में साझेदार सारे विशुद्ध रक्त के धर्मोन्मादी पवित्र लोग साझेदार हैं।

कालाधन के खिलाफ जिहाद करने वाले लोग सामाजिक, मीडिया, रक्षा, संचार से लेकर खुदरा कारोबार तक विदेशी प्रत्यक्ष विनिवेश के पैरोकार हैं।

कालाधन के खिलाफ जिहाद करने वालों की सारी राजनीति कालाधन और कॉरपोरेट पूँजी के दम पर ही चलती है।जो समता और सामाजिक न्याय का अलाप करते रहते हैं वे भी अलग-अलग दुकानें चलाकर अस्मिता और पहचान की राजनीति की तरह ही सत्ता में भागेदारी के गणित के तहत कॉरपोरेट सत्ता वर्ग में शामिल हैं।

केन्द्र में काबिज राष्ट्रीय दलों के अलावा राज्यों में सत्तारुढ़ क्षत्रपों की सारी क्रान्ति सांप्रदायिक जातीय ध्रुवीकरण के तहत देश को तोड़ने और आम जनता को लहूलुहान करते रहने की मुहिम में तब्दील हैं और इनके तमाम राष्ट्रीय नेता बेहिसाब संपत्ति और कालेधन के अंबार पर बैठे हैं।

पहले यह साफ कर दें कि हम आम आदमी पार्टी या अरविंद केजरीवाल के समर्थक नहीं हैं और न उनके भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में हम कहीं हैं।

चुनाव में जो भी सरकार बनती है, वह खुल्ला बाजार की कॉरपोरेट सरकार ही होती है और जनादेश का कोई संवैधानिक आधार है ही नहीं क्योंकि जनता के बदले आदेश कॉरपोरेट सत्ता के होते हैं। मौजूदा व्यवस्था में सरकार चाहे वामपंथियों की बनें या चाहे समाजवादी या अंबेडकरी नीले झंडे की, चाहे प्रकाश कारत या बहन मायावती या इकानामिक टाइम्स में पेश नया खिलाड़ी वामन मेश्राम या ममता बनर्जी या मुलायम सिंह यादव या फिर अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री बन जाये, कुछ भी फर्क नही पड़ने वाला। 1991 से लगातार अल्पमत सरकारें एक के बाद एक जनविरोधी राष्ट्रविरोधी नीतियाँ और कानून पास करके लोकतंत्र और कानून के राज को अप्रासंगिक बनाते हुये, संविधान की रोज हत्या करते हुये आर्थिक नीतियों की निरन्तरता बनाये रखते हुये फर्जी आँकड़ों और फर्जी संकट तैयार करके कृषि, कृषि जीवी भारत के बहुसंख्य जनगण और जनपदों का कत्लेआम करती रही हैं।

आगे यह सिलसिला और खतरनाक होने वाला है।

नमोमय भारत के बिना भी देश की सत्ता अमेरिकी औपनिवेशक गुलामी है, नस्लभेदी है, जनसंहारक है, सांप्रदायिक और धर्मोन्मादी है। इसीलिये हम नरेंद्र मोदी को रोककर किसी और लाने की बात भी नहीं कर रहे हैं। लेकिन सच यह है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व को विदेशी पूँजी, विदेशी निवेशकों, बहुराष्ट्रीय निगमों, इंडिया इंकारपोरेशन और कॉरपोरेट मीडिया का पुरजोर समर्थन है।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी नमोमय भारत के पक्षधर हैं और मोदी के भाषण के सीधे प्रसारण से अपनी जायनवादी विश्वव्यवस्था को साध रहे हैं। जो लोग मोदी को गुजरात नरसंहार मामले में कटघरे में खड़े कर रहे थे, वे तमाम लोग मोदी को क्लीन चिट देने से अघा नहीं रहे हैं।

सार्वजनिक तौर पर नमो का विरोध और गुपचुप नमों से चुनाव परवर्ती समझौते की रणनीति आज की राजनीति है।

राष्ट्रव्यापी जनांदोलन का ख्वाब दिखाकर जो बहुजन संगठन महापुरुषों और संतों का नाम जापते हुये बहुसंख्य जनता से माल पानी एकत्रित करते रहे हैं और मसीहाओं के लिये बेहिसाब अकूत संपत्ति एकत्रित करते रहे हैं, उनका समूचा राष्ट्रव्यापी नेटवर्क और उनके हजारों स्वयंसेवी नमोमय बन चुके हैं और खासकर उत्तर भारत में नमो सुनामी के आयोजन में जुट गये हैं।

गौर करने वाली है कि अब तक साफ हो चुका है कि अब नमोमय भारत निर्माण के रास्ते में एकमात्र बड़ी बाधा आम आदमी पार्टी है, जिसके बारे में देशभर में आम जनता गोलबंद होने लगी हैं अस्मिताएं तोड़कर।

दिल्ली पुलिस के खिलाफ धरने और अपने मंत्रियों के बचाव के लिये जो मीडिया आम आदमी पार्टी को कांग्रेस को खारिज करते हुये दूसरा विकल्प बताने से अघा नहीं रही थी, रातोंरात वह उसके विरुद्ध हो गया और नये सिरे से नमो सुनामी की रंग बिरंगी तैयारियों में जुट गया।

जब आप का खेल खत्म ही समझा जा रहा था तभी आम आदमी पार्टी ने शहादत की मुद्रा अख्तियार करके भारत देश के सबसे बड़ी शक्ति से टकराने की ऐतिहासिक युद्ध घोषणा कर दी है। जो लोग अब तक कालाधन निकालने की बात कर रहे थे, जो लोग अर्थ संक्ट, मुद्रास्फीति और मंहगाई की दुहाई देकर कांग्रेस को खारिज करके खुद को विक्लप बता रहे थे, उन्हें तो अगर अपनी घोषित विचारधारा के प्रति तनिक ईमानदारी होती तो कांग्रेस और कॉरपोरेट भ्रष्टाचार के विरुद्ध इस मुहिम का खुल्ला समर्थन कर देना था। लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे हैं।

मुरली देवड़ा और मोइली कांग्रेस के पूर्व और वर्तमान तेलमंत्री हैं, जिनके खिलाफ संसद में सारे विपक्षी दल हंगामा करते रहे हैं। अब जब उन्हें अंततः कटघरे में खड़ा करने की पहल हो ही गयी है, तो भ्रष्टाचार और कालाधन के खिलाफ धर्मोन्मादी नैतिक मुहिम चवलाने वालों के पेट में मरोड़ क्यों उठ रहा है। इस पर विचार करने की बात है।

हम भी मानकर चल रहे थे कि आम आदमी पार्टी कॉरपोरेट राज और कॉरपोरेट भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ ही नहीं सकती। लेकिन उन्होंने ऐसा करके हमारे आकलन को गलत साबित कर दिया है और खास तौर पर इससे नमो सुनामी की हवा पंक्चर हो जाने की नौबत आ गयी है, तो ईमानदारी, नैतिकता, राजनीति और रणनीति हर दृष्टि से हमें इस पहल का स्वागत करना ही चाहिए।

मैं कोलकाता से बाहर था। टीवी देख नहीं रहा था। नेट पर नहीं था। कल रात हमारे डायवर्सिटी मित्र एचएल दुसाध ने देर रात फोन करके बताया कि दिलीप मंडल जी चिंतित हैं कि अब तो देश आरक्षणविरोधी एनजीओराज के हवाले हो जायेगा। दिलीप मंडल और चंद्रभान प्रसाद के लिये खुल्ला बाजार बहुजनों के लिये स्वर्ण युग है। कॉरपोरेट राज के खिलाफ उनका कोई मोर्चा नहीं हैं। उनकी चिंता जायज है।

लेकिन मुझे डायवर्सिटी मसीहा दुसाध जी की चिंता पर थोड़ी हैरत हुयी और मैंने उनसे पूछ ही लिया कि जब कांग्रेस या भाजपा या स्वार्थी मौकापरस्त कॉरपोरेट गुलाम तमाम लोगों के सत्ता में आने से हमें कोई चिंता नहीं हैतो केजरीवाल के सत्ता में आने से क्या फर्क पड़ने वाला है?

देश की बहुसंख्य जनता तो देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत पार्टीबद्ध होकर खण्डित हैं ही और उनकी बुनियादी समस्याएं जस की तस हैं, तो हमारी प्राथमिकता अलग अलग दलों, संगठनों, पार्टियों में कैद तमाम लोगों को एकताबद्ध करने की होनी चाहिए न कि खुद पार्टीबद्ध नजरिये सा देश काल परिस्थितियों का आकलन करना चाहिए।

अगर हम आम जनता के खिलाफ एकाधिकारवादी कॉरपोरेट राज के खिलाफ हैं तो रिलायंस के खिलाफ मुकदमें से हमें क्यों परेशान होना चाहिए?

दिल्ली में आम आदमी की सरकार की इस कार्रवाई से हम जो लोग देश के संसाधनों को रिलायंस के हवाले कर देने के खिलाफ लगातार लिखते रहे हैं, तेल और गैस की अर्थव्यवस्था पर उंगली उठाते रहे हैं, भारत के तेलमंत्रियों को रिलायंस का गुलाम बताते रहे हैं, उनके ही लिखे कहे की पुष्टि होती है।

अब इस कदम का हम विरोध करें तो कॉरपोरेट राज के खिलाफ, कालेधन के खिलाफ, कॉरपोरेट हित में प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट और जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली के खिलाफ हमारा सारा अभियान मिथ्या है।

विॆख्यात अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्य सेन ने भुखमरी के लिये कहीं भी साम्राज्यवाद या नस्लभेद को जिम्मेदार नहीं माना है। वे मुक्त बाजार के नोबेलमंडित महाप्रवक्ता हैं लेकिन नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री नहीं देखना चाहते। इसके बावजूद वे हिंदू राष्ट्र के एजेण्डा के मुताबिक ही हिंदुत्व के कर्मकांडी भाषा संस्कृत को ज्ञान विज्ञान के लिये अनिवार्य बता रहे हैं।

जिस जयपुर कारपोरट साहित्य उत्सव को लेकर इतना विवाद है, उसका उद्घाटन करते हुये मृत संस्कृत के पुनरात्थान का उनका वक्तव्य आया और बांग्ला अखबार आनंद बाजार में उसके पक्ष में संपादकीय भी छपा। हमने इस पर सीधा सवाल उठाया कि तमिल और गोंड जैसी भाषाओं का देशभर में पठन पाठन क्यों नहीं होना चाहिए। लेकिन इस प्रश्न पर और अमर्त्य बाबू के संस्कृत प्रेम पर सन्नाटा नहीं टूटा है।

बंगाल में परिवर्तन और वाम शासन के पतन को बाकी देश सकारात्मक बताता रहा है। जबकि देश भर में मोदी के पीपीपी माडल को सैम पेत्रोदा के निर्देशन में ममता बनर्जी लागू कर रही हैं। उनके भूमि आन्दोलन की वजह से टाटा समूह को गुजरात ले जाना पड़ा नैनो कारखाना। भूमि आन्दोलन की वजह से ही ममता दीदी सत्ता में हैं और मुकेश अंबानी को भूमि देने में उन्हें कोई परहेज नहीं है। यही नहीं, कोलकाता को रिलायंस के थ्री जी स्पैक्ट्रम के हवाले भी कर दिया दीदी ने। इस नजरिये से देखें तो केजरीवाल की पहल ऐतिहासिक है।

ममता दीदी की पहल पर असंवैधानिक आधार कार्ड को रसोई गैस के लिये नकद सब्सिडी से जोड़ने के खिलाफ बंगाल विधानसभा में सर्वदलीय प्रस्ताव पारित हुआ। लेकिन पेंटागन, नाटो और सीआईए की इनफोसिस और दूसरी कॉरपोरेट कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाली इस बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक निगरानी प्रणाली को रद्द करने की किसी राजनीतिक दल ने अभी तक माँग नहीं की है। इसके उलट फोन टैपिंग और साइबर निगरानी के लिये ममता दीदी कानून बदल रही हैं। आप की जीत के साथ हमने आम आदमी पार्टी सरकार से गैरकानूनी आधार को खारिज करने की अपील की थी।

इनफोसिस को फायदा पहुँचाने की गरज से आधार परियोजना को तहत जो लाखों करोड़ का घोटाला हुआ और नागरिक सेवाएं जो असंवैधानिक तरीके से निलम्बित हुयी तो रिलायंस विरोधी केजरीवाल की जंग के मद्देनजर हमारी तो आम आदमी पार्टी से अपेक्षा है कि वह आधार प्राधिकरण, नंदन निलेकणि और दूसरे निराधार आाधारकॉरपोरेट तत्वों के खिलाफ भी मुकदमे दर्ज करायें।

हम तो अपने वरिष्ठ पत्रकार साथी सुरेंद्र ग्रोवर से शत प्रतिशत सहमत हैं।

ग्रोवर जी ने एकदम सही सवाल दागा है, आप जवाब दें।

क्या कोई बता पायेगा कि अम्बानी ने देश को लूटने के अलावा किया क्या है..? कोई सार्वजनिक हित का काम किया है अम्बानियों ने..?

इस पर नीर गुलाटी ने लिखा है कि यह तो सब जानते हैं कि भारत में भ्रष्ट उद्योगपतियों, नेताओं और अफसरों का गठबंधन हो चुका है और भ्रष्टाचार संस्थगत रूप ले चुका है। अब प्रश्न यह है कि इसका मुकाबला कैसे किया जाये। उनका मत है कि देश भर के ईमानदार समाजिक कार्यकर्ताओं और समाज वैज्ञानिकों को एक मंच पर आने से, और पेशेवर राजनितिक संस्कृति का विकास कर के ही इस समस्या का हल निकला जा सकता है। अब इस पर भी गौर करें।

फिर सुरंद्र जी का अगला सवाल भी मौजूं है। उन्होंने पूछा है

ये संगठित क्षेत्र इतना तिलमिलाया सा क्यों है..?

ग्रोवर जी का तीसरा सवाल भी बेहद प्रासंगिक है, गौर जरूर करें।

रिलायंस कोई विदेशी कम्पनी तो है नहीं फिर उसे डॉलर में भुगतान क्यों कर रही सरकार..?

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...