प्रदेश में सक्रिय जनसंगठनों की एक यात्रा त्रासदी के नौ माह बाद 19 मार्च को शमशेर सिंह बिष्ट के नेतृत्व में जब असीगंगा में पहुंची, तो वहां के दर्जनों प्रभावित गांवों के लिए रास्ते तक नहीं बन पाए थे। हां, बांध परियोजनाओं का काम जोरों पर जरूर चल रहा था। कई बुल्डोजर यहां-वहां नदी को उलटते-पलटते देखे गए। जंगलचट्टी जहां कभी क्षेत्र के लोगों का एक बाजार हुआ करता था, अब वहां पर काली पॉलीथीन की त्रिपाल से ढके दो होटल थे। वहां जमा कुछ स्थानीय लोगों का कहना था 'हम लोगों की आजीविका आलू, राजमा, चौलाई जैसी नगदी फसलों से चलती है। उसको बाजार तक पहुंचाने के लिए सरकार ने एक भी रास्ता ठीक नहीं किया। उल्टा परियोजना निर्माण में लगी कंपनियों को हर स्तर पर मदद की जा रही है। सही मायने में यहां बन रहीं इन तीन परियोजनाओं ने ही हमारी जिंदगी उजाड़ दी है। '
मानवजनित त्रासदी को दैवीय आपदा के सर मढ़कर किसी भी सत्ता प्रतिष्ठान को अपने जनविरोधी कर्मों से बच निकलने में आसानी होती है। मुख्यधारा का मीडिया भी पूंजीपतियों की हितैषी सरकार के सुर में सुर मिलाकर सरकारी विज्ञापनों के जरिये होने वाली कमाई को पक्का कर लेता है। केदारनाथ की त्रासदी पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा दो बातें बड़े जोर-शोर से कह रहे हैं। एक, यह दैवीय आपदा है, जिसमें परियोजनाओं का कोई योगदान नहीं है। दूसरा, अपने कार्यकाल में मैंने कोई भी परियोजना स्वीकृत नहीं की है। जबकि सच्चाई यह है कि 2010 से उत्तराखंड में लगातार आ रही आपदा पहाड़ों के प्रतिकूल हो रहे विकास का परिणाम है, जिसके शिकार अब यहां के मूल बाशिंदे होने लगे हैं। हमें शुक्रगुजार होना चाहिए उच्च न्यायालय नैनीताल का, जिसने 11 जुलाई 2011 को उत्तराखंड की किसी भी जलविद्युत परियोजना पर पर्यावरणीय एवं जनजीवन पर पडऩे वाले प्रभाव का गहन अध्ययन किए बिना स्वीकृति दिए जाने पर रोक लगा दी थी। यही कारण है कि विजय बहुगुणा किसी भी परियोजना को कारपोरेट घरानों एवं माफिया के हाथों बेचने में अभी तक नाकाम रहे हैं।
उच्च न्यायालय नैनीताल के उक्त आदेश के खिलाफ उत्तराखंड सरकार तभी सर्वोच्च न्यायालय चली गई थी। मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित होने के बावजूद राज्य सरकार ने केदारनाथ की त्रासदी से पहले सरयू नदी सहित छत्तीस परियोजनाओं के टेंडर आमंत्रित कर दिए और उनमें तीस से अधिक परियोजनाएं देश के कई कारपोरेट घरानों को आवंटित कर दीं। हाल में आई आफत को लेकर एक चर्चा जोरों पर है कि अगर यह त्रासदी केदारनाथ में न आकर, जिसमें देशभर के अधिकांश मध्य वर्गीय लोग शिकार हुए और सारे देश के बड़े नेता इससे प्रभावित हुए हैं, उत्तराखंड के किसी अन्यत्र क्षेत्र में आती, तब क्या इस घटना को इतना ही मीडिया कवरेज मिलता? तब क्या इतनी मुस्तैदी से हमारी केंद्र सरकार फौज की सेवाएं लेती?
ऐसा नहीं लगता कि वहां कोई फौज पहुंचती। मीडिया भी अपनी पूरी बहस त्रासदी के कारणों की पड़ताल पर कम, दैवीय आपदा पर ज्यादा केंद्रित करता। इसके पीछे का मूल कारण है विकास के नाम पर लूट का जो एक बड़ा तंत्र खड़ा किया गया है, हर हाल में उस तंत्र और उसकी पूंजी की सुरक्षा का सवाल राज्य सरकार के सामने ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। देशभर में जितने लालची लोग हैं, उनकी नजर उत्तराखंड की प्राकृतिक संपदा पर लगी है। उनके लालच को जिंदा रखने की गारंटी केंद्र और राज्य सरकार दोनों की है। टिहरी बांध के बारे में एक आम धारणा है कि इसने कांग्रेस और भाजपा के साथ देश की कई राजनीतिक पार्टियों को कई सालों तक चुनाव लड़वाया है। इसी तरह की गारंटी, यहां हो रहे विकास के नाम पर लगने वाली पूंजी, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय पार्टियों को देती आई है।
उत्तराखंड बनने से पहले यहां के मूल निवासियों की तीन मांगें रही हैं। स्कूल/कॉलेज, सड़क और अस्पताल। इसी को ये अपना विकास भी मानते थे। उत्तराखंड में बेसिक स्कूल से लेकर महाविद्यालय तक सारे भवन दानभूमि पर ही बने हैं। यही स्थिति अस्पतालों की भी है। आज सरकारी स्कूलों में अध्यापक तो हैं, मगर वे विश्व बैंक या केंद्र तथा राज्य सरकार द्वारा थोपे गए गैरशिक्षण कामों के संपादन में लगे हैं। लोगों की दानभूमि पर जो स्कूल भवन खड़े किए गए हैं वे बच्चेविहीन हैं। समझदार लोगों ने अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए गांव छोड़ दिए हैं। उनके बच्चे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्कूलों में पढ़ रहे हैं या फिर पूंजीपतियों के स्कूलों में।
सड़क यहां के लोगों की दूसरी महत्त्वपूर्ण मांग रही है। विकट भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यह मांग पूरी करने में भी उदारीकरण के दौर से पहले सरकारों की बहुत रुचि नहीं रही है। भाजपानीत गठबंधन के सत्ता में आने के बाद अचानक सरकार का सड़क प्रेम उमड़ पड़ा। वाजपेयी सरकार ने जहां देश के महानगरों को जोडऩे के लिए चतुर्भुज सड़क परियोजना शुरू की, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों के लिए प्रधानमंत्री सड़क परियोजना के तहत इसे अमली जामा पहनाया जाने लगा। उन दिनों उत्तराखंड के साथ देशभर में रातोंरात कई सड़क निर्माण कंपनियां अस्तित्व में आईं। 'शाइनिंग इंडिया' का नारा जोर-शोर से हवा में उछाला गया। यह अलग बात है कि 2004 के आम चुनाव में देश की समझदार जनता ने भाजपा को अंधेरे कोने में धकेल दिया।
कांग्रेसनीत गठबंधन के अस्तित्व में आने के बाद उसने विकास के नाम पर सड़क निर्माण और पूंजीपतियों द्वारा की जाने वाली संसाधनों की लूट के तंत्र को आगे बढ़ाया और भाजपा के मुख्य एजेंडे को ही लागू किया। 'शाइनिंग इंडिया' की जगह 'भारत उदय' का नारा लोगों तक पहुंचाया गया। 'भारत उदय' में भी सड़कों के निर्माण पर जोर दिया गया। विकास के नाम पर सड़क निर्माण के पीछे पंूजीपतियों का जो मुख्य दबाव रहा है, उसके मूल में है ग्रामीण क्षेत्र में फैला विशाल बाजार। आज पहाड़ के गांवों में जहां-जहां सड़कें गईं, उसने दो बड़े काम हुए हैं। एक तो ग्रामीण स्तर पर लगने वाले हाट/ मेले खत्म हो गए और दूसरा, दूरस्थ क्षेत्र के सभी छोटे-बड़े बाजारों एवं गांव की दुकानों तक पेप्सी, कोका कोला, बोतलबंद पानी के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सामान धड़ल्ले के साथ पहुंचने लगा।
गांवों में इसके जो सबसे प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिल रहे हैं। उनमें जंगलों का कटान, लीसा दोहन के साथ छोटी-बड़ी बांध परियोजनाओं का निर्माण बड़े अवैज्ञानिक ढंग के साथ वैध-अवैध तरीके से होना शामिल है। इसके साथ ही जल माफिया, भू माफिया, वन माफिया और भगवावेशधारी धर्म माफिया काफी तेजी से पनपने लगे। उनकी पहुंच तराई की उपजाऊ जमीन से लेकर मध्य हिमालय के उच्च शिखरों तक आसानी से हो गई। बांध निर्माण के साथ बड़े आश्रम और पंचतारा सुविधाओं वाले होटल बनाये जाने लगे। लूट का तंत्र तेजी के साथ विकसित हुआ और गुणात्मक गति से गांव के संसाधनों की लूट होने लगी। जिसने भी इसका विरोध किया, वह सत्ता के निशाने पर रहा और उसका 'माओवादी' आदि के नाम से घोर उत्पीडऩ किया गया, जो आज भी बदस्तूर जारी है।
गांव के आम आदमी का सड़क से सिर्फ इतना भला हुआ कि आवागमन का साधन आसान होने से रोजी-रोटी की तलाश या स्वास्थ्य और शिक्षा के नाम से उस सड़क से वह बाहर निकला, तो फिर वापस गांव नहीं गया। 2011 में किये गए एक सर्वे से इसकी पुष्टि होती है। प्रदेश के सबसे महत्त्वपूर्ण जिले अल्मोड़ा और पौड़ी की आबादी में काफी गिरावट दर्ज की गई है। गांव में बचे लोग भी गांव छोड़कर राज्य के पहाड़ी क्षेत्र में उग आए छोटे-बड़े बाजारों में आकर रहने लगे हैं। उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद इस राज्य की सरकारों ने सबसे पहले जो काम किया, वह दूरस्थ कस्बों में शराब की दुकान खोलने का था। लोग शराब की दुकानों का ज्यादा विरोध न करें, इसके लिए स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे शराब माफिया पैदा किए गए। उनको दुकानें आवंटित की गईं। ग्रामीण स्तर पर छोटे-बड़े समारोहों में शराब पीने-पिलाने का जो प्रचलन निकल पड़ा है, उससे एक नई शराब संस्कृति खड़ी हो गई है। शराब की लत के मारे अधिकांश समझदार लोग अब सरकार और पंूजीपतियों के जनविरोधी एवं प्रकृति विरोधी विकास के खिलाफ खड़े नहीं होते।
पर्यटन प्रदेश के नारों के साथ खड़े हुए इस प्रदेश में बदरीनाथ और गंगोत्री नेशनल हाईवे को और चौड़ा करने के लिए काफी उच्च क्षमता वाले ब्लास्ट का खूब इस्तेमाल हो रहा है। पहाड़ों में बांध निर्माण के लिए बन रही सुरंगों में भी काफी बड़े ब्लास्ट किए जा रहे हैं। गांव के आम आदमी के संसाधनों, पर्यवरण और जिंदगी खतरे में डाल दी गई है। इससे ये नाजुक पहाड़ कितने कमजोर हो रहे हैं, इस बात को न तो कोई सरकार सुनने को तैयार है और न ही दारू के नशे में मस्त स्थानीय छुटभय्ये नेता, दलाल, ठेकेदार और गांव के प्रधानों को इसकी चिंता है।
इनके लालच की सबसे ज्यादा शिकार यहां की नदियां हो रही हैं। जलविद्युत परियोजनाओं के बारे में कहा जाता है कि यह 'हींग लगे न फिटकरी, रंग निकले चोखा' वाला धंधा है। एक बार पूंजी लगा दो, उसके बाद नदी को चूसते रहो। लालच इतना है कि लेखा एवं महानियंत्रक परीक्षक (कैग) ने 2010 की अपनी रिपोर्ट में कहा है कि उत्तराखंड में कई कंपनियां ऐसी हैं जिनका विद्युत परियोजना निर्माण क्षेत्र में कोई अनुभव नहीं है। वे भी वहां बांध निर्माण में लगी हैं। कैग आगे कहता है कि जब कोई कंपनी बांध निर्माण के लिए केंद्रीय सरकार से स्वीकृति लेती तो निर्धारित मानकों के तहत लेती है। उसके बाद कंपनियां अपनी मर्जी से उसकी क्षमता को बढ़ा देती हैं।
इसका ठोस उदाहरण स्वस्ती पॉवर इंजीनियरिंग लिमिटेड कंपनी की फलेड़ा में बनी जलविद्युत परियोजना है। कंपनी की डीपीआर और पर्यावरण आकलन रिपोर्ट 11.5 मेगावाट थी पर उसने ठीक 22 मेगावाट का निर्माण किया। जब ग्रामीणों ने इसका विरोध किया तो उनका भीषण उत्पीडऩ किया गया और उनको पांच बार नई टिहरी तथा हरिद्वार की जेलों में बंद कर दिया गया। दूसरा उदाहरण जीवीके कंपनी द्वारा निर्माणाधीन श्रीनगर जलविद्युत परियोजना का है, जिसने हाल की बाढ़ में आधे श्रीनगर कस्बे को कीचड़ से भर दिया थाप। यह 220 मेगावाट की जगह 330 कर दी गई है। जीवीके का मालिक हजारों ग्रामीणों की जिंदगी से खिलाड़ कर अपनी शर्तों पर उत्तराखंड सरकार को हांक रहा है।
विद्युत परियोजनाओं से होने वाले मुनाफे को नीचे दिए जा रहे चार्ट के माध्यम से समझ सकते हैं। इसको मुनाफे एवं लालच के आंकड़़े भी कह सकते हैं। अभी राज्य सरकार कंपनियों से 3.9 रुपए प्रति यूनिट के हिसाब बिजली खरीदती हैै।
केंद्र सरकार से भी इन कंपनियों को अच्छा अनुदान मिलता है। उसके मानक एक मेगावाट पर एक करोड़ रुपया है। एक मेगावाट से अधिक परियोजनाओं पर हर मेगावाट दस लाख तक की अनुदान राशि निश्चित कर दी गई है। यानी पचास मेगावाट की परियोजना पर केंद्र सरकार 50.90 करोड़ का अनुदान देती है।
हाईड्रो पॉवर सेक्टर में लगी कंपनियों को दूसरा फायदा क्यूटो प्रोटोकाल में क्लीन डवलपमेंट मैकेनिज्म (सीडीएम) के तहत अंतरराष्ट्रीय बाजार से मिलता है। एक अनुमान के अनुसार हाईड्रो पॉवर से चलने वाली एक मेगावाट की टरबाईन अगर चौबीस घंटे तक चलती है, तो वह 12 टन कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में छोडऩे से बचाती है। इस हिसाब से 24 घंटे में उसको 12 कार्बन प्वाइंट मिलते हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक कार्बन प्वाइंट की कीमत 15 यूरो तक है। एक माह में कुल 360 प्वाइंट एक मेगावाट हाईड्रो पॉवर प्रोजेक्ट को मिलते हैं। इस हिसाब से एक साल में 4, 320 प्वाइंट होते हैं, जिसकी कीमत 3, 02, 400 रुपए तक जाती है। वैसे कार्बन प्वाइंट की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में घटती-बढ़ती रहती है।
एक मेगावाट जलविद्युत परियोजना का खर्च औसत छह से आठ करोड़ के बीच आता है। जितनी बड़ी परियोजना होगी, उसका खर्च उतना कम होता जाएगा। कोई भी जलविद्युत परियोजना अपने सारे खर्चों को काटकर ढाई से तीन साल के बीच अपनी पूरी लागत वसूल कर लेती है। उसके बाद तो उसको कमाना ही कमाना है, क्योंकि इसमें कच्चे माल का मामला भी नहीं रहता है। अपने इस लालच के लिए ये लोग केदारनाथ क्या, पूरे प्रदेश को भी खतरे में डालने से गुरेज नहीं करेंगे।
विद्युत परियोजना के साथ तमाम तरह के उद्योगों को लगाने के लिए सरकारों ने बैंकों द्वारा इनके लिए बहुत अच्छे कर्ज की व्यवस्था की हुई है। इस प्रजातांत्रिक देश में पूंजीपतियों के लिए सरकार द्वारा हर तरह की बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध करायी गई हैं। जहां गरीब आदमी पांच हजार का लोन न चुका पाने पर जेल भेज दिया जाता है, फिर भी अगर वह लोन नहीं चुका पाया तो उसकी सारी संपत्ति कुर्क कर दी जाती है और उसके परिवार को बड़ी जिल्लत के साथ चौराहे पर भूखों मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, वहीं विद्युत परियोजनाओं के निर्माण में लगी कंपनियों के साथ देश के तमाम उद्योगपतियों को प्रतिवर्ष 5.80 लाख करोड़ रुपए की टैक्स में छूट दी जा रही है।
राज्य एवं केंद्र सरकार दोनों खुद को दोषमुक्त करने के लिए उत्तराखंड की इस आपदा को दैवीय आपदा कहकर पल्ला झाड़ रहे हैं। वे परियोजनाओं की बंदरबांट में मिलने वाली नगद हिस्सेदारी को इस मानवजनित त्रासदी को दैवीय आपदा के सर मढ़कर सुरक्षित करना चाहती हैं। वे इसे प्राकृतिक आपदा कहने से तक बच रहे हैं। शब्दों का खूब खेल चल रहा है। आगे भी पहाड़ और इसमें आबाद जिंदगी पूंजीपतियों, राजनेताओं, माफिया और भ्रष्ट नौकरशाहों के षड्यंत्र का शिकार होने जा रहे हैं।
केदार की त्रासदी में अधिकांश दैनिक समाचारपत्रों का विश्लेषण करें तो मरने वालों की तादाद 18, 000 से ऊपर जा रही है। उत्तराखंड सरकार मृतकों की संख्या कम से कम बताने की कोशिश कर रही है। उसकी मंशा भी यहां का आम आदमी बेहतर तरीके से जानता है कि केंद्र तथा विभिन्न स्रोतों से मिलने वाली अरबों की राहत राशि को ठिकाने लगाने के तरीके ऐसे ही निकाले जा सकते हैं। क्योंकि इस तरह के हादसों से जहां सारा देश दुख और गम में डूब जाता है, वहीं इस राज्य में एक कौम ऐसी पैदा हो गई है जो इस प्रकार की आपदा का बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा करती है। जितने लोग मौत के गाल में समाएंगे, उनके चेहरे की चमक उतनी तेज हो जाती है।
वर्ष 2010 के बाद से इनके चेहरों में चमक कुछ ज्यादा ही देखी जा रही है। इस बिरादरी में ग्रामीण क्षेत्र के कुछ पटवारियों से लेकर सचिवालय के कुछ प्रमुख सचिव और ब्लॉक के कुछ ग्राम पंचायत अधिकारियों से लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय तक के लोगशामिल हैं। वैसे इस बिरादरी के कुछ लोगों ने पहाड़ के विकास के नाम पर आम आदमी को लूटने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी है। प्राकृतिक आपदा में लोगों के मरने पर तो इनकी कमाई दुगनी हो जाती है।
आम आदमी के बीच एक सवाल जो सबसे ज्यादा चर्चा में है कि अगर समय पर फौज नहीं आती तो क्या होता? क्या इतनी जानें बच पातीं? प्रदेश की पुलिस ने भी इस वक्त फौज के दबाव में ठीक काम किया है। फौज नहीं होती, तो जो काम नेपाली मूल के मजदूरों ने लाशों को लूटने का किया (यह समाचार पत्रों में छपा समाचार था, जो जरूरी नहीं सच ही हो। ), उस काम को यहां की पुलिस बखूबी अंजाम दे रही होती। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यहां के नीति नियंताओं ने जैसा विकास किया है, उसके परिणाम पहाड़ में 2010 से दिखने लगे हैं। इस बार की भीषण आपदा को छोड़कर इन तीन सालों में कुल 680 जानें गई हैं। इतने लोगों की जान जाने के बाद इस राज्य में नेताओं, अफसरों और माफिया का राहत राशियों का गिद्धभोज तो हो रहा है, लेकिन हादसों को रोकने के लिए इन्होंने कोई नीति नहीं बनाई।
मेगा. | दर | आर/पीपी | राशि | घंटे | राशि | दिन | राशि | महीने | वर्ष |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
1 | 3.9 | 3900 | 3900 | 24 | 93600 | 30 | 2808000 | 12 | 33696000 |
10 | 3.9 | 3900 | 39000 | 24 | 936000 | 30 | 28080000 | 12 | 842400000 |
20 | 3.9 | 3900 | 78000 | 24 | 1872000 | 30 | 56160000 | 12 | 673920000 |
30 | 3.9 | 3900 | 117000 | 24 | 2808000 | 30 | 84240000 | 12 | 1010880000 |
40 | 3.9 | 3900 | 156000 | 24 | 3744000 | 30 | 112320000 | 12 | 1347840000 |
50 | 3.9 | 3900 | 195000 | 24 | 4680000 | 30 | 140400000 | 12 | 1684800000 |
60 | 3.9 | 3900 | 224000 | 24 | 5616000 | 30 | 168480000 | 12 | 2021760000 |
70 | 3.9 | 3900 | 263000 | 24 | 6312000 | 30 | 189360000 | 12 | 2272320000 |
80 | 3.9 | 3900 | 302000 | 24 | 7248000 | 30 | 217440000 | 12 | 2609280000 |
90 | 3.9 | 3900 | 341000 | 24 | 8184000 | 30 | 245520000 | 12 | 2946240000 |
100 | 3.9 | 3900 | 380000 | 24 | 9120000 | 30 | 273600000 | 12 | 3283200000 |
150 | 3.9 | 3900 | 525000 | 24 | 12600000 | 30 | 378000000 | 12 | 4536000000 |
200 | 3.9 | 3900 | 720000 | 24 | 17280000 | 30 | 518400000 | 12 | 6220800000 |
250 | 3.9 | 3900 | 915000 | 24 | 21960000 | 30 | 658800000 | 12 | 7905600000 |
300 | 3.9 | 3900 | 1110000 | 24 | 26640000 | 30 | 799200000 | 12 | 9590400000 |
350 | 3.9 | 3900 | 1305000 | 24 | 31320000 | 30 | 939600000 | 12 | 11275200000 |
400 | 3.9 | 3900 | 1500000 | 24 | 36000000 | 30 | 1080000000 | 12 | 12960000000 |
450 | 3.9 | 3900 | 1695000 | 24 | 40680000 | 30 | 1220400000 | 12 | 14644800000 |
500 | 3.9 | 3900 | 1890000 | 24 | 45360000 | 30 | 1360800000 | 12 | 16329600000 |
नोट: जितने मेगावाट के प्रोजेक्ट बनते हैं, कोई विद्युत परियोजना उतना उत्पादन नहीं करती। एक मेगावाट का प्रोजेक्ट अधिकतम 800 किलोवाट ही विद्युत उत्पादन कर सकता है।
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